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रामदेव व्यापारी हैं बाबा नहीं

पहले योग फिर कारोबार करने वाले रामदेव ‘बाबा’ के मुखौटे में विशुद्ध व्यापारी है. खरबों रुपए के ढेर पर बैठे इस योगगुरु को यह कामयाबी योग के दम पर नहीं बल्कि कारोबार के जरिए मिली है. कई तरह की हेरफेर के चलते कानूनी मुश्किलों से घिरे रामदेव भविष्य में कानूनी शिकंजे से बचने के लिए किस तरह सियासी दलों में सेंध लगा रहे हैं, पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव के लेख में.

नवंबर महीने के तीसरे हफ्ते में उत्तराखंड सरकार द्वारा हरिद्वार में योगगुरु रामदेव और उन के संस्थानों के खिलाफ 23 मामले और दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते में 11 मामले दर्ज किए गए. तब तिलमिलाए रामदेव की प्रतिक्रिया हमेशा की तरह यही थी कि यह सब सोनिया गांधी के इशारे पर हो रहा है. इस तरह की प्रतिक्रिया की आम और खास सभी लोगों को अपेक्षा थी जिस का सार यह है कि अगर नरेंद्र मोदी या दूसरा कोई भाजपाई नेता प्रधानमंत्री होता तो एक हिंदू योगगुरु के संस्थानों पर छापा मारने की जुर्रत कोई राज्य या केंद्र सरकार न करती. महज इसलिए रामदेव चाहते हैं और हाड़तोड़ मेहनत भी कर रहे हैं कि कैसे भी हो, केंद्र और सभी राज्यों में भाजपा की सरकारें हों.

इन छापों का सच क्या था, इस से पहले संक्षिप्त में यह समझ लेना जरूरी है कि बारबार सोनियाराहुल गांधी को कोस कर रामदेव साबित क्या करना चाहते हैं और उन का असल मकसद क्या है? दरअसल, रामदेव दूसरे कई बाबाओं की तरह बड़े कारोबारी हैं. कारोबारी होना हर्ज या एतराज की बात नहीं पर कर चोरी करना, जमीनों के सौदों में हेरफेर करना और राजस्व न चुकाना, ये जरूर एतराज की बातें हैं, जिन पर से आम लोगों का ध्यान बंटाते रामदेव, सोनियाराहुल पर दोष मढ़ते रहते हैं. मंशा यह जताना रहती है कि चूंकि वे हिंदू हैं, योगगुरु हैं इसलिए विदेशी मूल की सोनिया गांधी को यह रास नहीं आता. नतीजतन, परेशान करने के मकसद से उन के यहां छापे पड़वाए जाते हैं.

लोगों के दिलोदिमाग में सच का हजारवां हिस्सा भी न आ जाए, इस बाबत रामदेव क्याक्या बोल चुके हैं, ये हर कोई जानता है. अक्तूबर के आखिरी हफ्ते में तो वे सारी हदें तोड़ते इंदौर में योग और क्रोध के संबंध को भुला कर यह तक कह चुके थे कि कांग्रेस उन्हें हत्या, ड्रग और सैक्स रैकेट जैसे मामलों में फंसाना चाहती है. इसी दिन उन्होंने कांग्रेस को हार का श्राप तक दे डाला था. उन दिनों रामदेव के भाई रामभरत पर अपहरण का एक आरोप लगा था.

बात सच भी है कि इस लोकतांत्रिक देश में योगगुरु रामदेव या उन का भाई होना ही एक गैरमामूली बात है. इन में से किसी पर कोई कानूनी कार्यवाही या जुर्म किए जाने पर भी आपराधिक मामले की कार्यवाही की जानी भी गैर लोकतांत्रिक है. इसलिए रामदेव ने उसी दिन यह भी कहा था कि एक खानदान ने सारे देश को बंधक बना रखा है. यह लोकतंत्र का मजाक है.

सार यह कि अगर रामदेव को सीधेसीधे गैरकानूनी तरीकों से कारोबार करने दिया जाए, उन के संस्थानों व कंपनियों पर छापे न मारे जाएं और उन की पूजा की जाती रहे तो ही देश में लोकतंत्र है वरना नहीं. सभी को चौंकाते इसी दिन रामदेव ने नरेंद्र मोदी को भी घमंडी कहा था, यह दरअसल, भड़ास और कुंठा के अलावा भगवा खेमे को धौंस भी थी कि यदि मेरा पैसा व समर्थन चाहिए तो छापों और भाई की गिरफ्तारी का विरोध करो, नहीं तो सत्ता नहीं मिलने दूंगा. यह दीगर बात है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों को बाबाओं की ऐसी धमकियों और उन की सचाई का ज्यादा पता है, इसलिए वे इन बाबाओं का इस्तेमाल तो करते हैं पर उन से एक हद के बाद ज्यादा खौफ नहीं खाते.

छापे और कारोबार

उत्तराखंड सरकार ने जो 85 मामले रामदेव के खिलाफ दर्ज किए उन में स्टांप चोरी के 54, खरीदफरोख्त में शर्तों के उल्लंघन के 23, सरकारी जमीनों पर कब्जे के 3 और रिवीजन से संबंधित 5 थे.

एक अंदाजे के मुताबिक, रामदेव का साम्राज्य 15 हजार करोड़ रुपए का है जो जाहिर है अकेले योग से बनाना कतई मुमकिन नहीं. रामदेव खाद्य पदार्थों, सौंदर्य सामग्री और आयुर्वेदिक दवाइयों सहित दूसरे विभिन्न तरह के उत्पादों का कारोबार भी करते हैं. ये कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़े. बाबा के भक्तों ने तो इन उत्पादों को खरीद कर इस्तेमाल करना शुरू किया ही, साथ ही आम लोग भी इन्हें खरीदने लगे.

बीते 3 सालों में रामदेव के उत्पादों की बिक्री में हजारगुने से भी ज्यादा इजाफा महज इस मानसिकता के चलते हुआ कि चूंकि ये उत्पाद एक धर्मगुरु द्वारा बनवाए हुए हैं, इसीलिए धर्मग्रंथों में वर्णित चमत्कारों की तरह पूरे नहीं तो थोड़ेबहुत तो असरकारी होंगे ही.

3 साल पहले जब भोपाल जैसे ‘बी’ श्रेणी के शहर में रामदेव के पतंजलि योग पीठ की महज एक दुकान, दवाखाना, गोदाम या बिक्री केंद्र, जो भी कह लें, एमपी नगर, जोन 1 में हुआ करता था. मांग बढ़ी तो शहर के विभिन्न इलाकों में दर्जनों दुकानें खुल गईं और जल्द ही किराने की दुकानों में भी बाबा के उत्पाद बिकने लगे.

इस प्रतिनिधि ने कोई हफ्तेभर लगातार रामदेव के उत्पादों के खरीदारों और विक्रेताओं से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि चूंकि ये उत्पाद आखिरकार एक धार्मिक संस्थान में निर्मित हो रहे हैं, इसलिए गुणवत्ता वाले तो होंगे ही.

इन लोगों यानी ग्राहकों को छापों से कोई सरोकार नहीं था, न ही इस बात से मतलब था कि रामदेव का भाई नितिन त्यागी नाम के कर्मचारी के अपहरण, गालीगलौज और उसे बंधक बनाए रखे जाने के जुर्म में गिरफ्तार हुआ था. उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि रामदेव के हरिद्वार स्थित पतंजलि होस्टल से दिल्ली की एक छात्रा, जो बीए योग में पढ़ रही थी, गायब हो गई थी.

प्रचार का माध्यम बनते भक्त

किसी नामी कंपनी की तरह रामदेव ने योग के बाद हलदी, गरममसाला, च्यवनप्राश, टूथपेस्ट, मंजन और ब्यूटी क्रीम भी बेचना शुरू कर दिया. ऐसे लगभग 200 उत्पादों की रोजाना बिक्री करोड़ों रुपयों की है. बिक्री बढ़ाने के लिए रामदेव को कहीं विज्ञापन, प्रचार, प्रसार की जरूरत नहीं पड़ी उन के भक्त ही प्रचार का माध्यम बने.

इन उत्पादों की गुणवत्ता को भी ले कर गुरु रामदेव शक के दायरे में हैं. 16 अगस्त, 2012 को उत्तराखंड के खाद्य सुरक्षा विभाग ने रामदेव के दिव्य योग मंदिर से रामदेव की कंपनियों द्वारा निर्मित खाद्य पदार्थों के नमूने जांच के लिए लिए थे. तब रामदेव, उन के समर्थक और भाजपाई तिलमिलाए थे कि यह ज्यादती है, कांग्रेसी साजिश है पर हकीकत में देश के विभिन्न राज्यों के खाद्य सुरक्षा विभागों ने 2 दर्जन से भी ज्यादा नोटिस रामदेव की कंपनियों को दे रखे हैं.

साफ है कि रामदेव और कंपनियों में कोई फर्क किसी भी स्तर पर उत्पादों और कारोबार के मामले में नहीं है. रामदेव हड़कंप महज इसलिए मचाते रहे हैं कि इन उत्पादों को धर्म और आस्था की आड़ में खरीदा जाता रहे. ये उत्पाद सस्ते नहीं हैं, इस बाबत खरीदारों का कहना है कि ऐसा इन का असली और दुर्लभ जड़ीबूटियों से निर्मित होने के चलते होगा.

इन सब के बाद भी रामदेव कहें कि वे कारोबारी नहीं, तो यह ठगी नहीं तो और क्या है. कारोबार करते हैं तो खुद को कारोबारी स्वीकारने का नैतिक साहस उन में क्यों नहीं है?

पैसा कमाने के लिए रामदेव ने हर शहर में एक वैतनिक वैद्य भी नियुक्त कर रखा है जो उन की महंगी दवाइयां बिकवाता है. कहीं यह वैद्य कभी अलग हो कर खुद की दुकान न चलाने लगे यानी खुद प्रैक्टिस न करने लगे, इसलिए 2-3 साल में उस का स्थानांतरण कर दिया जाता है.

दवाइयों से भी करोड़ोंअरबों कमाने वाले रामदेव कभी छाती ठोक कर दावा किया करते थे कि तमाम साध्य और असाध्य बीमारियों का इलाज वे केवल योग से कर सकते हैं जो खुद उन्होंने ही आयुर्वेद के व्यापार से मिथ्या साबित कर दिया. योग की पोल सामने है कि सारा ड्रामा पहले भक्त बढ़ाने के लिए किया गया था जो अब ग्राहक हो कर पैसा दे रहे हैं.

और भी हैं सच

आम लोगों की जेब और सेहत से संबंध रखती ये बातें रामदेव से जुड़े विवादों और आर्थिक साम्राज्य के सामने काफी बौनी हैं पर हैं महत्त्वपूर्ण क्योंकि बाबा अपना घड़ा भरने के लिए बूंदबूंद की कीमत जानते हैं.

रामदेव हमेशा विवादों में रहे हैं और उन पर कई गंभीर आरोप भी हैं. साल 2006 में पतंजलि योगपीठ की स्थापना रामदेव के साथसाथ शंकरदेव, भूपेंद्र सिंह ठक्कर, साध्वी कमला, जीवराज पटेल और बालकृष्ण नाम के लोगों ने मिल कर की थी. हरिद्वार स्थित इस आश्रम की सारी जमीनजायदाद तब आचार्य शंकरदेव के नाम पर थी. वर्ष 2006 से पहले तक यहां गरीब लोग आ कर रहा और ठहरा करते थे.

देखते ही देखते हैरतअंगेज तरीके से रामदेव इस के मुखिया बन बैठे और दूसरे 3 साथियों का आज कहीं अतापता नहीं. रामदेव की कारगुजारियों से त्रस्त आचार्य कर्मवीर त्यागपत्र दे कर गायब हो गए तो साध्वी कमला को जबरन आश्रम से भगा दिया गया. रामदेव के गुरु शंकरदेव के रहस्यमय ढंग से लापता होने पर सीबीआई जांच चल रही है.

चंद सालों में ही योग का प्रचारप्रसार करतेकरते रामदेव काफी दौलतमंद, रसूखदार और इतने लोकप्रिय हो गए कि उन से जुड़े इन कारनामों पर परदा डल गया. पर रामदेव को मालूम था और मालूम है कि पुराने पाप कभी भी सिर उठा सकते हैं. कानून किसी को बख्शता नहीं, इसलिए उन्होंने पहले सोनिया गांधी को प्रभाव में लेने की कोशिश की पर वे झांसे में नहीं आईं तो बचाव के लिए वे नरेंद्र मोदी के मुरीद होने का वैसा ही स्वांग करने में लगे हैं, जैसा कभी आसाराम किया करते थे.

प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की एक गोपनीय रिपोर्ट में रामदेव द्वारा विदेशों में किए गए करोड़ों के लेनदेन का जिक्र है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, रामदेव के 5 ट्रस्टों में से एक अमेरिका और एक ब्रिटेन में भी है. विदेश में ही कहीं रामदेव का एक टापू भी है.

आरोपों से घिरे रामदेव

ईडी की रिपोर्ट के मुताबिक, रामदेव की पतंजलि आयुर्वेदिक लिमिटेड ने 2009 से 2011 के बीच कुल 20 करोड़ रुपए का सामान विदेशों से मंगाया. आस्था चैनल का नाम हर धर्मपे्रमी भारतीय जानता है और श्रद्धालु इसे देखते भी हैं पर इन लोगों को भी नहीं मालूम कि क्यों रामदेव ने इस चैनल को चलाने वाली कंपनी वैदिक ब्रौडकास्ंिटग लिमिटेड को 4 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की राशि भेजी थी. यह राशि पतंजलि आयुर्वेद ने भारतीय निवेश और परामर्श शुल्क नाम से भेजी थी. इस में से कुछ व्यवसायिक, तकनीकी शुल्क के नाम से भी भेजी गई.

उल्लेखनीय है कि वैदिक ब्रौडकास्ंिटग का संचालन रामदेव के दाहिने हाथ आचार्य बालकृष्ण करते हैं. यहां गुत्थी इतनी भर है कि जब घी खिचड़ी में ही जाना था यानी पैसा अपने पास ही रहना था तो उसे डौलर और पौंड में तबदील करने की जरूरत क्या थी?

इस के पहले उत्तराखंड के बिक्री कर विभाग ने रामदेव की हरिद्वार में लक्सर स्थित पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड से दवाओं से भरे कई ट्रक पकड़े थे जिन्हें बगैर कर चुकाए ले जाया जा रहा था. टैक्स चोरी के मामले में भी रामदेव की कंपनियां अव्वल हैं, ऐसे कई मामले उजागर हुए हैं जिन में उल्लेखनीय उन की दिव्य फार्मेसी पर 5 करोड़ रुपए की कर चोरी का आरोप है जिस की जांच चल रही है.

कब चेतेंगे हम

महत्त्वाकांक्षी रामदेव अपना कारोबार बढ़ाने के लिए अमेरिका की मशहूर मल्टीनैशनल पैकेजिंग कंपनी टे्रटा से भी करार कर चुके हैं. हालफिलहाल इस करार के तहत, आंवला कोल्ड ड्रिंक बाबा की दुकानों से बेचा जा रहा है पर जल्द ही सभी फलों का रस बेचा जाएगा. योग की वास्तविकता की तरह स्वदेशी के नाम पर रामदेव ने लोगों के साथ छल ही किया है.

इन तमाम अनुबंधों और लिखापढ़ी में रामदेव की कंपनियां तो हैं लेकिन खुद को उन्होंने कानूनी और तकनीकी तौर पर दूर रखा है क्योंकि वे जानते हैं कि गाज कभी भी गिर सकती है.

रामदेव बिलाशक खरबपति हैं पर योग के नहीं, कारोबार के दम पर हैं. भविष्य में कानूनी शिकंजे से बचने के लिए वे चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाएं.

दरअसल, देश के लोगों की कमजोरी है कि जो ‘बाबा’ इश्तिहार और मीडिया के प्रचार के जरिए लोकप्रिय होने लगता है, उसे महान संत या तपस्वी की तरह पूजते वे सिर पर बैठा लेते हैं और हकीकत जब बड़े पैमाने पर खुल कर सामने आती है तो बजाय सबक लेने के, कोई दूसरा ‘बाबा’ पैदा कर उसे हीरो बना लेते हैं. आसाराम और उन के बेटे नारायण साईं का सच सामने है. गिरफ्तारी से पहले उन का यह सच कोई कहता तो उसे झूठा, नास्तिक, धर्म और संस्कृति का दुश्मन करार दे दिया जाता.

अपनी मेहनत की कमाई धर्म के नाम पर बाबाओं, उन के उत्पादों और दवाइयों पर जब तक लोग लुटाते रहेंगे तब तक जरूर लोकतंत्र और संस्कृति खतरे में रहेगी और धर्म का कारोबारी चेहरा चमकता, दमकता व गरजता रहेगा. 

बच्चों के मुख से

दीवाली मनाने के लिए मेरे बेटेबहू व दोनों पोतियां बेंगलुरु से भोपाल आए थे. छोटी पोती श्रेया 5 वर्ष की है. हम सब बातों में मशगूल थे. श्रेया को व्यस्त रखने की गरज से मैं ने उसे पुराना एलबम दे दिया, जिस में मेरे बेटे यानी श्रेया के डैडी के बचपन के फोटो लगे हुए थे.
उन चित्रों को देख कर वह आश्चर्यचकित थी कि उस के डैडी कभी इतने छोटे भी थे. तभी अचानक उस ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘मम्मी, देखो डैडी डस्टबिन में खड़े हैं.’’ एक पल के लिए तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया लेकिन दूसरे पल सभी के मुंह पर मुसकराहट आ गई.
बात उस समय की है जब मेरे बेटे यानी श्रेया के डैडी ने किसी चीज को पकड़ कर खड़ा होना और थोड़ाथोड़ा चलना सीखा था. एक बार फोटो खींचते समय एक गोल स्टूल, जो डमरू के शेप का था, को उलटा कर के उस में उसे खड़ा कर दिया था. उस स्टूल के लिए डस्टबिन जैसा शब्द चुनना श्रेया की सचमुच मौलिक सूझ थी.
मधुरिमा सिंगी, भोपाल (म.प्र.)
 
मेरी बेटी 4 साल की है. प्यारीप्यारी बातें करती रहती है. एक दिन मैं उस के साथ बाजार गई व वापसी के समय मैं ने 2 कप आइसक्रीम खरीदी. मैं ने एक कप आइसक्रीम बिटिया को खाने के लिए दे दी. चलतेचलते उस ने अपनी आइसक्रीम खा ली. थोड़ा आगे चलने पर वह बोली, ‘‘मम्मी, आइसक्रीम जंकफूड होता है. इस के खाने से दांतों में कैविटी हो जाती है. आप ऐसा करें कि जो आइसक्रीम आप के पास है, आप उसे नहीं खाना. कहीं आप को कैविटी न हो जाए. इसलिए आप इसे भी मुझे दे दीजिए क्योंकि मेरे दांतों में तो कैविटी पहले ही हो रही है.’’
मैं उस की प्यारी बात सुन कर हंसे बिना न रह सकी.
शिखा मलिक, विकासपुरी (नई दिल्ली)
 
मेरा 4 वर्षीय बेटा तेजस नटखट और बहुत ही हाजिरजवाब है. जब वह बोलता है तो मेरे पति का गुस्सा फौरन काफूर हो जाता है. इसी बात पर मैं ने एक दिन उन्हें गुस्से में कहा, ‘‘आप बहुत जल्दी पिघल जाते हैं.’’
इस पर वहीं खड़े मेरे बेटे ने पापा से पूछा, ‘‘पापा, तुम बर्फ हो क्या?’’ उस के पापा ने तुरंत कहा, ‘‘नहीं.’’ जवाब सुन कर तेजस तुरंत बोला, ‘‘फिर तुम पिघल कैसे जाते हो?’’
उस की बात समझ में आते ही हम ठहाका लगाए बिना न रह सके.
निशा सिन्हा, माल्या (प.बं.)

भारत भूमि युगे युगे

कश्मीर का कटोरा
जम्मूकश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बोलने और रहनसहन की अपनी खास मौलिक शैली है जब वे बोलते हैं तो लगता है कि जीभ होंठों के बीच में कहीं दबी है और कोई गुलाम अली गजल गा रहा है. पर उमर अब गातेगाते चिल्लाने लगे हैं. वजह, नरेंद्र मोदी हैं जिन की पहुंच नहीं, बल्कि दृष्टि इतनी व्यापक हो गई है कि उन्हें कश्मीर भिखारी राज्य नजर आने लगा है जो हर वक्त केंद्र के सामने कटोरा लिए खड़ा रहता है.
पर असल बात निर्धनता या लोकतांत्रिक भिक्षा नहीं, बल्कि धारा 370 और कश्मीर की शांति है. इस बाबत उमर की पीठ थपथपाई जा सकती है. अब यह तो मोदी की मोतियाबिंदी नजर है जो पीठ के बजाय पेट की बात ऐसे कर रही है मानो गुजरात केंद्र से सहायता नहीं मांगता हो, बल्कि उलटे उसे देता हो. 
इशारा साफ है कि अगर मोदी का दिवास्वप्न पूरा हो पाया तो सब से पहले कश्मीर की इमदाद खत्म करना उन की प्राथमिकता रहेगी.
 
टौयलेट रीडर
गोआ के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर शौचालय में पढ़ते हैं यह बात खुद उन के मुंह से जान कर किसी को खास हैरत नहीं हुई क्योंकि आजकल अधिकांश लोग शौचालय में ही साहित्य सेवन करते हैं. पर्रिकर की इस बात से जरूर सहमत हुआ जा सकता है कि वह इकलौती जगह है जहां आप अबाध यानी बेरोकटोक पढ़ सकते हैं. बैडरूम और ड्राइंगरूम को टीवी निगल गया है, ऐसे में लोगों के पास वाकई सुकून वाली इकलौती जगह शौचालय बची है जहां वे पढ़ने का अपना शौक पूरा कर सकते हैं.
शौचालय में पढ़ने को अब भारतीय अन्यथा नहीं लेते. वजह, बदलती जीवनशैली है और छोटे होते घरों में बंधक बने रहने के एहसास से आजादी भी है. जरूरत इस बात की है कि शौचालय पाठकों को प्रोत्साहित करने के लिए कोई अभियान चलाया जाए पर इस से पहले सर्वेक्षण करना जरूरी है कि कितने प्रतिशत भारतीय टौयलेट रीडर हैं.
 
अरविंद दर्शन
एक अमेरिकी पत्रिका द्वारा जारी की गई सूची में आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल का नाम दुनिया के 100 शीर्ष विचारकों में 32वें नंबर पर शामिल हो गया है. ईमानदारी शब्द ही इतना बेईमान हो गया है कि उस पर लोग भगवान सरीखा भरोसा करते हैं जो होते हुए भी नहीं है और नहीं होते हुए भी है. यानी विश्वास करना ऐच्छिक है, अनिवार्य नहीं. पहले अरविंद केजरीवाल ने ज्यादा चिंतनमनन किया होगा, ऐसा लग नहीं रहा. वे बुद्ध जैसे सैकड़ों दार्शनिकों की तरह सालभर दिल्ली की गलियों की खाक छानतेछानते विचारकों की श्रेणी में शामिल हो गए पर अच्छी बात यह है कि वे अपनी तरफ से कोई नया सिद्धांत नहीं थोप रहे. किसी दर्शन का न होना भी अपनेआप में एक दर्शन ही दर्शनशास्त्री मानते हैं.
 
बात और धौंस
विश्व हिंदू परिषद के मुखिया प्रवीण तोगडि़या बोलते नहीं हैं, उन का लहजा ही धौंस सरीखा लोगों को लगता है. इन दिनों तोगडि़या नरेंद्र मोदी के पीछे हाथ धो कर पड़ गए हैं. कभी भी वे गुजरात के हिंदुओं पर अत्याचार की बात करते हैं तो दूसरे ही दिन बयान दे डालते हैं कि नरेंद्र मोदी को मंदिर मुद्दे पर अपना रुख साफ करना चाहिए.
नरेंद्र मोदी चौतरफा दबाव में हैं और आगे भी रहेंगे. हिंदूवादी संगठनों की हिंदुत्व और मंदिर निर्माण की बातों पर खामोश रहना उन की राजनीतिक मजबूरी है क्योंकि सच बोलेंगे तो कांग्रेसी हल्ला मचाने लगेंगे.
जाहिर है, 2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों को ले कर हिंदूवादी संगठन या तो अतिआत्मविश्वास के शिकार हैं या आश्वस्त ही नहीं हैं. नरेंद्र मोदी बेचारे 2 पाटों के बीच पिसते शायद यही सोचते रहेंगे कि इस से तो बेहतर गुजरात ही था. 
 

चिटफंड कंपनियों पर मेहरबान ममता

पश्चिम बंगाल में सारदा चिटफंड का हादसा हुए भले ही अरसा हो गया हो लेकिन राज्य की ममता सरकार की एक स्वीकारोक्ति ने सियासत में इन फर्जी कंपनियों की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं. आखिर ममता बनर्जी इन चिटफंड कंपनियों पर मेहरबानी क्यों दिखा रही हैं, पड़ताल कर रही हैं साधना शाह.

पश्चिम बंगाल इन दिनों चिटफंड रूपी बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है जिस में कभी भी विस्फोट हो सकता है. चिटफंड कंपनियों का अस्तित्व वाम जमाने में भी था. लेकिन अब ये कंपनियां पहले से कहीं अधिक सक्रिय हैं और बड़े पैमाने पर फलफूल भी रही हैं. बल्कि अब तो ज्यादातर ऐसी फर्जी कंपनियां अपना चरित्र बदलने के जुगाड़ में लग गई हैं. यहां की सारदा कंपनी के कारण आम लोगों की बरबादी का जो ट्रेलर पूरे देश ने देखा है, कभी भी उस की अगली कड़ी पूरे बंगाल में देखने को मिल सकती है. और तब कानून व्यवस्था का मामला गंभीर हो जाएगा.

राज्य में सैकड़ों कंपनियां इस फर्जीवाड़े में लगी हैं. लेकिन इन पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही है. वहीं एक तरफ सारदा ग्रुप के मालिक सुदीप्तो सेन बचाव की उम्मीद में मुख्यमंत्री को क्लीन चिट दे रहे हैं, तो दूसरी ओर खुद मुख्यमंत्री ने अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव के मद्देनजर चिटफंड कंपनी से पैसे पाने की बात को मान लिया है.

ममता की स्वीकारोक्ति

बंगाल में पार्टी फंड से ले कर चुनाव खर्च तक का भार चिटफंड कंपनियां उठा रही हैं. बदले में कारोबारी सुकून हासिल करती हैं ये फर्जी कंपनियां. ये सब वाम जमाने में भी हो रहा था और अब भी हो रहा है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में सारदा ग्रुप का बड़ा हाथ रहा है, अब यह जगजाहिर है.

गौरतलब है कि सारदा मामले की सीबीआई जांच की मांग के लिए कोलकाता हाईकोर्ट में एक मामला विचाराधीन है. उधर कुणाल घोष की गिरफ्तारी भी हो गई है. लेकिन गिरफ्तारी से पहले पत्रकार सम्मेलन बुला कर और फिर फेसबुक में कुणाल ने सारदा मामले में ममता बनर्जी, मुकुल राय सहित तृणमूल के 12 मंत्रियों-नेताओं के नाम भी लिए हैं.

अहम बात यह है कि हाल ही में ममता बनर्जी ने एक जनसभा में इस बात को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी कर लिया. हालांकि वे कार्यकर्ताओं को यह कहते हुए नसीहत दे रही थीं कि ‘खाओ, पर जितना जरूरी हो, उतना ही. ज्यादा खा लिया तो हजम नहीं होगा.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘मुझे रुपए की जरूरत नहीं. हजारोंहजार करोड़ रुपए कमाना मेरा मकसद नहीं. इलैक्शन के लिए ‘मिनिमम’ जितने की जरूरत है, उतना होने से ही मेरा काम चल जाएगा.’

अब यहां सवाल उठता है कि तृणमूल सांसद व पत्रकार कुणाल घोष ने क्या ज्यादा ‘खा’ लिया था, इसलिए उन्हें ‘बदहजमी’ हो गई? और यह भी कि इलैक्शन के लिए जरूरी ‘मिनिमम’ रुपए कहां से आए और वह रकम कितनी थी? साफ है, सारदा ग्रुप से. ममता का यह बयान मुख्यमंत्री के दिमागी दिवालिएपन की ओर संकेत करता है.

फर्जीवाड़े की खुली छूट

राज्य में लगभग 125 फर्जी कंपनियां सक्रिय हैं और लगभग 1 लाख एजेंट इन कंपनियों से जुड़े हुए हैं. सारदा कांड के बाद भी इन चिटफंड कंपनियों के खिलाफ अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है. इन का धंधा बदस्तूर जारी है और ऐसा भी नहीं है कि 3-4 सालों में ये कंपनियां स्थापित हुई हैं, बल्कि वाममोरचा शासन काल से ये कंपनियां सक्रिय हैं. और तब वाममोरचे ने भी इन कंपनियों पर लगाम नहीं लगाई.

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वाममोरचा के भी कुछ नेता चिटफंड कंपनियों से व्यक्तिगत रूप से या पार्टी फंड में मोटी रकम लिया करते थे. यह और बात है कि 2010 में ही हवा के रुख के साथ इन कंपनियों ने अपना आका बदल लिया.

यह भी सही है कि वाम जमाने में कई चिटफंड कंपनियों ने पश्चिम बंगाल में अपना कारोबार शुरू किया था. लेकिन आज तृणमूल शासन में वे चिटफंड कंपनियां पूरी तरह से बाकायदा फलफूल चुकी हैं. ऐसी फर्जी कंपनियों में प्रमुख हैं: एमपीएस ग्रुप औफ कंपनीज, पताका ग्रुप, यूरो ग्रुप, वारिस ग्रुप, रोजवैली ग्रुप औफ कंपनीज, प्रयाग ग्रुप, रूपसी बांग्ला, सनशाइन आदि. ये कंपनियां एग्रो से ले कर मनोरंजन, होटल रिसोर्ट व रियल एस्टेट क्षेत्र में सक्रिय हैं. बांग्ला फिल्म उद्योग में चिटफंड का पैसा लगा हुआ है. हाल ही में प्रयाग ग्रुप ने पश्चिम मेदिनीपुर में प्रयाग फिल्मसिटी की स्थापना की और उस का उद्घाटन शाहरुख खान ने किया.

सीआईडी जांच ठंडे बस्ते में

सारदा कांड से 3 साल पहले तृणमूल विधायक, अभिनेता तापस पाल की शिकायत पर सीआईडी की एक टीम चिटफंड कंपनियों की जांच में लगी थी. हालांकि खुद तापस पर भी चिटफंड कंपनी से जुड़े होने का आरोप है. माना जा रहा है कि किसी खुन्नस की वजह से ही तापस पाल ने चिटफंड कंपनी के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी. बहरहाल, अचानक किन्हीं अनजान कारणों से जांच का काम बीच में ही ठंडे बस्ते में चला गया. इस के बाद सारदा कांड का मामला सामने आया.

लेकिन सीआईडी की आधीअधूरी जांच में जो तथ्य निकल कर सामने आया वह यह कि उस समय राज्य में 873 चिटफंड कंपनियां सक्रिय थीं. राज्य सीआईडी की आर्थिक भ्रष्टाचार दमन शाखा ने जांच के दौरान यह भी पाया कि सारदा कांड से 3 साल पहले ही इन कंपनियों ने 3 हजार करोड़ रुपए बाजार से उठा लिए थे. आज वह रकम लगभग 20 हजार करोड़ रुपए हो चुकी है.

एक तरफ सुमंगल नामक चिटफंड कंपनी ‘सब का मंगल’ का नारा दे कर आलू में निवेश के नाम पर उस की जमाखोरी करती चली गई. आलू में निवेश के लिए 2 तरह की स्कीम ले कर आई थी सुमंगल. 1 लाख 20 हजार रुपए के निवेश में 15 महीने में 2 लाख रुपए का रिटर्न और 1 लाख रुपए निवेश पर 15 महीने की अवधि में 1 लाख 40 हजार रुपए रिटर्न का सपना दिखाया. इतना रिटर्न देने की सफाई में कंपनी ने विदेश में आलू निर्यात करने और आलू की कीमत बढ़ने पर इसे कोल्ड स्टोरेज से बाहर निकाल कर खुले बाजार में बेच कर मुनाफा कमाने का भरोसा दिया था. लेकिन 15 महीने बीत जाने पर आलू की पैदावार खराब होने या कम होने की बात कह कर कंपनी टालमटोल करती गई.

सहकारी संस्था का चोला

सरकार की नाक तले अपना धंधा कर रही तकरीबन 125 चिटफंड कंपनियां अपना चरित्र बदलने में लगी हुई हैं. राज्य वित्त विभाग के अधिकारियों का मानना है कि कानूनी लूपहोल का फायदा उठा कर कई चिटफंड कंपनियां सहकारिता की ओर कदम बढ़ा रही हैं.

सारदा कांड के बाद राज्य की बहुत सी चिटफंड कंपनियां अपने कारोबार को वैध बनाने के लिए सहकारी संस्था के रूप में अपनेआप को स्थापित करने में जुट गई हैं.

कोलकाता शेयर बाजार के जानकार रमेश शर्मा का कहना है कि कलैक्टिव इन्वैस्टमैंट स्कीम के तहत किसी प्रोजैक्ट के लिए लोगों से पैसे इकट्ठा करने के लिए सेबी से अनुमति जरूरी है. यह मिलना कठिन होने के कारण ये कंपनियां सहकारी कंपनी के रूप में अपने पैर मजबूत बनाने में लगी हुई हैं. दरअसल, सहकारिता कानून के तहत क्षेत्रीय आधार पर ही मंजूरी की जरूरत होती है.

रमेश शर्मा बताते हैं कि नियमानुसार अगर कोलकाता में सहकारिता की मंजूरी प्राप्त करनी हो तो 10 लोगों की एक समिति संयुक्त रूप से सहकारिता के लिए आवेदन कर सकती है. लेकिन 10 लोगों की समिति में 1500 सदस्यों का होना अनिवार्य है. देखने में आता है कि परिसेवा सहकारी कंपनी के रूप में पंजीकरण करवा कर कंपनियां लोगों से पैसे इकट्ठा करती हैं और उन्हें अपने सदस्य के रूप में पेश कर देती हैं.

सहारा का हवाला देते हुए रमेश शर्मा कहते हैं कि सेबी ने जब सहारा को लोगों से पैसे इकट्ठा करने पर रोक लगा दी तो कंपनी ने अपना चरित्र बदल कर सहकारिता का चोला पहन लिया. वहीं, 2002 के सहकारी कानून के नियमानुसार 4 महीने के भीतर आवेदन अगर खारिज नहीं हुआ तो मान लिया जाता है कि आवेदन स्वीकार कर लिया गया है. अब तक 200 से अधिक आवेदन किए जा चुके हैं. जाहिर है, इसी रास्ते चल कर चिटफंड कंपनियां अपने कारोबार को वैध बनाने की जुगत में हैं.

ममता की दरियादिली पर सवाल

सारदा चिटफंड कांड में बरबाद हुए बहुत सारे निवेशकों ने आत्महत्या कर ली है. इस पर भी राज्य में चल रही इतनी सारी फर्जी कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही करने के बदले मुख्यमंत्री ने दरियादिली दिखाते हुए प्रभावित लोगों के लिए अपने राहत कोष का द्वार खोल दिया.

मुख्यमंत्री के निजी कोष से सारदा ग्रुप के 3 हजार से भी ज्यादा मीडिया कर्मचारियों में से चुनिंदा 168 कर्मचारियों को एकमुश्त 16-16 हजार रुपए दिए गए. इस के अलावा चिटफंड में पैसा गंवाए लोगों को भी मुख्यमंत्री के इसी कोष से रुपए बांटे गए हैं. साथ ही, सारदा मीडिया के अधिग्रहण की भी उन्होंने घोषणा की थी, लेकिन फिलहाल यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया है.

सवाल उठता है कि केवल कुछ कर्मचारियों के प्रति ममता की ऐसी मेहरबानी का औचित्य क्या है? एक चिटफंड कंपनी के मालिकों के बंद हुए चैनलों, अखबारों के पसंदीदा पत्रकारों पर राहत कोष का पैसा मुख्यमंत्री कैसे लुटा सकती हैं?

गौरतलब है कि मुख्यमंत्री राहतकोष का महत्त्व आमतौर पर प्राकृतिक आपदा, गरीब बच्चों का इलाज, शिक्षा में है. पंचायत चुनाव के मद्देनजर प्रचार के मकसद से मुख्यमंत्री ने सारदा ग्रुप के चैनल का जिम्मा उठा लिया. जबकि राज्य परिवहन विभाग की हालत बहुत ही नाजुक है. परिवहन विभाग के कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन नहीं मिल पा रहा है. नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं.

50 फीसदी बसें और ट्राम सड़क से उठा लिए गए हैं. कुल मिला कर आर्थिक रूप से राज्य दिवालिया है, आकंठ कर्ज डूबी है सरकार. राज्य का बजट घाटा बढ़ता चला जा रहा है. बावजूद इन सब के, ममता बनर्जी भ्रष्टाचार के प्रति ममतामयी बनी हुई हैं.

गांव बन रहे हैं मारुति की जीवनरेखा

देश की प्रमुख कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड शहर की सवारी बन कर थक चुकी है. शहर में कारों की बिक्री घट गई है. शहर मंदी की चपेट में हैं. वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही छोडि़ए, जो आर्थिक हालात हैं उन्हें देखते लगता नहीं कि मंदी थमेगी और अगले साल तक भी कारों के बाजार में तेजी आएगी. करीब एक दशक में पहली बार कार बाजार में मंदी दिख रही है और कारों की बिक्री घटी है.

वर्ष 2012-13 की कार बिक्री की इस हालत के 2013-14 में भी बने रहने की आशंका व्यक्त की जा रही है. कंपनी का कहना है कि उस की कारों की बिक्री 70 प्रतिशत से घट कर 64 फीसदी रह गई है. कार बाजार में इस साल 4.5 फीसदी की गिरावट आई है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र मंदी के इस दौर में मारुति के लिए जीवनरेखा साबित हुए. वहां उस की कारों की बिक्री 18 फीसदी बढ़ी है.

गांव की खरीदारी क्षमता से उत्साहित कंपनी इसे गांवों का अपने ऊपर ऋण मान रही है और इस ऋण को चुकाने के बहाने वह ग्रामीण क्षेत्र में अपने लिए और बाजार तलाश रही है. इस के लिए कंपनी ने विशेष योजना बनाई है. वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही तक उस ने 1 लाख गांवों में पहुंचने का लक्ष्य तय किया है.

कंपनी का कहना है कि मंदी के इस शहरी माहौल में देश के गांव उस की जीवनधारा बन कर उभरे हैं. मारुति कंपनी तो गांवों की शक्ति पहचान गई है लेकिन गांव को उस के हाल पर छोड़ने वाली हमारी सरकारों की नींद न जाने कब खुलेगी? राजनेता वोट भर के लिए गांवों की अहमियत समझते हैं. वे उन के विकास को अहमियत नहीं देते. सवाल यह है कि गांव की ताकत से आखिर हम कब परिचित होंगे?

सरकारी मदद पर ट्रकों की सेल

सरकार सड़कों की स्थिति नहीं सुधार पाती है. छोटे रास्तों को तो छोडि़ए, राजमार्गों तक पर भी गड्ढों से मुक्ति नहीं मिलती है. चौड़े बनाए गए राजमार्गों पर भी जाम लगा रहता है. जाम को खोलने के उगाही करने में जुटे पुलिसकर्मियों को फुरसत नहीं होती है.

दिल्ली से लगे राष्ट्रीय राजमार्गों को ही देखें, गाजियाबाद में ही खड़े हो जाइए तो रात को 1 बजे भी जाम मिलेगा. कारण, पुलिस वाले उगाही में लगे रहते हैं और इसी वजह से होने वाली जिरह के कारण ट्रकों की लाइन लग जाती है और मोहन नगर जैसे चौराहे को पार करने में सुबह हो जाती है.

आंकड़े कहते हैं कि पिछले  22 महीनों से लगातार ट्रकों की बिक्री घट रही है जिसे बढ़ाने के लिए सरकार ने सड़क पर ट्रक वालों को तंग करने के उपाय कम करने के बजाय ट्रक का जीवन 15 साल निर्धारित कर दिया है और डेढ़ दशक तक सड़क पर ट्रक चलाने के बाद नया ट्रक खरीदने पर मालिक को 1 लाख रुपए की मदद देने का निर्णय लिया है.

सोचिए, जो ट्रक मालिक 15 साल में मालामाल हुआ है उसे नया ट्रक खरीदने के लिए उपहार सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि नए ट्रकों की बिक्री बढ़े और मोटर वाहन बनाने वाली कंपनियों को फायदा पहुंचे.

साफ है कि दुनिया के 200 देशों की सूची में भ्रष्टाचार के मामले में 95वें स्थान पर रहने वाले भारत के बाबुओं ने यह कदम बिना खाएपिए ईमानदारी से नहीं उठाया होगा. जाहिर है दूसरों को लाभ पहुंचाने की योजना बनाते समय वाहन निर्माण कंपनियों से मोटा पैसा बाबुओं की जेब तक पहुंचा है.

 

खांसी बुखार में स्वास्थ्य बीमा दावे बढ़े

वाणिज्य और उद्योग मंडल यानी फिक्की ने एक सर्वेक्षण कराया है जिस के आधार पर स्वास्थ्य बीमा विजन 2020 तैयार किया गया. रिपोर्ट में कहा गया है कि बढ़ते प्रदूषण और बदलते माहौल को देखते हुए अगले 7 सालों में देश की 80 फीसदी आबादी को स्वास्थ्य बीमा योजना के दायरे में लाया जाना चाहिए. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि हाल के वर्षों में लोगों में भी स्वास्थ्य बीमा के प्रति जागृति आई है और स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम में वृद्धि दर 30 प्रतिशत दर्ज की गई है.

महानगरों में दूषित पर्यावरण तेजी से बढ़ रहा है. छोटे नगरों में प्रदूषण नहीं है. वहां की आबोहवा निर्मल है. वहां स्वास्थ्य सुविधाएं भी नगण्य हैं, फिर भी लोग कम बीमार होते हैं. भीड़भाड़ भी कम है. इस के ठीक विपरीत महानगरों का जीवन प्रदूषण के कारण दूभर होता जा रहा है. लोगों में जुकाम, बुखार, खांसी जैसी सामान्य बीमारियां आम हो रही हैं और इस पर बड़ा पैसा खर्च करना पड़ रहा है.

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इन मामूली बीमारियों पर बढ़ रहे खर्च के कारण लोगों ने स्वास्थ्य बीमा योजना को तेजी से स्वीकार किया है. इसी का परिणाम है कि इन सामान्य बीमारियों के स्वास्थ्य बीमा दावों में पिछले कुछ माह में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद में अप्रैलसितंबर के दौरान पिछले साल के 10 फीसदी की तुलना में स्वास्थ्य बीमा दावों की संख्या बढ़ कर 30 फीसदी हो गई है.

मौसम बदलने व दूसरे कई कारणों से होने वाली सामान्य बीमारियों के आधार पर दावों पर यह आंकड़ा तैयार किया गया है.

 

रिकौर्ड उछाल के बाद अमेरिकी प्रभाव में गिरा बाजार

शेयर बाजार ने 9 दिसंबर को 230 अंकों की उछाल के साथ रिकौर्ड बनाया और बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का संवेदी सूचकांक 21327 अंक तक पहुंच गया. इस की बड़ी वजह विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत को माना गया है.

भाजपा पर निवेशकों के विश्वास की वजह जो भी रही हो लेकिन यह तय है कि मतगणना के बाद भाजपा की जीत से पहले जब टीवी चैनलों पर एक्जिट पोल प्रसारित हो रहे थे तो उस का सीधा असर बाजार पर पड़ा और सूचकांक में भारी उछाल आया. बाद में बाजार लगातार 6 सत्र की गिरावट के बाद 19 दिसंबर को उछल गया. इस के पहले 6 दिन तक बाजार में गिरावट का माहौल रहा. इस की वजह महंगाई के 14 माह के उच्च स्तर पर पहुंचने और अमेरिका में फेड रिजर्व में प्रोत्साहन पैकेज में कटौती की खबर रही. इस के अलावा इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र ने भारत के आर्थिक विकास का पूर्वानुमान 2013 के लिए घटा कर 4.8 प्रतिशत लगाया है. इसी दौरान बैंक कर्मचारियों की हड़ताल हुई जिस के कारण बैंकिंग क्षेत्र के शेयरों में भारी गिरावट दर्ज की गई.

रिजर्व बैंक ने भी अपनी नीतिगत दरों में कोई बदलाव नहीं किया है जबकि उम्मीद थी कि मौद्रिक समीक्षा में ऋण ब्याज दर में कटौती होगी और घर का सपना पूरा करने के लिए ऋण लेने वाले लोगों को कुछ राहत मिलेगी.

 

दार्जिलिंग की फिजा बदलीबदली सी

तेलंगाना को मिले अलग राज्य के दरजे के मद्देनजर क्षेत्रीय नेताओं ने देश के कई हिस्सों में पृथक राज्य की मांग कर के अपनी राजनीति चमकानी शुरू कर दी है. इसी कड़ी में गोरखालैंड का झंडा उठाए वहां के नेता दार्जिलिंग की आबोहवा खराब करने में जुटे हैं. अपने सियासी फायदे के लिए इन इलाकाई नेताओं ने पहाड़वासियों की रोजीरोटी को कैसे अस्तव्यस्त कर रखा है, बता रही हैं साधना.

तेलंगाना को अलग राज्य की मंजूरी मिलने के बाद दार्जिलिंग में अलग गोरखालैंड की मांग उठी और जोरदार तरीके से उठी. इस मुद्दे पर अनिश्चितकालीन बंद आयोजित किए गए. चाय और पर्यटन दोनों उद्योगों पर बंद का असर जो रहा सो रहा, सब से बुरा असर इन दोनों उद्योगों से जुड़े लोगों की आमदनी पर रहा. लेकिन बंद के नाम पर इतना नुकसान कराने के बाद जन मुक्तिमोरचा यानी जमुमो ने एक बार फिर से गोरखालैंड टैरिटोरियल ऐडमिनिस्ट्रेशन यानी जीटीए की कमान संभाल ली है. गौरतलब है कि तेलंगाना के राज्य बनने की तरह गोरखालैंड को अलग राज्य बनाए जाने की मांग करते हुए जमुमो के प्रधान बिमल गुरुंग ने जीटीए से इस्तीफा दे दिया था लेकिन पिछले दिसंबर के आखिरी हफ्ते में एक बार फिर से बिमल गुरुंग ने जीटीए के प्रधान के रूप में शपथ ले ली है.

पहाड़ की जनता सब देख रही है. इन पहाड़ी लोगों ने अलग गोरखा राज्य के लिए बिमल गुरुंग का साथ दिया. अपनी रोजीरोटी की परवा किए बगैर पहाड़ी पुरुष और घर का चूल्हाचौका बंद कर के पहाड़ी स्त्रियां घर से निकल कर सड़क पर उतरीं. पर अब बिमल गुरुंग ने राज्य सरकार के साथ समझौता कर लिया है.

सड़कों पर उतरे पहाड़वासी  

बंद और आंदोलन के दौरान बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए, बहुत सारी हिंसक वारदातें हुईं. वन विभाग के एक दफ्तर को फूंक दिया गया.

जमुमो के महासचिव रोशन गिरि का कहना है कि जहां तक अलग राज्य का सवाल है तो हमारा यह मुद्दा अब भी अपनी जगह बरकरार है. फिलहाल, हम लोग क्षेत्र के विकास में लगेंगे. गोरखाओं की भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए जीटीए भी जरूरी है.

प्रदर्शन, बंद और हड़ताल की वजह से दार्जिलिंग की हवा बदल रही है. इस बदली हवा में आशंका व्यक्त की जा रही है कि हो सकता है सुवास घिसिंग की तरह बिमल गुरुंग भी पहाड़ छोड़ कर जाने को मजबूर हो जाएं.

तेलंगाना को अलग राज्य का दरजा मिल जाने के बाद दार्जिलिंग में ‘एक वक्त की खाएंगे, गोरखालैंड ले कर रहेंगे’ के नारे के साथ कमर कस कर पहाड़वासी सड़क पर उतरे. दार्जिलिंग प्रशासन जीटीए समझौते को ठोकर मार कर इस के तमाम पदों से बिमल गुरुंग समेत जन मुक्ति मोरचा के नेताओं ने इस्तीफा दिया. इस के बाद अनिश्चितकालीन बंद, जनता का स्वत:स्फूर्त कर्फ्यू जैसे कार्यक्रम के साथ आंदोलन जोर पकड़ता गया. नेताओं ने राज्य सरकार के साथ बातचीत करने के बजाय ‘दिल्ली’ को कहीं अधिक तूल दिया पर बात वहां भी नहीं बनी. लेकिन आंदोलन के कारण दार्जिलिंग का उद्योग व जनजीवन लगभग ठप ही है. बिमल गुरुंग आज ऐसे दोराहे पर खड़े हैं कि अब न तो आंदोलन से पांव पीछे करते बन रहा है न अनिश्चितकालीन बंद का वे नया रिकौर्ड बना रहे हैं, और न ही अलग राज्य की दिशा में कदम आगे बढ़ा पा रहे हैं. अब तो बस वे आंदोलन की सलीब ढो रहे हैं.

पहाड़ पर असंतोष

दार्जिलिंग से रोजीरोटी के जुगाड़ में कोलकाता आए जमुमो कार्यकर्ता राम बहादुर छेत्री, जो वहां पर्यटक बसचालक हुआ करते थे, का कहना है, ‘‘गोरखालैंड से अगर किसी को फायदा हुआ है तो वे हैं इस आंदोलन की अगुआई करने वाले नेता. पहले सुवास घिसिंग के पौबारह थे और अब बिमल गुरुंग के. गुरु सुवास घिसिंग को फलताफूलता देख चेले बिमल गुरुंग ने गोरखालैंड आंदोलन की लगाम जब अपने हाथों में ले ली थी तब पहाड़वासियों को बहुत सारे सब्जबाग दिखाए गए थे पर अब बिमल गुरुंग के भी रंगढंग में राजसी बदलाव आ गया है. जबकि पहाड़ में रोजीरोटी की किल्लत से पहाड़वासियों के सब्र का बांध टूट  रहा है.’’

सुवास घिसिंग की चुप्पी

कभी पहाड़ के बेताज बादशाह का दरजा पाने वाले सुवास घिसिंग को 5 साल पहले बाकायदा दार्जिलिंग से खदेड़ दिया गया था. आज तक वे दार्जिलिंग का रुख नहीं कर पाए हैं. यहां तक कि पत्नी के गुजरने के बाद भी दार्जिलिंग में उन्हें पैर रखने नहीं दिया गया था. उत्तर बंगाल के समतल क्षेत्र सिलीगुड़ी का माटीगोड़ा अब उन का ठिकाना है.

गौरतलब है कि 80 के दशक में सुवास घिसिंग की अगुआई में चरम आंदोलन के दौरान 1,200 लोगों की जान गई थी. इस के बाद राजीव गांधी की सक्रियता के नतीजे में सुवास घिसिंग, तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु और तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह के बीच दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद के गठन के लिए समझौता हुआ.

अब जनमुक्ति मोरचा के दिग्गज नेताओं के ठाटबाट और जीवनशैली के प्रति पहाड़वासियों में धीरेधीरे असंतोष फैल रहा है. रोजीरोटी की तलाश में बड़ी संख्या में पहाड़ी लोग दार्जिलिंग, कर्सियांग और कलिंपोंग से निकल कर सिलीगुड़ी व कोलकाता का रुख कर रहे हैं.

80 के दशक में गोरखालैंड आंदोलन के शुरू होने से ले कर दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद यानी डीजीएचसी के गठन तक जितना सुवास घिसिंग फलेफूले थे उतना दार्जिलिंग फलफूल नहीं पाया. इसी का फायदा उठा कर बिमल गुरुंग ने घिसिंग के खिलाफ पहाड़ में हवा बनाई थी और नए सिरे से गोरखालैंड आंदोलन को हवा दी. अब एक बार फिर से स्थिति वहीं चली गई है.

आंदोलन चलाने की मजबूरी

लंबे समय से पहाड़ की राजनीति को करीब से देखने वाले सिलीगुड़ी के वरिष्ठ पत्रकार मणिपुष्पक सेनगुप्ता का कहना है, ‘‘गुरुंग पहाड़ी राजनीति की कड़वी सचाई से अच्छी तरह वाकिफ हैं. अव्वल तो उन्हें इस बात का एहसास है कि पश्चिम बंगाल से दार्जिलिंग को कभी अलग नहीं किया जा सकेगा. दूसरा, पहाड़ी के बेताज बादशाह की बादशाहत चिरस्थायी नहीं है.’’

अब तो बिमल गुरुंग ने राज्य सरकार से समझौता कर लिया है और उन की जीटीए में वापसी को ममता बनर्जी की जीत के रूप में देखा जा रहा है. इस को ले कर पहाड़ी लोगों में असंतोष है. गोरखालैंड को अलग राज्य का दरजा न मिला तो पहाड़ की गद्दी से बेदखल होने में बिमल गुरंग को भी ज्यादा समय नहीं लगेगा. ऐसे में आशंका यह भी बन रही है कि आने वाले समय में उन का भी हाल सुवास घिसिंग जैसा ही न हो.          

सियासी बिसात पर बनते नए समीकरण

आम चुनावों के मद्देनजर बिहार की सियासी बिसात पर नएनए मोहरे अभी से नए समीकरण बिठाते दिख रहे हैं. जेल से बाहर आए लालू प्रसाद जहां कांगे्रस और रामविलास पासवान से गलबहियां करते नजर आते हैं वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी के अंदर पनपते अंतर्विरोध से नहीं निबट पा रहे हैं. गुटबंदी के इस खेल में आम चुनाव में नीतीश का सियासी रथ कहीं अलगथलग तो नहीं पड़ जाएगा, ऐसी आशंका जता  रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

बिहार में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी साथ मिल कर चुनाव लड़ते हैं तो नीतीश और भाजपा दोनों को काफी नुकसान होने की गुंजाइश है. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद को 19 फीसदी, कांग्रेस को 1.0 फीसदी और लोजपा को 1.6 फीसदी वोट मिले थे. राजद के 4 और कांग्रेस के 2 उम्मीदवारों को जीत मिली थी. खास बात यह है कि सूबे की कुल 40 लोकसभा सीटों में राजद को भले ही 4 सीटों पर जीत हासिल हुई पर 19 सीटों पर उस के उम्मीदवार नंबर 2 पर रहे थे. लोजपा के 7 और कांग्रेस के 2 उम्मीदवारों ने नंबर 2 पर रह कर भाजपा और जनता दल (यूनाइटेड) को कांटे की टक्कर दी थी.

राजद, लोजपा और कांग्रेस के वोट मिल कर 22 प्रतिशत के करीब हो जाते हैं. उस चुनाव में 20 सीट जीतने वाली जदयू को 24 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 12 सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा की झोली में 14 फीसदी वोट पड़े थे. पिछले लोकसभा चुनाव के आकंड़ों को देख कर साफ हो जाता है कि अगर राजद, कांगे्रस और लोजपा एकजुट हो कर चुनाव लड़े तो जदयू और भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं और पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें झटक सकते हैं.

वोटरों को रिझाने की कोशिश

चारा घोटाला मामले में लालू यादव के जेल जाने के बाद नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और भाजपा की नजर राजद के वोटबैंक पर टिकी हुई थी और दोनों उस वोटबैंक पर डोरे डालने की जुगत में लगे हुए थे. बिहार के सियासी अखाड़े से लालू यादव के गैरहाजिर रहने का फायदा उठाने के मकसद से नरेंद्र मोदी ने पिछले 27 अक्तूबर को भाजपा की हुंकार रैली के दौरान लालू के पक्के वोटर यादवों को रिझाने की पुरजोर कोशिश भी की.

बिहार के सियासी हलकों में यह हवा चल रही थी कि चारा घोटाला मामले में लालू यादव के जेल जाने के बाद यादव वोटर असमंजस की हालत में हैं. अगर राजद आम चुनाव में बिहार में मजबूत उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारेगा तो यादव जदयू के बजाय भाजपा को वोट देना ज्यादा पसंद करेंगे.

इसी हवा को भाजपा की ओर मोड़ने की कोशिश करते हुए नरेंद्र मोदी ने यादवों को अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश करते हुए कहा था कि यादवों का गुजरात से बहुत बड़ा रिश्ता है. यदुवंश के राजा कृष्ण की नगरी द्वारिका गुजरात में ही है. उन्होंने यादवों पर डोरे डालते हुए कह डाला, ‘मैं द्वारिका से आशीर्वाद ले कर आया हूं और अब आप की (यदुवंशी समाज) चिंता करने का जिम्मा लेता हूं.’

बिहार के 16 फीसदी मुसलिम वोटरों को पटाने के लिए भी नरेंद्र मोदी ने पांसा फेंका था कि बिहार के मुसलमानों से ज्यादा सुखी गुजरात के मुसलमान हैं. इस की मिसाल देते हुए मोदी ने कहा कि मुसलमानों के हज यात्रा पर जाने के लिए केंद्र सरकार ने कोटा तय कर रखा है. गुजरात से 4,800 और बिहार से 7 हजार से ज्यादा का कोटा है. बिहार में हज यात्रा पर जाने के लिए मुश्किल से 6 हजार आवेदन आ पाते हैं जबकि गुजरात में 40 हजार से ज्यादा आवेदन आते हैं. बिहार के मुसलमान गरीब हैं, हज पर जाने के लिए उन के पास पैसा नहीं है. गुजरात के मुसलमान ज्यादा सुखी हैं और तरक्की कर रहे हैं.

लालू यादव के जेल से बाहर आने से बिहार की सियासत की दशा और दिशा के बदलने के पूरे आसार हैं. जेल से छूटते ही लालू यादव ने दिल्ली पहुंच कर कांगे्रस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिल कर चुनावी तालमेल की अटकलों को पक्का कर डाला. लालू के जेल से बाहर आने के तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें फोन कर के हालचाल पूछा था, जिस से लालू का हौसला निश्चित तौर पर बुलंद हुआ है.

कांग्रेस बिहार में नीतीश सरकार को अपना समर्थन दे रही है पर उस की सहानुभूति लालू यादव के साथ दिख रही है. कांग्रेस की इस दोरंगी चाल को देख कर नीतीश कुमार का परेशान होना जायज है. एक ओर कांग्रेस नीतीश सरकार को समर्थन दे रही है तो दूसरी ओर वह लालू यादव की पार्टी से चुनावी तालमेल कर रही है.

एकदूसरे को चाहिए साथ

पिछले लोकसभा में कांग्रेस के साथ हुए चुनावी तालमेल में लालू कांग्रेस को महज 3 सीट देने की जिद पर अड़ गए थे. बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीट हैं और इन में से केवल 3 सीटें कांग्रेस को देने की बात कर लालू ने कांग्रेस जैसी बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी को बेइज्जत कर दिया था. इस बार हवा बदली हुई सी है.

दिल्ली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति होने के बाद कांग्रेस पसोपेश में है और 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाला के सजायाफ्ता होने के बाद लालू भी सियासी मुश्किलों से जूझ रहे हैं, ऐसे में दोनों को एकदूसरे की सख्त जरूरत है और दोनों अपनी पिछली अकड़ को दरकिनार कर संयम से सीटों का बंटवारा करेंगे.

नीतीश के लिए परेशानी यह है कि भाजपा के बाद उसे कोई सियासी दोस्त नहीं मिल पा रहा है और उन के दल के भीतर उठापटक भी शुरू हो गई है.

29 अक्तूबर, 2013 को राजगीर में आयोजित जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और चिंतन शिविर में नीतीश के सामने ही पार्टी के सांसद शिवानंद तिवारी और कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह ने नीतीश के कामकाज के तौरतरीकों की जम कर आलोचना कर डाली. शिवानंद ने कहा कि नरेंद्र मोदी की बढ़ती ताकत की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. उन्हें बेअसर करने के लिए पार्टी को नई रणनीति बनाने की जरूरत है.

शिवानंद के बाद नीतीश के कैबिनेट मंत्री नरेंद्र सिंह ने भी धमाका कर डाला. उन्होंने कहा कि पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार किया जा रहा है. सरकार पर अफसरशाही हावी है और जनप्रतिनिधियों को जलील किया जा रहा है. नरेंद्र सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि मेरी बातों की वजह से उन्हें मंत्री पद से बर्खास्त किया जा सकता है, पर वे डर कर सच बोलना नहीं छोडें़गे.

फिलहाल 4 कांग्रेसी और 4 निर्दलीय विधायकों के बूते चल रही उन की सरकार को कायम रखने के लिए बेइज्जती को चुपचाप बरदाश्त करने के अलावा उन के पास कोई और चारा नहीं है.

उधर, नीतीश कुमार की दगाबाजी के बाद भाजपा भी चुनावी गठबंधन के लिए साथी की तालाश कर रही है, पर उसे कोई साथी मिल नहीं रहा है. कांग्रेस, राजद, लोजपा समेत हर दल भाजपा को सांप्रदायिक करार दे कर उसे सियासी तौर पर पहले ही अछूत बना चुके हैं. हरेक दल का अपना खासा मुसलिम वोट है, जिस के बिदकने के डर से कोई भी दल भाजपा से तालमेल करने से कन्नी काटता रहा है. ऐसे में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अलावा भाजपा से किसी भी दल के हाथ मिलाने के आसार नहीं हैं.

लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो रामविलास पासवान के लिए लोकसभा का चुनाव आर या पार वाली हालत है. वे सभी धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट होने का नारा लगाते हुए 22 फरवरी, 1914 को होने वाली ‘बिहार बचाओ रैली’ को कामयाब बना कर अपनी सियासी ताकत दिखाने की कवायद में लगे हुए हैं. रैली तैयारियों के बहाने गांवगांव घूम कर वे लालू और कांग्रेस के सुर में सुर मिलाते हुए नीतीश सरकार की बखिया उधेड़ रहे हैं.

रामविलास पासवान को तीसरा मोरचा रास नहीं आ रहा है और वे मोरचे में शामिल होने के बजाय राजद से ही चुनावी तालमेल करने की वकालत करते रहे हैं. पासवान चाहते तो हैं कि सभी सैकुलर पार्टियां एकजुट हो कर चुनाव लड़ें, पर तीसरे मोरचे में शामिल होने के नाम पर बिदक जाते हैं. वे अगला लोकसभा चुनाव राजद के साथ ही मिल कर लड़ेंगे. इस के साथ ही वे यह भी साफ करते हैं कि राजद से उन का गठबंधन केवल बिहार में ही है. दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम आदि राज्यों में उन की पार्टी अपने बूते चुनाव लड़ेगी.

नीतीश का जालिमराज

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी नई पार्टी है, जिस का गठन 3 मार्च, 2013 को किया गया है. कभी नीतीश कुमार के करीबी और खासमखास रहे नेता उपेंद्र कुशवाहा की अगुआई में बनी इस पार्टी को भी खड़ा होने के लिए लिए किसी बड़े दल के साथ की दरकार है. नीतीश से खिसियाए उपेंद्र कहते हैं कि बिहार में जंगलराज को खत्म करने के लिए नीतीश के हाथ सत्ता की कमान सौंपी गई थी पर अफसोस है कि नीतीश ने अपनी मनमानी और तानाशाही से जालिमराज कायम कर रखा है.

नीतीश कुमार के दोस्त से सियासी दुश्मन बने उपेंद्र कुशवाहा का दावा है कि सूबे के 4 प्रतिशत कुशवाहा वोट पर उन का कब्जा है. उपेंद्र अपने सियासी दुश्मन नीतीश के दुश्मन भाजपा से दोस्ती कर नीतीश को सबक सिखाने की फिराक में हैं. उन्हें पता है कि वे अकेले अपने बूते लोकसभा चुनाव और 2015 में होने वाले बिहार विधानसभा के चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाएंगे, ऐसे में सियासी गठबंधन के लिए उस के सामने भाजपा के अलावा और कोई चारा भी नहीं है.

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