Download App

पाठकों की समस्याएं

मैं 33 वर्षीय विधवा, 2 बच्चों की मां हूं. हिंदू होते हुए एक 27 वर्षीय मुसलिम लड़के से प्यार करती हूं. हमारे बीच शारीरिक संबंध भी हैं. पर हाल ही में मुझे पता चला है कि वह भी शादीशुदा है और 2 बच्चों का पिता है. इसी बीच, मेरा आकर्षण अपने फेसबुक फ्रैंड की तरफ भी हो रहा है जो उम्र में मुझ से छोटा है. वह भी मुझे प्यार करता है. मेरे बारे में सबकुछ जानने के बाद भी वह मुझ से शादी के लिए तैयार है. मुझे लगता है कि इस नए लड़के के साथ शादी करना पहले लड़के के साथ धोखा होगा पर उस से शादी कर के मैं उस के खुशहाल परिवार को बरबाद नहीं होने देना चाहती. मुझे क्या करना चाहिए?

दरअसल, आप 2 नावों पर सवार हैं. रिश्ते ऐसे भावनाओं में बह कर न तो बनाए जाते हैं न तोड़े जाते हैं. एक पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाने के बाद दूसरे पुरुष की ओर आकर्षित होना आप की कमजोरी को दर्शाता है, जो आप के बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है. 2 बच्चों के पिता से शादी कर आप क्यों उस की गृहस्थी में आग लगाना चाहती हैं. आप के लिए उसे भूल जाना ही बेहतर होगा. जहां तक फेसबुक फ्रैंड से शादी करने की बात है तो ऐसी दोस्ती महज एक छलावा होती है. ऐसे लड़कों का मकसद महज मनोरंजन करना होता है, उन के प्यार में गंभीरता नहीं होती. इसलिए जो भी फैसला लें अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रख कर लें.

*

मैं 58 वर्षीय प्रौढ़ व्यक्ति हूं. एमए करने के बाद भी बेरोजगार हूं. पिछले कई वर्षों से डिप्रैशन का इलाज चल रहा है. बेरोजगार होने व मानसिक रोग के कारण परिवार के लोग उपेक्षा से देखते हैं. पत्नी व 3 बच्चे हैं. पत्नी की तरफ से भी प्यार व सहानुभूति का अभाव है.28 वर्षीय पुत्री विवाह योग्य है. जीवन से निराश हो गया हूं लेकिन आत्महत्या करना सही नहीं मानता. परिवार में केवल छोटी बहन मुझे सम्मान व प्यार देती है. जीवन में अपनों का प्यार व खुशियां कैसे लौटें, राह दिखाइए.

आप की समस्या के मूल में आप का कुछ न करना यानी खाली रहना है. स्वयं को किसी भी सकारात्मक कार्य में व्यस्त कीजिए. परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझिए. जीवन से निराश हो कर हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाना समस्या का समाधान नहीं है. अपनी छोटी बहन की मदद से कुछ काम शुरू कीजिए, आप को परिवार का प्यार व सम्मान अवश्य मिलेगा.

*

मैं 32 वर्षीया विवाहिता हूं. मेरी एक 3 साल की बेटी है. मैं और मेरे पति दोनों कामकाजी हैं. मेरी समस्या का कारण मेरे पति हैं. वे न तो औफिस के कामों में दिलचस्पी लेते हैं न बेटी की कोई जिम्मेदारी उठाते हैं. बेटी का सारा खर्च मैं ही उठाती हूं. पति लगभग सारा दिन घर पर बैठ कर टीवी देखते हैं और मेरे कामों में गलतियां निकाल कर मुझे अपमानित करते रहते हैं, घर से निकल जाने को कहते हैं. सास भी पति का साथ देती हैं और मुझ से चुप रहने को कहती हैं. मैं मातापिता के घर भी नहीं जा सकती क्योंकि वे अस्वस्थ रहते हैं. इस समस्या से कैसे निबटूं, आप ही बताइए?

आप सब से पहले पति व सासससुर के साथ बैठ कर गंभीरता से बात करें. अपनी परेशानी बताएं. अगर वे मदद नहीं करते तो कानूनी कदम उठाने की धमकी भी दे सकती हैं. जहां तक पति के औफिस के कार्यों में दिलचस्पी न लेने की बात है, कोई भी संस्था उन्हें बिना काम के ज्यादा दिन तक नौकरी पर नहीं रखेगी. ऐसी नौबत आए, उस से पहले उन्हें अपनी जिम्मेदारी का एहसास कराइए.  आप के पति आप को क्यों अपमानित करते हैं, इस की वजह जानने की कोशिश कीजिए, हो सकता है आप में कोई कमी हो या आप का व्यवहार उन के प्रति ठीक न हो. आप उन्हें प्यार व मनुहार से मनाने का प्रयास करें. हो सकता है उन का व्यवहार बदल जाए. अगर वे तब भी नहीं सुधरते तो पति के किसी दोस्त या सहकर्मी की मदद ले सकती हैं. घर छोड़ कर हरगिज न जाएं व बेटी के खर्च की जिम्मेदारी भी खुद न उठाएं, पति पर डालें. कब तक वे अपनी जिम्मेदारी से भागेंगे?

*

मैं 32 वर्षीया विवाहिता हूं. मेरा एक 6 वर्षीय बेटा है. प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती हूं. विवाह को 8 साल हो गए हैं. शादीशुदा जीवन ठीकठाक चल रहा है. कुछ दिनों से मेरे औफिस का एक सहकर्मी मुझे अच्छा लगने लगा है. उसे देखना, उस से चैटिंग करना अच्छा लगता है. क्या शादीशुदा होने के बाद किसी के प्रति आकर्षित होना गलत है. इस के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? क्या यह पति के साथ धोखा होगा?

विपरीत लिंगी के प्रति झुकाव स्वाभाविक है. यह एक हद तक मर्यादा में रह कर ही होना चाहिए, पर आप की समस्या को जान कर ऐसा लगता है कि आप समझदार होते हुए भी और सबकुछ समझते हुए भी गड्ढे में गिरने को तैयार हैं. कुछ लोग जब तक किसी के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाते, समझते हैं कि वे परिवार को धोखा नहीं दे रहे जबकि शादी के बाद किसी अन्य के प्रति आकर्षित होना आप की पारिवारिक जिंदगी पर प्रभाव डाल सकता है.

प्यार व आकर्षण में कनफ्यूज न हों. आकर्षण क्षणभंगुर होता है जबकि पतिपत्नी के प्यार में विश्वास व अपनापन होता है. शुरूशुरू का आकर्षण हो सकता है अफेयर तक चला जाए जिस का असर आप की शादीशुदा जिंदगी पर पड़ेगा. अच्छा होगा उस सहकर्मी की तरफ से ध्यान हटा कर परिवार व पति पर ध्यान दीजिए.

जेएनयू मामला – प्यार के फेर में खत्म कर ली जिंदगी

पहले दोस्ती फिर प्यार और बाद में बेवफाई फिर इंतकाम. आकाश और रोशनी के बीच भी ऐसा ही हुआ. भले ही यह प्रकरण नया न हो पर गंभीर जरूर है. यदि समय रहते अभिभावकों और शिक्षा प्रशासन ने इस समस्या का हल न ढूंढ़ा तो इसी तरह बच्चे जिंदगी बनानेसंवारने की उम्र में एकदूसरे की जिंदगी लेते रहेंगे. पढि़ए उग्रसेन मिश्रा का लेख.

साधारण परिवार का 23 वर्षीय आकाश बिहार के गया जिले के मदाड़पुर गांव से एक सपना लिए दिल्ली आया था. उस के मातापिता ने भी उसे बड़े अरमानों के साथ इस उम्मीद में दिल्ली भेजा था कि बेटा पढ़लिख कर अफसर बनेगा. लेकिन मांबाप की उम्मीद धरी की धरी रह गई. उन के सपने टूट गए और आकाश ने उन्हें जिंदगीभर को तड़पने के लिए छोड़ दिया.

नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आकाश सैंटर फोर कोरियन लैंग्वेज ऐंड कल्चर स्टडीज से कोरियाई भाषा सीख रहा था. उस का दूसरा साल पूरा हो चुका था. आकाश की दोस्ती 22 वर्षीय रोशनी कुमारी गुप्ता से हो गई. रोशनी बिहार के ही मुजफ्फरपुर शहर के शंकर नगर इलाके की रहने वाली है जो कैंपस के ही एक छात्रावास में रहती है. पढ़नेलिखने में आकाश अच्छा था और रोशनी साधारण थी. इसलिए आकाश उस की काफी मदद करता था. धीरेधीरे यह दोस्ती प्यार में बदल गई. प्यार के चक्कर में आकाश का रिजल्ट खराब होता चला गया और वह तीसरे साल में नहीं पहुंच सका जबकि रोशनी तीसरे साल में पहुंच गई. इस बीच आकाश परेशान रहने लगा. उस के दोस्तों को लगा कि शायद रिजल्ट खराब होने के कारण वह परेशान रहता है. लेकिन आकाश के दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था. दरअसल, वह प्यार में चोट खाया हुआ था.

31 जुलाई को भाषा संस्थान के कमरा नंबर 213 में 10 बजे सुबह क्लास शुरू हुई. दूसरा पीरियड शुरू होने से पहले आकाश और रोशनी में कुछ बातचीत हुई और कुछ ही पलों में यह बातचीत बहस में बदल गई. जब तक बाकी छात्र कुछ सम?ा पाते आकाश ने बैग से एक देशी पिस्तौल निकाली और हवा में लहराते हुए कहा कि कोई बीच में नहीं आएगा वरना वह गोली चला देगा. रोशनी को यह सब मजाक लगा और उस ने आकाश को धक्का दे दिया. फिर क्या था, आकाश ने अपने साथ लाए बैग में से कुल्हाड़ी निकाली और रोशनी पर ताबड़तोड़ कई वार कर डाले और फिर खुद पर वार कर सल्फास की गोलियां खा लीं. आकाश को औल इंडिया इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज (एम्स) ले जाया गया जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.  रोशनी को सफदरजंग अस्पताल में भरती करा दिया गया जहां वह जिंदगी और मौत से जू?ा रही है.

यह तो तय है कि आकाश की परेशानी रोशनी थी. एक छात्र ने बताया कि रोशनी ने आकाश को भाव देना बंद कर दिया था और अपनी ही क्लास में पढ़ने वाले एक छात्र से उस की दोस्ती बढ़ गई थी. रोशनी उस के साथ ज्यादा समय बिताने लगी थी. यह सब आकाश को पसंद नहीं आया, इसलिए उस ने रोशनी को मारनेका पूरा तानाबाना बुन लिया. आकाश ?ोलम छात्रावास के कमरा नंबर 132 में रहता था. 10×12 के इस कमरे में 2 बैड थे. एक बैड पर आकाश और दूसरे बैड पर लाइफ साइंस का कोर्स कर रहा एक अन्य छात्र रहता था. अब उस छात्र को दूसरे कमरे में शिफ्ट कर दिया गया है.

इस छात्रावास में तकरीबन 350 छात्रों के लिए रहने की व्यवस्था है जिस में 2 बैड वाले और 1 बैड वाले कमरे हैं. विश्वविद्यालय के नियमों के मुताबिक छात्रों को सिंगल और डबल बैड कमरे दिए जाते हैं. इस छात्रावास में कुल 3 फ्लोर हैं. 1 फ्लोर पर तकरीबन 20 कमरे हैं और 9 कमरों पर 1 बाथरूम इस्तेमाल करने का प्रावधान है. डबल बैड कमरे में 2 टेबल और 1 अलमारी भी होती है जो दोनों छात्र इस्तेमाल करते हैं. लाइट और पंखे लगे होते हैं. यदि कोई छात्र कमरे में कूलर लगाना चाहे तो वह अपने पैसे से लगवा सकता है.

एक छात्र ने बताया कि अगर पहले से हस्तक्षेप होता तो आकाश को बचाया जा सकता था. जेएनयू में ?ोलम, सतलुज, पेरिया, कावेरी, नर्मदा माहीमांडवी, ब्रह्मपुत्र छात्रावास लड़कों के लिए जबकि गंगा, कोइना, शिप्रा और गोदावरी लड़कियों के लिए हैं. वहीं साबरमती, ताप्ती, लोहित, चंद्रभागा में लड़के और लड़कियां दोनों रहते हैं. महानदी छात्रावास में शादी- शुदा कपल्स रहते हैं. इन में से कुछेक छात्रावास को छोड़ कर कोई चैकिंग नहीं होती है अगर चैकिंग होती तो आकाश अपने बैग में रख कर पिस्तौल, कुल्हाड़ी या फिर सल्फास की गोलियां ला ही नहीं पाता.

कहने को तो एक छात्रावास में 4 वार्डन की व्यवस्था है पर यदि ?ोलम की बात करें तो यहां कभी भी वार्डन चैकिंग करने के लिए नहीं आता. साल में कभीकभार एक बार आ जाए तो गनीमत सम?िए. वार्डन की यहां अलग ही मजबूरी होती है. कुछ छात्र ऐसे हैं जो गैरकानूनी तरीके से यहां रहते हैं. हालांकि प्रशासन ने हाल ही में सतलुज होस्टल में 3 छात्रों पर अपने कमरे में गलत तरह से अतिथि को ठहराने को ले कर 5-5 हजार रुपए का जुर्माना लगाया है.

कुलपति प्रो. सुधीर कुमार सोपोरी का कहना है कि अभिभावक चिंता न करें, कैंपस सुरक्षित है. लेकिन सवाल उठता है कि महज कुछ छात्रों पर जुर्माना लगाने से क्या होगा? प्रशासन उन छात्रों पर भी कार्यवाही करे जो गैरकानूनी तरीके से रहते हैं और छात्रावास के नियमों का पालन नहीं करते. समयसमय पर कैंपस के होस्टलों में क्या हो रहा है, उस की नियमित जांच क्यों नहीं होती इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता?

एक छात्र ने बताया कि आकाश यहां पढ़ने आया था, किसी की हत्या करने नहीं. पिछले कुछ दिनों से वह बहुत परेशान रहता था और उस ने बातचीत करनी भी कम कर दी थी. रोशनी उस के कमरे में आतीजाती थी लेकिन कुछ दिनों से उस ने भी आना बंद कर दिया था. शायद, इसीलिए वह परेशान रहने लगा था. आकाश को अगर सही समय पर  काउंसलिंग मिल जाती तो वह संभल सकता था. विश्वविद्यालय की तरफ से पार्टटाइम काउंसलर हैं पर वे कब आते हैं और कब चले जाते हैं, इस बारे में पता ही नहीं लगता.

रोशनी के भाई सुधीर गुप्ता का कहना है कि आकाश से मेरी बहन का कोई कभी रिलेशनशिप रहा ही नहीं. अगर वक्त रहते वे अपनी बहन का हालचाल ले लेते तो उन्हें आज यह दिन देखना नहीं पड़ता. छात्रावास में अपने बच्चों को भेज कर मातापिता निश्ंिचत हो जाते हैं कि अब उन की जिम्मेदारी एक तरह से खत्म हो गई है. बच्चा छात्रावास में क्या कर रहा है, उस के साथ क्या हो रहा है, यारदोस्तों की संगत कैसी है, सब से बड़ी बात पढ़ाई को ले कर वह कितना सीरियस है, इन सब की वे कोई जानकारी नहीं लेते. जबकि अब जब लड़कालड़की एक ही कालेज में पढ़ने लगे हैं, उन में दोस्ती हो जाना कोई नई बात नहीं रह गई है. ऐसे में दोनों के बीच आकर्षण की भावना किस हद तक बढ़ रही है, इस ओर भी मातापिता को ध्यान देना बहुत जरूरी है.

मातापिता पूरी तरह से बच्चे को अपने भरोसे में ले कर उन्हें भविष्य के प्रति जागरूक बना सकते हैं. कैरियर उन के भविष्य के लिए कितना जरूरी है और उस के बाद सब चीजें वह कितनी आसानी से हासिल कर सकता है, यदि मातापिता यह बात अपने बच्चे को सम?ाने में सफल हो जाते हैं तो काफी हद तक छात्रावास में रह कर भी बच्चा अपना ध्यान दूसरी बातों की तरफ से हटा कर अपनी पढ़ाई पर केंद्रित रख सकता है.

आकाश और रोशनी के प्रकरण में दोनों को सम?ाने में मातापिता की भूमिका नगण्य रही. उन्हें कुछ पता नहीं था कि  छात्रावास में दोनों कितना पढ़ रहे हैं या उन दोनों के बीच क्या चल रहा है. हालांकि आजकल मातापिता के लिए यह मुश्किल जरूर है पर असंभव नहीं. आकाश पूरी तरह से रोशनी को अपना सम?ा उस की पढ़ाईलिखाई में मदद करता रहा और दूसरी तरफ शायद रोशनी उस का फायदा उठाती रही. इसी का नतीजा रहा कि रोशनी तीसरे साल में पहुंच गई और आकाश फेल हो गया.

इन सब बातों को देखते हुए क्या कहा जाए कि गलती सिर्फ आकाश की है? नहीं, गलती उस के मातापिता की भी है, कालेज प्रशासन की भी है, रोशनी की भी है और उन सब हालात की भी जिन के चलते आकाश ने आगापीछा न सोचते हुए, प्यार के आवेश में रोशनी के मतलबीपन का बदला लेने के लिए उसे मौत के मुंह में धकेल दिया और खुद भी मौत के आगोश में चला गया.

यह भी सच है कि सही समय पर काउंसलिंग न होने और सही गार्जियनशिप न मिलने के चलते आकाश मातापिता की उन तमाम खुशियों को दफन करने को मजबूर हो गया जो कभी उन बेचारों ने उस के जन्म लेते ही संजो ली थीं. ऐसी घटनाओं के बाद भी अगर शिक्षा प्रशासन अभिभावक और बच्चे कोई सीख नहीं लेते तो ऐसी घटनाएं बारबार पत्रपत्रिकाओं की सुर्खियां बनती रहेंगी.

ब्लैकमेलिंग का फसाद यौनशोषण

खुदगर्जी से कायम नाजायज रिश्ते रजामंदी से शुरू हो कर ब्लैकमेलिंग का षड्यंत्रकारी जाल किस तरह बुनते हैं, यह मध्य प्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री राघवजी के मामले से परिलक्षित है. सैक्स, सीडी और सियासत के ये मामले सियासतदानों के राजनीतिक कैरियर में अकसर भूचाल लाते हैं.

मध्य प्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता 80 वर्षीय राघवजी को 34 दिनों तक जेल में रहने के बाद हाईकोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया. जेल में डाले जाने से पहले वे कलियुगी हरकतें करते रहे थे. 4 जुलाई को राघवजी के बंगले पर रह रहे उन के एक 20 वर्षीय नौकर राजकुमार दांगी ने उन पर यह इल्जाम मढ़ते न केवल सूबे बल्कि देशभर की सियासत में हाहाकार मचा दिया था कि राघवजी 3 सालों से उस का यौन शोषण कर रहे थे और एवज में सरकारी नौकरी का लालच देते थे. इस बाबत राजकुमार ने बतौर सुबूत कुछ सीडियां भी पेश की थीं जो सार्वजनिक हुईं तो राघव जी को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. रिपोर्ट दर्ज होने के बाद उन्हें भारतीय दंड संहिता की धाराओं-377, 506 (बी) और 34 के तहत गिरफ्तार हो कर जेल की हवा खानी पड़ी.

एक हफ्ते तक इस मामले पर काफी गरमागरमी रही. लोगों को हैरानी इस बात को ले कर थी कि राघवजी जैसा इज्जतदार नेता आखिरकार कैसे इस ?ामेले में पड़ गया. इस पर विदिशा के एक भाजपा नेता का कहना है कि वित्त मंत्रालय का प्रबंधन 10 साल तक कामयाबी से करने वाले राघवजी इस लड़के को अगर ‘सलीके’ से ‘मैनेज’ कर लेते तो उन्हें ये दिन न देखने पड़ते.

सलीके से मैनेज कर लेने के शब्दों के पीछे छिपी मंशा साफ है कि राघवजी राजकुमार की मांगें पूरी करते रहते यानी ब्लैकमेल होते रहते और इसलिए होते रहते कि वे अपनी एक जरूरत राजकुमार के जरिए पूरी कर रहे थे. यह जरूरत दरअसल एक कमजोरी थी जिसे राजकुमार जैसे लड़के बखूबी सम?ाते हैं और इस का फायदा भी उठाते हैं. जाहिर है, राघवजी ब्लैकमेल हो रहे थे और राजकुमार की मांगों व धौंस से आजिज आ चुके थे. अपनी कमजोरी या जरूरत का वाजिब भुगतान वे कर रहे थे पर राजकुमार दांगी को यह सम?ा आ गया था कि जो मिल रहा है उस से और ज्यादा भी ?ाटका जा सकता है और जब नाउम्मीदी हाथ लगी तो उस ने भाजपाई और कांग्रेसी नेताओं की मदद से ही सही, राघवजी का न केवल बुढ़ापा बल्कि राजनीतिक कैरियर भी तबाह कर दिया.

देश में न तो राघवजी जैसे नेताओं की कमी है और न ही राजकुमार जैसे कथित शोषितों की जो आपसी रजामंदी से संबंध बनाते हैं, कुछ समय तक ईमानदारी से इन्हें निभाते हैं पर फसाद उस वक्त खड़े होते हैं जब कोई एक पक्ष अपनी पर उतारू हो जाता है और राज खोल देता है या राज दबाए, बनाए रखने के लिए संगीन गुनाह कर बैठता है. राजकुमार चूंकि लड़का था इसलिए भी कुदरती तौर पर हल्ला ज्यादा मचा क्योंकि मामला 2 मर्दों के बीच नाजायज सैक्स संबंधों का था. इस से पहले के उजागर मामलों में एक पक्ष औरत होती थी.

कामयाब राजनेताओं का पल्लू थाम रातोंरात अमीर हो जाने और रसूखदार पद पा लेने के लिए बढ़ती महत्त्वाकांक्षी महिलाओं की फेहरिस्त काफी लंबी है. हर एक उजागर मामले में दोनों में से किसी एक पक्ष को इस की कीमत चुकानी पड़ी या फिर खमियाजा भुगतना पड़ा जिस से हर दफा साबित यह हुआ कि नाजायज रिश्ते खुदगर्जी के चलते कायम किए जाते हैं और इस में दोनों पक्षों की रजामंदी शुरू में होती है. दिक्कत उस वक्त पेश आती है जब कोई एक ब्लैकमेलिंग की धमकी देता है या फिर राघवजी की तरह और ज्यादा ब्लैकमेल होने से इनकार कर देता है.

और भी हैं मामले

सैक्स, सीडी और सियासत का यह पहला या आखिरी उजागर मामला नहीं था. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे दिग्गज कांगे्रसी नेता नारायण दत्त तिवारी अभी तक नाजायज संबंधों का खमियाजा ब्लैकमेलिंग और परेशानी की शक्ल में भुगत रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते उन के संबंध उज्ज्वला शर्मा नाम की महिला से हो गए थे और इस हद तक हो गए थे कि उज्ज्वला से उन का एक बेटा भी हुआ जिस का नाम रोहित शेखर है. जवानी की एक नादानी की कीमत आज तक एन डी तिवारी ब्लैकमेल हो कर चुका रहे हैं. कोर्टकचहरी से उन्हें फायदा नहीं हुआ, बदनामी मिली सो अलग.

सैक्सी सीडियों में भाजपा के महासचिव रहे संजय जोशी की भी सीडी खासी चर्चित रही थी जो दरअसल  भाजपा में आरएसएस के नुमाइंदे थे और खासा रुतबा था उन का. मुंबई में जब पार्टी सिल्वर जुबली जलसा मना रही थी तब यह सीडी बनाई गई थी जिस में जोशी एक महिला के साथ अंतरंग संबंध स्थापित कर रहे थे. शोर मचा तो उन्हें तमाम पदों से इस्तीफा देना पड़ा था. चर्चा यह रही थी कि इस सीडी को बनवाने के पीछे जोशी के धुर विरोधी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का हाथ था. बात हालांकि पूरी तरह साबित नहीं हुई लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ जोशी ने प्रचार शुरू किया तो नरेंद्र मोदी भागेभागे आरएसएस के मुख्यालय नागपुर में फरियाद ले कर पहुंचे थे.

राजनीतिक दुश्मनी निभाने की सीडियां बनाई जाती हैं, यह बात वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पेशे से कामयाब वकील अभिषेक मनु सिंघवी की सैक्सी सीडी से भी उजागर हुई थी. अप्रैल 2012 में चर्चा में रही इस सीडी में साफसाफ दिख रहा था कि सिंघवी एक महिला से सहवास करते उसे जज बनाने का लालच दे रहे हैं. संजय जोशी की तरह सिंघवी भी अब गुमनाम सी जिंदगी जी रहे हैं, जो अप्रत्यक्ष षड्यंत्र का शिकार हुए. जाहिर है उन्हें सीधे ब्लैकमेल कराने के बजाय औरतों को लालच या पैसा दे कर मोहरा बनाया गया.

सुर्खियों में अनुराधा बाली उर्फ फिजा और चंद्रमोहन शर्मा उर्फ चांद मोहम्मद के संबंध भी रहे थे. हरियाणा के इस उपमुख्यमंत्री का दिल फिजा पर आया तो वे घर, परिवार और प्रतिष्ठा भूल उस से शादी कर बैठे. बात ज्यादा हर्ज की नहीं थी पर जल्द ही चांद का जी फिजा से भर गया तो वे उस से कन्नी काटने लगे और उसे एसएमएस के जरिए तलाक दे दिया. रहस्यमय हालात में अनुराधा की मौत हुई तो कई सवाल भी पैदा कर गई, जिन में अहम था कि क्या वह चंद्रमोहन शर्मा को ब्लैकमेल करने लगी थी या दबाव बनाने लगी थी.

जिन मामलों में पीडि़त ब्लैकमेल करने या दबाव बनाने में कामयाब नहीं हो पाया उन में उलटा हुआ. शोषक यानी रुतबेदार नेता पर ही हत्या का आरोप लगा. राजस्थान का भंवरी देवी हत्याकांड, उत्तर प्रदेश का मधुमिता शुक्ला और मध्य प्रदेश का शहला मसूद हत्याकांड इस की मिसाल बने.

ब्लैकमेलिंग और हत्याएं

सैक्स संबंधों के तमाम उजागर मामलों में साफ यह होता है कि रसूखदार नेताओं को जिस्मानी सुख देने वाले को लगता है कि उसे उतना नहीं मिल रहा है जितने का वह हकदार है. लिहाजा, वह राजकुमार दांगी और उज्ज्वला शर्मा की तरह पोल खोल देता है. पोल खोलने की हिम्मत इसलिए पड़ती है कि वह लंबे वक्त से संबंध बना रहा होता है. नेता की जरूरत बनतेबनते उस का भरोसा जीत कर पैसों के लालच में धोखा देना उसे फायदे का सौदा लगता है.

नेता के इर्दगिर्द पसरी ताम?ाम, शानोशौकत और शोहरत में हिस्से की चाहत उसे दगा देने को मजबूर करती है. इन में सब से अहम पैसा है. ये वे लोग हैं जो संबंध बनाने के लिए खुद अपनी तरफ से भी पहल करते हैं. इन की नीयत बाद में बिगड़ती है. दबाव भी एकदम न बना कर ये धीरेधीरे मुंह फाड़ते हैं. तब तक नेता की स्वभावगत कमजोरियों और खूबियां से भी ये वाकिफ हो जाते हैं.

इस के उलट भंवरी देवी, मधुमिता शुक्ला या शहला मसूद जैसी औरतें ब्लैकमेल करने का हुनर न जानने की सजा भुगतती हैं. महीपाल मदेरणा, अमरमणि त्रिपाठी और धु्रवनारायण सिंह सरीखे नेताओं का खास कुछ नहीं बिगड़ता. कोई सैक्स संबंध नाजायज नहीं होता बशर्ते दोनों पक्ष बालिगऔर सहमत हों. छिप कर और छिपा कर सैक्स संबंध बनाना ब्लैकमेलिंग जैसी दुश्वारियां पैदा करने वाला होता है. यह बात मशहूर समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया की जिंदगी से साबित भी होती है जो बगैर शादी किए दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक अधिकारी रमा मित्रा के साथ जिंदगी भर रहे. खुद लोहिया का कहना था कि एक औरत और आदमी के बीच सबकुछ जायज है बशर्ते उन में वादाखिलाफी व ताकत का इस्तेमाल न हो.

लेकिन अब लालच के चलते अधिकांश मामलों में वादाखिलाफी भी हो रही है और ताकत का इस्तेमाल भी हो रहा है. नतीजतन, ब्लैकमेलिंग और हत्या जैसे जुर्म हो रहे हैं.

भाजपा के शत्रु

सियासत में स्वार्थी ऊंट कब किस करवट बैठ जाए कहा नहीं जा सकता. कल तक नरेंद्र मोदी और सुशील मोदी की माला जपने वाले अभिनेता कम नेता शत्रुघ्न सिन्हा आजकल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुणगान करते नहीं थक रहे. डायलौगबाजी के लिए मशहूर शत्रु सियासत का कौन सा ड्रामा खेल  रहे हैं, पढि़ए बीरेंद्र बरियार ज्योति के लेख में.

शौटगन यानी शत्रुघ्न सिन्हा ने एक बार फिर पौलिटिकल फायरिंग शुरू कर दी है. यह उन का पुराना चुनावी हथकंडा है. चुनाव के करीब आते ही वे फिल्मी स्टाइल में दहाड़ लगा कर सामने वाले को ‘खामोश’ करने की कवायद शुरू कर देते हैं. बिहार भाजपा के अंदर अगले लोकसभा चुनाव में शत्रुघ्न को बेटिकट करने की हवा ने उन्हें बौखला दिया है. सो, वे भाजपा नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए ‘नीतीश चालीसा’ पढ़ने लगे हैं.

फिल्मों में तो शत्रुघ्न की ‘खामोश’ की गर्जना सुन कर सामने वाला चुप हो जाता था पर सियासत में उन का यह मशहूर डायलौग लोगों को कई तरह की बातें बोलने को उकसा देता है. सियासत में लोगों को खामोश होने के बजाय बकबक करने में ज्यादा महारत हासिल होती है. कुछ दिन पहले ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजैक्ट करने के खिलाफ बोल कर शत्रु भाजपा की काफी फजीहत करा चुके थे और अब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तारीफ में कसीदे पढ़ कर नया बावेला खड़ा कर दिया.

‘नीतीश कुमार में पीएम मैटेरियल है’ और ‘बिहार में राजग गठबंधन के टूटने के लिए नीतीश जिम्मेदार नहीं हैं’ यह कह कर शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी पार्टी भाजपा की छीछालेदर कर दी. गठबंधन टूटने के बाद से भाजपा लगातार नीतीश कुमार और उन की सरकार पर हमले कर रही है और कई मसलों पर उन्हें कठघरे में खड़ा कर अपनी राजनीति चमकाने में लगी हुई है. ऐसे में उस के ही एक सांसद ने नीतीश की तारीफों के पुल बांध कर उस की राजनीति को मटियामेट कर डाला. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि शत्रु अकसर अपने नाम के लिहाज से ही काम करते हैं. दोस्ती निभाना उन की फितरत में नहीं है. जहां रहते हैं वहां वे ‘शत्रु’ की तरह व्यवहार करते हैं, इसी वजह से फिल्म इंडस्ट्री और राजनीति में उन्होंने अपने कई ‘शत्रु’ खड़े कर लिए हैं.

दरअसल, भाजपा में यह मंथन चल रहा है कि पटना साहिब लोकसभा सीट से इस बार सुशील कुमार मोदी को उतारा जाए. यह बात उसी समय साफ हो गई थी जब नीतीश सरकार से अलग होने के बाद भाजपा ने नंदकिशोर यादव को विधानसभा में विरोधी दल का नेता बना दिया था. सुशील कुमार मोदी के बजाय नंदकिशोर यादव को यह पद देने के पीछे पार्टी की मंशा यही है कि मोदी को पटना साहिब सीट से चुनाव लड़ाया जाए. मोदी पहले भी मध्य पटना से 3 बार विधायक रह चुके हैं. अपनी सीट पर मोदी की दावेदारी की सुगबुगाहट ने बिहारी बाबू को बौखला दिया. नीतीश की तारीफ कर वे इस जुगाड़ में लग गए हैं कि उन की प्रैशर पौलिटिक्स से घबरा कर भाजपा उन्हें दोबारा पटना साहिब की सीट से चुनाव लड़ाने को राजी हो जाए और अगर ऐसा नहीं होता है तो वे जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ कर भाजपा को उस की औकात बता सकें. जदयू के प्रवक्ता ने तो शत्रुघ्न सिन्हा को जदयू में शामिल होने का न्यौता भी दे डाला है.

सिनेमा में खलनायक के तौर पर अपने ऐक्ंिटग कैरियर की शुरुआत करने वाले शत्रुघ्न बाद में भले ही नायक बन गए पर 80 के दशक में सियासत में उतरने के बाद से अब तक उन के भीतर दबाछिपा खलनायक कई बार बाहर आता रहा है. चुनाव आते ही उन की सियासी खलनायकी कुछ ज्यादा ही तेज हो जाती है.

1996 में भाजपा ने उन्हें पहली बार राज्यसभा का सदस्य बनाया और फिर 2002 में भी उन्हें राज्यसभा भेजा गया. 2009 में भाजपा ने पटना साहिब संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया और वे करीब ढाई लाख वोट से जीत गए. केंद्र में राजग सरकार के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा को 2 बार कैबिनेट मंत्री भी बनाया गया. 2003 में उन्हें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और 2004 में जहाजरानी मंत्री बनाया गया था. इस के बाद भी उन्हें हमेशा यह महसूस होता रहा कि उन की क्षमता का भाजपा ने बेहतर इस्तेमाल नहीं किया. उन की इस सोच पर भाजपा के एक नेता दबी जबान में कहते हैं कि या तो पार्टी ने उन्हें अंडरएस्टीमेट किया या वे खुद को ओवरएस्टीमेट करते रहे हैं.

पिछले 2 महीने से जब भाजपा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजैक्ट करने की मुहिम में लगी हुई है, तो शत्रुघ्न ने पार्टीलाइन से बाहर जा कर मोदी के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया. उन का मानना है कि पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा जैसे सीनियर और काबिल नेताओं को किनारे लगा कर नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ किया जा रहा है, जो ठीक नहीं है. भाजपा अपने दोस्त ‘शत्रु’ के दिए इस दर्द को सहला ही रही थी कि अब नीतीश कुमार के नाम की माला जप कर शत्रुघ्न ने उस के दर्द को कई गुना ज्यादा बढ़ा दिया है. गौरतलब है कि 2004 में उन्होंने राजद सुप्रीमो लालू यादव के नाम का ढोल पीटा था, पर लालू ने उन्हें नचनियाबजनिया नेता बता कर उन की बोलती बंद कर दी थी.

जब नीतीश कुमार ने बिहार को स्पैशल स्टेट का दरजा देने की मांग करते हुए 16 मार्च को दिल्ली में अधिकार रैली का आयोजन किया था और उस मुहिम से भाजपा को अलग रखा था तो शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कह कर नीतीश कुमार को ‘खामोश’ कर दिया था कि गुजरात में ‘नमो’ (नरेंद्र मोदी) के बाद अब बिहार में ‘सुमो’ (सुशील मोदी) की बारी है. नमो और सुमो की जोड़ी अगर मिल कर काम करेगी तो लोकसभा चुनाव में शानदार कामयाबी मिलनी तय है. वही शत्रुघ्न अब ‘नमो’ और ‘सुमो’ को भूल कर ‘नीकु’ (नीतीश कुमार) की चापलूसी में लग गए हैं, ताकि भाजपा से बेटिकट होने पर जदयू से टिकट ले कर चुनावी रेलगाड़ी पर सवार हो सकें.

2014 में होने वाला लोकसभा चुनाव नीतीश कुमार और भाजपा के लिए ऊहापोह वाला और अपनीअपनी इज्जत बचाने की कवायद से भरा होगा. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं, जिन में 20 पर जदयू और 12 पर भाजपा का कब्जा है.  4 सीटें राजद, 2 सीटें कांगे्रस और 2 सीटें निर्दलीयों की ?ोली में हैं. 2010 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जहां जदयू को 22.58 फीसदी वोट मिले थे वहीं भाजपा ने 16.49 फीसदी वोट हासिल किए थे. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडे कहते हैं कि 2004 और 2009 के आम चुनाव में भाजपा चूक गई थी पर अगले चुनाव में नहीं चूकेगी, शत्रुघ्न सिन्हा की सियासी डायलौगबाजी का भाजपा की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. 

ये पति

मेरे पति मजाक में अकसर ऐसी बात बोल देते थे जो मु?ो अच्छी नहीं लगती थी. एक दिन मेरी सास को अचानक सीने में तेज दर्द उठा. लगा कि वे अब नहीं बचेंगी. हम सभी घबरा गए. डाक्टर को बुला कर पूरी जांच कराई तो पता चला कि कोई खास बात नहीं है, सिर्फ गैस थी. डाक्टर ने दवा दी और कहा कि 1-2 दिनों में पूरी तरह ठीक हो जाएंगी. उसी दिन हमारा दूध वाला अपने पोते के जन्म की खुशी में ज्यादा दूध दे गया, सो मैं ने खीर बना दी. मेरे पति खीर खाने के बाद बोले, ‘‘मां, देखो, तुम्हारे जाने की खुशी में तुम्हारी बहू ने आज खीर बनाई है.’’

मु?ो उन की यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी. इस बार मैं भी चुप रहने वाली नहीं थी. मैं भी बोल पड़ी, ‘‘आप तो इतने खुश थे कि मां के जाने के बाद यह बंगला, गाड़ी, जमीन और जायदाद सबकुछ आप के नाम हो जाएगा, इसी खुशी में अपने हिस्से की खीर के साथसाथ मेरे हिस्से की भी खीर मांग कर स्वाद लेले कर खा गए.’’ इतना सुनते ही मेरे पति का मुंह देखने लायक था. इस के बाद दोबारा उन्होंने मजाक नहीं किया.

अंजुला अग्रवाल, मीरजापुर (उ.प्र.)

 

मेरी शादी हुए सिर्फ 6 महीने हुए थे.  भोपाल से बेगमगंज हम लोगों को बस से जाना था. भीड़ बहुत थी. जैसे ही बस आई, ये बोले, ‘‘दौड़ के चढ़ो.’’ मैं दौड़ी और आगे के दरवाजे से अंदर चढ़ गई, ये पिछले दरवाजे से चढ़ पाए. हम दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हो गए. तभी कंडक्टर मेरे पास कर बोला, ‘‘कहां तक जाना है? पैसे निकालिए.’’ मैं बोली, ‘‘भैया, बेगमगंज जाना है, मेरे पतिदेव पीछे हैं, वे टिकट ले लेंगे.’’ कंडक्टर दूध का जला था, बोला, ‘‘मैं पीछे कहां ढूंढूंगा, आप पैसे दीजिए, ऐसे ही बोल कर लोग सफर कर लेते हैं. अच्छा ठीक है, नाम बताइए उन का.’’

मैं ने नाम बताया, ‘‘गिरीश वर्मा’’. उस ने आवाज लगानी शुरू की, ‘‘गिरीश वर्मा कौन हैं?’’ उधर से कोई आवाज नहीं आई. दरअसल, मेरे पति खड़ेखड़े सो गए थे. कंडक्टर गुस्से में चिल्ला कर बस के ड्राइवर से बोला, ‘‘रोको भाई, बिना टिकट सवारी है.’’ मैं रोंआसी हो गई. बस एक ?ाटके से रुक गई. जैसे ही बस को ?ाटका लगा इन की नींद टूट गई, अधखुली आंखों से बगल वाले यात्री से पूछा, ‘‘कौन सी जगह आ गई, भाई?’’

वह बोला, ‘‘कोई सी नहीं आई भाई, बिना टिकट सवारी है, उसे उतारा जा रहा है.’’ कुतूहल से ये ?ांक कर देखने लगे तो गुस्से और क्रोध से भरी मैं नजर आई. ये दौड़ कर कंडक्टर के पास आए. सारा मामला पलक ?ापकते सुल?ा गया, फिर तो ये पूरे रास्ते सिर्फ माफी ही मांगते रहे.

आराधना सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

लैपटौप का लौलीपौप

समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के मेधावी छात्रों को हर साल करोड़ों रुपए के लैपटौप व टैबलेट बांटने की घोषणा कर के चुनावी समर भले ही जीत लिया पर इस वादे को पूरा करने के लिए सरकार को न केवल अपने खजाने को खाली करने के लिए विवश होना पड़ रहा है बल्कि प्रदेश की जनता की गाढ़ी कमाई को बरबाद करने के आरोप में जनता की अदालत में खड़ा भी होना पड़ रहा है. पेश है शैलेंद्र सिंह का यह लेख.

विधानसभा चुनाव के समय समाजवादी पार्टी यानी सपा ने युवाओं को लुभाने के लिए मुफ्त में इंटर पास करने वालों को लैपटौप और हाईस्कूल पास करने वालों को टैबलेट देने की बात कही थी. बेरोजगारी भत्ता देना भी इसी कड़ी का एक फैसला था. युवाओं ने भी सपा को अपना पूरा समर्थन दिया. बहुमत से पार्टी जीती और अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. चुनावी घोषणा करते समय सपा को इस बात का ज्ञान नहीं था कि इन योजनाओं से जनता पर कितना बड़ा बो?ा पड़ जाएगा.

उत्तर प्रदेश में इंटर यानी कक्षा 12 पास करने वालों की संख्या 15 लाख है. हाईस्कूल पास करने वालों की संख्या साल 2012 में 26 लाख से बढ़ कर साल 2013 में 28 लाख हो गई. अखिलेश सरकार के लिए इतनी बड़ी संख्या में लैपटौप और टैबलेट्स का इंतजाम करना मुश्किल हो गया. सरकार बनने के 1 साल बाद 11 मार्च को अखिलेश यादव ने इंटर पास करने वाले मुट्ठीभर छात्रों को लैपटौप बांटने की शुरुआत लखनऊ से की.

जुलाई 2013 तक सरकार केवल1 लाख 25 हजार छात्रों को ही लैपटौप बांट पाई है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि 15 लाख छात्रों को हर साल लैपटौप बांटना कितना मुश्किल काम है. अगर अगस्त 2013 तक के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि सरकार को 26 लाख टैबलेट की जरूरत हाईस्कूल के छात्रों के लिए है. एक टैबलेट की कीमत 5 हजार रुपए है. इस तरह हाईस्कूल के छात्रों को टैबलेट देने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को करीब 1,300 करोड़ रुपयों की जरूरत होगी.

इंटर पास छात्रों को जो लैपटौप दिए जा रहे हैं उन की कीमत 19 हजार 58 रुपए है. ऐसे में सरकार को 15 लाख बच्चों को लैपटौप बांटने के लिए 2,850 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ रही है. हाईस्कूल और इंटर के छात्रों को लैपटौप और टैबलेट देने के लिए सरकार को हर साल 4,150 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ेगी. इतनी बड़ी रकम का इंतजाम करना सरकार के लिए आसान काम नहीं है. 5 साल में सरकार को करीब 75 लाख लैपटौप और 1 करोड़ 25 लाख टैबलेट बांटने हैं. सरकार साल 2017 तक लैपटौप बांट पाएगी, इस पर सवालिया निशान लगने लगे हैं. 

उत्तर प्रदेश इलैक्ट्रौनिक कौर्पोरेशन के विश्व के सब से बड़े टैंडर में हिस्सा लेने के लिए एचसीएल, लेनोवो, एसर और एचपी के बीच होड़ लगी थी. बाजी एचपी ने मार ली. उत्तर प्रदेश इलैक्ट्रौनिक कौर्पोरेशन ने 15 लाख लैपटौप खरीदने का और्डर कंपनी को दे रखा है.  जानकारी के मुताबिक, 9 लाख लैपटौप एचपी ने सरकार को भेज दिए हैं. इन में से तकरीबन डेढ़ लाख लैपटौप ही बंट पाए हैं. बाकी लैपटौप गोदामों में बंद पड़े हैं. जिला प्रशासन स्कूलों में इन लैपटौप को रखवा देती है. कई जगहों पर ठीक तरह से लैपटौप न रखने से ये खराब भी होने लगे हैं. संभल में कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव जब लैपटौप बांटने पहुंचे तो कुछ लैपटौप के कागज वाले कवर में दीमक लग चुकी थी. जानकारी मिलने पर आननफानन उन लैपटौप को बदला गया.   

वौलपेपर से जूझ रहे छात्र

इंटर पास करने वाले छात्रों को अखिलेश सरकार ने जो लैपटौप दिए हैं उन्हें एचपी कंपनी से खरीदा गया है. इन लैपटौप में 1 जीबी रैम, 1 जीबी ग्राफिक कार्ड और 500 जीबी हार्ड डिस्क है. एक वौलपेपर खासतौर पर सैट किया गया है जिस से लैपटौप के खुलते ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की फोटो दिखती है. यह वौलपेपर बायोस पर लगा है जिस से इसे हटाना मुश्किल काम है. इस के बावजूद लैपटौप मिलने के बाद छात्र सब से पहले इस वौलपेपर को ही हटाने की कोशिश करते हैं, जिस के चलते उन का लैपटौप खराब हो जाता है. एचपी कंपनी ने लैपटौप पर 1 साल की वारंटी दे रखी है. कंपनी इस वौलपेपर को नहीं हटाती है. ऐसे में लैपटौप पाने वाले छात्र इसे हटवाने के लिए लैपटौप को कंप्यूटर रिपेयर करने वाली दुकानों में ले जाने लगे हैं.

लखनऊ में नाका हिंडोला में कंप्यूटर की बड़ी मार्केट है. यहां कुछ दुकानदारों ने चोरीछिपे इस वौलपेपर को हटाने के लिए काम करना शुरू कर दिया है. बच्चे अब 400 से 500 रुपए खर्च कर वौलपेपर को हटवाने लगे हैं. इस की वजह बताते हुए एक छात्र का कहना है, ‘‘हम अपनी पसंद का वौलपेपर लगाना चाहते हैं. इस वौलपेपर को देख कर पता चल जाता है कि यह मुफ्त का लैपटौप है. ऐसे में सामने वाले की नजर में लैपटौप का महत्त्व घट जाता है.’’  

किस काम का लैपटौप

लैपटौप पाने वाले बच्चे इस का उपयोग केवल लैपटौप पर गाना सुनने, गेम खेलने और फिल्म देखने में करते हैं. लैपटौप पाने वाले बच्चों के मातापिता का मानना है कि अगर लैपटौप की जगह पर सरकार ने 20 हजार रुपए दिए होते तो शायद बच्चों की ग्रेजुएशन की पढ़ाई का खर्च निकल जाता. लखनऊ की रहने वाली एक छात्रा बताती है, ‘‘मैं बीए की पढ़ाई कर रही हूं. इस में लैपटौप की कोई जरूरत नहीं है. युवाओं में लैपटौप का बड़ा क्रेज है. इस कारण छात्र इस को लेना चाहते हैं. मेरा लैपटौप मेरे तो नहीं पर पापा के काम आ रहा है. वे उस पर अपना काम करते हैं.’’

गांव में रहने वाले कुछ बच्चों के पास लैपटौप रखने की जगह तक नहीं है. ऐसे में कई बच्चों ने तो लैपटौप बेच भी दिए हैं. सरकार को यह पता है. इस कारण सरकार ने लैपटौप और कंप्यूटर का कारोबार करने वालों से कहा है कि वे इस लैपटौप को न खरीदें. गांव में रहने वाले एक लड़के का कहना है, ‘‘जब तक यह चल रहा है, हम लोग फिल्म देखने के उपयोग में इस को ला रहे हैं. हमें इस के उपयोग का सही तरीका नहीं आता है.’’  

लैपटौप बांटने पर करोड़ों का खर्च

जनता पर केवल लैपटौप के खरीदने का बो?ा ही नहीं पड़ रहा है, इस के बांटने में भी करोड़ों रुपयों का बो?ा पड़ रहा है. अब तक लैपटौप बांटने का काम केवल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के जरिए ही होता रहा है. ऐसे में उन के आनेजाने व सम्मान समारोह को आयोजित करने में करोड़ों खर्च हो रहे हैं. लैपटौप बांटने की गति को तेज करने के लिए इस काम में सपा के बड़े नेताओं और जिलों के प्रभारी मंत्रियों को भी लगाया गया है. लैपटौप बांटने से पहले अखबारों और खबरिया चैनलों पर ‘यशस्वी भव’ का एक विज्ञापन चलता है, जिस पर भी लाखों  रुपए खर्च हो रहे हैं.

कांग्रेस के लखनऊ शहर अध्यक्ष डा. नीरज बोरा कहते हैं, ‘‘लोकलुभावन घोषणाओं को करने से पहले अगर सही अनुमान लगाया गया होता तो ज्यादा अच्छा होता. इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए विकास कामों का पैसा इस में लगाया जा रहा है. बिजली की दरों में 35 फीसदी की बढ़ोत्तरी की गई.’’ भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता डा. मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘‘सरकार लैपटौप दिए जाने के बजाय उस के आयोजन और प्रदर्शन पर ज्यादा खर्च कर रही है. सरकार को इस खर्च का पूरा विवरण जनता के सामने रखना चाहिए.’’

बहरहाल, चुनावी जंग को जीतने के लिए समाजवादी पार्टी ने हर साल 2,850 करोड़ रुपए के लैपटौप और 1,300 करोड़ रुपए के टैबलेट बांटने की बात कह कर प्रदेश की जनता पर 4,150 करोड़ रुपए का सालाना बोझ तो डाल ही दिया है.

अवैध रेत खनन – लोकतंत्र में लूटतंत्र की ताकत

देशभर के प्राकृतिक संसाधनों को गिद्ध की तरह नोचने वाले माफिया अपने सियासी रसूख की बदौलत खुलेआम नदियों का सीना चीर कर बालू का अंधाधुंध अवैध खनन करते रहते हैं. लेकिन जब दुर्गा शक्ति नागपाल जैसी ईमानदार अफसर की दखलंदाजी इन के मंसूबों के आड़े आती है तो फिर सत्ता में बैठे लोग स्वार्थ की खातिर इन माफियाओं को किस तरह पनाह देते हैं, पढि़ए अभिषेक कुमार सिंह की रिपोर्ट में.

अरसे से देश में प्राकृतिक संसाधनों को खुलेआम लूट रहे खनन माफिया को किस तरह राजनेताओं और राजनीतिक दलों का संरक्षण प्राप्त है, इस की एक मिसाल दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जिले में देखने को मिली. यहां पिछले कुछ समय से खनन माफिया के खिलाफ कार्यवाही कर रहीं युवा आईएएस अधिकारी, जिले की सबडिवीजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) दुर्गा शक्ति नागपाल को एक निर्माणाधीन मसजिद की दीवार गिराने के आरोप में 27 जुलाई को रातोंरात हटा दिया गया.

इस बारे में स्थानीय नेता और उत्तर प्रदेश एग्रो कौर्पोरेशन के चेयरमैन नरेंद्र भाटी ने एक सभा में यह दावा किया कि गे्रटर नोएडा के रबूपुरा स्थित कादलपुर गांव में मसजिद की दीवार गिराने की शिकायत मुख्यमंत्री से करने के 41 मिनट के अंदर एसडीएम के निलंबन का आदेश जारी किया गया. उन्होंने जोर दे कर यह भी कहा कि लोकतंत्र की ताकत का नतीजा है कि कोई सरकारी अधिकारी मनमाने ढंग से काम नहीं कर सकता. उस के ऊपर जनता द्वारा चुनी गई सरकार है जो ऐसे अधिकारियों को तुरंत हटा सकती है. भाटी का यह बयान टीवी चैनलों पर बारबार दिखाया गया, फिर भी बाद में वे अपने इस बयान से पलट गए.

दरअसल, भाटी ने खुद उक्त एसडीएम को हटाने की साजिश रची थी क्योंकि वे उन के चहेते रेत खनन माफिया के कामकाज में रोड़े अटका रही थीं. एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल ने भाटी का संरक्षण प्राप्त अवैध खनन के धंधेबाज ओमेंद्र खारी के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई थी और उस का खनन का काम रुकवा दिया था. ऐसा कहा जा रहा है कि ओमेंद्र के खिलाफ कार्यवाही से नाराज नरेंद्र भाटी ने योजना बना कर पहले तो कादलपुर गांव के लोगों को 50 हजार रुपए दे कर बिना प्रशासनिक अनुमति लिए मसजिद बनाने को कहा और फिर खुद ही इस की शिकायत एसडीएम से कर दी. इस पर जिला मजिस्ट्रेट रविकांत सिंह से मौखिक आदेश ले कर दुर्गा शक्ति नागपाल गांव में गईं और गांव वालों से निर्माणाधीन मसजिद की दीवार गिराने को कहा, जिस पर गांव वालों ने फौरन अमल किया. दीवार गिराए जाने के तुरंत बाद भाटी ने इस की शिकायत यूपी सरकार से की. अपनी शिकायत में उन्होंने यह कहा कि इस से गांव का सांप्रदायिक माहौल बिगड़ सकता है, लिहाजा एसडीएम को हटाया जाना चाहिए.

दुर्गा शक्ति के निलंबन पर हरकत में आई आईएएस लौबी मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में ले गई लेकिन प्रदेश सरकार अपना फैसला पलटने को राजी नहीं हुई. बताया जाता है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव से नरेंद्र भाटी की नजदीकियों के चलते सरकार अपना गलत फैसला वापस नहीं ले पा रही है.

कुल मिला कर यह घटना साबित करती है कि देश में अवैध रूप से जमीनों और नदियों का खनन कर रहे माफिया तंत्र का राजनीतिक दलों के साथ कितना गहरा गठजोड़ है. चूंकि इस सुनियोजित गठजोड़ में सब का हिस्सा तय है इसलिए इस के खिलाफ कारगर कार्यवाही करना मुश्किल होता जा रहा है. जब प्रशासन इस बारे में कोई तत्परता दिखाता है तो राजनीतिक प्रभुत्व निजी स्वार्थवश उस में अड़ंगे डालता है. एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के साथसाथ गौतमबुद्ध नगर के खनन निरीक्षक आशीष कुमार के किए गए तबादले से इस गठजोड़ की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

बात सिर्फ रुकावट बन रहे अधिकारियों के निलंबन और तबादले तक सीमित नहीं रहती, बल्कि खनन माफिया ऐसे लोगों की हत्या करने तक से नहीं चूकता. दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के दौरान ही नोएडा और गे्रटर नोएडा में अवैध खनन के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले नोएडा के सैक्टर-126 के ग्राम रायपुर निवासी 52 वर्षीय पाले राम चौहान की 31 जुलाई को दिनदहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई. उल्लेखनीय है कि पाले राम चौहान ने इलाके में अवैध खनन करने वालों के खिलाफ शिकायत की थी, जिस के कारण वे खनन माफिया की आंख की किरकिरी बने हुए थे.

इसी तरह की एक घटना पिछले साल फरीदाबाद में हुई थी, जहां अवैध रूप से नदी से रेत उठा कर ले जा रहे एक डंपर को रोकने की कोशिश में ड्यूटी पर तैनात एक पुलिस कौंस्टेबल को उसी वाहन से कुचल दिया गया था. इसी तरह मध्य प्रदेश में एक युवा आईपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार को भी खनन माफिया के ट्रैक्टर से रौंद डाला गया था. यह स्पष्ट है कि अवैध रूप से नदियों से रेत निकालने का काम सिर्फ दिल्ली, नोएडा, हरियाणा में यमुना और हिंडन नदियों के आसपास ही नहीं हो रहा है बल्कि पूरे देश में गंगा, चंबल समेत हरेक नदी के आसपास खनन माफिया अवैध रूप से रेत का खनन कर रहे हैं. इस खनन के खिलाफ कई आवाजें उठी हैं. कई आंदोलन किए गए हैं लेकिन सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

अवैध खनन की अनदेखी की सब से बड़ी वजह है इस में होने वाला भारी मुनाफा. लागत के मुकाबले इस धंधे में कई गुना लाभ है. पुलिस, प्रशासन, नेताओं को मुनाफे का हिस्सा देने के बावजूद इस से जुड़े लोग जल्द ही करोड़पति हो जाते हैं. असल में, पिछले एकडेढ़ दशक में महानगरों के इर्दगिर्द जिस तेज गति से बहुमंजिली इमारतों, विशाल शौपिंग मौलों और शानदार आवासीय परियोजनाओं के निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ है, उस के लिए कच्चे माल यानी रेत, बजरी और अन्य भवन निर्माण सामग्रियों की मांग बढ़ी है. इस जरूरत को साधने के लिए राज्य सरकारें खनन के वैध ठेके आवंटित करती हैं, पर उस से माल महंगा हो जाता है और पुलिस, प्रशासन व नेतागण समेत खनन माफिया के लिए भारी कमाई के अवसर भी सिकुड़ जाते हैं. लिहाजा, अवैध खनन कभी तो चोरीछिपे और कभी गठजोड़ कर खुलेआम किया जाता है.

सुदूर केरल से ले कर गोआ, कर्नाटक, ओडिशा और आंध्र प्रदेश से ले कर उत्तराखंड तक पूरे देश में रेत माफिया की सक्रियता के बारे में कई संगठन सरकार को आगाह कर चुके हैं. पिछले साल मानवाधिकार संगठन ‘ह्यूमन राइट्स वौच’ ने भारत के बेलगाम होते खनन उद्योग के बारे में टिप्पणी की थी कि सरकार देश के खनन उद्योगों में मानवाधिकारों और पर्यावरण संबंधी सुरक्षा मानकों को लागू करने में नाकाम रही है.

रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में खनन संबंधी प्रमुख नीतियां न तो सही तरीके से बनाई गई हैं और न ही उन्हें असरदार ढंग से लागू किया गया है. इस कारण देश में खनन गतिविधियां मनमाने ढंग से जारी हैं और यह उद्योग घोटालों से भरा पड़ा है. ऐसे अवैध उत्खनन से राजस्व की हानि तो होती ही है, इस से पर्यावरण पर भी खराब असर पड़ रहा है.

रेत का काला कारोबार

वैसे तो गौतमबुद्धनगर जिले के करीब 70 किलोमीटर के दायरे में फैली यमुना के किनारे स्थित लगभग 60 गांवों में छोटेबड़े स्तर पर खनन की गतिविधियां चलती रहती हैं, लेकिन इस से सब से ज्यादा प्रभावित इलाका दिल्ली के ओखला पक्षी विहार के दूसरे किनारे पर स्थित इसजिले का वह क्षेत्र है जहां लगभग प्रत्येक 400 मीटर की दूरी पर एक स्टोनक्रशर लगा है और नदी से रेत की खुदाई व ढुलाई का काम अनवरत चल रहा है. सिर्फ 8 किलोमीटर के दायरे में करीब 50 स्टोनक्रशर चल रहे हैं, जो कानून का उल्लंघन कर के चलाए जा रहे हैं.

यहां अवैध खनन के 2 रूप दिखाई देते हैं. एक तो है राजस्थान से पत्थर मंगा कर उन्हें तोड़ कर रोड़ी की शक्ल देना जिस का उपयोग सड़कों से ले कर इमारतों के लिए कंक्रीट की छत व दीवारें बनाने में होता है. दूसरे, यमुना व हिंडन नदी से बेहिसाब रेत निकालना जो किसी भी निर्माण कार्य के लिए बुनियादी रूप से जरूरी है. यमुना खादर इलाके में मामूली किराए में स्टोनक्रशर मालिकों को जमीन उपलब्ध हो जाती है, जबकि इस्तेमाल होने वाले पानी के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता. वह यमुना से बेहिसाब ढंग से खींचा जाता है.

इस धंधे में मुनाफे का गणित यह है कि राजस्थान से 4 हजार रुपए प्रति ट्रक के हिसाब से पत्थर मंगाए जाते हैं. इन्हें स्टोनक्रशर में तोड़ने पर हुए डीजल के खर्च, मजदूरी और पुलिस को इस धंधे की अनदेखी करने के एवज में दिए गए शुल्क के भुगतान के बाद यह कीमत 11 हजार रुपए प्रति ट्रक हो जाती है. बिल्डिंग मैटीरियल सप्लायरों को प्रति ट्रक रोड़ी न्यूनतम 15 हजार रुपए प्रति ट्रक के हिसाब से बेची जाती है. इसलिए स्टोनक्रशर मालिक को प्रति ट्रक 4 हजार रुपए मुनाफा होता है जो मांग बढ़ने की स्थिति में 7-8 हजार रुपए प्रति ट्रक या डंपर तक हो जाता है.

खनन का ज्यादा विकृत रूप यमुना व हिंडन से रेत की खुदाई के रूप में दिखाई देता है. बताते हैं कि डेढ़ दशक पहले नोएडा इलाके के करीब 60 गांवों के लोग ही घर बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर यमुना-हिंडन से रेत निकाला करते थे. लेकिन पिछले 10-12 वर्षों में यहां के रियल एस्टेट सैक्टर में आए उफान की बदौलत यमुना व हिंडन से मिलने वाली मुफ्त की रेत के अच्छे दाम मिलने लगे. शुरूशुरू में तो रेत निकालने वालों को लागत के मुकाबले 80 फीसदी तक मुनाफा हुआ करता था क्योंकि तब मांग के मुकाबले रेत सप्लाई करने वाले कम थे लेकिन मौजूदा स्थिति में दर्जनों की संख्या में रेत सप्लाई करने वालों के बावजूद यह मुनाफा 50 फीसदी तक है.

फिलहाल, सरकारी ठेके से एक डंपर भर कर मिलने वाली रेत की कीमत14 हजार रुपए है लेकिन इस के लिए खनन करने वाले, प्राधिकरण को प्रति ट्रक या डंपर के हिसाब से शुल्क चुकाते हैं. यदि इतनी ही रेत अवैध खनन करने वालों से ली जाए, तो सप्लायर को उस के बदले प्रति ट्रक या डंपर  10 हजार रुपए ही देने पड़ते हैं. मांग बढ़ने पर यह राशि 2 से 5 हजार रुपए प्रति ट्रौली और 16 से 17 हजार रुपए प्रति डंपर हो जाती है. अवैध ढंग से खनन करने वाले माफिया गिरोहों को यमुना व हिंडन से निकाली गई रेत पर कोई शुल्क या टैक्स भी नहीं देना पड़ता है, इसलिए उन का मुनाफा काफी ज्यादा हो जाता है. हालांकि इस की भरपाई उन्हें पुलिस व प्रशासन (प्राधिकरण) के संबंधित अधिकारियोंकर्मचारियों को हर महीना सुविधाशुल्क यानी चंदा दे कर चुकानी पड़ती है. इस के बावजूद उन का 50 फीसदी मुनाफा तय माना जाता है.

मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि अकेले नोएडा क्षेत्र में ही करीब 1 करोड़ रुपए की रेत रोजाना यमुना और हिंडन से निकाली जाती है. जबकि यमुना खादर से सक्रिय अवैध खनन माफिया का कुल कारोबार प्रति माह 90 करोड़ रुपए का बताया जाता है. कहा जा रहा है कि कुल मिला कर यह 500 करोड़ के आसपास का अवैध कारोबार है. खनन के इस काम में कुल कितने लोग अवैध और वैध ढंग से लगे हैं, इस का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है पर एक आकलन के अनुसार तकरीबन 600 लोग इस धंधे में लगे हुए हैं. इन में प्रदेश में सत्ताधारी नेताओं के करीबी माने जाने वाले खनन माफिया का बड़े इलाके में होने वाली खनन गतिविधियों पर कब्जा है.

गठजोड़ का नतीजा

यदि कोई व्यक्ति कानूनी रूप से यमुना या हिंडन नदी से रेत निकालना चाहे तो इस की राह आसान नहीं है. इस के लिए सब से पहले सरकार का खनन विभाग जमीन या नदी के उन इलाकों को चिह्नित करता है जहां ऐसा खनन हो सकता है और जिस का पर्यावरण पर ज्यादा खराब असर पड़ने की आशंका नहीं होती है. इलाके की पहचान के बाद राज्य सरकार को खनन के कारण पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन कर के एक रिपोर्ट (एनवायर्नमैंट इंपैक्ट असेसमैंट यानी ईआईए को देनी होती है.

ईआईए की मंजूरी के बाद खनन विभाग चिह्नित इलाके के लिए खुली बोली के जरिए निविदाएं आमंत्रित करता है. ठेका हासिल करने वाले से लिए गए शुल्क को सरकारी खजाने में जमा कराया जाता है. कुल मिला कर यह प्रक्रिया बेहद लंबी है और चुने हुए इलाके में ही खनन की इजाजत मिलती है. लिहाजा, इस से न तो जरूरतें पूरी होती हैं और न ही खनन करने वाले को रातोंरात भारी मुनाफा हासिल होता है. इसलिए खनन माफिया का अवैध तंत्र विकसित हुआ है और सत्ता के गठजोड़ से यह नदियों को मनमाने ढंग से जब चाहे, जहां चाहे खंगाल रहा है.

मोदी से बेहतर शिवराज

भाजपा ने पीएम पद के लिए अपने नेता की अभी तक आधिकारिक घोषणा नहीं की है मगर भाजपा नेताओं के बीच मल्लयुद्ध छिड़ गया है. एक खेमा नरेंद्र मोदी की वकालत कर रहा है तो दूसरा शिवराज सिंह चौहान के कसीदे काढ़ने में जुटा है. पीएम पद के लिए इन दोनों में कौन बेहतर है, और किसे देश की जनता स्वीकार कर सकती है, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब 22 जुलाई को उज्जैन के महाकाल मंदिर में पूजा अर्चना कर अपनी चुनावी जन आशीर्वाद यात्रा की शुरुआत की थी तो प्रचार सामग्री से नरेंद्र मोदी को गायब देख आम लोग भी चौंके थे. शिवराज के पोस्टर्स पर सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह ही थे. इस से एक ?ाटके में देशभर में यह संदेश गया कि नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता नहीं हैं और उन के प्रधानमंत्री घोषित किए जाने की अभी चर्चा भर है, इस पर पार्टी ने आधिकारिक मोहर नहीं लगाई है.

दोटूक शब्दों में कहा जाए तो शिवराज सिंह ने कई बातें एकसाथ स्पष्ट कर दी हैं. पहली यह कि प्रदेश के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए उन्हें नरेंद्र मोदी की फोटो की जरूरत नहीं. दूसरी यह कि वे खुद इतने बड़े नेता हैं कि पार्टी नरेंद्र मोदी की फोटो लगाने को उन्हें विवश नहीं कर सकती और तीसरी जो इन सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि शिवराज सिंह भी नरेंद्र मोदी की बराबरी से प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हैं और प्रदेश विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को उन की कट्टरवादी छवि के चलते जगह दे कर अपनी 8 सालों की मेहनत पर पानी नहीं फेरना चाहते.

भाजपा आलाकमान खासतौर से राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह नरेंद्र मोदी को ले कर दिक्कतों से घिरे हैं जबकि सहूलियतें उन्हें शिवराज सिंह चौहान के नाम और कामों से मिली हुई हैं. शायद इसीलिए 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव तक नरेंद्र मोदी को वे प्रधानमंत्री घोषित नहीं कर और करवा पा रहे. कर्नाटक का सबक उन्हें भी याद है. इसलिए वे राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में मोदी के नाम पर कोई जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. वजह, भाजपा के आधे सांसद इन राज्यों से चुन कर आते हैं.

दिक्कतें ही दिक्कतें

नरेंद्र मोदी को पीएम पद के उम्मीदवार बनाने के मसले को ले कर नीतीश कुमार के प्रबल विरोध के चलते राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए पहले ही दोफाड़ हो चुका है, दूसरी दिक्कत महाराष्ट्र से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने यह कहते खड़ी कर रखी है कि भाजपा पहले इस पद को ले कर अपना रुख साफ करे तभी हम अपने पत्ते खोलेंगे. गौरतलब है कि बाल ठाकरे अपने जीतेजी शिवसेना की तरफ से सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद के लिए सब से काबिल नेता करार दे चुके थे. अपने पिता कीबात पर कायम रहते उद्धव ठाकरे ने अपनी पार्टी केमुखपत्र ‘सामना’ में छपे एक लेख में नरेंद्र मोदी को हिंदुओं का रक्षक नहीं भक्षक बताया था.

इसे महज इत्तफाक कह कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ऐसा तब हुआ था जब शिवराज सिंह चौहान मुंबई जा कर उद्धव से मिले थे और लंबी सियासी गुफ्तगू की थी. लाख मनाने पर भी ठाकरे, मोदी के नाम पर टस से मस नहीं हो रहे तो बात भाजपा के लिए चिंता की है, जिस ने महाराष्ट्र से बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं. उद्धव के साथ ज्यादा जोरजबरदस्ती करने से राजनाथ डर रहे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि कल को वे भी नीतीश की राह पर चलते एनडीए से किनारा कर लें.

दिक्कतें अंदरूनी भी हैं. जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोकप्रिय नेता बेधड़क मोदी का विरोध करने से नहीं चूकते, यहां तक कि नतीजे की परवा भी नहीं करते इस से सहज समझा  जा सकता है कि मोदी भाजपा के लिए एक मजबूरी की देन हैं जिस का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है. जाहिर है, भाजपा में अभी भी आडवाणी गुट कहीं ज्यादा मजबूत है. इस का एक बड़ा प्रमाण शिवराज सिंह का दिया वह बयान है जिस में उन्होंने साफ कहा था कि प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ही बनेंगे. खुद की दावेदारी पर शिवराज एक खास किस्म की मुसकराहट के साथ कहते हैं, ‘अपनी बात मैं उचित मंच से कहूंगा.’

इन सब से बड़ी दिक्कत देश के आम और खास आदमी के बीच चल पड़ी वह राजनीतिक चर्चा है जो अब बहस में बदलती जा रही है कि आखिरकार जब उग्र हिंदूवाद का दौर थम गया था तो मोदी को आगे कर क्यों उसे हवा दी जा रही है? अल्पसंख्यकों खासतौर से मुसलमानों में दहशत क्यों पैदा की जा रही है? मोदी की सांप्रदायिक छवि लोग हजम नहीं कर पाए थे, न अब कर पा रहे हैं. नरेंद्र मोदी मुसलिम टोपी पहनने से मना कर दें, यह उन का व्यक्तिगत मामला या सोच हो सकती है जो उन का कट्टरवादी चेहरा उजागर करती है.

अटल बिहारी वाजपेयी का कोई डर या खौफ मुसलमानों के दिलोदिमाग पर कभी नहीं रहा. लालकृष्ण आडवाणी का था जो जिन्ना की मजार पर कसीदे पढ़ने से कम हुआ था तो आरएसएस ने उन्हें अपनी प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा को टारगेट बना लिया और अब वह मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने पर तुला है. नरेंद्र मोदी कभी आडवाणी को रास नहीं आए. गोआ मीटिंग के बाद का नाटक इस का गवाह है. अब वे अपनी ख्वाहिश को शिवराज सिंह के जरिए पूरी होते देखना चाहें तो बात सियासत के लिहाज से कतई हैरानी की नहीं होगी.

भाजपा को इंतजार 4 राज्यों के विधानसभा के नतीजों का है अगर मध्य प्रदेश में तीसरी बार शिवराज सिंह की अगुआई में उसे सरकार बनाने का मौका मिला तो साफ दिख रहा है कि शिवराज मोदी से कहीं आगे होंगे. इस बात के पीछे भोपाल के एक भाजपा कार्यकर्ता की इस दलील में दम है कि आखिर शिवराज और मोदी में वरिष्ठता और अनुभव के मामले में अंतर क्या है. अगर किसी राज्य में लगातार तीसरी जीत पैमाना है तो बस 4 महीने और इंतजार कीजिए.

शिवराज सिंह के साथ मुसलमानों को ले कर कोई दिक्कत नहीं है. मध्य प्रदेश में 6 करोड़ के हज हाउस का शिलान्यास कर शिवराज ने मोदी से भिन्नता दिखाई और बीती 6 अगस्त को रोजा इफ्तार पार्टी भी सीएम हाउस में आयोजित कर मुसलमानी टोपी भी पहनी. 2 दिन बाद ईद के दिन तो फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने मोदी को कोसते हुए मुसलिम समुदाय का रुख साफ कर दिया जिस के अपने अलग माने हैं.

सियासत टोपी की

मशहूर फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने भोपाल में ईद के दिन नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान में फर्क जता कर सियासी सनसनी तो मचाई ही साथ ही यह भी उजागर कर दिया कि आम मुसलमान का नजरिया इन दोनों भाजपा मुख्यमंत्रियों के बारे में क्या है. हजारों लोगों की मौजूदगी में रजा मुराद ने फिल्मी अंदाज में बोलते हुए कहा कि शिवराज सिंह बहुत अच्छे इंसान हैं पर भाजपा के कुछ लोग अच्छे नहीं हैं. शिवराज सिंह कुत्तों के बच्चों से नहीं इंसानों से ईद मिलने आए हैं. जनता जिसे चाहेगी वही प्रधानमंत्री बनेगा, मुल्क पर हुकूमत करनी है तो दिल से जुड़ना पड़ेगा.

चौतरफा ध्रुवीकरण

वोटों का धु्रवीकरण तो मोदी के नाम के साथ ही हुआ मान लिया गया था. इस बाबत सियासी जानकारों को ज्यादा जहमत नहीं उठानी पड़ी थी. सभी की नजर में गोधरा कांड और गुजरात के दंगे 1947 के बंटवारे के वक्त और बाबरी मसजिद ढहाए जाने के बाद हुए दंगों से कम कहर ढाने वाले नहीं थे. मुसलमान पीढि़यों तक उन्हें नहीं भूल पाएगा और चूंकि मोदी ने कभी माफी नहीं मांगी इसलिए वोट तो उन के नाम पर भाजपा को मिलने से रहे.

अलगअलग राज्यों में गैरभाजपाई दलों में मुसलिम वोट बंटना तय दिख रहा है. मोदी के यह कहने पर किसी ने गौर ही नहीं किया कि मैं अकेले हिंदुओं का नेता नहीं हूं. सब से बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश, जहां से प्रधानमंत्री पद का रास्ता जाता है, में मुसलिम वोट सीधेसीधे सपा और बसपा के खाते में जाते दिख रहे हैं तो बिहार में जदयू के खाते में, जहां नीतीश कुमार वक्त रहते संभल गए.

दिल्ली, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस को फायदा मिलेगा पर मध्य प्रदेश में हालात 2005 जैसे ही हैं. वजह, शिवराज सिंह ने हिंदूवादी संगठनों के कड़े विरोध के बाद भी हज हाउस वहीं बनने दिया जहां नजदीक ही मंदिर है. सरकारी तीर्थयात्रा में उन्होंने अजमेर शरीफ को शामिल कर अपने मंसूबे पहले ही साफ कर दिए थे. कई धड़ों में बंटी कांग्रेस पिछली बार की तरह मुसलमान वोट ले जा पाएगी, इस में शक है. तीसरी ताकतें भी यहां निर्णायक स्थिति में नहीं हैं.

यह सोचना नादानी है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर धु्रवीकरण सिर्फ मुसलिम वोटों का ही होगा, बहुजन संघर्ष दल के मुखिया फूलसिंह बरैया की मानें तो, असल धु्रवीकरण तो हिंदू वोटों का होगा. दलित, आदिवासी पहले सा बुद्धू नहीं रहा. वह जानता है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो सब से ज्यादा दुर्गति उसी की ही होगी. जिस दल का मुखिया ही मनुवादी हो और सिर्फ ऊंची जाति वालों व व्यापारियों को ही हिंदू मानता हो उसे इन तबकों से वोट की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए.

बात में दम इसलिए भी है कि गुजरात में दलित आदिवासियों के लिए खास काम नहीं हुए हैं. इन वर्गों को ले कर शिवराज सिंह हमेशा ही चौकन्ने रहे हैं. इसलिए अगस्त के पहले हफ्ते में ही उन्होंने अपनी ‘आशीर्वाद यात्रा’ के दौरान पूर्व मंत्री और वजनदार आदिवासी नेता विजय शाह को वापस ले लिया था, जिन्हें उन की पत्नी साधना सिंह पर जुमले कसने के आरोप में बाहर का रास्ता दिखाया गया था.

शिवराज ने इन तबकों के लिए पंचायतें भी आयोजित कीं और उन के भले के लिए ताबड़तोड़ घोषणाएं भी कीं. इसी बूते पर वे ताल ठोंक कर मैदान में हैं और तमाम सर्वेक्षणों और चर्चाओं में फायदे में बताए जा रहे हैं. शिवराज की लोकप्रियता से परेशान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने सिपहसालारों को हुक्म दिया था कि वे शिवराज को निशाने पर रखें. शिवराज सिंह इस का भी फायदा उठाने से नहीं चूके. 6 अगस्त को उन्होंने नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह पर मानहानि का दावा ठोक डाला. उन्होंने अदालत में कहा कि अजय सिंह व्यक्तिगत आलोचना पर उतर आए हैं, यह कहते फिर रहे हैं कि सीएम हाउस में उन की पत्नी साधना सिंह ने नोट गिनने की मशीन लगा रखी है. साधना सिंह ने भी इसी अंदाज में अदालत में बयान दिया तो कांग्रेस सकते में है कि वह इन हालात से कैसे निबटे. किसी को उम्मीद नहीं थी कि शिवराज सिंह अदालत भी जा सकते हैं. भावनात्मक दबाव की राजनीति करते शिवराज सिंह की नजर बहुत दूर की मंजिल को देख रही है.

महत्त्वाकांक्षी शिवराज सिंह की नजर देश के सब से बड़े पद पर है इसलिए वे फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं और विधानसभा चुनाव उन की प्राथमिकता में हैं. अपनी राह में कोई अड़ंगा वे बरदाश्त नहीं करते. अपने चहेते नरेंद्र सिंह तोमर को वे पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनवा कर ले आए तो उमा भारती को भी खामोश रहने को मजबूर कर दिया.

शिवराज मोदी से बेहतर क्यों हैं, इस सवाल पर मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ मंत्री का नाम न छापने की शर्त पर दोटूक कहना है, ‘इसलिए कि शिवराज के नाम पर कोई विवाद नहीं है, किसी वर्ग में दहशत नहीं है और विरोध नहीं है. मोदी को तो हमारी पार्टी ने ही ठोंकठोंक कर राष्ट्रीय नेता बना दिया है, वे तो अभी से खुद को पीएम सम?ाने लगे हैं.’ इस मंत्री के मुताबिक शिवराज सिंह चौहान में धैर्य भी है, नम्रता भी और शिष्टता भी. उलट इस के, नरेंद्र मोदी चाहते हैं जल्द से जल्द उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाए.

हिंदू राष्ट्रवादी होने के माने

नरेंद्र मोदी खुद को इसलिए बड़े फख्र से हिंदू राष्ट्र्रवादी कहते हैं क्योंकि कट्टर हिंदूवादी कहेंगे तो ज्यादा बवाल मचेगा. यह हिंदू राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी क्या बला है और क्यों है, इस का जवाब अच्छेअच्छे चिंतकों और दार्शनिकों के पास नहीं है. आजादी की लड़ाई में आरएसएस के लोग न के बराबर थे क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य में उन्हें ज्यादा सहूलियत लगती थी, जैसे वर्णवाद का बने रहना. असल लड़ाइयां आजादी के बाद शुरू हुईं जब आरएसएस ने रामराज्य परिषद और हिंदू महासभा जैसे हिंदूवादी दलों के जरिए हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा पर चलना शुरू किया. ये दोनों दल छोटी जाति के हिंदुओं की अनदेखी पर काम करने को तैयार नहीं हुए तो जनसंघ को जन्म दिया गया जो अब भारतीय जनता पार्टी बन कर देश के सब से बड़े दूसरे दल की शक्ल में सामने है.

आरएसएस का 3 शब्दों का एजेंडा बेहद साफ है ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान, ‘जिस पर वर्तमान में नरेंद्र मोदी ही खरे उतर रहे हैं और धर्म थोपने वाले इस दर्शन पर चलते हुए प्रधानमंत्री बनने को तैयार भी हैं. शिवराज सिंह सरीखे जानते हैं कि लोकतंत्र में यह फार्मूला चलने वाला नहीं, इसलिए वे इस से हट कर चलने का जोखिम भी उठा रहे हैं. संविधान की धार्मिक स्वतंत्रता के तहत नरेंद्र मोदी की तर्ज पर कोई मुसलमान अगर खुद को मुसलिम राष्ट्रवादी और ईसाई, ईसाई राष्ट्रवादी कहे तो बात उतनी ही अटपटी और बेतुकी लगेगी जितनी नरेंद्र मोदी के मुंह से यह निकलना कि मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं.

कट्टरपंथी तो हिंदू, दलितों और आदिवासियों को भी पूर्ण हिंदू नहीं मानते हैं. उन की हालत अभी भी दोयम दरजे की है. मुसलमान और ईसाई तो इन की नजर में पहले से ही म्लेच्छ हैं. जाहिर है, नरेंद्र मोदी के नाम पर 20 फीसदी हिंदू हल्ला मचा रहे हैं जो सवर्ण और कुछ पिछड़ी जातियों के हैं. आरएसएस नरेंद्र मोदी के अच्छेबुरे का आंख बंद कर समर्थन कर रहा है. उस के मुखिया मोहन भागवत स्पष्ट कर चुके हैं कि गुजरात या मध्य प्रदेश का विकास मौडल चुनावी मुद्दा नहीं है. जाहिर है, आरएसएस हिंदुत्व के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ना चाहता है जिस की कोई परिभाषा नहीं, न ही लोकतंत्र में जरूरत है. इसीलिए सभी पिछड़ी जातियां भी खुल कर मोदी के पक्ष में नहीं आ रहीं. वल्लभभाई पटेल के नाम पर भाजपाई अभी तक एक क्ंिवटल लोहा भी इकट्ठा नहीं कर पाए हैं क्योंकि यह नाम ही सवर्णों को रास नहीं आ रहा. दलित आदिवासियों की तो मौजूदा पीढ़ी गांधीनेहरू के अलावा किसी और को जानती भी नहीं.

हकीकत तो यह है कि खुद नरेंद्र मोदी भ्रमित हैं कि तथाकथित हिंदुओं में 1993 जैसा करंट क्यों नहीं आ रहा. शायद ही मोदी या आरएसएस यह सम?ा पाए कि 20 साल में लोगों की मानसिकता काफी बदली है, अमनचैनपसंद लोग अब किसी तरह का दंगाफसाद या दूसरा सामाजिक और धार्मिक तनाव बरदाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं. इस में युवा पीढ़ी सब से आगे है जो वोटों का 40 फीसदी है. आरएसएस का सोचना यह था कि नरेंद्र मोदी को आगे करते ही कांग्रेस बौखला कर राहुल गांधी का नाम आगे कर देगी जिस से उस की लड़ाई का केंद्रीयकरण हो जाएगा पर हुआ उलटा, नरेंद्र मोदी के नाम पर वोटों का धु्रवीकरण किया जाना शुरू हो गया है. दूसरी दिक्कत सवर्णों की नई पीढ़ी है जो खुद को गर्व से भारतीय कहलाना तो पसंद करती है पर हिंदू नहीं.

तेलंगाना अभी और भी हैं

राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के आधार पर अलग तेलंगाना राज्य की मांग अरसे से उठती रही है पर हर बार इस मुद्दे को सत्तासीन कांग्रेस के राजनीतिक छलबल का शिकार होना पड़ा. अब उसी कांग्रेस की सरकार ने तेलंगाना को हरी झंडी दे दी है. नतीजतन, देश में नए सिरे से कई अलग राज्यों की मांगें उठने लगी हैं. पढि़ए लोकमित्र का विश्लेषणपरक लेख.

सालों के रायमशवरे के बाद भी तेलंगाना मसले पर जब इस साल के शुरू में कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं की राय आपस में बंटी हुई थी तो राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान यही था कि शायद इस की बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर नेता तेलंगाना के मुद्दे को वर्ष 2014 के आम चुनावों से जोड़ कर देख रहे हैं. लिहाजा, सोचा यह गया कि तेलंगाना को ले कर शायद अगले साल की शुरुआत में ही कोई बड़ा फैसला हो. लेकिन 10 जनपद की हरी झंडी के बाद आंध्र प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी दिग्विजय सिंह ने 30 जुलाई की शाम को एक बड़ी ब्रेकिंग न्यूज दी. यह बड़ी सुर्खी थी तेलंगाना को हरी झंडी.

इस तरह भारत के नक्शे में तेलंगाना नाम के 29वें राज्य का उदय होना तय हो गया है. वैसे घोषणा के बाद का स्वाभाविक हंगामा अभी तक थमा नहीं है. अब तक कई दर्जन विधायक और सांसद तेलंगाना के विरोध में इस्तीफा दे चुके हैं. इन में दूसरी पार्टियों के साथसाथ कांग्रेस के विधायक और सांसद भी हैं.

वैसे कांग्रेस में मुख्यधारा के बड़े नेता कभी भी तेलंगाना के पक्ष में नहीं रहे. इतिहास गवाह है कि एम चेन्ना रेड्डी से ले कर वाई एस राजशेखर रेड्डी तक इसीलिए बारबार वादा कर के मुकर जाते रहे हैं. शायद यह इतिहास का हैंगओवर ही था कि 28 दिसंबर, 2012 को आंध्र प्रदेश में सक्रिय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से मुलाकात करने के बाद जब केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार श्ंिदे ने घोषणा की थी कि 1 माह के भीतर तेलंगाना के मुद्दे पर अंतिम निर्णय ले लिया जाएगा, तब भी किसी को इस की उम्मीद नहीं थी.

भले ही इस घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश में यह उम्मीद बढ़ गई थी कि 28 जनवरी, के गठन का ऐलान कर देगी. लेकिन 28 जनवरी से पहले ही कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार अपने वादे से पीछे हट गई और इस के लिए बहुत भोला सा कारण गृहमंत्री ने ही दिया कि हमें इस संवेदनशील मुद्दे पर फैसला करने के लिए अभी और वक्त चाहिए. बहरहाल, अब कांग्रेस से मिली सरकार को हरी झंडी के बाद तेलंगाना का अलग राज्य के रूप में स्थापित होना लगभग तय है.

भारत में राज्यों के गठन का इतिहास जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि तेलंगाना को ले कर कांग्रेस की दुविधा नई नहीं थी. दरअसल, जब 22 दिसंबर, 1953 को न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ तब पंडित जवाहरलाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का विरोध कर रहे थे, मगर ज्यादातर लोग इस के पक्ष में थे. आयोग का गठन हुआ और इस ने 30 सितंबर, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी.

आयोग के 3 सदस्यों में जस्टिस फजल अली के अलावा हृदयनाथ कुंजरू और के एम पणिक्कर थे. आयोग की रिपोर्ट आने के बाद 1956 में नए राज्यों का गठन हुआ और 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश अस्तित्व में आए. 1 नवंबर, 1956 को मद्रास रैजिडेंसी से अलग हो कर आंध्र प्रदेश देश का पहला भाषाई आधार पर राज्य गठित हुआ. लेकिन पहले दौर से ही बात नहीं बनी. यही कारण है कि 1956 में जहां आंध्र प्रदेश के गठन के साथ ही देश में भाषाई आधार पर राज्यों की गठन की कहानी शुरू हुई वहीं आंध्र प्रदेश के बंटवारे के साथ ही भाषाई आधार पर गठित राज्यों का तर्क बेमानी हो गया.

1960 में एक बार फिर से राज्य पुनर्गठन का दूसरा दौर चला जिस के चलते 1960 में बंबई राज्य को तोड़ कर महाराष्ट्र और गुजरात बनाए गए. 1966 में पंजाब का बंटवारा हुआ और हरियाणा व हिमाचल प्रदेश 2 नए राज्य अस्तित्व में आए. हिमाचल में जहां हिमाचली और डोगरी बोली जाती थी, वहीं हरियाणा में हिंदी का बोलबाला था और मौजूदा पंजाब, पंजाबी का गढ़ था. हालांकि लग रहा था कि भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन एक वैज्ञानिक तरीका है लेकिन बहुत जल्द ही इस विचार की भी सीमाएं नजर आने लगीं. क्योंकि दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग के बाद भी नए राज्यों की मांगों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ.

कई और राज्यों में बंटवारे की मांग उठने लगी और इसे चाहे राजनीतिक मजबूरी कहें या राजनीतिक फायदे का गणित, कई और राज्यों का गठन करना ही पड़ा. 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा बनाए गए. 1987 में मिजोरम का गठन किया गया और केंद्र शासित राज्य अरुणाचल प्रदेश और गोआ को पूर्ण राज्य का दरजा दिया गया. आखिर में 2000 में भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की गठबंधन सरकार ने उत्तराखंड, ?ारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया.

इस पूरी हलचल में तेलंगाना का मुद्दा बारबार आताजाता रहा, लेकिन किसी फैसले तक नहीं पहुंचा. दरअसल, यह उस राज्य पुनर्गठन के आधार पर ही सवाल खड़ा कर रहा था जो भाषा के आधार पर टिका था. क्योंकि तेलुगुभाषियों की अस्मिता को ध्यान में रख कर 1956 में देश में सब से पहला राज्य आंध्र प्रदेश गठित हुआ था.

अब उसी आंध्र प्रदेश को 2 टुकड़ों में विभाजित करने के लिए अगर तेलुगु भाषा को वैचारिक आधार बनाया जाए तो यह हास्यास्पद ही होता क्योंकि तेलंगाना में तो तेलुगु बोली ही जाएगी, शेष आंध्र प्रदेश की भी मुख्य भाषा यही होगी. शायद यही एक बड़ी वजह थी जिस के चलते 2000 के पहले कांग्रेसियों को यह नहीं सू?ा रहा था कि तेलंगाना बंटवारे को तार्किक कैसे ठहराया जाए. मगर जब 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने 3 हिंदी भाषी प्रांतों को बांट कर एक नया इतिहास रचा तो तेलंगाना की मांग और तेज हो गई.

हालांकि गौरतलब तथ्य यही है कि तेलंगाना की मांग के पीछे न तो मजबूत अस्मिता का सवाल है और न ही कुशल प्रशासन और विकास ही मुख्य मुद्दे हैं. क्योंकि अस्मिता की बात करेंगे तो रौयल सीमा और तटीय आंध्र की भी तेलुगु अस्मिता ही है इसलिए अलग से तेलंगाना को इस का ?ांडा उठाने की जरूरत नहीं थी. इसी तरह अगर विकास या प्रशासनिक चुस्ती मुद्दा होती तो अलग राज्य के बजाय एक अलग विकास परिषद या प्राधिकरण की मांग होती जैसे पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड मौजूद है. वास्तव में अलग तेलंगाना की मांग अलग राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की मांग थी. फिर भी इस के लिए केंद्र में मौजूदा सत्तासीन कांग्रेस का राजनीतिक छलबल देखने लायक है.

दरअसल, तेलंगाना को ले कर कांग्रेस  द्वारा लिया गया निर्णय बताता है कि उस के लिए मौजूदा राजनीतिक समीकरण में आंध्र प्रदेश बहुत महत्त्वपूर्ण है. पिछले 2 आम चुनावों से यह आंध्र प्रदेश ही है जो कांग्रेस के लिए केंद्र में सत्ता हासिल करने का जरिया बन रहा है. लेकिन अब राज्य में बंटवारे की बात जिस हद तक पहुंच गई थी उस को ले कर कांग्रेसी दांव भी खेलना चाहते थे और डरे हुए भी थे. लंबे समय तक वे समझ नहीं पा रहे थे कि बंटवारे के बाद उन्हें राजनीतिक रूप से फायदा होगा या नुकसान.

बहरहाल, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को तेलंगाना के मसले को ले कर पार्टी के अंदर ही अलगअलग तरह की आवाजें सुनने को मिल रही हैं. जो लोग बंटवारा चाहते थे वे खुश हैं. उन के मुताबिक, अगर तेलंगाना नहीं बनता तो कांग्रेस का जहाज इस बार के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश की दलदल में डूब जाता और जो कह रहे हैं बंटवारा नहीं होना चाहिए, उन का मानना है कि अब आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की लुटिया डूब जाएगी.

ज्ञात हो कि पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश कांग्रेस का शक्ति केंद्र बन कर उभरा है. कांग्रेस आंध्र प्रदेश में अपनी शानदार जीत की बदौलत ही केंद्र में सत्तासीन हुई है. 2004 में संपन्न आम चुनावों में कांग्रेस को 42 में से 29 लोकसभा सीटें मिली थीं जबकि तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 5 सीटें जीती थीं. 2009 के चुनावों में राजनीतिक पंडितों को भी यह आशा नहीं थी कि कांग्रेस 5 साल पहले के अपने विजय अभियान को दोहरा सकेगी लेकिन कांग्रेस ने न सिर्फ यह कर के दिखाया बल्कि 2009 में अपने पुराने आंकड़े को और बेहतर बनाया. उस ने 42 में से 33 सीटों पर कब्जा जमाया. कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए अगर 200 सीटों का जादुई आंकड़ा पार किया तो इस में आंध्र प्रदेश में जीती गई 33 सीटों का बड़ा हाथ था.

शायद इसी वजह से कांग्रेस में तेलंगाना को ले कर पक्ष और विपक्ष के 2 खेमे बन गए थे. अपने त्वरित राजनीतिक फायदों को ध्यान में रखने के कारण पिछले कुछ सालों में कांग्रेस ने तेलंगाना के मामले को धीरेधीरे बरगलाया भी है जिस की शुरुआत एम चेन्ना रेड्डी ने तेलंगाना ‘प्रजा राज्यम’ के कांग्रेस में विलय के साथ शुरू की थी, लेकिन नए सिरे से 2004 में इसे बरगलाने का काम कांग्रेस के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी ने किया. उन्होंने धमाकेदार जीत और तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ सम?ौता कर के इस मुद्दे को तकरीबन अप्रासंगिक बना दिया.

सच बात तो यह है कि कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में तेलंगाना को ले कर उस के पैरों के नीचे से खिसकती मिट्टी का पता ही नहीं चलता अगर पिछले साल उपचुनावों में कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना नहीं करना पड़ता. पिछले साल आंध्र प्रदेश में 18 विधानसभा सीटों और 1 लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए. इन उपचुनावों में वाई एस राजशेखर के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस को पूरी तरह से बौखला दिया क्योंकि 18 विधानसभा सीटों में से 15 के साथसाथ अकेली लोकसभा सीट का उपचुनाव भी वाई एस आर कांग्रेस के खाते में गया. इस से कांग्रेस चौंकी कि वाई एस आर की ही तरह उन का बेटा भी प्रदेश में गेमचेंजर न साबित हो. वास्तव में तेलंगाना को ले कर कांग्रेस की असमंजस की रणनीति और जगनमोहन रेड्डी को ले कर उस का ढुलमुल रवैया इसी का नतीजा था. अब जबकि कडप्पा से सांसद जगन मोहन रेड्डी अपनी मां विजय लक्ष्मी और पार्टी के सभी विधायकों और इस मुद्दे को ले कर इस्तीफा दे चुके हैं तो कांग्रेस एक बार फिर पसोपेश में है कि कहीं यह दांव उलटा न पड़ जाए.राज्य में इन उपचुनावों ने उन कांग्रेसियों को यह हल्ला मचाने का मौका दे दिया जो तेलंगाना के पक्ष में हैं. इसी के जरिए उन्होंने यह माहौल बनाना शुरू कर दिया कि अगर तेलंगाना को जल्द नहीं बनाया गया तो यह कांग्रेस के लिए घातक होगा.

इन राजनेताओं का कहना है कि अलग राज्य का निर्णय ही कांग्रेस को राज्य में अपना अस्तित्व बरकरार रखने दे सकता है और इस से कांग्रेस टीआरएस पर भारी पड़ सकती है. इस धड़े के नेताओं के मुताबिक अगर कांग्रेस तेलंगाना राज्य बनाती है तो फिर टीआरएस के साथ मिल कर वह बाकी राजनीतिक पार्टियों का सूपड़ा साफ कर सकती है. इन की राय में यही एक तरीका है जिस से क्षेत्र में कांग्रेस एक बार फिर से 2014 में अपना डंका बजा सकती है.

बहरहाल, तेलंगाना राज्य का जो मुद्दा कांग्रेस के लिए अब भावुक सियासत के गले में हड्डी सा बन गया है, अब गले उतर चुका है. वह कई बार राज्य की जनता को इस आश्वासन पर बरगला चुकी थी कि वही अलग तेलंगाना राज्य बनाएगी और अब वही कांग्रेस इस चिंता में है कि कहीं तेलंगाना की घोषणा मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ना न साबित हो क्योंकि देश के अलगअलग क्षेत्रों से अलग राज्य बनाने की पुरानी और नई मांगें फिर से जोर पकड़ रही हैं, जिन में असम में बोडोलैंड, पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड, महाराष्ट्र में विदर्भ, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश, पूर्वांचल और व्रज प्रदेश के अलावा बुंदेलखंड की भी मांग नए सिरे से उठाई जाएगी तो मध्य प्रदेश में महाकौशल राज्य की मांग नाक में दम कर सकती है.   

-साथ में साधना शाह

भूमि अर्जन विधेयक 2011, कानून के सहारे हक?

आम चुनाव से पहले सरकार खुद के दामन में लगे महंगाई व  भ्रष्टाचार के दागों को धोने के लिए भले ही भूमि अर्जन विधेयक का सहारा ले रही हो, लेकिन इस प्रस्तावित कानून के प्रावधानों से भूमिहीनों और गरीब किसानों को जमीन व संपत्ति वितरण व्यवस्था के मामले में बड़ी राहत मिलेगी, बशर्ते नौकरशाही और कानूनी दांवपेंच  अड़ंगा न डालें. पढि़ए जगदीश पंवार का लेख.

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार ने संसद के मौजूदा मानसून सत्र में नए भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित कराने के लिए कमर कस ली है, हालांकि तमाम दलों को मनाने के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी व द्रमुक जैसे दल अभी भी नाखुश हैं. सरकार अपने सब से बड़े प्रतिद्वंद्वी विपक्ष भाजपा की कुछ शर्तों के आगे ?ाक कर उसे मनाने में कामयाब रही. इधर कौर्पोरेट जगत समेत भूमि अधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता बिल के मौजूदा स्वरूप से नाराज हैं. कौर्पोरेट जगत को तो ऐसा लग रहा है मानो उस से उस का जन्मसिद्ध अधिकार छीना जा रहा है.

उद्योग जगत पहले इस बात से हैरान था कि भूमि अधिग्रहण बिल पर संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश सरकार के सामने रखी तो निजी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण के अवसर सीमित करने वाले इस बिल को ले कर सरकार ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? कौर्पोरेट सैक्टर का मानना है कि बिल के प्रावधान इंडस्ट्री के लिए अच्छे नहीं हैं. उधर, आदिवासियों, दलितों, भूमिहीनों और विस्थापितों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन इन लोगों के पुनर्वास संबंधित प्रावधानों को ले कर संतुष्ट नहीं हैं. किसान आंदोलन के अगुआ नेताओं का मानना है कि इस कानून से किसानों को ज्यादा लाभ नहीं होगा.

कुछ राजनीतिबाज भी बिल में किसानों के लिए पर्याप्त मुआवजे का प्रावधान न होने पर विरोध  जता रहे हैं लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि कौर्पोरेट, जंगलों, आदिवासियों, और किसानों की बात करने वाले गैर सरकारी संगठनों के असंतुष्ट रुख को देखते हुए हम ने बीच का रास्ता निकाला है. वास्तव में आम चुनाव से पहले संप्रग सरकार शहरियों व ग्रामीण भूमालिकों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, किसानों की हितैषी दिखने की कोशिश कर रही है और अपने दामन पर लगे महंगाई, भ्रष्टाचार, असुरक्षा जैसे तमाम दाग धो देना चाहती है.

दरअसल, मौजूदा भूमि अधिग्रहण विधेयक में कौर्पोरेट क्षेत्र की अधिक तरफदारी है. उस में भूस्वामियों की जमीनें जबरन छीन लेने तक के प्रावधान हैं, इसलिए कौर्पोरेट को प्रस्तावित नए कानून के प्रावधानों  और उस के आगे हरदम ?ाकी रहने वाली सरकार के रवैये से हैरानी हो रही है.

नए ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक-2011’ के मसौदे पर गौर किया जाए तो उस में न केवल सरकारी व जनहित विकास परियोजनाओं, उद्योग जगत और शहरियों का, बल्कि ग्रामीणों, किसानों, भूमिहीन मजदूरों, आदिवासियों तक का पूरा खयाल रखा गया है. बिल में भूमालिकों की जमीन को संरक्षित रखने और पर्याप्त मुआवजे व रोजगार तक का इंतजाम किया गया है.

दरअसल, ग्लोबलाइजेशन के दौर में पिछले करीब 2 दशक में सरकारी विकास परियोजनाओं और निजी उद्योगों की स्थापना के कारण शहरी लोगों की ही नहीं, ग्रामीण किसानों, मजदूरों, आदिवासियों की दिक्कतें भी बढ़ने लगीं. विभिन्न परियोजनाओं से मौजूदा कानून में सही मुआवजे और पुनर्वास के पर्याप्त प्रावधान न होने की वजह से शहरी भी अपने घर, जमीन से बेदखल हुए तो गरीब किसानों को भी अपनी जमीन और आजीविका से महरूम होना पड़ा.

इस दौरान बुनियादी ढांचागत और औद्योगिक विकास के नाम पर देश में बड़े पैमाने पर जमीनों, शहरों में मकानों, दुकानों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों का सरकारों व निजी कंपनियों के लिए अधिग्रहण किया गया. सदियों से जो लोग जिस जमीन पर रह रहे थे, उन्हें वहां से जबरन बेदखल कर दिया गया. ग्रामीण लोगों के पास शहरों के स्लम क्षेत्रों की ओर पलायन कर के मजदूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा तो शहरियों को अन्यत्र कामधंधा और रिहाइश तलाशनी पड़ी. यह सब हुआ देश के मौजूदा भू अधिग्रहण कानून की वजह से. वर्तमान भू मालिकाना कानून बहुत ही असमान और अन्यायपूर्ण वितरण वाला है.

पश्चिम बंगाल के सिंगूर का मामला इसी तरह का है. कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने टाटा कंपनी को नैनो कार का प्लांट लगाने के लिए सिंगूर के किसानों की 1 हजार एकड़ जमीन जबरन ले ली. अपनी जमीन से बेदखल और विस्थापित हुए किसानों ने विरोध किया तो पुलिस ने उन्हें मारापीटा. घरों में घुस कर महिलाओं को बेइज्जत तक किया गया. इसी दौरान विधानसभा चुनाव आए तो तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने किसानों के साथ खड़े हो कर नैनो प्लांट का विरोध किया. टाटा को विरोध के चलते सिंगूर प्लांट छोड़ने पर मजबूर कर दिया. बाद में जब ममता बनर्जी ने 2011 में राइटर्स बिल्ंिडग में सत्ता संभाली तो उन्होंने किसानों के हक के लिए ‘सिंगूर रिहैबिलिटेशन ऐंड डैवलपमैंट बिल-2011’ पारित कराया और किसानों को उन की 997 एकड़ जमीन वापस दिलाई. इस पर टाटा कंपनी सरकार के इस कदम के खिलाफ अदालत में चली गई. यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है. यानी वर्ष 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून जो आज भी वजूद में  है किसानों के खिलाफ और टाटा जैसी कंपनियों के पक्ष में है. कानून में किसानों की जमीनें जबरन छीनने का हक तो सरकार के पास है पर पीडि़तों के पुनर्वास का दायित्व नहीं. इसीलिए सरकारें अब तक कौर्पोरेट कंपनियों के पक्ष में खड़ी दिखाई देती रही हैं पर किसानों, आदिवासियों, मजदूरों के खिलाफ रही हैं. लिहाजा, नए भूमि अर्जन बिल में संप्रग सरकार द्वारा इन सब खामियों को दूर करने का प्रयास किया गया है.     

फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) की अध्यक्ष नैनालाल किदवई कहती हैं कि नया बिल बड़ी उत्पादन परियोजनाओं हेतु भूमि अधिग्रहण के लिए सही नहीं है. पोस्को और आर्सेलर मित्तल जैसी परियोजनाओं को जमीन मिलने में देरी नहीं चल सकती. कोई भी इतने सालों तक इंतजार नहीं कर सकता. पोस्को जैसी कंपनी ने बड़ा धैर्य रखा. यानी उद्योग जगत यथास्थिति चाहता है कि सरकार किसानों की जमीनें जबरदस्ती छीन कर उन्हें देती रहे चाहे किसान, भूस्वामी अपनी आजीविका खोएं या बेजमीन हो जाएं.

किदवई आगे कहती हैं कि अगर नया बिल मौजूदा स्वरूप में पेश किया जाता है तो बड़ी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण करना संभव नहीं हो सकेगा. फिक्की अध्यक्ष को मुआवजे और पुनर्वास वाले प्रावधान पर भी एतराज है. वे कहती हैं कि पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापना की शर्त तब नहीं होनी चाहिए जब बड़ी निजी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण खरीदार और विक्रेता की आपसी रजामंदी से होता है. उद्योग जगत का यह सामंती विचार है कि भूस्वामी से जमीन ले कर उसे बस चलता कर दिया जाए चाहे वह कुछ भी करे. इस खरीद में अकसर जबरन धमकी देने का भी कार्य करा जाता है. खेतों के मालिकों के खिलाफ मुकदमे दायर कर दिए जाते हैं, गुंडों से पिटवा दिया जाता है.

इसी सोच की वजह से पिछले समय में हुए जमीन अधिग्रहण के मामलों में कई दुष्परिणाम देखने में आए. सरकारों ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश में जिन किसानों से भूमि अधिग्रहण की वे बेरोजगार हो गए. उन्हें मुआवजे के मिले पैसों का न तो सदुपयोग करना आया न वे उस पैसे को पचा पाए, नतीजतन, बेरोजगारी और अपराध पनपने लगे. कन्फैडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) का भी कहना है कि भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवारों की सहमति 80 प्रतिशत की जगह घटा कर 60 प्रतिशत की जानी चाहिए.

सीआईआई के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी कहते हैं कि भूमि के सही रिकौर्ड के अभाव में अलगअलग मालिकों से जमीन का संचयन करना कौर्पोरेट क्षेत्र को प्रभावित कर सकता है, इसलिए सरकार का हस्तक्षेप जरूरी है. सीआईआई ने यह भी कहा कि बिल के प्रावधान अगर लागू हो जाते हैं तो देश में भूमि की कीमत साढे़ तीनगुना बढ़ सकती है. इस से औद्योगिक परियोजनाओं पर असर पड़ेगा और उत्पादन क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का क्षय होगा. यानी सीआईआई चाहता है कि भूमि अधिग्रहण के मौजूदा गैर बराबरी, नाइंसाफी वाले कानून की तरह ही भूमालिकों को बेदखल कर दिया जाए और उन्हें जमीन दी जाए.

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी कौर्पोरेट और सामंती व शोषकों की भाषा बोल रहे हैं. वे कहते हैं कि भूमि अर्जन बिल से डैम और अन्य परियोजनाओं के लिए गैर रजामंदी वाले किसानों से भूमि अधिग्रहण करना मुश्किल हो जाएगा. लगता है शरद पवार भी किसानों से जबरन भूमि हड़पने के पक्षधर हैं. इतने सालों से केंद्र में शक्तिशाली मंत्री रहे शरद पवार से कोई पूछे कि आजादी के बाद भी भूमि के बंटवारे को ले कर असमानता वाला कानून क्यों?

सीपीआई (एम) भूमि अधिग्रहण से प्रभावित 100 प्रतिशत परिवारों की सहमति की मांग कर रही है तो द्रमुक नेता टी आर बालू कहते हैं कि बिल संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है और उन की पार्टी इस बिल से सहमत नहीं है. सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता भी प्रस्तावित नए बिल से खुश नहीं हैं. कहा जा रहा है कि यह भूमि के कौर्पोरेटाइजेशन को शह देने वाला है और इस में पुनर्वास के प्रावधानों की भी कमी है.

एकता परिषद के संस्थापक और भूमि को ले कर सत्याग्रह आंदोलन के अगुआ रहे पी वी राजगोपाल कहते हैं कि इंडस्ट्री की धारणा है कि इस से रोजगार बढे़गा, सही नहीं है. उद्योग जिस जगह पर लगाया जाएगा, उस स्थान पर रहने वालों का अपना रोजगार खत्म हो जाएगा और केवल सीमित संख्या में ही रोजगार उत्पन्न होगा.

समाज सेविका मेधा पाटकर का कहना है कि यह बिल लोगों के समान विकास पर आधारित नहीं है. हालांकि इस में कुछ अच्छे प्रावधान भी हैं. बिल में दिक्कत यह है कि यह भूमि का आगे निगमीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करता है और इस में पुनर्वास व आजीविका का कोई ठोस प्रावधान नहीं है. उद्योग जगत और एक्टीविस्ट की इस तरह की आपत्तियां जायज हैं या नहीं, अभी कहा नहीं जा सकता. कानून लागू होने के बाद व्यावहारिक तौर पर यह सब सामने आ पाएगा.

मगर मौजूदा कानून के चलते नुकसान के आंकड़ों पर यकीन करें तो पिछले 2 दशक में पुलों, बांधों, बिजली परियोजनाओं, खनन, राजमार्गों आदि के निर्माण के नाम पर करीब 50 लाख लोग विस्थापित हुए हैं और अगर आजादी के बाद की बात की जाए तो विभिन्न विकास परियोजनाओं के नाम पर देशभर में 3 करोड़ से अधिक लोगों को बिना कोई मुआवजा दिए उजाड़ दिया गया.  

देश में इस समय 1 करोड़, 30 लाख परिवार बेजमीन, बेघर, खानाबदोश की जिंदगी बसर कर रहे हैं. गांव के किसान व मजदूर ही नहीं, शहरों के मकान, दुकान, व्यापारिक प्रतिष्ठानों के मालिक भी अधिग्रहण की चपेट में आए. शहरों में आवासीय योजनाओं, कलकारखानों, मैट्रो रेल, पुलों आदि के लिए हजारों लोगों को उजड़ने का दर्द ?ोलना पड़ा.

मुंबई अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजैक्ट यानी एमयूआईपी की विभिन्न परियोजनाओं के लिए मुंबई के 35 हजार परिवार विस्थापित हुए. दिल्ली की मैट्रो रेल परियोजना के तीसरे चरण में 399 दुकानें और 87 आवासीय इकाइयों को तोड़ना पड़ा. दिल्ली मैट्रो की अन्य लाइनों के लिए भी हजारों मकान, दुकानें, वर्कशौप, औद्योगिक यूनिटें पूरी या कहींकहीं, आधी हटानी पड़ीं. इस से हजारों भूमालिक, किराएदार प्रभावित हुए. इन लोगों को भी समुचित मुआवजा नहीं मिला. मुआवजे के सैकड़ों मामले निचली अदालतों और उच्च न्यायालय में लंबित हैं.  भारत के 43 प्रतिशत लोग अभी भी भूमिहीन हैं. 13.34 प्रतिशत दलित और 11.50 प्रतिशत जनजाति परिवार पूरी तरह जमीन से वंचित हैं. देश की15.20 प्रतिशत भूमि मात्र 1.33 प्रतिशत लोगों के  नियंत्रण में है. 63 फीसदी सीमांत भूमालिकों के पास सिर्फ 15.60 फीसदी जमीन है. 1977-78 में दलितों की भूमिहीनता 56.8 फीसदी से बढ़ कर 1983 में 61.9 फीसदी जा पहुंची. इसी वर्ष जन जातियों में यह 48.5 फीसदी से 49.4 फीसदी हो गई थी. कृषि भूमि की बात करें तो 95.65 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत वर्ग में आते हैं. करीब 62 प्रतिशत इस्तेमाल की जाने वाली जमीन मध्यम और बड़े किसानों के पास है. इन की तादाद मात्र 3.5 प्रतिशत है. यही लोग 37.72 फीसदी कृषि क्षेत्र के मालिक बने बैठे हैं.

सरकारों द्वारा लोगों को न तो उजाड़ने से पहले और न ही बाद में किसी तरह की कोई भरपाई, मुआवजा मुहैया कराया गया. सरकारों ने जमीनें गरीबों, आदिवासियों और किसानों से ले कर कौर्पोरेट जगत को मुहैया कराने में खूब रुचि दिखाई और इस प्रक्रिया में उन लोगों की उपेक्षा की जाती रही जो वास्तविक तौर पर हकदार थे और जिस जमीन, जंगल के सहारे उन की आजीविका चल रही थी. नतीजतन, इन लोगों के भीतर सरकारों और सरकारी नीतियों के भेदभावपूर्ण रवैये के प्रति आक्रोश बढ़ने लगा. देशभर में यह संदेश गया कि सरकारें शहरी लोगों, गरीबों, पिछड़ों, किसानों और आदिवासियों की जमीनें छीन कर अमीरों को कौडि़यों केभाव बांट रही हैं.

हाल के वर्षों में हजारों एकड़ संरक्षित और अनुसूचित भूमि बलपूर्वक खनन और औद्योगिकीकरण के नाम पर हस्तांतरित कर दी गई. बड़े पैमाने पर कृषि और वन भूमि उद्योग, खनन और विकास परियोजनाओं या ढांचागत परियोजनाओं के लिए दे दी गई.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ?ारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कोर्पोरेट कंपनियों को किसानों की कृषि भूमि, आदिवासियों के जंगल, शहरी लोगों की शहरों से सटी जमीनें अन्यायपूर्ण कानून के सहारे छीनी गईं. 2 दशक में करीब 7 लाख 50 हजार एकड़ भूमि खनन और 2,50,000 एकड़ औद्योगिक मकसद से हस्तांतरित की गई, वह भी बिना स्थानीय लोगों की आजीविका की परवा किए. नतीजतन, बंगाल में टाटा, छत्तीसगढ़ और ?ारखंड में जिंदल ग्रुप, ओडिशा में आर्सेलर मित्तल व पोस्को, गुजरात में अदानी, रिलायंस और उत्तर प्रदेश में रिलायंस के विरोध में हिंसात्मक घटनाएं घटीं.

गैरनियोजित शहरीकरण व गैरकानूनी कब्जे से भी सरकारी अफसरों और भूमाफिया की चांदी बन गई. इस का सब से बड़ा खमियाजा शहरी लोगों के साथसाथ किसानों और गरीब मजदूरों को भुगतना पड़ा. वर्तमान में लागू भूमि अधिग्रहण कानून-1894 सब से पुराना है. यह कानून बिना किन्हीं बाधाओं के भूमि अधिग्रहण की अनिवार्यता प्रदान करता है. अधिग्रहण संबंधित शुरुआती भागों में 55 सैक्शन हैं जो अधिग्रहण के लिए प्रारंभिक जांच, अधिग्रहण के इरादे की घोषणा, सर्वे, नोटिफिकेशन, आपत्तियों की सुनवाई, भूमि की माप, भूमालिकों को अधिग्रहण की सूचना, क्लेम पेश करते हैं लेकिन सैक्शन 16 या 17 (भाग-3) में कानून का अन्यायपूर्ण चेहरा उजागर होता है. इस के अंतर्गत किसी की भी भूमि शांतिपूर्ण या जबरन लेने का स्पष्ट प्रावधान है. मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून के भाग-2 के सैक्शन 38 से 41 में निजी कंपनियों के भूमि अधिग्रहण का प्रावधान है. इस में कहा गया है कि सरकार शांति से या जबरन कब्जा ले सकती है.

इसी तरह उद्योगों को आम आदमी की कीमत पर स्थापित करने वाला महाराष्ट्र इंडस्ट्रियल डैवलपमैंट ऐक्ट-1961 है जिस में राज्य में औद्योगिक क्षेत्र, उद्योगों की स्थापना के लिए विशेष प्रावधान है. इस के सैक्शन 32 (4) के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण की हर तरह की बाधा को दूर करने के लिए सरकार पूरी तरह स्वतंत्र है. यानी यह कानून ही सरकार को निजी कंपनियों के पक्ष में और भूस्वामियों के विरोध में खड़ा करने वाला है. इसीलिए, सरकारें भूमालिकों से जमीन ले कर कौर्पोरेट को दिलाने का काम करती हैं. बौंबे मैट्रोपोलिटन रीजन डैवलपमैंट अथौरिटी ऐक्ट-1974 क्षेत्र में विकास की योजनाओं को निर्देशित करने के लिए है. इस के अध्याय-8 में सैक्शन 32 से 41 तक भूमि अधिग्रहण से संबंधित प्रावधान दिए गए हैं. इस कानून के सैक्शन-33 के अंतर्गत सरकार कोई भी भूसंपत्ति भूमालिक को 30 दिन पहले सूचना दे कर ले सकती है. अगर भूमालिक शांति से कब्जा नहीं देता है तो बलपूर्वक कब्जा लिया जाता है. 1984 में भूमि अधिग्रहण कानून में केंद्र सरकार ने संशोधन किया जिस में मुआवजे को ले कर प्रावधान किया पर सरकार यह मुआवजा सर्किल रेट पर देती है जोकि बहुत ही कम होता है, इसीलिए मुआवजे के मामले अदालतों में बढ़ते जा रहे हैं.

इसी तरह  भूसंपत्ति की सीलिंग के शिकार ग्रामीण किसान ही नहीं, शहरी लोग भी हैं. केंद्र सरकार का अर्बन लैंड सीलिंग ऐंड रैगुलेशन ऐक्ट-1976 शहरियों की भूसंपत्ति की सीलिंग निर्धारित करता है. यह कानून महाराष्ट्र के ग्रेटर मुंबई (ए कैटेगरी शहरी क्षेत्र, म्युनिसिपल कौर्पोरेशन के 8 किलोमीटर तक), पुणे, शोलापुर, नागपुर, उल्हासनगर, थाणे, नासिक, सांगली में लागू है. इस के सैक्शन-3 के तहत प्रावधान है कि इन क्षेत्रों में कोई भी व्यक्ति सीलिंग सीमा से अधिक भूमि नहीं रख सकेगा. सैक्शन-4 के तहत मुंबई अर्बन संचय क्षेत्र में 500 स्क्वायर मीटर, पुणे में 1000 स्क्वायर मीटर, थाणे, नासिक, सांगली और कोल्हापुर में 1580 स्क्वायर मीटर सीलिंग सीमा तय है. इस से अधिक भूमि सरकार द्वारा ले ली गई.

सरकारों की इसी नीति और कानून के चलते देश के एक दर्जन से अधिक राज्यों में नक्सली आंदोलन फैला और किसानों, मजदूरों, गरीबों में आक्रोश बढ़ता गया. विकास के नाम पर बन रही परियोजनाओं के खिलाफ उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, पंजाब, ?ारखंड, छत्तीसगढ़ सुलगने लगे. किसान, मजदूर, गरीब धरनों, प्रदर्शनों में शामिल होने लगे.

सरकारों की इस तरह की अमानवीय नीतियों के खिलाफ देश भर के कुछ गैर सरकारी संगठन प्रभावित लोगों के समर्थन में जुटे और आंदोलन शुरू हुआ. सरकार से भूमि अधिग्रहण और इस से प्रभावित लोगों को बदले में जमीन, मकान व आजीविका सुनिश्चित कराने वाला कानून बनाए जाने की मांग उठने लगी. हालांकि संप्रग सरकार 2007 में विकास परियोजनाओं से प्रभावित लोगों के लिए पुनर्वास और पुनर्स्थापन बिल ले कर आई पर 2009 में वह गिर गया. सरकार के भीतर कुछ मतभेदों को ले कर इस बिल में भी मुआवजा, अधिग्रहण से पूर्व जमीन मालिकों की सहमति जैसे मुद्दों को ले कर विलंब होता रहा.

कहा जाता है कि इस कानून का उद्देश्य भूमिहीन परिवारों के लिए जमीन मुहैया कराना और अधिग्रहण की चपेट में आए किसानों, मकान मालिकों को पर्याप्त मुआवजा, आजीविका व पुनर्वास को सुनिश्चित करना है. यह बिल विकास के लिए अधिग्रहण होने वाली भूमि के मालिकों के अधिकारों को मजबूती देगा. भूमि सुधार के लिए समयसमय पर कानून बनते रहे हैं पर मौजूदा भूमि वितरण की व्यवस्था जातिगत सामाजिक व आर्थिक आधार पर की जाती है. बड़ी संख्या में जमीनों के मालिक ऊंची जातियों के हैं तो किसान मध्यम और कृषि मजदूर बड़ी संख्या में दलित व आदिवासी हैं. उन के पास कोई जमीन नहीं है. खेतों में मेहनत यही वर्ग करता है पर उन के लिए कोई सामाजिक, आर्थिक सुविधा, सुरक्षा नहीं है.

1997 की 9वीं योजना के ड्राफ्टपेपर के अनुसार, 77 फीसदी दलित और 90 फीसदी आदिवासी या तो कानूनन भूमिहीन हैं या वास्तव में भूमिहीन हैं.

  1. अब जरा नए बिल की कुछ खास बातों पर गौर करते हैं : 
  2. जमीन संबंधी नई नीति केवल गाइडलाइन उपलब्ध कराएगी और जमीन राज्य का विषय होगा. भूमि विवाद सुल?ाने के लिए लैंड ट्रिब्यूनल की स्थापना की जाएगी.
  3. भूमिहीन को 0.1 एकड़ (4,356 स्क्वायर फुट के बराबर) से कम जमीन नहीं मिलेगी. जमीन परिवार की वरिष्ठ महिला सदस्य के नाम होनी चाहिए.
  4. पिछले समय धर्म, शिक्षा का कारोबार और प्लांटेशन जैसी फर्जी योजनाएं खूब फलीफूलीं. सरकारों ने इन्हें कौडि़यों के भाव जमीनें बांटीं लेकिन नए बिल में धार्मिक, शैक्षिक, अनुसंधान और औद्योगिक संगठनों के साथसाथ प्लांटेशन के लिए कोई जमीन नहीं मिलेगी.
  5. बिल के अनुसार, राज्य स्तर पर भूमि बैंक की स्थापना की जाएगी.
  6. नए बिल में जमीन कहां से आएगी, इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि भूदान, वक्फ की जमीन के कब्जों को हटा कर सरकारें जमीन अपने कब्जे में ले सकेंगी. बिल में कुछ संस्थाओं के लिए जमीन की सीलिंग निर्धारित कर दी गई है. धार्मिक, शैक्षिक, चैरिटेबल संस्थाओं की जमीन 15 एकड़ से अधिक न हो सकेगी.

बिल में राज्य में सिंचाई के लिए10 एकड़ और गैर सिंचाई के लिए15 एकड़ जमीन की सीलिंग तय की गई है.दरअसल, दिखने में यह बिल बड़ा अच्छा है. मानो इस से भूमिहीनों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों की जमीन व घर की समस्याएं खत्म हो जाएंगी और विस्थापितों को मुआवजा मिल जाएगा लेकिन जैसा कि हमारे देश के अन्य कानूनों का हश्र होता आया है, इस में भी नौकरशाहों की मरजी पर कोई अंकुश की बात नहीं है. भूमि अर्जन पर मुआवजे से ले कर पीडि़त को अन्यत्र जमीन और मकान देने के प्रावधान पर कलैक्टर का हुक्म हावी रहेगा. हमेशा की तरह गरीबों, भूमिहीनों का माईबाप कलैक्टर ही होगा. मुआवजा आसानी से मिल जाएगा, बिना घूस दिए, इस बात की कोई गारंटी नहीं है.

लेकिन हां, इस बिल में कुछ बातें जरूर ठीक हैं. मसलन, अधिगृहीत की जाने वाली जमीन को किनकिन लोकहित के लिए उपयोग में लाया जाएगा, इसे स्पष्टतौर पर परिभाषित किया गया है. भारतीय किसान यूनियन के महामंत्री युद्धवीर सिंह कहते हैं कि इस में किसानों के लिए पर्याप्त मुआवजे का प्रावधान नहीं है. जिन जमीनों का अधिग्रहण किया गया है उन्हें अभी भी बुनियादी हक नहीं मिल पाया है.

भाजपा नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि हम ने 12 सु?ाव दिए थे जिन पर सरकार सहमत है. हम ने सरकार से कहा कि जब आप भूमि अधिगृहीत करते हैं तो अपने मूल किसान को 50 प्रतिशत मुआवजा देंगे, इस पर सरकार सहमत थी. राज्य सरकार अपने खुद के कानून बना सकेगी, इस की इजाजत केंद्र देने के लिए राजी है. जैसा कि जमीन लीज का मामला राज्य का विषय है, यह मांग भी स्वीकार की गई कि भूमि अधिग्रहण के अलावा भूमि डैवलपर्स को लीज पर दी जा सकेगी, ताकि उस का मालिकाना हक किसानों के पास रह सके और वे इस से नियमित आय पा सकें.

भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता धर्मेंद्र कुमार मलिक कहते हैं कि नए भूमि अर्जन विधेयक से किसानों को कोई फायदा नहीं मिलेगा. इस में बहुफसली भूमि के अधिग्रहण के लिए जो अपवाद की बातें जोड़ी गई हैं उन से जब चाहे कोई कलैक्टर किसी भी जिले की बहुफसली जमीन का अधिग्रहण कर सकेगा. दरअसल, आजादी के बाद से ही भूमि सुधार की प्रक्रिया चलती रही है. पहले जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और हर पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार के लिए नीतिनियमों को शामिल किया गया. सभी राज्य सरकारों से कहा गया कि कृषि भूमि सीलिंग ऐक्ट और अधिकतम भू अधिग्रहण सीमा को ले कर कानून बनाएं और भूमिहीनों व सीमांत किसानों को सरप्लस जमीन बांटी जाए.

1961 तक करीब सभी राज्य सरकारों ने कृषि भूमि सीलिंग कानून पारित कर दिए थे. जागीरदारी प्रथा उन्मूलन के पूरी तरह नाकाम रहने के परिणामस्वरूप योजना आयोग ने 1955 में सभी राज्य सरकारों को अधिग्रहण व भूमिहीनों और अन्य सीमांत किसानों को भूमि आवंटन करने के लिए कृषि भूमि जोत की सीलिंग करने की सलाह दी पर कानून (विधि निर्माण) में पूरी तरह से लूपहोल थे और बड़े भूस्वामियों के ही पक्ष में थे.

यह साफतौर पर जाहिर होता रहा कि ज्यादातर राज्य सरकारों ने जानबू?ा कर भूमि सीलिंग कानून में बड़े भूमालिकों के फायदे को देखते हुए विलंब किया. जमीन रिकौर्ड को और सरप्लस जमीन को ट्रांसफर करने में सरकारी नौकरों और बड़े भूमालिकों ने मिल कर खूब आपसी स्वार्थ साधे. नए विधेयक में कहींकहीं जो किंतुपरंतु हैं, उन से नौकरशाही और जमीन व संपत्ति संबंधी पुरानी मिल्कियत वाली सोच को प्रश्रय जरूर मिलेगा. यानी कई चीजें नौकरशाहों की मरजी पर होंगी. किंतुपरंतु  इस में इसलिए लगाया गया है ताकि सरकार अपनी मनमरजी चला सके.

नौकरशाही को मुआवजा देने, विस्थापितों के पुनर्वास के लिए घूसखोरी के रास्ते खुले दिखाई देते हैं. इसे रोकने के लिए कानून में कोई प्रावधान नहीं किया गया है.असल में सरकारों ने उद्योगों को जमीन, कर्ज व सब्सिडी जैसी अनेक सुविधाएं व अधिकार मुहैया करा दिए पर यह उन किसानों, मजदूरों की कीमत पर जो भूस्वामी थे और जो मेहनत करने वाले थे. यह जो बाद वाला वर्ग है वह हमेशा सरकार पर आश्रित रहा और सरकारें पहले वाले वर्ग के इशारे पर चलती रहीं.

इसी वजह से देश दो भागों में बंटा दिखने लगा. एक बड़ा हिस्सा मेहनत करने वालों का और दूसरा सत्ता के साथ मिल कर जमीन, संसाधन हड़प लेने और उस से मिलने वाले फायदे को स्वयं पचा लेने वाला. दरअसल, नया कानून जमीन और संपत्ति के समान वितरण की व्यवस्था प्रदान करेगा. हो सकता है निजी कंपनियों, किसानों और मजदूरों से जुड़े प्रावधानों को ले कर कुछ व्यावहारिक दिक्कतों के चलते कानून को लागू करने में दिक्कतें आएंगी.

अभी भी सामाजिक, सरकारी सोच में बदलाव नहीं आया है. फिर भी देरसबेर लोग जागरूक होंगे तो धीरेधीरे शहरी, बेजमीन, बेघर लोगों को उन का हक मिलने लगेगा और सिर्फ अपना फायदा देखने वाले औद्योगिक जगत की पुरानी सोच में भी धीरेधीरे तबदीली आ पाएगी. जमीन के समान बंटवारे को ले कर चल रहे भेदभाव और नाइंसाफी के खिलाफ अंगरेजों ने करीब 117 साल पहले और अब फिर एक विदेशी महिला सोनिया गांधी ने भूसंपत्ति से जुड़ा हक लोगों को कानून के जरिए दिलाने का प्रयास किया है.

नया बिल उद्योगों, कौर्पोरेट के साथसाथ किसानों, मजदूरों, आदिवासियों की भूमि संबंधी आवश्यकताओं का संरक्षण करने वाला है. देश की संपत्ति में असमान वितरण वाली धार्मिक, सामाजिक और सरकारी व्यवस्था को इस तरह के कानूनों से बदला जा सकता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें