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मिड डे मील मामला – स्कूलों में बंटता जहर

स्कूली बच्चों के लिए शुरू की गई मिड डे मील योजना का जहरीला पहलू उस वक्त सामने आया जब बिहार के एक स्कूल में इसी योजना के तहत मिलने वाले विषाक्त भोजन को खा कर कई बच्चे मौत की नींद सो गए. सरकारी स्कूलों की लापरवाही, भ्रष्ट आचरण और जरूरी मानकों की अनदेखी ने कैसे इस भयावह हादसे को अंजाम दिया, पड़ताल कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

बच्चों की लाशों से लिपट कर रोते उन के मांबाप और घर वालों को देख कर अच्छेअच्छों का कलेजा दहल गया. मांबाप अपने बच्चों को उठा कर इधरउधर इलाज के लिए दौड़ लगा रहे थे. जबकि अस्पतालों में डाक्टर और दवा का पुख्ता इंतजाम नहीं था. अपने दोनों बच्चों राहुल और प्रहलाद को खो चुके हरेंद्र मिश्रा की मानो आवाज ही गुम हो गई तो अपनी मासूम बेटी की लाश देख कर अजय के करुण क्रंदन से अस्पताल की दीवारें हिल उठीं.

वे रोते हुए कहते हैं कि बेटी को पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल भेजा था, पर क्या पता था कि इस की कीमत बेटी की जान दे कर चुकानी पड़ेगी. राजू साव के घर का इकलौता चिराग शिव हमेशा के लिए खामोश हो चुका है.  बच्चों को उन के गरीब मांबाप ने इस उम्मीद से स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा था कि उन्हें मुफ्त में भरपेट खाना मिल जाएगा और पढ़ाई कर के वे बड़े आदमी बन सकेंगे. 16 जुलाई की दोपहर में स्कूल में बच्चों को सरकारी खाना दिया गया पर 1 निवाले ने उन की जिंदगी ही लील ली. खाना खाते ही किसी को उलटी होने लगी तो किसी को दस्त होने लगे. किसी का सिर चकराने लगा तो कोई बेहोश हो गया. देखते ही देखते समूचे गांव में यह खबर फैल गई और मांबाप अपनेअपने बच्चों की सलामती की दुआ करते हुए स्कूल की ओर भागे. कुछ की स्कूल में ही मौत हो गई तो कोई अस्पताल पहुंचतेपहुंचते रास्ते में ही दम तोड़ गया. गांव भर में रोनेचिल्लाने की दर्दनाक आवाज ने इंसानियत को हिला कर रख दिया. सरकार ने बच्चों की लाशों की कीमत लगाते हुए मुआवजे का ऐलान कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया.

बिहार के सारण जिले के मशरख प्रखंड से 5 किलोमीटर दूर जजौली पंचायत के धरमसती गंडामन गांव में नए बने धरमसती प्राइमरी स्कूल में मिड डे मील यानी मध्याह्न भोजन में मिली खिचड़ी खाने से 23 बच्चों की मौत ने एक बार फिर से इस योजना में मची धांधली और लापरवाही की पोल खोल दी है.  100 से ज्यादा बच्चे जिंदगी और मौत से जूझते हुए विभिन्न अस्पतालों में भरती कराए गए. भोजन बनाने वाली मंजू की भी हालत खराब है. वहीं दूसरी भोजन बनाने वाली पन्ना देवी के भी 2 बच्चों की मौत हो गई. स्कूल में बच्चों को खाने के लिए दाल, चावल और आलू व सोयाबीन की सब्जी दी गई थी.

दोपहर के 12 बजे घंटी बजते ही बच्चे अपनेअपने क्लासरूम से दौड़ते हुए बाहर निकले और लाइन लगा कर खाना खाने के लिए पालथी मार कर बैठ गए. जिन गरीब परिवार के बच्चों को घर में ठीकठाक खाना नसीब नहीं हो पाता है, वे खाना खाने के लालच में ही स्कूल जाते हैं और उन के मांबाप भी यही सोच कर अपने बच्चों को स्कूल भेज देते हैं कि कम से कम दोपहर में तो उन का लाड़ला पेटभर खाना खा सकेगा.  खाना खाते ही बच्चों को बेचैनी महसूस होने लगी. कई बच्चे बेहोश हो कर जमीन पर गिरने लगे. देखते ही देखते 2 बच्चों ने तड़पतड़प कर दम तोड़ दिया, तब स्कूल प्रशासन की नींद टूटी और बच्चों को प्राइमरी हैल्थ सैंटर पहुंचाने का काम चालू हुआ. बदहाल हैल्थ सैंटर भला बच्चों का क्या इलाज कर पाता. वहां न दवा थी और न ही सेलाइन वाटर. डाक्टरों को तो बुला लिया गया पर दवा के बगैर वे सही इलाज करने में लाचार रहे.

परोसा गया जहर

डाक्टरों का मानना है कि बच्चों को दिए गए खाने में जहरीला तत्त्व आर्गेनो फासफोरस होने की वजह से बच्चों की मौत हुई है. जिन बच्चों को एंटी आर्गेनो फासफोरस का डोज दिया गया उन की हालत में काफी तेजी से सुधार हुआ. गौरतलब है कि आर्गेनो फासफोरस से हाई क्वालिटी की कीटनाशक दवाएं बनाई जाती हैं.  पटना मैडिकल कालेज व अस्पताल के सुपरिंटैंडैंट अमरकांत झा ‘अमर’ ने बताया कि अगर छपरा से बच्चों को सही समय पर पटना रेफर कर दिया गया होता तो कई बच्चों की जान बच सकती थी.

स्थानीय लोगों का कहना है कि चावल को कीड़ों से बचाने के लिए उस में कीटनाशक दवा डाली गई थी, चावल को बनाने से पहले उसे ठीक तरह से धोया नहीं गया था, जिस से खाने के बाद बच्चों की तबीयत खराब होनी शुरू हो गई. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि कीटनाशक के डब्बे में सरसों का तेल रखा गया था, जिस से बनी सब्जी से बच्चों की मौत हुई. अस्पताल के डाक्टरों का मानना है कि सोयाबीन में फंगस लगने और तेल में कीटनाशक होने से बच्चों की हालत खराब हुई.

स्कूल की प्रिंसिपल मीना कुमारी ने बताया कि जिन बच्चों ने सब्जी खाई थी उन्हीं की तबीयत खराब हुई. 16 जुलाई को स्कूल में जो खाना बनाया गया था उस का चावल स्कूल में ही था, जबकि सरसों का तेल और सब्जी लोकल मशरख के बाजार से ही खरीदी गई थी. पिं्रसिपल इस बात को छिपा गईं कि सरसों का तेल, दाल, मसाला और सब्जी वगैरह उन के ही पति अर्जुन राय की दुकान से मंगवाया जाता था.  शिक्षा मंत्री पी के शाही ने बिहार विधानमंडल में कहा कि गंडामन स्कूल की मीना कुमारी के पति अर्जुन राय ने  14 जुलाई को सिद्धवलिया चीनी मिल से जहरीला मोनो प्रोटोफास खरीदा था.

महाराजगंज के सांसद प्रभुनाथ सिंह कहते हैं कि मामले का पता चलने के बाद भी जिलाधीश पूरी तरह से हरकत में नहीं आए. लापरवाही का यह आलम था कि जिस बस में पीडि़त बच्चों को मशरख से छपरा भेजा गया, उस में पूरा डीजल ही नहीं था. डीजल खत्म हो जाने की वजह से बस काफी देर तक रास्ते में रुकी रही.  मिड डे मील में आएदिन गड़बडि़यां मिलती रहती हैं. कभी खिचड़ी में छिपकली मिलती है तो कभी दाल में तिलचट्टा मिलता है. छोटेमोटे कीड़े- मकोड़े मिलना तो रोज की बात है. खाने के सामानों की जांच करने का कोई इंतजाम ही नहीं है. स्कूल प्रशासन अपनी जेबें भरने के लिए घटिया सामानों का इस्तेमाल करते रहते हैं, जिस पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है. अकसर स्कूल में दोपहर को दिया जाने वाला सरकारी खाना खा कर बच्चों के बीमार होने की घटनाएं होती रहती हैं पर प्रशासन और सरकार कान में तेल डाले सोए रहते हैं.

दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया और पटना के ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट औफ सोशल स्टडीज ने मिड डे मील को ले कर अपनी जांच रिपोर्ट में भोजन की क्वालिटी पर सवालिया निशान लगाया था और केंद्र सरकार से इस के लिए पुख्ता उपाय करने का सुझाव दिया था. केंद्र सरकार ने दोनों रिपोर्ट्स बिहार सरकार को भेज दी थीं. इन सब के बाद भी सरकार ने खाने की क्वालिटी पर ध्यान नहीं दिया. जामिया मिलिया ने बिहार के भागलपुर, बांका, कैमूर, पूर्णियां और किशनगंज जिलों के और ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट ने दरभंगा, सीतामढ़ी, सहरसा और शिवहर जिलों के 40-40 सरकारी स्कूलों में मिड डे मील के तहत परोसे जा रहे खाने की जांच की थी.

जांच का काम 1 अप्रैल से 30 सितंबर, 2012 के बीच किया गया था. दोनों ही रिपोर्ट्स में कहा गया था कि स्कूलों में खाना बनाने का तरीका और रखरखाव बच्चों के हैल्थ के लिए ठीक नहीं है. जामिया की रिपोर्ट में 43 से 75 फीसदी स्कूलों में खाना बनाने और उस के सामानों के रखने का इंतजाम काफी खराब बताया गया था. वहीं ए एन सिन्हा इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट में महज 27 फीसदी स्कूलों में ठीकठाक तरीके से खाना पकाए जाने की बात कही गई थी.

इन रिपोर्ट्स के आधार पर ठोस इंतजाम करने के बजाय सरकार ने इसे कूड़ेदान में डाल दिया. अब जब छपरा में मामला हद पार कर गया तो सरकार की आंखें खुलीं और ताबड़तोड़ कई ऐलान कर दिए गए. सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी जांचों की कभी रिपोर्ट आ पाएगी? रिपोर्ट आ गई तो क्या सरकार कुछ ऐसा इंतजाम कर पाएगी कि दोबारा ऐसे हादसे न हों?

बिहार में 72 हजार प्राइमरी और मीडिल स्कूलों में 2 करोड़ बच्चों को मिड डे मील योजना के तहत दोपहर का खाना दिया जाता है. साल 2005 में जब इस योजना की शुरुआत हुई थी तो क्लास 1 से 5 तक के बच्चों को इस का फायदा दिया जाता था. साल 2008 में इसे बढ़ा कर क्लास 8 तक के बच्चों के लिए लागू किया गया. इस के लिए केंद्र सरकार से हर साल 1,400 करोड़ रुपए मुहैया कराए जाते हैं.

स्कूलों में बच्चों की अटैंडैंस बढ़ाने के मकसद से शुरू की गई इस योजना के तहत हर दिन खाने का अलगअलग मैन्यू होता है, पर ज्यादातर स्कूलों में खाने के नाम पर बच्चों को खिचड़ी ही खिलाई जाती है और बाकी पैसा स्कूल प्रशासन खुद ही हजम कर जाता है. स्कूल में हर दिन के मैन्यू का चार्ट लगाने का नियम है पर इस का पालन नहीं किया जाता है.

मिड डे मील निदेशालय ने 26 मार्च, 2012 को सभी स्कूलों के लिए यह हिदायत जारी की थी कि खाना बनने के बाद उसे पिं्रसिपल, मास्टर और रसोइया टैस्ट करेंगे, उस के बाद ही उसे बच्चों को परोसा जाएगा. इस का कहीं भी पालन नहीं होता है. अगर इस का पालन होता तो छपरा में इतने बच्चों की मौत नहीं होती. इस के अलावा आईएसआई मार्का सरसों का तेल, रिफाइंड तेल, मसालों का इस्तेमाल ही मिड डे मील में करने की हिदायत है, पर ज्यादा पैसा कमाने के लालच में स्कूल प्रशासन बच्चों की जिंदगी को दांव पर लगाने में जरा भी नहीं हिचकते हैं.

शिक्षा मंत्री का सियासी चश्मा

बिहार के शिक्षा मंत्री प्रशांत कुमार शाही बच्चों की मौत पर अफसोस जताने और आगे फिर कभी ऐसा हादसा न होने देने के उपाय करने के बजाय समूचे मामले को राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं और मामले से ध्यान भटकाने की कोशिश कर सरकार की और छीछालेदर करने पर तुले हैं. वे मिड डे मील के तहत खाना खाने से बच्चों की हुई मौत की सियासी साजिश करार देते नहीं थक रहे हैं. उन्होंने बताया कि जांच के बाद जो तथ्य सामने आए हैं, उन से सियासी साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता है. स्कूल की प्रिंसिपल मीना देवी के पति अर्जुन राय की दुकान से ही बच्चों के लिए भोजन का सामान मंगवाया जाता था और अर्जुन एक सियासी दल के नेता हैं.

मंत्री ने बताया कि भोजन बनाने वाली मंजू ने सरसों के तेल की खराब क्वालिटी के बारे में प्रिंसिपल मीना देवी को बताया तो मीना ने उसे डांटते हुए कहा कि घर में ही पेराई किया हुआ तेल है, खराब कैसे होगा? चलो, उसी में खाना पकाओ. इतना ही नहीं, खाना खाते हुए बच्चों ने भी सब्जी के स्वाद को खराब बताया तो मीना देवी ने बच्चों को भी फटकार लगाते हुए जबरन खाना खाने के लिए मजबूर किया.  बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़ करने के इस हादसे को अगर बिहार सरकार गंभीरता से नहीं लेती है और दोषियों के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठाती तो भविष्य में भी ऐसे हादसे होते रहेंगे और बच्चे समय से पहले ही मौत के शिकार होते रहेंगे.

 

बीसीआई की बलि चढ़ते विधि महाविद्यालय

बीसीआई की निरंकुश नीतियों और बेलगाम रवैए के चलते देशभर में कई विधि महाविद्यालय बंदी के कगार पर हैं. कुछ राज्यों में तो कई महाविद्यालयों पर ताला भी लग चुका है. जाति व राजनीति का चश्मा पहने बीसीआई की तानाशाही कानून और कानूनी शिक्षा के भविष्य के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं है.

‘‘अगर हालात यही रहे और जल्द कुछ न किया गया तो साल 2014 तक मध्य प्रदेश में विधि महाविद्यालयों की तादाद 15 भी नहीं रह जाएगी. अभी तक 47 में से  25 कालेजों की मान्यता रद्द की जा  चुकी है और इस का जिम्मेदार  बीसीआई यानी बार काउंसिल औफ इंडिया को ही ठहराया जाएगा.’’ ऐसा मध्य प्रदेश के शिवपुरी शहर में स्थित एसएमएस स्नातकोत्तर महाविद्यालय की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष अजय खेमरिया बेहद तल्ख लहजे में कहते हैं.

कानून और कानूनी शिक्षा के लिहाज से बात वाकई चिंता की है. इस का सारा खमियाजा छात्रों को उठाना पड़ रहा है. राज्य में धड़ल्ले से बंद हो रहे विधि महाविद्यालयों की चिंता किसी को है, ऐसा भी नहीं लग रहा.  बीसीआई की खलनायकी भूमिका क्या है और इस के माने क्या हैं, इस से ज्यादा दिलचस्पी की बात यह है कि विधि महाविद्यालयों का आर्थिक संचालन राज्य सरकार उच्च शिक्षा विभाग के जरिए करती है लेकिन विधि महाविद्यालयों के मानक तय करने का हक उस के पास नहीं है. तमाम कोशिशों व इन पर पानी की तरह पैसा बहाने के बाद भी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार क्यों नहीं आ रहा, इस यक्ष प्रश्न का जवाब मध्य प्रदेश के बंद होते विधि महाविद्यालय इस लिहाज से भी हैं कि शिक्षा की गुणवत्ता तय करने वाली एजेंसियां बेलगाम हो कर नियम व शर्तें थोपती हैं. बीसीआई उन का अपवाद नहीं है.

कानून की पढ़ाई में बहुत ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती है. एलएलबी करने वाले 50 प्रतिशत छात्र भी वकालत को व्यवसाय के रूप में नहीं अपनाते. जाहिर है अधिकतर छात्र कानून जानना चाहते हैं और यह जरूरी भी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग कानून पढ़ कर उन्हें जानें ताकि पुलिस और अदालतों की तकलीफदेह कार्यवाही से निबटने के लिए उन के पास जरूरी महत्त्वपूर्ण जानकारियां हों.  आजादी के पहले उच्च घरानों के युवा ही कानून की पढ़ाई कर पाते थे. विदेशों से कानून की डिगरी ले कर आए मध्यवर्गीय युवा जल्द ही उच्च वर्ग में शुमार होने लगते थे क्योंकि उन्हें भारीभरकम फीस और समाज व राजनीति में सम्मानजनक स्थान मिलता था. पर  70 के दशक से यह सिलसिला टूटा तो हर कोई एलएलबी कर वकील बनने लगा.

ऊंची जाति वालों का दबदबा जो कानून और कानूनी पढ़ाई से टूटा तो आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है. पिछड़े, दलित और आदिवासी युवा भी तेजी से एलएलबी करने लगे. इस की एक बड़ी वजह कानून की पढ़ाई का सुलभ होना और वकीलों की बढ़ती जरूरत होना थी.  छोटे तबके के छात्र और वकील बढ़े तो देखते ही देखते अदालतों का नजारा भी बदल गया. कुछ साल पहले तक जहां ब्राह्मण, कायस्थ और जैन समुदायों के वकील ही दिखते थे वहां उन टेबल, कुरसियों पर बराबरी से पिछड़े वर्ग के वकील भी बैठने लगे. हर जाति का अपना अलग एक नामी वकील होने लगा. नतीजतन, सवर्णों का दबदबा कम होने लगा.

कानूनी पढ़ाई

कानून की पढ़ाई कैसी और कैसे हो,  इस की जिम्मेदारी बीसीआई को मिली तो उस ने भी दूसरी एजेंसियों की तरह सवर्णों के हक में आंखें तरेरनी शुरू कर दीं. सरकारी विधि महाविद्यालयों में आज भी 50 फीसदी छात्र ओबीसी, एससी  या एसटी कोटे के होते हैं जिन्हें  सालाना 15-20 हजार रुपए का खर्च अखरता नहीं. निजी महाविद्यालयों की 40-50 हजार रुपए तक की फीस का भार आज भी इस वर्ग के छात्र नहीं उठा पाते.   बीसीआई ने शासकीय विधि महाविद्यालयों के लिए जो पैमाने बनाए और वक्तवक्त पर उन में बदलाव किए उन का एक बड़ा फर्क यह पड़ रहा है कि फिर से कानूनी शिक्षा और वकालत का पेशा सवर्णों के कब्जे में जा रहा है. विदिशा के एक 90 वर्षीय अधिवक्ता रामनारायण वर्मा की मानें तो, ‘‘बार काउंसिल की उपयोगिता पहले इतनी भर थी कि वह नए विधि स्नातकों को सनद देता था. हम वकीलों को भी खुशी रहती थी कि हमारा कोई राष्ट्रीय संगठन है जो कहने को ही सही वकीलों के हितों का खयाल रखता है.’’

पहले छात्र एलएलबी की डिगरी ले कर कालेज से निकलता था तो उसे सनद हासिल करने में सहूलियत रहती थी. रामनारायण वर्मा कहते हैं, ‘‘मुझे याद नहीं कि 70 के दशक में बहुत ज्यादा वकील छोटी जाति के थे. उस दौरान अधिकांश वकील ऊंची जातियों के हुआ करते थे. वजह, आरक्षित कोटे से आए युवाओं की पहली पसंद सरकारी नौकरी हुआ करती थी जो आरक्षण की सहूलियत के चलते उन्हें स्नातक होने के बाद ही मिल जाती थी. पर जब आरक्षण में भी सरकारी नौकरी मिलना मुश्किल हो गया तो  लोग एलएलबी करने लगे और वकीलों की भीड़ बढ़ने लगी. उस समय एक छोटे  शहर के अधिवक्ता संघ में  50-60 सदस्य भी नहीं होते थे जबकि अब वकीलों की तादाद 2 हजार का आंकड़ा छूने लगी है. लड़कियां भी इफरात से कानून की पढ़ाई करने लगी हैं.’’

जाहिर है बार काउंसिल औफ इंडिया को ताकत और अधिकार वकीलों की बढ़ती संख्या से मिले जो कसबों और देहातों से निकल कर आते हैं. यही बीसीआई बेहद कू्रर और साजिशाना तरीके से, गैर इरादतन ही सही, नए विधि स्नातक और वकीलों को पैदा होने से रोक रही है तो लगता यह भी है कि कहीं इस की वजह जातिगत पूर्वाग्रह तो नहीं. इस संभावना से एकदम इनकार नहीं किया जा सकता.

सख्त नियम, कड़ी शर्तें

कानूनी पढ़ाई के अलावा विधि महाविद्यालयों के मामले में बीसीआई ने नियम, शर्तें इतने कठोर बनाए हैं कि व्यवहार में उन का पालन करना असंभव है इसलिए धड़ल्ले से ला कालेजों की मान्यता रद्द की जा रही है.  बीसीआई का पहला पैमाना यह है कि ला कालेज 15 से 18 हजार वर्गफुट क्षेत्रफल में निर्मित होना चाहिए और उस की अलग से इमारत होनी चाहिए.   अगर ऐसा नहीं हो तो कहां का पहाड़ टूट पड़ेगा, इस सवाल का जवाब शायद ही बीसीआई के पास हो. वजह, इस नियम के वजूद में आने से पहले एलएलबी की कक्षाएं स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में इतमीनान से चलती थीं और अधिकांश कालेजों में कानून की पढ़ाई शाम को होती थी जब क्लासरूम खाली हो जाते थे. नियमित प्राध्यापकों के अलावा वरिष्ठ अधिवक्ता भी अनुबंध पर पढ़ाते थे पर अब बीसीआई का कहना है कि विधि का प्राचार्य भी अलग होना चाहिए और कम से कम 4 प्राध्यापक होने चाहिए और इतने ही अंशकालिक प्राध्यापक भी होने चाहिए.

कानून की पढ़ाई का कालेज के क्षेत्रफल से कोई खास ताल्लुक नहीं है पर 15 से 18 हजार वर्गफुट क्षेत्रफल थोपने का मतलब है सीधेसीधे कालेज को बंद कर देने का एलान कर डालना. इस शर्त पर भी कई कालेज खरे उतरने लगे तो नया फरमान यह जारी कर दिया गया कि प्राध्यापकों के आवास भी महाविद्यालय परिसर में होने चाहिए.  इस प्रतिनिधि ने भोपाल स्थित विधि महाविद्यालय का मुआयना किया तो यह शर्त मजाक लगी. वजह, राज्य स्तरीय ला कालेज है तो पौश इलाके जहांगीराबाद में लेकिन वहां सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं  है. एक भी आवास उस के परिसर में नहीं है. अलबत्ता भोपाल की ही नैशनल  ला यूनिवर्सिटी (एनएलआईयू) जरूर आवासीय है. मगर इन दोनों में जमीन- आसमान का फर्क है. न तो इन की तुलना की जा सकती और न ही यह उम्मीद की जा सकती कि हर एक ला कालेज एनएलआईयू जैसा हो जाएगा या होना ही चाहिए.

एनएलआईयू दरअसल सरकार ने प्रबंधन कालेजों की तर्ज पर अमीर तबके के छात्रों के लिए खोले हैं जहां पढ़ाई का माध्यम अंगरेजी है और छात्रों का जीवनस्तर औसत कानूनी छात्र से हजार गुना ज्यादा बेहतर है. इस में पढ़ाई का सालाना खर्च 5 लाख रुपए आता है और छात्रों को प्लेसमैंट की भी गारंटी मिलती है.

अब अगर राज्य सरकार इन 2 शर्तों को पूरा करने की सोचे भी तो उसे लगभग  5 अरब रुपए खर्चने पड़ेंगे, जो निहायत ही गैरजरूरी हैं.  उच्च शिक्षा विभाग के एक अधिकारी का नाम न छापने की शर्त पर कहना है, यह बेवकूफी भरी बात है. विभाग वैसे ही तंगी से जूझ रहा है, ऐसे में अरबों रुपए कहां से आएंगे. यहां तो प्राध्यापकों को यूजीसी के मानदंडों के अनुसार वेतनमान देने और एरियर्स देने के लाले पड़े हैं. ला कालेज बंद हों, यह कोई नहीं चाहता लेकिन बीसीआई अगर कर रहा है तो हमें सहूलियत ही है.

यह सहूलियत है कम कालेज तो कम काम, लेकिन दिख यह भी रहा है कि उच्च शिक्षा विभाग विधि महाविद्यालयों को चलाने की अपनी जिम्मेदारी पर खरा नहीं उतर रहा है. ला कालेजों का वजूद बनाए रखने के लिए विभाग ने 26 अप्रैल को विधि महाविद्यालयों के प्राचार्यों की एक मीटिंग बुलाई थी जिस में चर्चा के केंद्र में बीसीआई ही था. इस मीटिंग में शामिल एक प्राचार्य का कहना है कि माहौल हताशा का था. थोड़ी सी औपचारिक चर्चा के बाद ही मान लिया गया कि विभाग बीसीआई के मानकों के अनुरूप विधि महाविद्यालयों को बदल नहीं सकता.

इस प्राचार्य का कहना है कि बीसीआई की टीम जब निरीक्षण के लिए आती है तो हमें दामादों की तरह उन की आवभगत करने में जेब का पैसा खर्च करना पड़ता है. इस बाबत हमें चंदा भी करना पड़ता है. बीसीआई की टीम को महंगे होटल में ठहराने से ले कर महंगे खानेपीने का इंतजाम करने से हम छोटीमोटी गाज से बच जाते हैं.  इस प्राचार्य का डर यह भी है कि अगर इसी तरह ला कालेज बंद होते रहे तो कानून के प्राध्यापकों का क्या होगा? विभाग तनख्वाह देने पर भले मजबूर होगा पर काम तो तरहतरह के लेगा जो हमारी हैसियत व प्रतिष्ठा से काफी नीचे भी हो सकते हैं.

दरअसल, एक तलवार विधि प्राध्यापकों के सिर पर भी लटक रही है कि कल को उच्च शिक्षा विभाग और यूजीसी मिल कर यह न कहने लगें कि चूंकि अब आप की आवश्यकता नहीं है इसलिए क्यों न आप को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी जाए.  बहरहाल, इस मीटिंग में यह तय नहीं हो पाया  कि बीसीआई के कड़े मानदंडों से कैसे बचा जाए या कैसे उन्हें पूरा किया जाए. विधि के एक प्राध्यापक की मानें तो ‘बीसीआई की शर्तें हास्यास्पद और अव्यावहारिक हैं. उन्हें किसी भी सूरत में पूरा नहीं किया जा सकता. अधिकांश विधि महाविद्यालय सालों से चल रहे हैं. नए नियम उन पर लागू करना सरासर  ज्यादती है. इस से तो बेहतर होगा कि बीसीआई ही अपने मानदंड बदले या फिर अपने बनाए मानक पूरे करने के लिए 50 फीसदी पैसा दे या फिर राज्य सरकार विशेष कानून बना कर उस से निरीक्षण करने और मान्यता रद्द करने का अधिकार छीने.’

अगर बात बिहार की करें तो वहां का नजारा भी कुछ अलग नहीं है. पटना के सिविल कोर्ट में भीड़भाड़ और चिल्लपौं के बीच सड़क के किनारे पेड़ के नीचे टेबल और कुरसी लगा कर काला कोट पहन कर बैठे लोगों की लंबी कतारें हैं. कहीं पर 10-12 काले कोट वाले मजमा लगा कर गप्पें हांक रहे होते हैं तो कहीं अकेले में बैठे लोग शून्य में कुछ घूर रहे होते हैं. हर सुबह 10 बजे से ले कर शाम 5 बजे तक काले कोट वालों का ग्रुप इधरउधर घूमता मिल जाता है.

3 साल एलएलबी की पढ़ाई करने के बाद वकालत में कैरियर का सपना देखने वाले ज्यादातर युवा वकील के बजाय ‘एजेंट’ बन कर रह जाते हैं. उन का काम है किसी तरह से पट्टी पढ़ा कर क्लाइंट को फांसना और फिर केस जल्द से जल्द खत्म कराने की गारंटी दे कर सालों तक कोर्ट के चक्कर लगवाना. ज्यादातर वकीलों का यही धंधा बना हुआ है. राज्य में 80 हजार लाइसैंसधारी वकील हैं जिन में से  5-6 हजार वकीलों की ही प्रैक्टिस अच्छी चल रही है, 10-15 हजार वकीलों की प्रैक्टिस महज इतनी है कि परिवार चलाने लायक खर्च निकल आता है. इन के अलावा करीब 20 हजार वकील ऐसे हैं जो किसी भी तरह से कुछ कमाई कर लेते हैं, बाकी वकील तो मुकदमे की आस में रोज घर से निकल कर कोर्ट आते हैं और खाली हाथ ही वापस लौट जाते हैं.

पटना हाईकोर्ट के एक सीनियर वकील दबी जबान में कहते हैं कि ला की पढ़ाई का सरकार के द्वारा कोई ठोस इंतजाम नहीं किया गया है और न ही इस में इंजीनियरिंग, मैडिकल, एमबीए जैसा स्कोप और ग्लैमर ही दिखता है. बार काउंसिल औफ इंडिया के दखल और उस के सदस्यों की सियासी महत्त्वाकांक्षा के बीच कानून की पढ़ाई के लिए बने कालेजों और संस्थानों की हालत बदतर है. बार काउंसिल को ला इंस्टिट्यूटों की देखरेख का जिम्मा तो मिला है पर पढ़ाई की क्वालिटी तय करने में उन की दिलचस्पी काफी कम होती है. बार काउंसिल औफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा पिछली बार कांग्रेस के टिकट पर गोपालगंज जिले के बैकुंठपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ कर अपनी सियासी जमीन तलाश चुके हैं.

बिहार में सरकारी लेवल के कुल  26 ला कालेज और इंस्टिट्यूट हैं, जिन में न ठीक तरह से पढ़ाई होती है और न ही परीक्षाएं समय पर होती हैं. सैशन हमेशा लेट चलता है. उन में दाखिला लेने वाले ज्यादातर स्टूडैंट्स पढ़ाई के नाम पर टाइमपास ही करते हैं. कई सीनियर वकीलों का मानना है कि कानून की पढ़ाई का ‘कानून’ ही अजबगजब है. ऐसे संस्थानों के खर्च का काम तो सरकार के जिम्मे है पर उस की गुणवत्ता और पढ़ाई का तौरतरीका तय करने का काम बार काउंसिल करती है, जिस की वजह से ही कानून की पढ़ाई और कैरियर में अराजक हालात बने हुए हैं.

मुंबई में एक बड़ी कंपनी में कानूनी सलाहकार का काम कर लाखों रुपए के सालाना पैकेज की नौकरी कर रहे सोनल वर्मा कहते हैं, ‘‘किसी भी फील्ड में कैरियर बनाने से पहले उस के बारे में जाननेसमझने के साथ उस में रुचि होनी भी जरूरी है, तभी पढ़ाई और कैरियर बढि़या हो सकेगा.’’

एलएलबी की डिगरी लेने के बाद बार काउंसिल से वकालत करने का लाइसैंस लेने के लिए मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है. युवाओं को लाइसैंस देने के लिए 10 से 20 हजार रुपए की फीस वसूली जाती है. एलएलबी किए रिटायर सरकारी अफसरों से 40 से 50 हजार रुपए तक वसूले जाते हैं. पढ़ाई में समय और पैसा लगाने के बाद वकालत करने का लाइसैंस लेने में काफी कुछ गंवा चुके हजारों वकीलों का कैरियर अंधेरे में है.

कालेजों पर लटक रही तलवार

बिहार और मध्य प्रदेश की तर्ज पर महाराष्ट्र और गोआ में इस समय विधि महाविद्यालय की संख्या तकरीबन 112 है, जिन में से 30 को बंद किए जाने के लिए बीसीआई ने नोटिस जारी किए हैं.  मुंबई यूनिवर्सिटी के विधि विभाग के प्रमुख डा. अशोक येंडे बताते हैं कि पहले जब वे मुंबई के सी ला कालेज में प्रमुख थे तो वहां 900 छात्रों पर केवल 3 प्राध्यापक थे जबकि बार काउंसिल औफ इंडिया के मुताबिक वहां 10 प्राध्यापक होने चाहिए. वहां छात्र की फीस 8 हजार रुपए है. अगर प्राध्यापक ज्यादा नियुक्त किए जाएंगे तो उन के वेतन का भार कालेज पर पड़ेगा. नतीजतन, छात्रों की फीस बढ़ानी पड़ेगी, जो शायद संभव नहीं है. इसलिए  32 विजिटिंग प्राध्यापक रखे गए हैं.

ये प्राध्यापक सीरियस नहीं होते. किसी तरह पढ़ा कर चले जाते हैं जबकि कालेज के 3 प्राध्यापकों पर पढ़ाने का भार अधिक होने के चलते वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे पाते. यही वजह है कि ला कालेज से 7 साल की शिक्षा प्राप्त कर के भी छात्र बेरोजगार हो कर इधरउधर भटकते हैं.  बीसीआई के सदस्य एडवोकेट सतीश आबाराव देशमुख का इस बारे में कहना है कि परिषद राज्य सरकार को सारी बातें बताती है पर वह नहीं सुनती. हर ला कालेज में प्राध्यापक कम हैं अगर हैं भी तो प्रशिक्षित नहीं हैं. राज्य सरकार की ओर से कोई सहायता न मिलने की वजह से परिषद को कई बार कड़े कदम उठाने पड़ते हैं. वे कहते हैं कि बीसीआई किसी भी विधि महाविद्यालय को बंद करने के पक्ष में नहीं है.

बात चाहे कुछ भी हो पर इतना सही है कि बीसीआई अपनी करतूत को राज्य सरकार के मत्थे मढ़ रही है लेकिन इस का खमियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है.

सरसुना कालेज पर टेढ़ी नजर

जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है तो पूरे बंगाल में 25 सरकारी ला कालेज हैं, जिन में 8 प्राइवेट हैं. बंगाल में बीसीआई के अध्यक्ष अंसर मंडल का कहना है कि इस का कारण यह है कि यहां ज्यादातर ला कालेज सरकारी हैंऔर विश्वविद्यालय परिसर में हैं. कुछ ला कालेजों की अपनी बिल्डिंग हैं जहां आधारभूत ढांचा पूरी तरह से मुकम्मल है. बंगाल में जिन ला कालेजों ने बीसीआई की मान्यता के लिए आवेदन किया?था, 3 महीने पहले उन कालेजों में बीसीआई की ओर से निरीक्षण किया गया और कोई खास समस्या नहीं नजर आई है, सिवा दक्षिण कोलकाता के बेहाल स्थित सरसुना ला कालेज के.

बीसीआई की ओर से निरीक्षण के लिए?भेजी गई टीम के एक सदस्य प्रो. जे के दास का कहना है कि कालेज में आधारभूत सहूलियत बीसीआई के मानदंड के अनुरूप नहीं है. सब से बड़ी समस्या कालेज के प्रधानाध्यापक की नियुक्ति है. प्रो. दास का कहना है कि वे इस पद के लिए उपयुक्त नहीं हैं. एक कालेज के प्रधानाध्यापक के लिए बीसीआई ने जो मानदंड स्थापित किए हैं, कालेज के प्रधानाध्यापक उन पर खरे नहीं उतरते हैं. उन के पास पीएचडी की डिगरी नहीं है.

इस के अलावा लंबे समय से सरसुना ला कालेज के प्रबंधन को ले कर भी कुछ समस्या है, जिस को देखते हुए बंगाल उच्च शिक्षा विभाग की ओर सरकार ने कोलकाता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आशुतोष कालेजों के डीन डा. शुभ्रांशु शेखर चटर्जी को गवर्निंग बौडी का सदस्य मनोनीत किया है. डा. चटर्जी, जो बंगाल के कई ला कालेज से जुड़े हुए हैं, का कहना है कि सरसुना ला कालेज प्रबंधन ने आज तक कभी उन्हें बैठक में आमंत्रित नहीं किया. दूसरी तरफ वे समस्या से इनकार करते हैं.

मनमानी की मिसाल

ऐसा भी नहीं है कि बीसीआई ईमानदारी से अपना काम कर रही हो अगर उस के निरीक्षण दल की पांचसितारा आवभगत की जाए यानी घूस दी जाए तो यह अपने ही बनाए नियमकायदे ताक पर रखती  हुई मान्यता दे भी देती है. तमाम खामियों, जो उस के नियमों और शर्तों की देन हैं, को भूलने के लिए वह तैयार भी रहती है.  अजय खेमरिया की मानें तो बीसीआई के निरीक्षण दल के सदस्य नामी वकील होते हैं जिन का मान्यता के एवज में रिश्वत खाना साफ दिख रहा है. प्राइवेट ला कालेजों को मध्य प्रदेश में धड़ल्ले से मान्यता दी जा रही है, बावजूद इस के कि वे सरकारी कालेजों के मुकाबले रत्तीभर भी मानदंडों पर खरे नहीं उतरते हैं. चंबल, ग्वालियर इस की बेहतर मिसाल हैं.

बात सच इसलिए भी है कि बीसीआई निरीक्षण टीम की शिकायत ग्वालियर के ब्रिटिश काल से चल रहे एलएलबी कालेज के प्राचार्य ने लिखित में भी दी थी कि उन से मान्यता के एवज में महंगी सुविधाओं की मांग की गई. इस कालेज की मान्यता महज इसलिए रद्द कर दी गई कि कालेज प्रबंधन निरीक्षण दल के सदस्यों को महंगा विदेशी रेजर मुहैया नहीं करा पाया था.

प्राइवेट कालेज घूस का पैसा अपनी जेब से नहीं देते बल्कि फीस बढ़ा कर छात्रों से वसूलते हैं. राज्य में यह चर्चा आम है कि बीसीआई की यह मार अप्रत्यक्ष रूप से  निम्न और मध्यमवर्गीय छात्रों पर पड़ रही है. पर हकीकत में यह छोटी जाति के छात्रों पर पड़ रही है जो बड़े अरमान ले कर कानून की पढ़ाई कर वकालत को अपना पेशा बनाना चाहते हैं.

जहां तक पढ़ाई की गुणवत्ता की बात है तो वह प्राइवेट कालेजों के मुकाबले सरकारी कालेजों में बेहतर इसलिए है कि सरकार नियुक्ति योग्यताओं पर करती है. अधिकांश प्राध्यापक स्नातकोत्तर और पीएचडी हैं पर प्राइवेट कालेजों में एलएलबी पास प्राध्यापक ही पढ़ा रहे हैं.

एक बड़ी दिक्कत की बात इस तानाशाही से गांवों व कसबाई छात्रों से कानून की पढ़ाई की सहूलियत कालेजों के बंद होने से छिनना है. ऐसे में समस्या का इकलौता हल यही दिख रहा है कि बीसीआई की दादागीरी पर अंकुश लगाया जाए, उस से मान्यता का अधिकार छीना जाना चाहिए या फिर क्षेत्रफल, आवास और दूसरी कड़ी शर्तों में ढील देने के लिए दबाव बनाया जाए वरना प्रदेश के सरकारी विधि महाविद्यालय, यूजीसी, उच्च शिक्षा विभाग और बीसीआई के बीच उलझ कर रह जाएंगे.

 

– पटना से बीरेंद्र, मुंबई से सोमा घोष, कोलकाता से साधना शाह

तेलंगाना और कांग्रेस

आंध्र प्रदेश को काट कर तेलंगाना को बनाने का केंद्र सरकार का निर्णय ठीक ही रहा है. इस मामले को ले कर आंध्र प्रदेश में आएदिन बेवजह दंगेफसाद होते रहते थे. छोटे?राज्य देश की अखंडता को मजबूत करते हैं, कमजोर नहीं क्योंकि छोटे राज्य का मुख्यमंत्री लुंजपुंज, प्रभावहीन बन कर रह जाता है. आजकल जनता अपने शासकों से बहुतकुछ चाहने लगी है और राज्य बड़ा हो या छोटा, भाव तो मुख्यमंत्री को ही मिलता है. बड़े राज्य का मुख्यमंत्री संतुलन बैठाने व अलगअलग क्षेत्रों के लोगों से मिलने में इतना समय खर्च कर देता है कि उस के पास राज करने की फुरसत ही नहीं रहती.

राज्य इतने छोटे हों कि मुख्यमंत्री हैलिकौप्टर से आधे घंटे में हर जगह पहुंच सकें. अब समय आ गया है कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल को काटा जाए. गोआ, पौंडिचेरी, उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों को दूसरों से मिलाया भी जा सकता है. तेलंगाना चाहे कांग्रेस की मजबूरी रही हो पर गलत नहीं है.        

अमेरिका में भेदभाव

अमेरिका में जातिगत विवाद एक बार फिर सिर उठाने लगा है जबकि राष्ट्रपति बराक ओबामा स्वयं अश्वेत हैं. हुआ यह था कि 26 फरवरी, 2012 को सैनफोर्ड शहर में रात को एक अश्वेत युवा ट्रेवौन मार्टिन को स्थानीय स्वयंसेवी रक्षक ने सड़क पर चलते हुए बुलाने की कोशिश की. मार्टिन ने क्या किया, यह स्पष्ट नहीं परंतु रक्षक जौर्ज जिम्मरमैन ने अपनी पिस्तौल उस पर चला दी और उस की मृत्यु हो गई.

विवाद अब खड़ा हुआ है जब एक अदालत में आम लोगों की एक जूरी ने जिम्मरमैन को रिहा कर दिया. अमेरिका में आम लोगों में से चुनी गई जूरी का आपराधिक मामलों में फैसला माना जाता है. भारत में भी ऐसा ही नियम था पर 1959 में कमांडर नानावटी द्वारा अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा को मारने के आरोप में बरी कर देने के बाद जूरी प्रणाली समाप्त कर दी गई. चूंकि इस अमेरिकी जूरी में केवल श्वेत महिलाएं थीं, इसलिए अभियुक्त को बरी करने को रंगभेद की सोच का नाम दिया जा रहा है.

बराक ओबामा ने भी इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि 35 साल पहले वे खुद मार्टिन जैसे की जगह पर हो सकते थे. स्पष्ट है कि अमेरिका रंगभेद की नीति से डेढ़ सदियों में भी नहीं निकल पाया है और अभी?भी श्वेत नागरिक अश्वेतों को अपराधी, दूसरे दरजे का मानते हैं. उन्हें पूरी तरह बराबरी देने में आज भी आनाकानी की जाती है. यह लगभग हर देश में हो रहा है. नई सोच, बराबरी के मूल्यों की जोरदार वकालत, स्वतंत्रता, सभी को सामान्य एक जैसे अवसरों की बातें चाहे जितनी कर ली जाएं, लोग किसी न किसी वजह से ‘हम’ और ‘उन’ में?भेद निकाल ही लेते हैं और फिर उन के साथ स्पष्ट या छिपा हुआ भेदभाव होता है.

तमाम संविधानों, अदालतों, प्रस्तावों, अंतर्राष्ट्रीय मान्यताओं के बावजूद यह भेद निकल नहीं पाता और हर समाज में एक वर्ग अपने को दूसरों से?श्रेष्ठ समझता है. इस का एक बड़ा कारण धर्म है जो कट्टरता के बीज बोने में सब से आगे रहता है. कट्टरता का यह जहर रंग, जाति, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव पर भी फैल जाता है. जो जितना धार्मिक होगा वह उतना ज्यादा कट्टर व ‘हम’ और ‘उन’ में भेद करने वाला होगा क्योंकि उसे बचपन से सिखाया जाता है कि जो दूसरे धर्म का है, अलग है, बैरी है.

अमेरिका आधुनिक सोच, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भेदभाव रहित समाज के संकल्पों के बावजूद हार रहा है तो दूसरों का क्या कहना? 

जनता का वोट

वर्ष 2014 के चुनावों का परिणाम क्या होगा, यह सवाल अगर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए महत्त्व का है तो जनता के लिए परेशान करने वाला है  कि अगर इन दोनों बड़ी पार्टियों को 100-125 सीटें ही मिलीं तो क्या होगा. 1998 और 2009 में दोनों बड़ी पार्टियों ने छोटी पार्टियों को जोड़ कर काम चला लिया पर 1975, 89, 96 में छोटी पार्टियों को मिला कर सरकार बनाने का जो प्रयोग हुआ वह बेहद निराशाजनक रहा.  विश्वनाथ प्रताप सिंह, चौधरी चरण सिंह, एच डी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल जैसों की सरकारें पहले ही दिन से लकवाग्रस्त रहीं.

अब 2014 के बारे में संशय इसलिए है क्योंकि कांग्रेस रिश्वतखोरी के काले कोलतार में गरदन तक डूबी है और उस पर देश की शिक्षित जनता को भरोसा नहीं है. दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी अहंकारी, कट्टर, हिंदुत्व के मर्चेंट नरेंद्र मोदी को महाराजाधिराज बनाने का संकल्प ले चुकी है. जनता के लिए एक तरफ आग है तो दूसरी तरफ गंगा की बाढ़, गिरते मकान, होटल, मंदिर और रिजोर्ट हैं.  इन के अलावा राज्यों में मजबूत नेता हैं पर मनमरजी के मालिक, बेपेंदे के लोटे, जिन्हें न विदेश नीति से मतलब है न देश की आर्थिक प्रगति से और जिन की निगाहें अपने राज्य की राजधानी से बाहर जाती ही नहीं हैं. 

क्या चुनाव सुधार कर के कुछ किया जा सकता है कि देश में 2 या 3 जिम्मेदार पार्टियां ही रहें जिन पर जनता समय की जरूरत के अनुसार विश्वास व्यक्त करने का मौका पा सके?  अमेरिका से जलन होती है जहां केंद्र और राज्यों, सभी जगह केवल 2 पार्टियां हैं और जनता जब एक से ऊब जाती है तो दूसरी को चुन लेती है. एक पार्टी गलतियां करती है तो दूसरी को मौका देने में कठिनाई नहीं होती.

कई देशों ने कई प्रयोग किए हैं. जरमनी में संसद की आधी सीटों पर चुनाव भारतीय चुनावी तरीके से होता है पर बाकी आधी सीटें, इन चुनावों में पार्टियों को मिले वोटों के अनुसार उन्हें मिलती हैं. पर इस से भी वहां एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलता क्योंकि प्रमुख पार्टी, एंजेला मार्केल की क्रिश्चियन डैमोक्रेटिक यूनियन को 598 स्थानों में से दोनों तरीकों से भी 237 सीटें ही मिलीं और उन्हें गठबंधन सरकार बनानी पड़ी.  जब तक देश की जनता धर्म, जाति, भाषा और राज्य के संकुचित विचारों से अपने को नहीं उबारती, शायद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिलेगा. यह पक्का लगता है कि जनता 2014 में न तो रिश्वतखोरों पर पक्की मोहर लगाएगी न धार्मिक कट्टरता पर.

 

हिंदू राष्ट्रवादी मोदी

नरेंद्र मोदी को आगे रख कर भारतीय जनता पार्टी किला फतह करेगी या आत्महत्या करेगी, यह 2014 में पता चलेगा पर इतना साफ है कि नरेंद्र मोदी विकास की चाहे जितनी बात कर लें वे असल में कट्टर हिंदूवादी नेता हैं और अपनी वही सोच वे देश पर लादने की कोशिश करेंगे. एक इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा भी है कि वे हिंदू राष्ट्रवादी हैं जिस का अर्थ केवल एक है, हिंदू कट्टर हैं.

उन का कहना कि वे हिंदू हैं, वे राष्ट्रवादी हैं इसलिए हिंदू राष्ट्रवादी कहलाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं, उन के लिए चाहे सही हो पर देश के लिए घातक है. इसी तरह के शब्दों से मुसलिम राष्ट्रीयता का जन्म हुआ था जिस का नतीजा देश का विभाजन और 66 सालों से लगातार चलता आ रहा झगड़ा है.  धर्म राष्ट्रीयता तो हो ही नहीं सकता क्योंकि यह थोपा हुआ विचार है. धर्म प्रचारक बचपन से ही लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं और उन का इकलौता मकसद अपने भक्तों से पैसा कमाना होता है. हर धर्म दान और धर्म के दुकानदारों की सेवा पर टिका होता है, भक्त को संतोष देने की दवा पर नहीं.

आज आदमी ने पहचान लिया है कि सुख तकनीक से मिलता है, प्रकृति को अपने अनुसार ढालने से मिलता है. पिछले 400 सालों की वैज्ञानिक उन्नति ने जीवन बदल दिया है पर अफसोस है कि सोच पर उस का असर नहीं है. इस का कारण विज्ञान की कमजोरी नहीं बल्कि धर्म प्रचारकों का जोर और धर्म पर विश्वास न करने वालों की चुप्पी है.   नरेंद्र मोदी हिंदू धर्म के नाम पर अगर वोट पाने का सपना देख रहे हैं तो पक्का है कि देश में तनाव फैलेगा. धर्म प्रचारकों की इतनी खूबी तो है कि वे लच्छेदार बातों में उलझा कर अच्छोंअच्छों को कायल कर देते हैं कि उन के साथ जो बुरा हो रहा है वह दूसरे धर्म के लोगों के कारण है. भारतीय जनता पार्टी ने 1990 के दशक में यह रास्ता अपनाया और अब फिर अपनाने की कोशिश में हैं.

भारतीय जनता पार्टी के साथ कठिनाई यह है कि उस के समझदार नेताओं के हाथ बंधे हुए हैं. उन के पास कुछ नया कहने या करने को नहीं बचा. संसद में व टैलीविजन पर बोलबोल कर वे थक गए हैं और जमीनी नरेंद्र मोदी को टक्कर देने में असमर्थ हैं. उन के पास अब चारा यही बचा है कि वे फिर उसी रास्ते पर चलें जिस पर नरेंद्र मोदी हांक रहे हैं, चाहे अंत में नदी में क्यों न कूदना पड़े.

मैडिकल शिक्षा, सरकार और अदालत

व्यावसायिक मैडिकल शिक्षा को बल देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया द्वारा आदेशित कौमन मैडिकल एंट्रैंस टैस्ट के नियम को असंवैधानिक करार दे दिया है.  इस से लगभग 300 कालेज खुश होंगे जो निजी सैक्टर के हैं. कौमन टैस्ट के कारण वे अपनी मनमरजी के अनुसार छात्रों को मैडिकल कालेजों में प्रवेश नहीं दे पा रहे थे. छात्रों को अब अलगअलग संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग टैस्टों में बैठना पड़ेगा और वे देशभर में मारेमारे फिरेंगे.

शिक्षा सरकारी हो या निजी, यह बहस कभी खत्म न होने वाली है. सरकारी शिक्षा का तो शिक्षकों, शिक्षा प्रबंधकों और अफसरों ने ऐसा कबाड़ा किया है कि अरबों रुपए हर साल खर्च करने के बावजूद स्तर नीचे ही गिरता चला गया है. दशकों से शिक्षा संस्थान विवादों, हड़तालों, लूट, हेरफेर, चमचागीरी के केंद्र रहे हैं और वहां पढ़ाई के अलावा सबकुछ होता रहा है. सरकारी शिक्षा सस्ती होने के कारण सरकारी कालेजों के सामने लंबी लाइनें लगती रहीं और उच्च शिक्षा पर कुछ वर्गों और कुछ जातियों का एकाधिकार बनाए रखने के नाम पर सरकार ने इन की गिनती नहीं बढ़ाई.

इन सस्ते सरकारी संस्थानों में प्रवेश के लिए लंबी लाइनें लगीं और लाखों की रिश्वतें दी जाने लगीं. इन के पर्याय के रूप में प्राइवेट मैडिकल कालेज खुले और थोड़ीबहुत आनाकानी के बाद सरकार ने उन्हें स्वीकार कर लिया.  यह अच्छा था क्योंकि सरकार के बस में और कालेज खोलना न था. पर इन में चूंकि बहुत पूंजी लगती है, छात्रों से मोटी फीस देने की जबरदस्ती की गई, उन से कैपिटेशन फीस भी वसूली जाने लगी.

मैडिकल शिक्षा इस तरह बेहद महंगी हो गई और साथ ही, प्रवेश में ढेरों धांधलियां भी होने लगीं. मैडिकल काउंसिल औफ इंडिया ने इसे रोकने के लिए कौमन एंट्रैंस टैस्ट की व्यवस्था थोपी थी पर चूंकि इस से निजी कालेजों के प्रबंधकों के मौलिक अधिकार छिन रहे थे, सर्वोच्च न्यायालय ने उसे गलत ठहरा दिया.  इस समस्या का हल आसान नहीं. नाम वाले निजी कालेज अब पुराने सरकारी कालेजों की तरह ख्याति पाने लगे हैं और प्रवेश के लिए इच्छुकों की भीड़ कम नहीं हुई. बच्चों पर खर्च करने के लिए मातापिता के पास अब पैसा ज्यादा है तो उस की लूट मच गई है. बजाय कोई सही रास्ता सुझाने के सुप्रीम कोर्ट ने समस्या को अधर में छोड़ दिया है और अब सरकार उस पर कोई फैसला भी नहीं कर सकती. 

देश को चिकित्सा कालेजों की बहुत जरूरत है और गांवगांव में चिकित्सा उपलब्ध हो सके, इस के लिए हर तरह के चिकित्सक चाहिए ही. इस मामले में ज्यादा ढीलढाल आगे चल कर महंगी साबित होगी.

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जुलाई (प्रथम) 2013

भजभज मंडली में पिछले दिनों नेतृत्व को ले कर उठे सवालों और उन के भविष्य में होने वाले परिणामों पर ‘गठबंधन की गांठ’ शीर्षक के अंतर्गत आप के संपादकीय विचार पढ़े. धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर लोगों को उल्लू बना कर अपनी सत्ता बनाए रखने की खातिर जुगाड़ और गठबंधन के खेल का अंत यही होता है. अनपढ़ लोग इन नकाबी नेताओं के घडि़याली आंसुओं के बहकावे में भले ही आ जाएं लेकिन पढ़ेलिखे लोग भी जब इस तरह की ओछी, स्वार्थी राजनीति के शिकार बनें तो वाकई आश्चर्य होता है. कलियुगी रावणों ने राम का सहारा ले कर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध किया है, इंसानियत का भला नहीं.

छैल बिहारी शर्मा ‘इंद्र’, छाता (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘व्यवस्था में अव्यवस्था’ पढ़ कर निसंकोच ऐसी सल्तनत के लिए यह कहा जा सकता है कि ‘अंधेर नगरी चौपट राजा टका सेर भाजी टका सेर खाजा’. आज जनसाधारण में ‘चोरचोर मौसेरे भाई’ की धारणा फैली हुई है. यह तनिक भी गलत नहीं. वर्तमान में देश में हुए घोटालों, महाघोटालों से इस तथ्य की पुष्टि भी हो जाती है. मात्र ईमानदारी का ढोल पीटने या वैसा नकाब ओढ़ लेने से कोई सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन जाता. उस के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, कर्तव्यपरायणता व उचित कदम उठाने की कूवत भी तो होनी चाहिए. ऐसा तभी संभव हो सकता है जब नेता अपनी सात पुश्तों हेतु हराम की कमाई इकट्ठा करने की नीयत को बदलें. मगर जब किसी की सोच ही ‘जब मिल जाए खाने को, तो क्यों  जाएं कमाने को’ जैसी होगी, तो फिर भ्रष्टाचारियों, लुटेरों, कानून की धज्जियां उड़ाने वालों व हराम की मिलबांट कर खाने वालों का गठबंधन तो होगा ही.  यों भी कहावत प्रचलित है कि ‘जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का.’ ऐसे में हम चाहे जितना होहल्ला मचा लें, न तो देश की गरीबी ही कम होगी, न लूटखसोट रुकेगी और न ही जनसाधारण को कानून के नाम पर दी जाने वाली प्रताड़ना से मुक्ति? मिलेगी.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘व्यवस्था में अव्यवस्था’ पढ़ी. इस में आज के शासनतंत्र का सही चित्रण है. हम इस ‘भ्रष्ट तंत्र’ के नियमों में फंसे हुए हैं. भ्रष्टाचार की गाड़ी बेरोकटोक आगे बढ़ रही है. बेईमानी का खेल जारी है. जनता की नजरों पर नियमों का परदा पड़ा है. सरकारी भ्रष्टाचार पर न्यायाधीश वक्तव्य दें या विदेशों में आलोचना हो, भ्रष्टाचारियों पर फर्क नहीं पड़ता. लोकतंत्र तो शाश्वत है पर क्या इस तंत्र का उपरोक्त स्वरूप भी शाश्वत होना चाहिए?

कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘भाजपा का खयाली पुलाव’ सामाजिक, सामयिक, सचाई से ओतप्रोत व ज्ञानवर्द्धक है. आप ने यह बिलकुल ठीक लिखा है कि नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी का मुख्यतम नेता मान लेने में ही जिन्हें भलाई दिख रही है, उन्होंने जिस तरह का हंगामा खड़ा किया वह आने वाले दिनों का संकेत दे रहा है. आप का यह कहना काबिलेतारीफ है कि नरेंद्र मोदी का बुलडोजर देश के प्रति चिंता करने वाले भारतीय जनता पार्टी के रहेसहे नेताओं को रौंद कर धार्मिक संकीर्णता की कंटीली ?ाडि़यों के लिए जगह खाली करने को चल पड़ा है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्मजनित विचार शून्यता’ में नेता, बुद्धिजीवियों और प्रचार माध्यमों की अच्छी खबर ली गई है. आजकल विपक्ष और सत्तापक्ष के नेताओं में मात्र टांगखिंचाई का खेल चल रहा है. देश की गंभीर समस्याओं के लिए न तो समय है और न ही नेता इन की परवा करते हैं. नक्सली जो करना चाहें वह करें.  एक आम चुनाव हो जाने के बाद विपक्षी पार्टी अगले 5 साल तक केवल अपना प्रधानमंत्री बनाने का प्रोग्राम चलाती है. कई अखबारपत्रिकाएं उस की मुट्ठी में हैं जो रहरह कर उस के प्रधानमंत्री पद के दावेदार का प्रचार बेवजह करती रहती हैं, बिना बहुमत पाए प्रधानमंत्री बनाने का खेल केवल भारत में ही संभव है.  धर्मजनित विचारशून्यता तो जानबू?ा कर हमारी कमजोरी बनाई जा रही है वरना बीते दशकों में यह विचारशून्यता देश में कमजोर हो गई थी.

माताचरण, वाराणसी (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘धर्मजनित विचार- शून्यता’ के तहत आप के विचारों से हम सब (मैं, मेरे दोस्त और हम सब के परिवार) पूरी तरह सहमत हैं. हमें भी ताज्जुब होता है कि जब हमारे देश में हर जना (करोड़पतियों और नेताओं को छोड़ कर) दुखी हो कर सड़क पर उतर रहा है तो उस का कोई उपाय क्यों नहीं ढूंढ़ा जाता? टैलीविजन पर आजकल एक नया जोश देखा जा रहा है. सारे न्यूज चैनल, चाहे  वे हिंदी के हों या अंगरेजी के, विशेषज्ञों का पैनल बैठा देते हैं. किसी भी मुद्दे को वे बड़ा बना कर बहस शुरू कर देते हैं. अजीब यह है कि बहस पर जो भी बोलना शुरू करता है, उसे बीच में ही रोक देते हैं. कभी?भी कोई हल निकलता तो मैं ने देखा नहीं. पैनल में शामिल होने वाले विशेषज्ञ अधिकतर राजनीतिक दल के होते हैं या फिर रिटायर्ड लोग होते हैं.

मुझे लगता है यह भी एक धंधा हो गया है. स्वयं पार्टी में होने के बावजूद कोई काम करते नहीं हैं. इसी तरह कुरसी पर जब बैठे थे तब कुछ किया नहीं और रिटायर होने के बाद गलतसही के मसीहा बन बैठे.  मैं समझता हूं मीडिया चाहे वह टैलीविजन हो या समाचारपत्र और या फिर मैगजीन, सार्वजनिक बहस केवल गंभीर व पेचीदा मामलों पर ही होनी चाहिए और कोशिश हल?ढूंढ़ने की होनी चाहिए. आम चुनाव 2014 में होंगे और सब अपनेअपने काम छोड़ कर चुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं. क्या इस तरह देश चलता है? मीडिया ने एक नई चीज पकड़ ली है. लोगों के ट्विटर और ब्लौग से खबरें ला कर चर्चा का विषय बना रहे हैं. ये लोग आप का संपादकीय नहीं पढ़ते?

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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प्रकृति का प्रकोप

उत्तराखंड में प्रकृति का प्रकोप एक अवर्णनीय विभीषिका है. समस्त उत्तराखंड के लिए यह चिंता का विषय है. सवाल यह है कि क्या हिंदी या किसी भारतीय भाषा के पंचांग में इस प्रकार के भीषण संकट का संकेत था?

डा. के सिंघल, तमिलनाडु (चेन्नई)

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गुजरात में बिजली

जुलाई (प्रथम) अंक में ‘विकसित गुजरात की अविकसित तसवीरें’ शीर्षक से प्रकाशित पूरक लेख पढ़ा.  केवल एक घटना को माध्यम बना कर गुजरात में 24 घंटे मिलने वाली बिजली को गलत साबित करने की कोशिश गलत है. 24 घंटे बिजली न मिलने से होने वाले नुकसान को भुक्तभोगी ही जानते हैं. महाराष्ट्र में कहीं ज्यादा किसान आत्महत्या करते हैं. लेख में जो अन्य विषय उठाए गए हैं वैसे किसी भी राज्य के लिए लिखे जा सकते हैं. भ्रष्टाचार के लिए हमारी राजनीतिक, आर्थिक (कर प्रणाली), कानूनी व्यवस्था जिम्मेदार है.  मोदी की उपलब्ध्यों को बढ़ाचढ़ा कर बताना उतना ही गलत है जितना कि उन्हें नकारना. क्या अच्छे काम की प्रशंसा नहीं होनी चाहिए? क्या सब चीजें काली या सफेद ही होती हैं?

गोपाल कृष्ण, मुंबई (महा.)

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सरिता की दिशा

जुलाई (प्रथम) अंक के मुखपृष्ठ पर छपे चित्र को देख कर आश्चर्यमिश्रित कष्ट हो रहा है. मेरी नन्ही सी पोती इस चित्र को देख कर पूछ रही है, ‘अम्मा, यह क्या है?’ मु?ो शर्म आ रही है कि मैं उसे क्या बताऊं.  घरघर में पढ़ी जाने वाली सरिता, जिसे मैं अत्यंत स्नेह और आत्मीयता के साथ 40 वर्षों से पढ़ रही हूं, देश की लाखों बहनें जिस पत्रिका के नए अंक का बेसब्री से इंतजार करती हैं, जिस में प्रकाशित होने वाली कहानियां, कविताएं, लेख दिल को अंदर तक भिगो देते हैं, उस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसा चित्र प्रकाशित करने की मजबूरी कैसे आन पड़ी? अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार करने वाली, ज्ञानवर्धक, स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का सरिता का जो उत्कृष्ट रूप है, कृपया उसे विकृत मत कीजिए. सैक्स के नाम पर अश्लील सामग्री को देख कर देश में अमर्यादित यौनाचार ही बढ़ेगा.

डा. वीना अग्रवाल, हरिद्वार (उत्तराखंड)

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स्वस्थ सैक्स यानी स्वस्थ जीवन

जुलाई (प्रथम) अंक ‘सैक्स स्वास्थ्य विशेषांक’ में आधुनिक लाइफस्टाइल में सैक्स की महत्ता की जानकारी दी गई है जिसे हर पतिपत्नी को जानना चाहिए. अच्छा स्वास्थ्य व स्वस्थ जीवनशैली का संतुलन बना कर जिंदगी गुजारनी चाहिए. गलत जीवनशैली का सैक्स लाइफ पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. देर रात तक पार्टियां, धूम्रपान व शराब का सेवन नकारात्मक जीवनशैली को जन्म देता है. इस से शुक्राणुओं की संख्या व गतिशीलता में कमी आ जाती है. इसी तरह गुस्सा, काम का अनावश्यक बो?ा, उच्च रक्तचाप आदि स्वस्थ सैक्स से लोगों को दूर ले जाते हैं. तनावरहित सैक्स दवा का काम करता है.

रीता सिन्हा, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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बच्चों के प्रति मातापिता की जिम्मेदारी

जुलाई (प्रथम) अंक में लेख ‘बच्चों की परवरिश : न बरतें लापरवाही’ पढ़ा. इस में कोई दोराय नहीं कि मांबाप बड़े अरमानों से औलाद को पालते हैं. उन के भविष्य के सपने देखते हैं और उन्हीं के लिए मेहनत कर पैसा कमाते हैं. बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सब से पहले मातापिता की ही बनती है. बात अमीरी और गरीबी की नहीं है बल्कि बच्चों की जिंदगी की है. माना पैसा एक बड़ी कमी है पर एहतियात बरतने में तो कुछ खर्च नहीं होता.

बच्चों को दैनिक जीवन में आने वाले छोटेबड़े खतरों से अवगत कराएं ताकि वे सचेत रहें. सुरक्षा से देर भली, यह बात उन के जेहन में रहनी चाहिए क्योंकि आज बच्चों में उतावलापन, गुस्सा, आगे बढ़ने की होड़ कुछ ज्यादा ही है. बच्चों के जीवन में मातापिता की अहम भूमिका होती है. उन के सही दिशानिर्देश उन्हें जीवन में सही राह दिखाते हैं. अत: बच्चों की उचित परवरिश उन का संपूर्ण व्यक्तित्व निखार देती है.

मीना टंडन, कृष्णा नगर (न.दि.)

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हिंसा समस्या का समाधान नहीं

जून (द्वितीय) अंक में ‘लोकतंत्र की पोल खोलता लालतंत्र’ लेख पढ़ा. लेख में आदिवासियों की समस्याएं उजागर की गई हैं. रेखांकित करने की कोशिश की गई है कि सालों से शोषितपीडि़त आदिवासी ही आज नक्सली के रूप में हैं. ऐसा लग रहा है कि लेख नक्सलियों के समर्थन में लिखा गया है. आदिवासी दशकों से शोषित किए जा रहे हैं. आजादी के बाद उन के विकास के नाम पर अरबों रुपए खर्च किए गए लेकिन उन के इलाकों में आज भी विकास कहीं नहीं दिखता. सारी रकम नेताओं और अफसरों की तिजोरी में चली गई. वहीं, यह भी सही है कि विधानमंडलों और संसद में उन का प्रतिनिधित्व बहुत कम है.

इस सब के बावजूद आदिवासी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता. आदिवासी इसलिए कह रहा हूं कि नक्सली कहीं से आयातित नहीं हैं. इन्हीं आदिवासियों के दबंग तबके ने बंदूकें उठा ली हैं. जरा सोचिए, इन नक्सलियों ने अब तक हजारों बेगुनाहों की हत्या कर के कितनों को यतीम कर दिया. जबकि ये बेचारे दूरदूर तक इन के शोषण के जिम्मेदार नहीं थे. क्या अब भी नक्सलियों और आतंकवादियों में कोई फर्क बचा है? आतंकवादी भी मौत का नंगा नाच करते हैं और ये भी मौत का तांडव करते हैं. दोनों का एक ही मकसद है आतंक फैलाना.

नक्सली अब आदिवासियों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं. बंदूक के बल पर वे हर साल 600 करोड़ रुपए की लेवी लेते हैं. लेकिन इस भारीभरकम रकम से वे आदिवासियों के जीवन सुधार के लिए शायद ही कोई काम करते हों. यह अति गरीब तबका आज भी दो जून की रोटी का मुहताज है. कुछ जगहों पर मैं ने देखा है कि आदिवासी महुआ और रोटी खा कर जीते हैं. लेकिन फिर भी हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं बन सकती. इसलिए आदिवासियों के भले के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाने चाहिए.           

शाहिद नकवी, इलाहाबाद (उ.प्र.) 

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