बौलीवुड की माया किसी की समझ में नहीं आ सकजी. लगभग एक माह पहले दिवंगत हुए दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता वृत्त चित्र निर्माता दीपक राय के भतीजे अमित राय ने दिल्ली में उनके साथ बतौर सहायक काम करते हुए काफी कुछ सीखा. दीपक राय ने अमित राय को कैमरा चलाने से लेकर फिल्म निर्देशन तक सिखाया था. पर जब निर्देशक बनने की तमन्ना के साथ अमित राय मुंबई पहुंचे, तो उन्हे काफी संघर्ष करना पड़ा. अंततः अमित राय ने बतौर कैमरामैन शाहिद कपूर के करियर की पहली फिल्म ‘‘इश्क विश्क’’ से बौलीवुड में शुरुआत की थी. उसके बाद उन्होंने ‘सरकार’, ‘सरकार राज’, ‘दम मारो दम’ सहित 15 से 20 फिल्में की. 15 साल तक कैमरामैन की हैसियत से काम करते रहने के बाद उन्होंने 2012 में फिल्म निर्देशन में कदम रखने का फैसला किया. बतौर फिल्म निर्देशक ‘रनिंग शादी डाट काम’ बनायी, जो कि दो वर्ष से प्रदर्शित नहीं हो पा रही थी. अब 17 फरवरी को फिल्म ‘रनिंग शादी डाट काम’ प्रदर्शित होने जा रही है.

प्रस्तुत है उनसे बात चीत के अंश….

किस बात ने आपको सिनेमा से जुड़ने के लिए प्रेरित किया?

- मैं दिल्ली से हूं. हर दिन शुक्रवार फिल्म देखने का शौक था. पहले मैं अमिताभ बच्चन की वजह से फिल्में देखता था. धीरे धीरे मुझे निर्देशक के नजरिए से फिल्मों में फर्क नजर आने लगा. दिल्ली में कालेज की पढ़ाई के दौरान ही मेरे अंदर फिल्म निर्देशक बनने का कीड़ा जागा था और उसी मकसद से मैं मुंबई आया था. मेरे चाचा दीपक राय डाक्यूमेंटरी फिल्म मेकर थे. उन्हे दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. उन्होंने कई फिल्मों की पटकथाएं भी लिखी थीं. 16-17 साल की उम्र में मैं चाचा के कमरे में गया. किताबें तलाश करते हुए एक फिल्म की पटकथा दिखी. मैने पढ़ना शुरू किया. पहली बार मुझे अहसास हुआ कि कोई इंसान अपने कमरे में बैठकर पूरी फिल्म की कल्पना करता है. वह अपने दिमाग में पूरी कल्पना कर कहानी लिखता है. उसके बाद वह चीज परदे पर आती है. इससे मैं बहुत फैशिनेट हुआ. यहां से मेरी रूचि बदल गयी. फिर मैंने लिखना शुरू किया. अलग अलग निर्देशकों के बारे में पढ़ना शुरू किया. एक किताब सत्यजीत रे पर पढ़ी. उसके बाद मेरी पूरी सोच बदल गयी. मेरी समझ में आया कि एक निर्देशक किस तरह पूरी फिल्म को परदे पर साकार करता है. सत्यजीत रे से मैं प्रभावित हुआ. वह कहानी लिखते थे, निर्देशन करते थे, खुद संगीत देते थे. चरित्र चित्रण का रेखा चित्र भी बनाते थे. वह कैमरा भी खुद ही चलाते थे. तो मेरी समझ में आया कि एक बेहतरीन फिल्मकार बनने के लिए फिल्म माध्यम के हर विधा की समझ होनी चाहिए और कैमरा की समझ सबसे ज्यादा जरुरी है. उनके पास कैमरा था. कालेज के जमाने में मैं उनका सहायक बन गया और कैमरे से भी मेरा खेलना शुरू हो गया था. धीरे धीरे कैमरा एंगल की समझ हो गयी. अब मैं आश्वस्त हो गया था कि फिल्म निर्देशित करते समय मैं अपने कैमरामैन को बता सकूंगा कि मुझे यह एंगल चाहिए, इस तरह की लाइटिंग चाहिए.

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