अभिनेता के साथ-साथ लेखक व निर्देशक के तौर पर भी सौरभ शुक्ला ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है. उन्होंने कई सफलतम फिल्में दी है. अब एक तरफ अपनी फिल्म ‘‘जॉली एलएलबी 2’’ को लेकर उत्साहित हैं, तो दूसरी तरफ वह नाटक ‘‘बर्फ’’ को लेकर चर्चा में हैं. पूरे 18 साल बाद सौरभ शुक्ला ने थिएटर में वापसी करते हुए 2015 में पहला नाटक ‘‘टू टू टैंगो थ्री टू जाइव’’ किया था. अब वह दूसरे नाटक ‘बर्फ’ में अभिनय कर रहे हैं. जिसके वह लेखक व निर्देशक भी हैं.
आपके करियर में जो पड़ाव व मोड़ आए हैं, उनसे आपकी निजी जिंदगी व कैरियर पर क्या क्या असर हुए?
मेरे करियर में बहुत मोड़ आए हैं और बहुत से मोड़ चलते रहते हैं. पर कोई नाटकीय मोड़ नहीं लगता. मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में था. वहां नौकरी कर रहा था, यह मेरे करियर का पहला मोड़ था. उससे पहले मैं अमैच्योर थिएटर किया करता था. उसके बाद शेखर कपूर के निर्देशन में फिल्म ‘‘बैंडिट क्वीन” की, तो मैं मुंबई आ गया. फिर शेखर कपूर ने मुझे टीवी सीरियल करने के लिए बुलाया. फिर सुधीर मिश्रा ने मुझे ‘इस रात की सुबह नहीं’ नामक फिल्म में काम करने का अवसर दिया. इसी फिल्म के अवार्ड के लिए मुझे नॉमीनेशन मिला. ‘बैंडिट क्वीन’ रिलीज होने के बाद लोगों ने मुझे अलग तरह से देखना शुरू किया. मैं शुरू से ही मोटा था. तो मेरे पास एक ही तरह के किरदार आते थे, पर लोगों ने मुझे मोटापे के लिए नहीं, बल्कि एक किरदार के लिए याद किया. चीजें बदलती रहीं, पर मेरा बुरा वक्त कभी नहीं आया. क्योंकि मैं हमेशा लिखता रहा.
फिल्म ‘सत्या’ मैंने अनुराग कश्यप के साथ मिलकर लिखी थी. इसमें कल्लू मामा का किरदार निभाया था. मेरा किरदार हिट हो गया, फिल्म हिट हो गयी, पर पूरे 6 साल तक मैं घर पर खाली बैठा रहा. मुझे कोई काम नही मिला. लोगों के फोन आते थे कि सर एक दिन का छोटा सा कैमियो रोल है. एक दिन के कैमियो रोल के लिए ना तो पैसे मिलते थे ना कलाकार के तौर पर पहचान और ना ही कलाकार के रूप में संतुष्टि. छह साल तक यही सिलसिला चला. एक दिन मैंने सोचा था कि मेरे अंदर वास्तव में प्रतिभा है या सिर्फ मुझे ही लगता है? उसके बाद मुझे अनुराग बसु की फिल्म ‘‘बर्फी मिली’’. फिर ‘‘जॉली एलएलबी’’ व ‘‘लाहौर” मिली. चीजें बदलती चली गयी. अब कोई फोन करके मुझसे नही कहता कि सर एक दिन का कैमियो रोल है. अब बड़ा रोल मिल रहा है, अच्छे पैसे मिल रहे हैं. कुल मिलाकर सफर अच्छा जा रहा है. फिर यह तो हम पर निर्भर करता है कि हम अपने सफर को किस नजरिए से देखते हैं. आप चाहें तो कुढ़ सकते हैं, पर कुढ़ने से सिर्फ नुकसान होता है. कुढ़ने से पैसा भी नही आता. अब 10 फरवरी को मेरी नई फिल्म ‘‘जॉली एलएलबी 2’’ प्रदर्शित होगी. जो कि ‘जॉली एलएलबी’’ का सिक्वअल है.
पिछले चार-पांच वर्ष से मेरी समझ में आ गया है कि अंततः यह कोई निर्णय नहीं लेने वाला है कि आप कहां जा रहे हैं. किस मोड़ पर पहुंचे हैं. आपको किसको साबित करना है. मुद्दा इतना है कि आप कितनी बार हंसे, कितनी बार रोए. आपने खुद कितनी बार अपने कैरियर में उथान महसूस किया. इसलिए मैं फिल्में अपनी पसंद की ही कर रहा हूं. बीच में मैं सेमीनार में चला जाता हूं.
‘‘जॉली एलएलबी’’ और ‘‘जॉली एलएलबी 2’’ में कितना फर्क है?
दोनों अच्छी फिल्में हैं. पर यह सवाल गलत है. दोनों फिल्मों का विषय एक नहीं है, सिर्फ प्रिमायसेस एक है. दोनों अलग-अलग कहानियां हैं. दो अलग अलग मुद्दे हैं. दोनों फिल्मों की कहानी का आधार कानून व्यवस्था ही है. मगर कहानी अलग है. किरदार अलग है.
पर आपका किरदार वही है. पिछली बार इसी किरदार के लिए आपको राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. तो इस बार भी?
मैं कैसे तय करुंगा कि मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना चाहिए. मैं न कमेटी में हूं. मैं बहुत अच्छा टेबल टेनिस खेलता हूं और फिल्मों में अभिनय करता हूं. हम लिखते या अभिनय करते समय इंज्वॉय करते हैं, उस वक्त हम अवार्ड आदि को लेकर नहीं सोचते. हमें उस किरदार को जीना होता है. सारा ध्यान उसी पर होता है. यह बहुत व्यावहारिक बात है.
तो फिर हर पुरस्कार के बाद विवाद जन्म क्यों लेते हैं?
यह तो इंसानी फितरत है. यह दुनिया ठीक है. दुनिया में कुछ बुरा नही है. पुरानी कहावत है-‘जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो होगा, अच्छा ही होगा.’ जो होता है, उस पर सवाल नहीं कर सकते? मैं यह नहीं कहता कि मुझे ईर्ष्या या चिढ़न नहीं होती है. मैं भी इंसान हूं. इस संसार में ईर्ष्या बहुत महत्वपूर्ण है.
आपको किस बात ईर्ष्या होती है?
कई बार बेवकूफी वाली बातों पर भी ईर्ष्या होती है. जिस बात से मुझे ईर्ष्या होती है, वह दूसरे का अच्छा काम देखकर होती है कि मैंने इतना अच्छा काम क्यों नहीं किया. मैंने पहले ऐसा क्यों नहीं किया. यह अच्छी ईष्र्या है.इस ईष्र्या ने जीवन भर मेरे अंदर ललक रखी. इसने मुझे असंतोष नहीं दिया.
‘‘जॉली एलएलबी’’ में आपके साथ अरशद वारसी थे. इस बार ‘‘जॉली एलएल बी 2’’ में आपके साथ अक्षय कुमार हैं?
दोनों से मैं सह कलाकार के रूप में ही मिला हूं. दोनों के साथ मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा. मैंने जितने कलाकारों के साथ काम किया, आज तक किसी के भी साथ मेरा अनुभव गलत नहीं रहा. मेरा मूल अनुभव फिल्म के साथ रहता है. जब अच्छी फिल्म बनती है, तो सब कुछ अच्छा ही होता है. अरशद वारसी बहुत कर्मठ इंसान हैं. अक्षय कुमार भी मेहनती हैं. वह सुबह चार, साढ़े चार बजे उठते हैं. वह सुबह सात बजे सेट पर पहुंच जाते थे. वह कभी लेट नहीं होते थे. आप उनकी फिल्मोग्राफी देखेंगे, तो पाएंगे कि उन्होंने हर तरह की फिल्में की हैं. ‘एअरलिफ्ट’ व ‘रूस्तम’ की. ‘जॉली एलएल बी 2’’ की है. उनके अंदर संभावनाएं हैं. वह उन्हीं संभावनाओं को अपनी जिंदगी में पाना चाहते हैं. वह किस शिद्दत से काम करता है. ‘जॉली एलएल बी 2’ के सेट पर अक्षय कुमार का भी काम अच्छा है. अक्षय कुमार ने इससे पहले ‘स्पेशल छब्बीस’ सहित दूसरी फिल्मों में उस तरह का काम नहीं किया है, जिस तरह का बेहतरीन काम उन्होंने ‘जॉली एलएलबी 2’ में किया है. ‘एअरलिफ्ट’ का आदमी अलग है. ‘स्पेशल छब्बीस’ का आदमी अलग है. वह बहुत अच्छे कलाकार हैं. उन्हें पता है कि अपना स्टार पॉवर किस तरह बरकरार रखना है. यह बहुत बड़ी बात है. वह अपनी फिल्म को बड़े प्लेटफार्म पर ले आते हैं. मसलन, आमीर खान ने ‘दंगल’ जैसी फिल्म को बड़ा स्केल दे दिया.
अरशद वारसी बहुत अच्छे कलाकार हैं. बहुत प्रतिभाशाली हैं. किस्मत की बात है कि उन्हें वह जगह नहीं मिली, जिसके वह हकदार हैं. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अरशद वारसी जाने माने कलाकार हैं और उनके साथ काम करने से कोई इंकार नहीं करता. फिल्म निर्माण सिर्फ कला नहीं, बल्कि व्यवसाय भी है.
देखिए, सभी कहते हैं कि सौरभ शुक्ला अच्छे कलाकार हैं. सौरभ शुक्ला को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, मगर कोई सौरभ शुक्ला को लेकर फिल्म नहीं बनाता. यह जरुरी भी नहीं है.
जब आपने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था. तब टीवी उभर रहा था. अब टीवी बहुत बड़ा माध्यम बन गया है. टीवी में आए बदलाव को लेकर क्या सोचते हैं?
कुछ नहीं सोचता. मैं टीवी नही देखता. मुझे टीवी की प्रोग्रामिंग व टीवी के कार्यक्रम बनाने के तरीकों से निजी स्तर पर सख्त नफरत है. क्योंकि टीवी पर मार्केटिंग वालों ने यह पाया कि सौरभ शुक्ला, तो पैसे ज्यादा मांगते हैं. बल्कि कुछ लोग तो मुफ्त में काम करने को तैयार हैं. तो उन्होंने पूरी प्रोग्रामिंग ही बदल दी. मेरा मानना है कि मेरा बचपन गलत नहीं हो सकता. मुझे बचपन में जो पढ़ाया गया था, वह अलग है. यह जरूरी नहीं है कि जिसे मैं पसंद ना करूं, उससे जुडू. इसलिए मैंने टीवी से दूरी बना ली. अंग्रेजी मेरी भाषा नही है. पर मैंने अंग्रेजी सीरियल ज्यादा देखे, वहां विविधतापूर्ण चीजें देखने को मिली. वैसे वहां भी बुरा काम हो रहा है. टीवी में पिछले 25 वर्षों से सास बहू चल रहा है. कलाकारों के चेहरों पर भाव नजर नहीं आते. मैं टीवी के बारे में सोचता भी नहीं. टीवी देखता भी नही. टीवी को खुद ही अपने बारे में सोचना चाहिए. अब वह जाने. जैसा कर्म करेगा, भगवान वैसा फल देगा.
सिनेमा में हास्य की स्थिति कितनी बनती या बिगड़ती रही है?
सिनेमा में हास्य हमेशा अच्छा रहा है. आज भी अच्छा है.‘‘चुपके चुपके’’ में किस तरह से अपने ऊपर ही किरदार हंसे. कहानीकार किस तरह अपनी ही विसंगतियों पर हंसा है.
हास्य जीवन में हर क्षण, हर वक्त रहता है, दुःख के वक्त भी रहता है. हास्य की वजह से ही हम जी सकते हैं. जब दर्द या गम हद से ज्यादा बढ़ जाता है, तो इंसान रोते हुए नहीं, हंसते हुए नजर आता है. मेरा इतना मानना है कि हास्य या कॉमेडी दो प्रकार का होता है. अपने आप पर हंस लूं या आप पर हंस लूं. आप पर हंस लेना ज्यादा आसान है. पर यह मुझे नीच दरजे की हरकत लगती है. मैं अपने आप पर हंस लेता हूं, वही हास्य मुझे पसंद है. मैं इसी तरह का हास्य पढ़ना या देखना पसंद करता हूं. जब आप अपने आप पर हंस लेते हैं, तब आप दुनिया पर हंस सकते हैं.
2017 में आपकी दूसरी कौन सी फिल्में आएंगी?
‘जग्गा जासूस ’आएगी. यह मेरी पसंदीदा फिल्म भी है. इसके बाद कमल हासन की फिल्म ‘शाबाश गुल्लू’ आएगी. इसके लेखक कमल हासन हैं, मगर हिंदी रूपांतरण मैंने किया है. मैं अभिनय भी कर रहा हूं. सुधीर मिश्रा की फिल्म और ‘‘और देवदास’’ में मेरी मुख्य खलनायक की बहुत बड़ी भूमिका है. इस फिल्म को लेकर बहुत उत्साहित हूं. इसे हमने लखनऊ में फिल्माया था. एक फिल्म ‘‘लाली की शादी में लड्डू दीवाना’’ की है, जिसमें नसिरूद्दीन शाह के बेटे विवान शाह व कमल हासन की बेटी अक्षरा हासन हैं.