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बच्चों के मुख से

मेरी बेटी तीसरी कक्षा में पढ़ती थी. हमारी कालोनी के कुछ बच्चे कौन्वैंट स्कूल में और कुछ डीएवी स्कूल में पढ़ते थे. मेरी बेटी डीएवी स्कूल में पढ़ती थी. शाम को सब बच्चे साथसाथ खेला करते थे. खेल के दौरान सब बच्चे अपनेअपने स्कूल की बातें शेयर किया करते थे. एक दिन मेरी बेटी रोतेरोते घर आई और कहने लगी, ‘‘ममा, आप को मालूम है आज ईशा मौसी का बर्थडे है और मौसी ने हमें नहीं बुलाया.’’ मैं ने उस से कहा, ‘‘नहीं बेटा, आज नहीं है ईशा मौसी का बर्थडे. तुम्हें किस ने बताया?’’ तो वह रोतेरोते बोली, ‘‘रीना ने बताया. उस के स्कूल के सब बच्चे आज बर्थडे में चर्च गए थे.’’ तब माजरा समझ आया क्योंकि उस दिन 25 दिसंबर था, ईसा मसीह का बर्थडे जिसे मेरी बेटी अपनी ईशा मौसी का बर्थडे, समझ बैठी थी. उस की मासूमियत पर मैं मन ही मन मुसकरा उठी.

उषा शर्मा, पौड़ी गढ़वाल (उ.खं.)

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मेरे ससुराल में शादी थी. मैं, अपनी बेटी व अपने देवर की बेटी को डांस के स्टैप्स समझा रही थी. मैं ने कृति (देवर की बेटी) को समझाया कि तुम गणेश बनी हो, तुम्हारे हाथों की मुद्रा इस तरह से रहेगी. कृति थोड़ी देर तक अभ्यास करती रही, फिर हाथों का पोज देख कर पूछने लगी, ‘‘ताईजी, मेरा ‘मुरदा’ तो ऐसे ही रहेगा न?’’ दरअसल वह मुद्रा बोलना चाहती थी पर मुरदा बोल गई. वहां उपस्थित सभी लोगों की हंसी छूट गई.

जया मालू, कोलकाता (प.बं.)

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21 मार्च को सूर्यग्रहण हुआ. उस को ले कर फ्रांस के एक स्कूल में पढ़ने वाला मेरा 4 वर्षीय पोता रुद्र बहुत रोमांचित था. एक दिन स्कूल से आ कर उस ने अपने पापा अर्थात मेरे बेटे से कहा, ‘‘धरती पर ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा धरती की रोशनी को रोक देता है.’’ मेरे बेटे सौरभ ने उस को समझाया, ‘‘बेटा रुद्र, धरती ग्रहण कुछ नहीं होता है, क्योंकि धरती का प्रकाश नहीं होता है. प्रकाश सिर्फ सूर्य का होता है.’’ इस पर रुद्र ने अपने पापा से कहा, ‘‘धरती की भी रोशनी होती है. स्ट्रीट लाइट अर्थात खंभों पर जलने वाली रोशनी.’’ अब मेरे बेटे की हालत देखने लायक थी.

आशा कौशिक, ईस्ट औफ कैलाश (न.दि.)

रिलीज से पहले मुनाफा

आजकल फिल्मों के बाजार में मुनाफा और व्यापार का गणित बेहद उलझा हुआ है. सिनेमाघर में कोई फिल्म नहीं चलती, फिर भी उसे हिट साबित करते हुए आंकड़े दिखा दिए जाते हैं और कोई फिल्म खूब पसंद की जाती है लेकिन उस का बजट और बाकी चीजें दिखा कर उसे नुकसान का सौदा बताते हुए असफल करार कर दिया जाता है. फिल्में रिलीज से पहले ही अपना मुनाफा कमा लेती हैं. अब सोनम कपूर की अगली फिल्म ‘प्रेम रतन धन पायो’ भी कुछ इसी तरह कमाई के नए आंकड़े रिलीज से पहले ही पेश कर रही है. खबर है कि इस फिल्म के म्यूजिक राइट 17 करोड़ रुपए में बेचे गए हैं. इस लिहाज से यह किसी भी फिल्म के लिए अब तक का सब से महंगा बेचा या खरीदा गया संगीत है. अगर फिल्म का संगीत नहीं चला तो संगीत कंपनी सिर पीट लेगी.

कामयाबी की राह से फिसलते राजपाल यादव

राजपाल यादव बतौर अभिनेता लंबे संघर्ष के बाद एक अदद पहचान बना पाए थे लेकिन गुणवत्तापरक दोचार फिल्में करने के बाद वे कौमेडी फिल्मों के ढर्रे में ऐसे फंसे कि न तो हास्य कलाकार ही रहे न संजीदा अभिनेता. हाल में फिल्म ‘वैलकम बैक’ में नजर आए राजपाल के बेहूदा किरदार से उन की घटती साख को समझा जा सकता है. हालांकि फिल्मों में अभिनय की डगमगाती पारी को संभालने के बजाय राजपाल यादव ने जल्दबाजी में फिल्म निर्देशन व निर्माण का जिम्मा उठा लिया. इस के लिए दिल्ली के एक व्यापारी से करोड़ों रुपए उधार भी ले लिए. लेकिन अपरिपक्वता का नुकसान उन्हें झेलना पड़ा. फिल्म असफल हुई सो अलग. कर्ज चुका न पाने के चलते धोखाधड़ी के इल्जाम लिए बेचारे महीनों जेल की हवा खा कर लौटे हैं. बहरहाल अब वे फिर से चालू फिल्मों में ऊटपटांग किरदार कर के शायद जमापूंजी जोड़ कर कर्ज चुकाने की कोशिश में हों लेकिन एक अभिनेता को इस तरह कामयाबी की राह पर फिसलता देखना अखरता है.

हालांकि इस के लिए राजपाल यादव खुद दोषी हैं. क्योंकि ये सारे फैसले उन्हीं के लिए हुए थे. वरना ‘मैं, मेरी पत्नी और वो’, ‘जंगल’, ‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’ जैसी फिल्मों से चमके राजपाल यादव इस तरह गुमनामी में न खोते. खैर, अच्छी बात है कि बीते दिनों उन्होंने एक अच्छी अंगरेजी फिल्म में काम किया है. काम भले ही नोटिस न हुआ हो लेकिन कोशिश की तारीफ होनी चाहिए. गिरतेसंभलते कैरियर को ले कर उन से हुई बातचीत में इन्हीं तमाम सवालों के जवाब जानने की कोशिश की गई.

हिंदी भाषा की 150 फिल्मों के अलावा मराठी, पंजाबी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ भाषा की फिल्मों में अपने अभिनय का जलवा दिखा चुके राजपाल यादव अब तक के अपने कैरियर को ले कर बताते हैं, ‘‘वास्तविकता में मेरे अभिनय कैरियर को 27 साल पूरे हो गए हैं. मैं ने नुक्कड़ नाटकों से शुरुआत की थी. कचहरी में खड़े हो कर हम दोचार लड़के डुगडुगी बजाते थे. 100-200 लोग इकट्ठा हो जाते, तो नाटक दिखा देते थे. उस वक्त हम पानी, बिजली या अंधेरे के खिलाफ यह नाटक किया करते थे. फिर कुछ थिएटर के अंदर नाटक किए. उस के बाद मैं अभिनय की ट्रेनिंग लेने पहुंच गया. फिर ‘मुंगेरी के भाई नौरंगी लाल’ से टीवी पर काम करना शुरू किया. उस के बाद फिल्में करने लगा. मुझे अभिनय के हर कोने से गुजरने का मौका मिला है. इसी सोच के तहत 100 फिल्में करने के बाद मैं ने हौलीवुड की फिल्म की. अब क्षेत्रीय भाषा की फिल्म भी कर रहा हूं. शुरू से ही मेरा मकसद रहा है कि मुझे अलगअलग तरह के किरदारों में अलगअलग रूप में लोग देखें व पसंद करें. मैं तो आज भी अपनेआप को विद्यार्थी मानता हूं.’’

अपने कैरियर के टर्निंग पौइंट वाली फिल्मों के बारे में उन का कहना है, ‘‘फिल्म ‘जंगल’ की रिलीज के बाद 1 साल तक मुझे काम नहीं मिला था क्योंकि ‘जंगल’ में मैं ने बड़ी दाढ़ी वाला जंगली सा नैगेटिव किरदार निभाया था. ऐसे किरदार बौलीवुड में होते नहीं हैं. साल भर बाद मुझे सलमान खान के साथ फिल्म ‘मैं ने प्यार क्यों किया’ मिली. इस फिल्म के रिलीज के महज साल भर के अंदर मुझे 16 फिल्में मिलीं. राम गोपाल वर्मा के बाद सलमान खान व सोहेल खान ने मेरी प्रतिभा को पहचाना. उस के बाद सभी ने मुझे सराहा.’’ डांवांडोल होते कैरियर व गलत फिल्मों के चयन पर राजपाल कहते हैं, ‘‘मैं ने अपनी अभिनय क्षमता को साबित करने, कैरियर को संवारने के लिए, घर का चूल्हा जलाने के लिए काफी काम कर लिया पर अब सिर्फ सुकून के लिए फिल्में करना चाहता हूं. अब मैं अपने कैरियर में उन फिल्मों को जोड़ना चाहता हूं जिन्हें करने से मुझे सुकून मिले. जब मुझे सुकून मिलेगा तो मेरी फिल्म देखने वाले दर्शक को भी सौ प्रतिशत सुकून मिलेगा.’’

हास्य किरदारों में बंधने की बात पर उन का मानना है, ‘‘पिछले 15 साल से मेरी कोशिश रही है कि लोग मुझे सिर्फ कौमेडियन न समझें. मैं कौमेडी के अलगअलग आयामों को जीना चाहता हूं. कौमेडियन नहीं बनना चाहता. मुझे कौमेडी करना बहुत अच्छा लगता है. जहां 40 फिल्मों में मैं ने कौमेडी की वहीं हौलीवुड की ‘भोपाल प्रेयर फौर रेन’ जैसी फिल्में भी की हैं. इस में मैं ने जो किरदार निभाया उसे निभाना आसान नहीं था. ‘‘यह एक गंभीर किस्म की मनोरंजक फिल्म है. 1984 में घटी घटना के किरदारों को जीना और इस तरह से जीना कि लोगों को उस पर यकीन हो सके, आसान तो नहीं था. 1984 की घटना के वक्त मैं भोपाल में नहीं था. लेकिन घटना के 30 साल बाद यदि मैं उस त्रासदी को, उस वक्त के इंसान की व्यथा को अपने किरदार के माध्यम से सही रूप में चित्रित कर पाया, तो यह मेरी अभिनय प्रतिभा के चलते संभव हो पाया. मैं अपने पूरे जीवन में अभिनय करना चाहता हूं. मुझे तो मनोरंजन की सेवा करनी है. मेरी लड़ाई उसी को ले कर है.’’

हौलीवुड फिल्म ‘भोपाल प्रेयर फौर रेन’ में अभिनय करने की बात को ले कर चुप्पी के पीछे वे कहते हैं, ‘‘मैं चाहता था कि जब यह फिल्म भारत में रिलीज हो तो मैं इस की चर्चा करूं. हर कलाकार की तमन्ना अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में काम कर के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम कमाने की होती है. इसलिए मैं ने भी अथक प्रयासों से एक हौलीवुड फिल्म ‘भोपाल प्रेयर फौर रेन’ में अभिनय किया. ‘‘हौलीवुड में महात्मा गांधी पर बनी फिल्म के बाद यह दूसरी गंभीर फिल्म है, जिसे भारतीय पृष्ठभूमि में बनाया गया. अब फिल्म देख चुके लोगों को पता चल चुका है कि इस में मेरे साथ मौर्टिन सीन, मिश्चा बार्टन, कल पेन जैसे हौलीवुड अभिनेताओं ने भी अभिनय किया है. इस में मैं ने शीर्ष भूमिका निभाई है. किसी हौलीवुड फिल्म में शीर्ष भूमिका निभाना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है.’’

‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’ या ‘मैं, मेरी पत्नी और वो’ जैसी आप की फिल्में समय से पहले रिलीज हो गईं? इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘‘मैं ऐसा नहीं मानता. उन फिल्मों की ही वजह से मैं आज 2015 में वह सिनेमा कर पा रहा हूं जो करना चाहता हूं. 2000 में जब मैं फिल्मों में आया, उस वक्त पूरी तरह से ‘कमर्शियल शो मैन शिप’ वाली या पूरी तरह से श्याम बेनेगल या गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों की कलात्मक फिल्में बना करती थीं. इन दोनों के बीच का कोई सिनेमा नहीं था. पर राम गोपाल वर्मा का मैं धन्यवाद अदा करता हूं कि उन्होंने उस दौर में ‘मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं’ जैसी फिल्म बना कर सिनेमा को नई दिशा दी. उस के बाद ही ‘मैं, मेरी पत्नी और वो’ बनी. फिर ‘खोसला का घोसला’, ‘वैलकम टू सज्जनपुर’, ‘भेजा फ्राय’, ‘तेरे बिन लादेन’ जैसी फिल्में बनीं, जिन्होंने सिनेमा में एक नया जौनर पैदा किया. सिनेमा को एक नई दिशा दी. कुछ नया करने की जद्दोजेहद में लगे कलाकार को अलग ढंग का काम करने का अवसर मिला. इन फिल्मों को दर्शकों ने भी पसंद किया.

‘‘देखिए, ‘दम लगा कर हइशा’ जैसी फिल्म भी हिट है. तो मैं इस बात को ले कर खुश हूं कि 2001 में जिस तीसरी धारा के सिनेमा यानी कि सेमी कमर्शियल फिल्म को ले कर प्रयोग किया था, वह आज सशक्त सिनेमा बन चुका है. ऐसे सिनेमा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने का मुझे सुअवसर मिला. इसी वजह से अब हम सभी यह कहने लगे हैं कि फिल्में छोटी या बड़ी नहीं होती हैं, फिल्में अच्छी या बुरी होती हैं.’’ हिंदी के अलावा क्षेत्रीय फिल्मों में झुकाव को ले कर राजपाल सफाई देते हुए कहते हैं, ‘‘हिंदी फिल्मों ने मुझे जिंदगी दी तो उसे कैसे नजरअंदाज कर सकता हूं. माना कि अब मैं ने क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में करना शुरू किया है पर मैं ने हिंदी फिल्में करना बंद नहीं किया है. मैं ने सोचा है कि हिंदी फिल्मों के अलावा हर साल क्षेत्रीय भाषाओं की 1-2 फिल्में करता रहूंगा. पर मैं हमेशा उन्हीं फिल्मों में नजर आऊंगा जिन्हें देख कर आप व मेरे फैन खुद कहेंगे कि यह किरदार तो राजपाल यादव को ही करना चाहिए था. ‘‘हिंदी सिनेमा में मुझे देखते हुए 80 प्रतिशत लोग जान चुके हैं. बाकी 20 प्रतिशत लोगों के लिए मैं मराठी, गुजराती, पंजाबी, तेलुगू, कन्नड़ भाषा की फिल्में कर रहा हूं. मेरी कोशिश यह है कि मैं हर उस घर के किचन में भी जाऊं जहां के लोग सिर्फ अपनी मातृभाषा ही जानते व समझते हैं. एक कलाकार के तौर पर मेरा सपना पूरे विश्व के हर किचन में पहुंचना है. इस के लिए मैं प्रयासरत हूं. कितनी सफलता मिलेगी, कह नहीं सकता.’’

सलमान खान सहित कई मराठी कलाकार मराठी भाषा की फिल्मों से जुड़ रहे हैं. इसी वजह से आप भी मराठी भाषा की फिल्म कर रहे हैं? इस बात पर वे इंकार करते हैं, ‘‘बिलकुल गलत. मैं एक कलाकार हूं. कलाकार के तौर पर जब हिंदी में मेरी 100 फिल्में पूरी हो गईं तब मैं ने सोचा कि अब अपने कलाकार मन को विस्तार देना चाहिए. इसलिए मैं ने कई भाषाओं की फिल्मों में अभिनय करना शुरू किया. मराठी भाषा की ‘चश्मेबद्दूर’, ‘राडा रोक्स’ और ‘दगड़ाबाईची चाल’ सहित 3 फिल्में की हैं. आगे भी काम करूंगा.’’ क्षेत्रीय सिनेमा, अंगरेजी व हिंदी में फर्क को ले कर राजपाल यादव कहते हैं, ‘‘बहुत बड़ा अंतर है. क्षेत्रीय सिनेमा में हमें कलाकार के तौर पर बहुत कुछ सीखने को मिलता है. मैं दक्षिण भारतीय सिनेमा की बहुत इज्जत करता हूं. दक्षिण भारत के लोग पूरे पैशन के साथ सिनेमा करते हैं. यही वजह है कि वहां का सिनेमा इतना अच्छा और मजबूत होता है कि बौलीवुड के लोग उस का रीमेक करते हैं. इसी तरह बंगला सिनेमा का भी अपना अलग अस्तित्व है. ‘‘मेरी पहली प्राथमिकता हिंदी फिल्में हैं. पर मैं अपने अंदर के कलाकार को खोजने के लिए बंगला, मराठी, तमिल, कन्नड़ व तेलुगू फिल्में करता रहता हूं. क्षेत्रीय सिनेमा को जीने का जो अवसर मिलता है, उसे मैं खोजना नहीं चाहता. जबकि हौलीवुड के लोगों में एनर्जी बहुत कंट्रोल में होती है, पर उन का सिस्टम बहुत मजबूत होता है. वे प्रोफैशनल तरीके से काम करते हैं.’’

बतर निर्माता व निर्देशक फिल्म बनाना जीवन का गलत कदम रहा? इस पर उन का मानना है, ‘‘फिल्म न बनाता तो कई अनुभवों से वंचित रह जाता. बहुत कुछ सीखने से वंचित रह जाता. सिर्फ कलाकारी करता रह जाता, अदाकारी न कर पाता. अब जीवन भर अच्छी कलाकारी कर पाऊंगा, क्योंकि अदाकारी सीख ली है. तकनीक का ज्ञान हो चुका है.’’ कैरियर की शुरुआत टीवी से हुई थी, पर अब टीवी से दूरी क्यों बना ली है. इस पर वे कहते हैं, ‘‘टीवी अब ऐसा हो गया है, जहां हमें लगातार ज्यादा समय देना पड़ता है. इसलिए नहीं कर पा रहा हूं. जबकि फिल्मों की शूटिंग के लिए हमें एक से डेढ़ माह के लिए बाहर रहना पड़ता है. हाल ही में एक फिल्म की शूटिंग के लिए एक माह हिमाचल में रहा. इसलिए टीवी के लिए शूटिंग करना मुश्किल है. पर यदि टीवी में ऐसा काम करने का मौका मिला, जहां मुझे कम समय देना पड़ा, तो मैं दे सकता हूं. हां, मैं ने काफी रिसर्च कर के एक सीरियल की रूपरेखा बनाई है जिस का नाम है ‘रेडी सेट लाफ’. इस के अलावा 26-26 एपीसोड की सीरीज हैं- ‘शेखचिल्ली की कहानियां’. यह विषय तो मेरे दिल के काफी करीब है. सही मौके पर मैं इसे बना कर टीवी पर लाना चाहूंगा.’’

थिएटर में क्या कर रहे हैं, के जवाब में उन का कहना है, ‘‘फिलहाल परेश रावलजी की कंपनी के साथ एक नया नाटक करने जा रहा हूं. हेमल ठक्कर निर्देशक होंगे. जबकि फिल्म ‘मारे गए गुलफाम’ में गुलफाम बना हूं. ‘हनु मैन’ में हनुमान यादव बना हूं. इस के अलावा डेविड धवन, रोहित शेट्टी सहित बड़े निर्देशक व बड़े बैनरों की भी 6-7 फिल्में कर रहा हूं. हिंदी में मैं एक तरफ बड़े बैनरों में कौमेडी किरदार निभा रहा हूं तो दूसरी तरफ छोटे बजट की फिल्मों में शीर्ष भूमिका निभा रहा हूं. ‘‘हां, हम फिल्म का निर्माण व निर्देशन दोनों करना चाहेंगे. हमारा काम अभिनय करना है. पर हम फिल्म बनाते हुए अपनी फिल्म में दूसरे कलाकारों से काम करवाना चाहेंगे.’’ भले ही राजपाल यादव ने कुछ गलतियां कर कैरियर को औफ द ट्रैक कर दिया हो लेकिन एक अच्छा अभिनेता जब चाहे अपनी फौर्म में आ सकता है. उम्मीद है राजपाल यादव एक बार फिर से सार्थक भूमिकाओं में नजर आएंगे.

मुसकान

‘‘आंटी, आप बारबार मुझे इस तरह क्यों घूर रही हैं?’’ मेघा ने जब एक 45 साल की प्रौढ़ा को अपनी तरफ बारबार घूरते देखा तो उस से रहा न गया. उस ने आगे बढ़ कर पूछ ही लिया, ‘‘क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा है?’’

‘‘नहीं बेटा, मैं तुम्हें घूर नहीं रही हूं. बस, मेरा ध्यान तुम्हारी मुसकराहट पर आ कर रुक जाता है. तुम तो बिलकुल मेरी बेटी जैसी दिखती हो, तुम्हारी तरह उस के भी हंसते हुए गालों पर गड्ढे पड़ते हैं,’’ इतना कह कर सुनीता पीछे मुड़ी और अपने आंसुओं को पोंछती हुई मौल से बाहर निकल गई. तेज कदमों से चलती हुई वह घर पहुंची और अपने कमरे में बैड पर लेट कर रोने लगी. उस के पति महेश ने उसे आवाज दी, ‘‘क्या हुआ, नीता?’’ पर वह बोली नहीं. महेश उस के पास जा कर पलंग पर बैठ गया और सुनीता का सिर सहलाता रहा, ‘‘चुप हो जाओ, कुछ तो बताओ, क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा क्या तुम से?’’

‘‘नहीं,’’ सुनीता भरेमन से इतना ही कह पाई और मुंह धो कर रसोई में नाश्ता बनाने के लिए चली गई. महेश को कुछ समझ में नहीं आया. वह सुनीता से बहुत प्यार करता है और उस की जरा सी भी उदासी या परेशानी उसे विचलित कर देती है. वह उसे कभी दुखी नहीं देख सकता. वह प्यार से उसे नीता कहता है. वह उस के पीछेपीछे रसोई में चला गया और बोला, ‘‘नीता, देखो, अगर तुम ऐसे ही दुखी रहोगी तो मेरे लिए बैंक जाना मुश्किल हो जाएगा. अच्छा, ऐसा करता हूं कि आज मैं बैंक में फोन कर देता हूं छुट्टी के लिए. आज हम दोनों पूरे दिन एकसाथ रहेंगे. तुम तो जानती ही हो कि जब तुम्हारे होंठों की मुसकान चली जाती है तो मेरा भी मन कहीं नहीं लगता.’’

‘‘मुसकान तो कब की हमें छोड़ कर चली गई है,’’ सुनीता के इन शब्दों से महेश को पलभर में ही उस की उदासी का कारण समझ में आ गया. आखिरकार, जिंदगी के 20 साल दोनों ने एकसाथ बिताए थे, इतना तो एकदूसरे को समझ ही सकते थे.

‘‘उसे तो हम मरतेदम तक नहीं भूल सकते पर आज अचानक, ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें उस की याद आ गई?’’

सुनीता ने मौल में मिली लड़की के बारे में बताया, ‘‘वह लड़की हमारी मुसकान की उम्र की ही होगी, यही कोई 16-17 साल की. पर जब वह मुसकराती है तो एकदम मुसकान की तरह ही दिखती है. वही कदकाठी, गोरा रंग. मैं तो बारबार चुपकेचुपके उसे देख रही थी कि उस ने मेरी चोरी पकड़ ली और पूछ लिया, ‘आंटी, आप ऐसे क्या देख रहे हैं?’ मैं कुछ कह नहीं पाई और घर वापस आ गई,’’ सुनीता ने फिर कहा, ‘‘चलो, अब तुम तैयार हो जाओ. मैं तुम्हारा खाना पैक कर देती हूं. अब मैं ठीक हूं,’’ और वह रसोई में चली गई. महेश तैयार हो कर बैंक चला गया पर सुनीता को रहरह कर बेटी मुसकान का खयाल आता रहा. एक जवान बेटी की मौत का दर्द क्या होता है, यह कोई सुनीता व महेश से पूछे. मुसकान खुद तो चली गई, इन से इन के जीने का मकसद भी ले गई. 4 साल पहले उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को एक दुर्घटना में खो दिया था. हर समय उन के दिमाग में यही खयाल आता था कि क्यों किसी ने मुसकान की मदद नहीं की? अगर कोई समय रहते उसे अस्पताल ले गया होता तो शायद आज वह जिंदा होती. उस पल की कल्पना मात्र से सुनीता के रोंगटे खड़े हो गए और वह फफकफफक कर रोने लगी.

जी भर कर रो लेने के बाद सुनीता जब उठी तो अचानक उसे चक्कर आ गया और वह सोफे का सहारा ले कर बैठ गई. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ. थोड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी तो वह बैडरूम में जा कर पलंग पर ढेर हो गई और फिर उसे याद नहीं कि वह कब तक ऐसे ही पड़ी रही. दरवाजे की घंटी की आवाज से वह उठी और बामुश्किल दरवाजे पर पहुंची. महेश उस के लिए उस का मनपसंद चमेली के फूलों का गजरा लाया था. चमेली की खुशबू उसे बहुत अच्छी लगती थी. पर आज ऐसा न था. आज उसे कुछ अच्छा न लग रहा था, चाह कर भी वह उस गजरे को हाथों में न ले पाई. जैसे ही महेश उस के बालों में गजरा लगाने के लिए आगे बढ़ा तो उस ने उसे रोक दिया, ‘‘प्लीज महेश, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ? क्या तुम अभी तक सुबह वाली बात से परेशान हो?’’ महेश ने कहा और उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर अपने पास बैठा लिया. ‘‘आज सुबह से ही कमजोरी महसूस कर रही हूं और चाह कर भी उठ नहीं पा रही हूं,’’ सुनीता ने बताया. महेश ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं है. वह सुबह वाली बात ही तुम सोचे जा रही होगी और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम ने खाना भी नहीं खाया होगा.’’सुनीता चुपचाप अपने पैरों को देखती रही.

‘‘अच्छा चलो, आज बाहर खाना खाते हैं. बहुत दिन हुए मैं अपनी बीवी को बाहर खाने पर नहीं ले कर गया.’’ महेश सुनीता को उस उदासी से छुटकारा दिलाना चाहता था जो हर पल उसे डस रही थी. उस के लिए शायद यह दुनिया की आखिरी चीज होगी जो वह देखना चाहेगा – सुनीता का उदास चेहरा. उस के तो दो जहान और सारी खुशियां सुनीता तक ही सिमट कर रह गई थीं, मुसकान के जाने के बाद. दोनों तैयार हो कर पास के होटल में खाना खाने चले गए. महेश ने उन सभी चीजों को मंगवाया जो सुनीता की मनपसंद थीं ताकि वह उदासी से बाहर आ सके.

‘‘अरे बस करो, मैं इतना नहीं खा पाऊंगी,’’ जब महेश बैरे को और्डर लिख रहा था तो उस ने बीच में ही कह कर रोक दिया.

‘‘अरे, तुम अकेले थोडे़ ही न खाओगी, मैं भी तो खाऊंगा. भैया, तुम जाओ और फटाफट से सारी चीजें ले आओ. मैं अपनी बीवी को अब और उदास नहीं देख सकता.’’ एक हलकी मुसकान सुनीता के होंठों पर फैल गई. यह सोच कर कि महेश उस से कितना प्यार करता है और अपनेआप पर उसे गर्व भी हुआ ऐसा प्यार करने वाला पति पा कर. खाना खाने के बाद सुनीता की तबीयत कुछ संभल गई. दोनों मनपसंद आइसक्रीम खा कर घर लौट आए. इतनी गहरी नींद में सोई सुनीता कि सुबह देर से आंख खुली. उस ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो बादल घिरे हुए थे. फिर उस ने पास लेटे महेश को देखा. वह चैन की नींद सो रहा था. एक रविवार को ही तो उसे उठने की जल्दी नहीं होती बाकी दिन तो वह व्यस्त रहता है. फ्रैश हो कर वह रसोई में चली गई चाय बनाने. जब तक चाय बनी, महेश उठ कर बैठक में अखबार ले कर बैठ गया. रोज का उन का यही नियम होता था-एकसाथ सुबहशाम की चाय, फिर अपनेअपने काम की भागदौड़. बाहर बादल गरजने लगे और फिर पहले धीरे, फिर तेज बारिश होने लगी. अचानक सुनीता को लगा कि कोई बाहर खड़ा है. उस ने खिड़की में से झांका. एक लड़की खड़ी थी. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला तो देखा वह वही मौल वाली लड़की थी. उसे दोबारा देख कर सुनीता बहुत खुश हुई, ‘‘अरे बेटा, तुम आ जाओ, अंदर आ जाओ.’’

‘‘नहीं आंटी, मैं यहीं ठीक हूं,’’ उस ने डरते हुए कहा. वह कौन सा उसे जानती थी जो उस के घर के अंदर चली जाती. सुनीता ने बड़े प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उसे खींच कर अंदर ले आई.

‘‘आंटी, आप यहां रहती हैं? मैं तो कई बार इधर से गुजरती हूं पर मैं ने आप को नहीं देखा.’’ ‘‘हां बेटा, मैं जरा घर में ही व्यस्त रहती हूं.’’

‘‘आंटी, आई एम सौरी. शायद मैं ने आप का दिल दुखाया,’’ मेघा ने कहा.

महेश एक पल को मेघा को देख कर हतप्रभ रह गया. उसे अंदाजा लगाते देर नहीं लगी कि वह मौल वाली लड़की ही है, ‘‘आओ बेटा बैठो, हमारे साथ चाय पियो.’’ उस ने घबराते हुए महेश से नमस्ते की और बोली, ‘‘अंकल, मैं चाय नहीं पीती.’’

‘‘मुसकान भी चाय नहीं पीती थी. बस, कौफी की शौकीन थी. आजकल के बच्चे कौफी ही पसंद करते हैं,’’ ऐसा बोल कर सुनीता रसोई में चली गई. मेघा भी उस के पीछेपीछे रसोई में चली गई.

‘‘तुम्हारा घर पास में ही है शायद?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘हां आंटी, अगली गली में सीधे हाथ को मुड़ते ही जो तीसरा छोटा सा घर है वही मेरा है,’’ मेघा ने बताया. ‘‘अच्छा, वह नरेश शर्मा के साथ वाला?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, वही. मैं रोज यहां से अपने कालेज जाती हूं. आज रविवार है सो अपनी सहेली से मिलने जा रही थी. बारिश तेज हो गई, इसलिए यहीं पर रुक गई.’’ ‘‘कोई बात नहीं बेटा, यह भी तुम्हारा ही घर है. जब मन करे आ जाया करना, तुम्हारी आंटी को अच्छा लगेगा,’’ महेश ने कहा, ‘‘जब से मुसकान गई है तब से इस ने अपनेआप को इस घर में बंद कर लिया है, बाहर ही नहीं निकलती.’’ ‘‘मेरा नहीं मन करता किसी से भी बात करने का. जब से मुसकान गई है…’’ इतना बोलते ही सुनीता की रुलाई छूट गई तो मेघा ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘आंटी, यह मुसकान कौन है?’’

‘‘मुसकान हमारी बेटी थी जिसे 4 साल पहले हम ने एक ऐक्सिडैंट में खो दिया.’’ मेघा ने देखा सुनीता आंटी लाख कोशिश करे अपना दुख छिपाने की पर फिर भी उदासी उन पर, अंकल पर और पूरे घर पर पसरी हुई थी.

इस बीच महेश बोले, ‘‘हौसला रखो नीता, मैं हूं न तुम्हारे साथ, बस मुसकान का इतना ही साथ था हमारे साथ.’’ इधर, मेघा ने अब जिज्ञासा जाहिर की, ‘‘आंटी, आप मुझे विस्तार से बताइए, क्या हुआ था.’’ ‘‘बेटा, हमारी शादी के 3 साल बाद मुसकान हमारे घर आई तो हमें ऐसा लगा कि इक नन्ही परी ने जन्म लिया है. हमारे घर में उस की मुसकराहट हूबहू तुम्हारे जैसी थी, ऐसे ही गालों में गड्ढे पड़ते थे.’’

‘‘ओह, तो इसलिए उस दिन आप मुझे मौल में बारबार मुड़मुड़ कर देख रही थीं.’’ ‘‘हां बेटा, अब तुम्हें सचाई पता चल गई, अब तो तुम नाराज नहीं होना अपनी आंटी से,’’ महेश ने कहा.

‘‘नहीं अंकल, वह तो मैं कब का भूल गई.’’

‘‘खुश रहो बेटा,’’ कहते हुए महेश चाय पीने लगे. सुनीता ने मेघा को बताना जारी रखा, ‘‘मुसकान को बारिश में घूमना बहुत पसंद था. हमारे लाड़प्यार ने उसे जिद्दी बना दिया था. इकलौती संतान होने से वह अपनी सभी जायजनाजायज बातें मनवा लेती थी. जब उस ने 10वीं की परीक्षा पास की तो स्कूटी लेने की जिद की. हम ने बहुत मना किया कि तुम अभी 15 साल की हो, 18 की होने पर ले लेना, पर वह नहीं मानी. खानापीना, हंसना, बोलना सब छोड़ दिया. हमें उस की जिद के आगे झुकना पड़ा और हम ने उसे स्कूटी ले दी. मैं ने उसे ताकीद की कि वह स्कूटी यहीं आसपास चलाएगी, दूर नहीं जाएगी. इसी शर्त पर मैं ने उसे स्कूटी की चाबी दी. वह मान गई और हम से लिपट गई. ‘‘उस दिन वह जिद कर के स्कूटी से अपनी सहेली के घर चली गई. हम उस का इंतजार कर रहे थे. उस दिन भी ऐसी ही बारिश हो रही थी. 2 घंटे बीत गए तब सिटी अस्पताल से फोन आया, ‘जी, हमें आप का नंबर एक लड़की के मोबाइल से मिला है. आप कृपया कर के जल्द सिटी अस्पताल पहुंच जाएं.’ ‘‘डर और घबराहट के चलते मेरे पैर जड़ हो गए. हम दोनों बदहवास से वहां पहुंचे. देखा, हमारी मुसकान पलंग पर लेटी हुई थी, औक्सीजन लगी हुई थी, सिर पर पट्टियां बंधी हुई थीं और साथ वाले पलंग पर उस की सहेली बेहोश थी. जब उसे होश आया तो उस ने बताया, ‘हम दोनों बारिश में स्कूटी पर दूर निकल गईं. पास से एक गाड़ी ने बड़ी तेजी से ओवरटेक किया, जिस से हमें कच्चे रास्ते पर उतरना पड़ा और उस गीली मिट्टी में स्कूटी फिसल गई. हम दोनों गिर गए और बेहोश हो गए. उस के बाद हम यहां कैसे पहुंचे, नहीं मालूम.’ ‘‘इसी बीच डाक्टर आ गए. उन्होंने मुझे और महेश को बताया कि सिर पर चोट लगने से बहुत खून बह गया है. हम ने सर्जरी तो कर दी है पर फिर भी अभी कुछ कह नहीं सकते. अभी 48 घंटे अंडर औब्जर्वेशन में रखना पड़ेगा. डाक्टर की बात सुन कर हम रोने लगे. ये भी परेशान हो गए. पलभर में हमारी दुनिया ही बदल गई. नर्स ने कहा, ‘घबराइए नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ तकरीबन 2 घंटे बाद मुसकान को होश आया,’’ बोलतेबोलते सुनीता का गला रुंध आया तो वह चुप हो गई.

‘‘फिर क्या हुआ अंकल? प्लीज, आप बताइए?’’ मेघा ने डरते हुए पूछा. महेश के चेहरे पर अवसाद की गहरी परत छा गई थी तो सुनीता ने कहा, ‘‘वह जब होश में आई तो उस से कुछ कहा ही नहीं गया. बस, अपने हाथ जोड़ दिए और हमेशा के लिए शांत हो गई.’’ और फिर सुनीता फूटफूट कर रोने लगी. उन का रुदन देख कर मेघा की भी रुलाई छूट गई. उसे समझ नहीं आया कि वह उन से क्या कहे. उस ने सुनीता और महेश का हाथ अपने हाथों में ले कर बस इतना ही कहा, ‘‘मुझे अपनी मुसकान ही समझिए और मैं पूरी कोशिश करूंगी आप की मुसकान बनने की.’’

उन दोनों के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘‘खुश रहो बेटा.’’ बाहर बारिश थम चुकी थी और अंदर तूफान गुजर चुका था. मेघा वापस आने का वादा कर के वहां से चली गई. उस से बातें कर के दोनों बहुत हलका महसूस कर रहे थे. दोनों रविवार का दिन अनाथ आश्रम में गरीब बच्चों के साथ बिताते थे. दोनों कपड़े बदल कर वहां चले गए. मेघा जब भी कालेज जाती तो अकसर सुनीता और महेश को बाहर लौन में बैठे देखती तो कभी हाथ हिलाती, कभी वक्त होता तो मिलने भी चली जाती थी. वक्त गुजरने लगा. मेघा के आने से सुनीता अपनी सेहत को बिलकुल नजरअंदाज करने लगी. यदाकदा उसे चक्कर आते थे, कई बार आंखों के आगे धुंधला भी नजर आता तो वह सब उम्र का तकाजा समझ कर टाल जाती. इंतजार करतेकरते 10 दिन हो गए पर मेघा नहीं आई, न ही वह कालेज जाती नजर आई. दोनों को उस की चिंता हुई और जब दोनों से रहा नहीं गया तो वे एक दिन उस के घर पहुंच गए. दरवाजे की घंटी बजाई तो एक 49-50 साल की अधेड़ महिला ने दरवाजा खोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘क्या मेघा यहीं रहती है?’’ महेश ने पूछा.

‘‘जी हां, आप सुनीता और महेशजी हैं?’’

सुनीता ने उत्सुकता से जवाब दिया, ‘‘हां, मैं सुनीता हूं और ये मेरे पति महेश हैं.’’

‘‘आप अंदर आइए. प्लीज,’’ बोल कर सुगंधा उन्हें कमरे में ले आई. पूरा घर 2 कमरों में सिमटा था. एक बैडरूम और एक बैठक, बाहर छोटी सी रसोई और स्नानघर. मेघा यहां अपनी मां सुगंधा के साथ अकेली रहती थी उस के पिताजी, जब वह बहुत छोटी थी तब ही संसार से जा चुके थे. सुगंधा एक स्कूल में अध्यापिका थी जिस से उन का घर का गुजारा चलता था. ‘‘मेघा कहां है? बहुत दिन हुए, वह घर नहीं आई तो हमें चिंता हुई. हम उस से मिलने आ गए,’’ सुनीता ने चिंता व्यक्त की.

‘‘वह दवा लेने गई है,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘आप को क्या हुआ बहनजी?’’ महेश ने पूछा.

सुगंधा उदास हो गई, ‘‘मेरी दवा नहीं भाईसाहब, वह अपनी दवा लेने गई है.’’

‘‘उसे क्या हुआ है?’’ दोनों ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘2-3 साल पहले की बात है. इसे बारबार यूरीन इनफैक्शन हो जाता था. डाक्टर दवा दे देते तो ठीक हो जाता पर बाद में फिर हो जाता. पिछले 10 दिनों से इनफैक्शन के साथ बुखार भी है. पैरों में सूजन भी आ गई है. मैं ने बहुत मना किया पर फिर भी जिद कर के दवा लेने चली गई. अभी आ जाएगी.’’

‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘डाक्टर को डर है कि कहीं किडनी फेल्योर का केस न हो,’’ कह कर वे रोने लगीं. सुनीता ने उठ कर उन्हें गले से लगा लिया और सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, ऐसा कुछ नहीं होगा. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘सुनीताजी, डाक्टर ने कुछ टैस्ट करवाए हैं. कल तक रिपोर्ट आ जाएगी,’’ सुगंधा ने बताया. इतने में मेघा आ गई. उस की मुसकान होंठों से गायब हो चुकी थी, रंग पीला पड़ गया था, आंखों के आसपास सूजन आ गई थी, वह बहुत कमजोर लग रही थी. सुनीता और महेश उसे देख कर सन्न रह गए. वे वहां ज्यादा देर न बैठ सके. चलते समय महेश ने मेघा के सिर पर हाथ रखा और सुगंधा से कहा, ‘‘बहनजी, कल हम आप के साथ रिपोर्ट लेने चलेंगे,’’ ऐसा कह कर वे दोनों अपने घर लौट आए. घर आ कर सुनीता सोफे पर ऐसी ढेर हुई कि काफी देर तक हिली ही नहीं. जब महेश ने उस से अंदर जा कर आराम करने को कहा तो वह अपनेआप को चलने में ही असमर्थ पा रही थी. महेश उसे सहारा दे कर अंदर ले गया, ‘‘परेशान न हो, सब ठीक हो जाएगा.’’ अगले दिन दोनों सुगंधा के साथ अस्पताल चले गए. उन पर पहाड़ टूट पड़ा जब डाक्टर ने बताया, ‘यह केस किडनी फेल्योर का है. अब मेघा को डायलिसिस पर रहना होगा जब तक डोनर किडनी नहीं मिल जाती.’ सुगंधा तो बेहोश हो कर गिर ही जाती अगर महेश ने उसे सहारा न दिया होता. उस ने उसे कुरसी पर बैठाया और पानी पिलाया, ‘‘हिम्मत रखिए सुगंधाजी, अगर आप ऐसे टूट जाएंगी तो मेघा को कौन संभालेगा? हम जल्दी मेघा के लिए डोनर ढूंढ़ लेंगे, आप चिंता न करें.’’

मेघा की बीमारी से दोनों परिवारों पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा. सुनीता तो अब ज्यादातर बीमार ही रहने लगी और अचानक एक दिन बेहोश हो कर गिर पड़ी. महेश अभी बैंक जाने के लिए तैयार ही हो रहा था कि धम्म की आवाज से रसोई में भागा तो देखा सुनीता नीचे फर्श पर बेहोश पड़ी हुई है. उस के हाथपैर फूलने लगे पर फिर हिम्मत कर के उस ने एंबुलैंस को फोन कर के बुलाया. इमरजैंसी में उसे भरती किया गया और सारे टैस्ट किए गए पर कुछ हासिल न हो सका. सुनीता हमेशा के लिए चली गई. डाक्टर ने जब कहा, ‘‘यह केस ब्रेन डैड का है, हम उन्हें बचा न पाए,’’ तो महेश धम्म से कुरसी पर गिर गया और सुनीता का चेहरा उस की आंखों के आगे घूमने लगा. पता नहीं वह कितनी देर वहीं पर उसी हाल में बैठा रहा कि अचानक वह फुरती से उठा और डाक्टर के पास जा कर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, मैं सुनीता के और्गन डोनेट करना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि सुनीता की किडनी मेघा को लगा दी जाए.’’ डाक्टर ने फटाफट सारे टैस्ट करवाए और सुगंधा व मेघा को अस्पताल में बुला लिया. संयोग ऐसा था कि सुनीता की किडनी ठीक थी और वह मेघा के लिए हर लिहाज से ठीक बैठती थी. खून और टिश्यू सब मिल गए. औपरेशन के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘औपरेशन कामयाब रहा. बस, कुछ दिन मेघा को यहां अंडर औब्जर्वेशन रखेंगे और फिर वह घर जा कर अपनी जिंदगी सामान्य ढंग से जिएगी.’’

सुगंधा ने आगे बढ़ कर महेश के पांव पकड़ लिए और रोने लगीं. महेश ने उन्हें उठाते हुए कहा, ‘‘सुगंधाजी, आप रोइए नहीं. बस, मेघा का खयाल रखिए.’’ घर आ कर सब क्रियाकर्म हो गया. बारीबारी से लोग आते रहे, अफसोस प्रकट कर के जाते रहे. अंत में महेश अकेला रह गया सुनीता की यादों के साथ. उस ने उठ कर सुनीता की फोटो पर हार चढ़ाया. अपने चश्मे को उतार कर अपनी आंखों को साफ करते हुए बोला, ‘‘देखा नीता, हमारी मुसकान को तो मैं बचा नहीं पाया, पर इस मुसकान को तुम ने बचा लिया.’’ जैसे ही महेश पलटा तो उस ने देखा कि उस के पीछे मेघा खड़ी थी और उसी ‘डिंपल’ वाली मुसकान के साथ जैसे कह रही हो कि आप अकेले नहीं हैं, यह ‘मुसकान’ है आप के साथ.

जवानी की दुनिया दीवानी

50वें वर्ष में चल रहे शाहरुख खान 15.4 फीसदी हिंदुस्तानियों के रोल मौडल हैं. उन्हें रोल मौडल मानने वालों में 90 फीसदी की उम्र 30 साल से कम है और इन में से 95 फीसदी से ज्यादा लोग उन के चुस्तदुरुस्तपन और इस उम्र में भी जवान दिखने के कायल हैं. इसी तरह 10.7 फीसदी लोग अमिताभ को अपना रोल मौडल मानते हैं. उन्हें पसंद करने वाले भी उन के 71 साल की उम्र में भी युवा दिखने पर ही मुग्ध हैं. चाहे नंदन नीलकेणी हों या टौप टेन में शामिल कोई भी दूसरा रोल मौडल, इन सब को लोग इसीलिए भी चाहते हैं कि ये तमाम लोग बढ़ती उम्र में भी चुस्तदुरुस्त और आकर्षक दिखते हैं.

एक ऐसे देश में जहां 54 फीसदी तक की आबादी युवा हो, अगर उस देश की जवानी सब से बड़ी यूएसपी हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. दरअसल, पिछले कुछ दशकों के आर्थिक विकास ने हमें जो खुशहाली बख्शी है उस के नतीजे में एक जबरदस्त बेचैनी है, यह बेचैनी है प्रदर्शन की. चाहे क्षेत्र कोई भी हो, हर क्षेत्र में लोग अपनी उपलब्धियों को प्रदर्शित करना चाहते हैं. हिंदुस्तान में जिस भी तरफ आप नजर उठा कर देखिए, तीनचौथाई से ज्यादा लोग वरिष्ठ नागरिकों से कम की उम्र के मिलेंगे यानी ऐसे लोग जो कुछ भी करगुजरने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. यही कारण है कि इस बड़े देश में जवानी एक कौमन फैक्टर बन चुकी है. बौलीवुड को अपने देश में फैशन और शानोशौकत से जीने की कला का बैरोमीटर मानें तो देखा जा सकता है कि 80 के दशक के बाद से बौलीवुड में लगातार चुस्तदुरुस्त और युवा बने रहने को तरजीह दी जा रही है. 50 और 60 के दशक में बौलीवुड के पास एक से बढ़ कर एक खूबसूरत चेहरे थे. देवानंद, राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, भारत भूषण, दिलीप कुमार, मनोज कुमार आदि.

ये सब बेहद चिकने चौकलेटी चेहरे थे. गौर से देखें तो एक धर्मेंद्र को छोड़ कर दूसरा कोई भी ऐसा नहीं था जिस के वजूद से जवानी का एहसास होता हो या लगता हो कि जैसे जवानी फूट कर निकल रही हो क्योंकि उस दौर में जवानी आकर्षण का केंद्र तो थी लेकिन जवानी चुंबकीय आकर्षण का केंद्र नहीं थी. शायद ही उस दौर में कोई ऐसा खूबसूरत हीरो रहा हो जिस के 6 पैक्स तो छोडि़ए, 2 या 4 कटाव भी रहे हों. सब की संकरीसंकरी छातियां थीं, सुंदर चेहरे थे और औसत कद. लेकिन 80 के दशक के बाद से यह ट्रैंड बदल गया क्योंकि तब एक एंग्री यंगमैन ने खुद भले अपनेआप को सुगठित शरीर के धनी शख्स के रूप में स्थापित न किया हो, लेकिन शरीर सौष्ठव को एक क्रेज, एक चाहत के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था. हिंदुस्तानी सिनेमा ने पहले व्यवस्थित बौडी बिल्डर हीरो के रूप में संजय दत्त को पाया और फिर सलमान खान ने तहलका मचाया. वास्तव में सलमान खान ही बौलीवुड के ऐसे पहले हीरो थे जिन्होंने बौडी बिल्ंिडग व फड़कती हुई जवानी को, हीरो की यूएसपी बना दिया और आगे चल कर यह चलन हीरो के लिए अनिवार्य हो गया.

90 के दशक में जब भारत ने अर्थव्यवस्था को उदारीकरण का जामा पहनाना शुरू किया और सुधारों के नाम पर भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे दुनिया के लिए खोले जाने लगे तो सिर्फ खुले दरवाजों से अर्थव्यवस्था को लगने वाली हवा ही नहीं आई बल्कि इन दरवाजों से पश्चिमी जीवनशैली और आशाओंआकांक्षाओं के झोंके भी आए और तेजी से भारतीय जनमानस की चाहतें, विशेषकर युवाओं की, बदलने लगीं. यह खुले द्वार से आई मुक्त जीवनशैली का प्रभाव ही था कि देश भर में युवाओं में अपनी बौडी को ले कर एक जबरदस्त सजगता आई. यही कारण है कि 1996 से 2011 के बीच भारत के महानगरों में जिमों के खुलने की तादाद इस के पहले के मुकाबले 900 फीसदी तक बढ़ गई. जिम संस्कृति ने एक तरह से भारतीय युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया. आज की तारीख में बेंगलुरु हो या दिल्ली, चंडीगढ़ हो या मुंबई, पुणे हो या हैदराबाद, इन तमाम शहरों में जिम, ब्यूटीपार्लरों का मुकाबला कर रहे हैं. यह बात अलग है कि इसी दौरान पार्लरों की तादाद में जिमों से 300 फीसदी से ज्यादा का उछाल आया है.

यह सब जवानी के प्रति आकर्षण के चलते संभव हुआ है. यह जवानी का बढ़ता आकर्षण ही है कि पिछले एक दशक में सौंदर्य प्रसाधनों की बिक्री में 700 फीसदी का उछाल आया है, और जिस हिंदुस्तान में 90 के दशक में सौंदर्य प्रसाधनों का कारोबार 85 से 90 करोड़ रुपए सालाना का था, वह कारोबार अब सालाना 10 अरब रुपए की भी सीमा को पार कर चुका है. अगर इस के असंगठित और नकली बाजार को भी इस में अनुमान के आधार पर जोड़ दें तो यह सालाना 13 से 14 अरब रुपए तक पहुंच चुका है. दरअसल, 90 के दशक के उत्तरार्द्ध के बाद युवा बना रहना एक सामाजिक ललक बन कर उभरा है. कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां जवानी ललकभरी दीवानगी का जरिया न बन गई हो. यही वजह है कि जवानी हर जगह एक रोल मौडल बन कर उभरी है. अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ाइए, हर तरफ आप को जवानी के प्रति सजगता मिलेगी. कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां आज युवाओं को तरजीह न दी जा रही हो. क्या कारोबार, क्या सेवा क्षेत्र, क्या सामाजिक क्षेत्र, हर जगह युवाओं के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से जवानी का ही डंका बज रहा है. बैंकों में वर्ष 2000 के बाद 30 से 40 फीसदी युवा स्टाफ को तरजीह दी जा रही है. 2000 से 2012 के बीच बैंकों ने अपने पुराने और उम्रदराज कर्मचारियों को स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण करने के लिए लगातार प्रोत्साहित किया, जिस के चलते बैंकों से 9-12 फीसदी तक स्टाफ समय से पहले रिटायरमैंट ले चुका है. उन की जगह बिलकुल फ्रैश, कम उम्र के युवा रखे गए हैं. 1995 से 2012 के बीच बैंकों के कारोबार में 600 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है. विशेषज्ञों का मानना है कि इस बढ़ोतरी का कारण युवा और हौसले से भरा स्टाफ है.

अर्थशास्त्र में कहा जाता है, ‘विकसित होते समाज की उम्र कम हो जाती है. वह युवा हो जाता है और युवाओं पर ही सब से ज्यादा भरोसा करता है.’ यह सिद्धांत पूरी तरह से हिंदुस्तान पर लागू होता दिख रहा है. कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां युवाओं को तरजीह न दी जा रही हो या युवाओं की वकालत न की जा रही हो. यहां तक कि बुजुर्गों का आरक्षित क्षेत्र माना जाने वाला राजनीतिक क्षेत्र भी अब युवाओं के हस्तक्षेप से रहित नहीं है. दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के प्रभावशाली होने के साथ ही देश में एक आर्थिक खुशहाली और सामाजिक जोश का दौर आया है. भले अपेक्षा के मुताबिक भारत में आर्थिक खुशहाली ने अभी अपनी जड़ें न जमाई हों लेकिन यह कहना गलत होगा कि आर्थिक खुशहाली आई ही नहीं. आज भारत में 20 करोड़ से ज्यादा संपन्न उपभोक्ता हैं और इस में चमकदार पहलू यह है कि इन 20 करोड़ में से 18 करोड़ युवा हैं. इन 18 करोड़ में से 14 करोड़ उपभोक्ताओं का पैसा अपना कमाया हुआ है यानी उन की उपभोग हैसियत उन के खुद के श्रम व कौशल से पैदा हुई है. इसलिए आज भारतीय उपभोक्ता बाजार न सिर्फ बहुत तेजी से फलफूल रहा है बल्कि उपभोक्ता बाजार युवाओं को अपने सिरमाथे पर बैठा रहा है. बाजार में ज्यादातर चीजें युवाओं की इच्छा और अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर उपलब्ध कराई जा रही हैं और उत्पादित की जा रही हैं. देश में 14 करोड़ से ज्यादा ताकतवर उपभोक्ता भरपूर कमा रहे हैं और खर्च करने का निर्णय भी वे खुद ही ले रहे हैं.

कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां हाल के कुछ दशकों में भविष्योन्मुखी माहौल न बना हो. ऐसे में जबकि हर जगह युवाओं का डंका बज रहा हो तो भला फिर जवानी का डंका क्यों न बजे. इसलिए बौलीवुड में हर कामयाब हीरो के लिए जवान बना रहना अपनी शर्त हो गई है. 49 के शाहरुख, 50 के सलमान और लगभग 49 के आमिर इसीलिए आज अपने अभिनय से ज्यादा हर दिन कमनीय होती अपनी जवानी से चौंकाते हैं और आकर्षित करते हैं. सिर्फ सिनेमा के ही क्षेत्र में ये उदाहरण या ऐसे दबाव नहीं हैं बल्कि कौर्पोरेट क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही है. 4 दशक पहले किसी उद्योगपति का चेहरा दिमाग में आते ही बेडौल सेठों का सा शरीर जेहन में कौंधता था. लेकिन आज चाहे अनिल अंबानी हों या सुनील भारती मित्तल, कुमार मंगलम बिड़ला हों या अजीम प्रेमजी, सब के सब अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और हैसियत जितना ही अपनी लुक और खासतौर पर अपनी जवानी के लिए सजग दिखते हैं. आज के युवा उद्योगपति ऐथलीट माफिक दिखते हैं क्योंकि उन्हें पता है, भारत का युवा समाज थुलथुल शरीर, मुरझाया चेहरा और पस्त हौसलों से घृणा करता है. युवा भारत पर भले दिखावटी होने का आरोप लगे लेकिन वह युवा होने और बने रहने की हर तरकीब अपनाता है. यह अकारण नहीं कि कम उम्र में नौकरी शुरू करने वाले आज के युवा 30 फीसदी तक अपनी कमाई, अपने को युवा बनाए रखने में खर्च करते हैं. उन्हें पता है जो फिट दिखता है वही हिट दिखता है, इसलिए हिंदुस्तान का व्यापक समाज जवानी के लिए दीवाना हो रहा है. जवानी या जवान बने रहना हमारी यूएसपी बन गई है. नतीजतन, जवानी रोल मौडल की कुरसी पर आसीन हो गई है.

जवानी जिंदाबाद

इस की सब से बड़ी वजह यह भी है कि पिछले 2 दशकों में ज्यादातर कामयाबियां जवानी के हिस्से में ही आई हैं. 1990 के पहले तक हिंदुस्तान में अपना घर, अपनी गाड़ी और स्थिर जीवन की उम्र 50 से 55 थी, आज यह 27 से 30 हो गई है. इसे यों समझिए, पहले तथाकथित कामयाबियां जिस में अपना घर, अपनी गाड़ी और व्यवस्थित  घरगृहस्थी शामिल थी, उसे हासिल करतेकरते या वहां तक पहुंचतेपहुंचते आमतौर पर जिंदगी के 50 साल से ज्यादा के सुनहरे दिन समाप्त हो जाते थे. जबकि आज ये तमाम चीजें 26 से 30 साल के बीच में 45 फीसदी से ज्यादा युवाओं को हासिल हो जाती हैं. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज के युवा पहले के मुकाबले कितने कामयाब हैं. पहले बैंक बैलेंस जीवन के उत्तरार्द्ध की उपलब्धि होती थी, आजकल 25 साल का युवक भी अपनी सेविंग को सालाना औसतन 30 से 35 हजार रुपए के बीच हासिल कर रहा है.

कामयाबी की उम्र वाकई कम हो गई है. आज महानगरों की सड़कों में 95 फीसदी मोटरसाइकिलों में युवा मिलेंगे, 55 फीसदी से ज्यादा चमचमाती नई कारों में युवा दिखेंगे और बिकने वाले हर 5 में से इन दिनों 3 फ्लैट युवा खरीद रहे हैं. इस में कोई शक नहीं कि आज 70 और 80 के दशक के मुकाबले महंगाई 6 से 7 गुना ज्यादा है. लेकिन एक सीमित वर्ग ही सही, 20 से 25 फीसदी युवा आज ऐसे हैं जिन की तनख्वाह 70 और 80 के दशकों के मुकाबले 20 से 25 गुना ज्यादा है. कई बूढ़ों को तो यकीन ही नहीं होता कि ऐसा है. मगर वास्तव में ऐसा है. आज हर नौकरी की शुरुआत करने वाले युवा की औसत सैलरी 80 के दशक की औसत सैलरी से महंगाई का अनुपात निकालने के बाद भी 3 से 4 गुना ज्यादा है.

आज हर क्षेत्र में कामयाबी की उम्र घट गई है. चाहे कार खरीदने के संबंध में बात की जा रही हो या फ्लैट खरीदने के, चाहे कौर्पोरेट सैक्टर में अपने आइडिया का डंका बजाने की बात की जा रही हो या फिर कारोबार के क्षेत्र में अपने कारोबार को कामयाबी के असीमित शिखर पर पहुंचाने की बात हो, कामयाबी की उम्र हर जगह छोटी हो गई है. दुनिया के करोड़पतियों की सूची में इतिहास में पहली बार 30 से 35 फीसदी युवा हैं और 5 से 7 फीसदी तो इतनी कम उम्र के हैं कि आप कौर्पोरेट जगत को देखते हुए कह सकते हैं अभी उन के दूध के दांत ही नहीं टूटे. चाहे मार्क जुकरबर्ग हों या रैनबैक्सी के सिंह बंधु, सब ने इतनी कम उम्र में अपने नाम के आगे अरबपति होने का टाइटल लिखवाया है कि कामयाबी को स्वाभाविक रूप से युवाओं की थाती समझा जाने लगा है. शायद इसलिए भी जवानी समाज के हर क्षेत्र की रोल मौडल बन गई है क्योंकि उस का दूसरा कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं बचा.

श्राद्ध दानदक्षिणा का कारोबार

एक तरफ हम चांद तक पहुंचने का दावा कर कभी मंगलयान तो कभी रौकेट, मिसाइल की बातें कर खुद को तकनीकी व विज्ञान के मोरचे पर समृद्ध होने का डंका पीटते हैं तो दूसरी ओर जब वाट्सऐप और सोशल मीडिया पर श्राद्ध से ठीक एक दिन पहले धर्म, पूजापाठ और श्राद्ध से जुड़े रीतिरिवाजों का बखान देखते हैं तो वापस उसी पिछड़े, पुरातनकाल में लौट जाते हैं. उस काल में हम असभ्यता व धार्मिक कुरीतियों के जाल में उलझे थे. आम युवाओं के हाथ में तकनीक इसलिए नहीं है कि वे पोंगापंथ व धार्मिक रिवाजों का ब्रह्मज्ञान सुनें और उसे सोशल मीडिया पर प्रसारित करें. तकनीक तो आगे बढ़ने का औजार है. कुछ लोग इस से अंधविश्वास फैला रहे हैं. तकनीक के सहारे वाट्सऐप या फेसबुक इस्तेमाल करने वाले धार्मिक कर्मकांडों से अछूते तबके को धार्मिक अंधता में धकेल रहे हैं और वे इतने सफल हैं कि प्रबुद्ध, सफल भी इसे फौरवर्ड कर डालते हैं और स्वयं को धन्य समझते हैं.

धार्मिक कैंपेन को वाट्सऐप पर इस तरह प्रसारित किया जाता है कि अगर इसे आगे 100 लोगों को फौरवर्ड नहीं किया गया तो अशुभ होगा. तकनीक का इस से ज्यादा दुरुपयोग भला और कैसे हो सकता है? श्राद्ध एक कर्मकांड है. दरअसल, पंडों ने सालभर में अपनी आय का जरिया तय करने के लिए ही तमाम तरह के कर्मकांडों का विधान किया है. पंडों ने हरेक कर्मकांड के पीछे इस बात पर अधिक जोर दिया है कि अगर यह या वह न किया गया तो किस तरह अनिष्ट होगा. इसी ‘अनिष्ट’ का भय दिखा कर सब को कर्मकांडी बना दिया गया है. इस के अलावा वृद्धि श्राद्ध का भी विधान चालू कर दिया है ब्राह्मणों ने. यह श्राद्ध विवाह या उपनयन के पहले पितरों के आशीर्वाद के नाम पर कराया जाता है. इस के बाद मृतक के नाम पर ब्राह्मणों ने सालाना श्राद्ध सपिंडीकरण श्राद्ध का कर्मकांड भी थोप दिया है. यह श्राद्ध विशेष तिथि में व्यक्ति की मृत्यु के लिए कराया जाता है. इस के अलावा पितृपक्ष में पिछली 3 पीढि़यों के पूर्वजों के श्राद्ध का भी विधान रखा गया है. यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि श्राद्ध का मुख्य अर्थ दानदक्षिणा है. यानी पूर्वजों को खुश रखने के नाम पर सालभर श्राद्ध कर के, कामधंधे को चौपट कर के अपने परिवार के लिए भले ही दुख का कारण बनते रहें, लेकिन पितरों के नाम पर ब्राह्मणों का घर जरूर भरते रहें.

भारतीय दर्शन में चार्वाक ऋषि का महत्त्व है. चार्वाक श्राद्ध के खिलाफ थे. पश्चिम बंगाल में कुसंस्कारों के खिलाफ लंबे समय से काम करने वाली भारतीय विज्ञान युक्तिवादी समिति के महासचिव विप्लव दास, चार्वाक का हवाला देते हुए कहते हैं कि सदियों पुराना चार्वाक दर्शन भी श्राद्ध के खिलाफ रहा है. आत्मा के अस्तित्व व आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध जैसे विषयों पर चार्वाक ने सवाल उठाया है. परलोक और पुनर्जन्म के आस्तिक दर्शन को भी नकारते हुए चार्वाक दर्शन कहता है कि –

यदि गच्छेत् परं लोकं
देहादेश विनिर्गत:.
कस्माद् भूयो न चायाति
बन्धु-स्नेह-समाकुल:..

यानी अगर आत्मा का वजूद है और पुनर्जन्म वाकई होता है तो मरने के बाद शरीर से निकल परलोक गई आत्मा अपने भाईबंधुओं को रोताबिलखता देख कर भी वापस क्यों नहीं लौट आती.

मृतानामपि जन्तूना
श्राद्धं चेतृप्तिकारणम्.
निर्वाणस्य प्रदीपस्य
स्नेह: संवर्धयेच्छिखाम्..

यानी अगर मरने वालों की तृप्ति श्राद्ध से वाकई होती है तो यह वैसी ही बात है जैसे बुझे दीपक में तेल डाल भर देने से बिना आग का स्पर्श पाए दिए की लौ फिर से जल उठेगी.

गच्छतामिह जंतुनाम
व्यर्थम् पाथेयकल्पनम्
गेहस्थकृतश्राद्धेण
पथि तृप्तितरवारिता…

यानी जो यह पृथ्वी छोड़ कर चला गया, उस के लिए पिंडदान करने का कोई अर्थ नहीं है. अगर कोई घर छोड़ कर चला गया तो उस के नाम पर पिंडदान करने से उस की भूख मिट जाएगी? बहरहाल, चार्वाक की भौतिकवादी तार्किक सोच का उन के समसामयिक ब्राह्मणों द्वारा विरोध भी होता रहा है. माना जाता है कि चार्वाक को पीटपीट कर मार डाला गया. कह सकते हैं कि चार्वाक का समय आज भी मौजूद है जब तर्क को छोड़ कर लोग वाट्सऐप, फेसबुक पर अपने अंधविश्वासों व मूर्खता का प्रदर्शन करने में उत्सुक रहते हैं.

कुत्तेकौए का मान

कुत्ता और कौए जैसे जीवों का हम सालभर तिरस्कार करते हैं, लेकिन पितृपक्ष के दौरान उन्हें बड़ा मान दिया जाता है. श्राद्ध पक्ष में कौओं की विशेष पूछ होती है. ऐसा क्यों? कोलकाता में काली मंदिर के एक पुजारी हलचलजी कहते हैं कि हमारे हिंदू धर्म में कौआ यम का प्रतीक माना जाता है, जो शुभअशुभ का संकेत बताता है. इसी तरह आइरिश लोग कौए को युद्ध और मृत्यु की देवी मानते हैं. बहरहाल, हिंदू मान्यता के अनुसार, इस संसार में 84 लाख योनियां होती हैं लेकिन माना जाता है कि मर कर व्यक्ति सब से पहले कौए के रूप में जन्म लेता है इसीलिए कौए को श्राद्ध का एक अंश दिया जाता है. ब्राह्मणों का विधान है कि पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करने और किसी तरह के अनिष्ट से बचते हुए कल्याण की कामना के लिए श्राद्ध में कौए को खिलाना जरूरी है. उसी के पेट की जूठन पितरों को जाएगी.

हलचल शास्त्रों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘‘पितृपक्ष के दौरान स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं और पितर कौए के रूप में धरती पर आते हैं. कौआ अगर थोड़ा सा भी अन्न खा ले तो वह सीधे पितरों तक पहुंचता है. पितरों का तर्पण तब तक अधूरा है जब तक कि ‘कागभुशुंडी’ अन्न को मुंह न लगा ले. इसीलिए कौए को भोजन कराना शुभ माना जाता है.’’ हलचल आगे कहते हैं कि ज्योतिष में कुत्ते को केतु का प्रतीक माना गया है. कुत्ते की सेवा करने से केतु का अशुभ प्रभाव नष्ट होता है. वहीं, हिंदू पुराण में कुत्ते को यमराज का पशु और भैरव का सेवक माना गया है. इसीलिए मान्यता है कि कुत्ते को भोजन कराने से भैरव खुश होते हैं और तमाम आकस्मिक संकटों से वे भक्तों की रक्षा करते हैं. मान्यता यह भी है कि कुत्ता भविष्य में होने वाली घटनाओं व सूक्ष्म जगत की आत्माओं को देखने की क्षमता रखता है. कुत्ते को प्रसन्न रखने से वह यमदूत को पास फटकने नहीं देता है. इसीलिए श्राद्ध में कुत्तों को खिलाने की मान्यता है. हलचल यह भी कहते हैं कि ग्रंथों की एक मान्यता की कहें तो इसे अपवित्र माना गया है. इस के स्पर्श से भोजन अपवित्र हो जाता है. कहते तो यह भी हैं कि कुत्ते को देख आत्माएं दूर चली जाती हैं. ऐसे में श्राद्ध में कुत्तों को खिलाने पर सवाल उठ ही जाता है. हाल के कुछ सालों में औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कीटनाशक के छिड़काव के कारण कौओं की बेहद कमी हो गई है. श्राद्धपक्ष के दिन लोग थाली परोस कर सारा कामधंधा छोड़ कर घंटों बैठे कौओं का इंतजार करते हैं, लेकिन कौआ दिखाई नहीं देता. इसलिए इस का भी हल निकाला गया है. कोलकाता के श्यामबाजार में हर रविवार के दिन पेड़पौधों से ले कर चिडि़या, कबूतर, रंगबिरंगी मछलियों व खरगोश का हाट लगता है लेकिन 27 तारीख के दिन श्राद्धपक्ष के मद्देनजर इस हाट में कबूतर बेचने वाले कौए भी बेच रहे थे. देख कर हैरानी हुई कि कौए कब से पालतू हो गए? कबूतर बेचने वाले ने बताया कि श्राद्धपक्ष है न. आजकल कौए दिखते नहीं हैं न. यह सिर्फ इन 15 दिनों के लिए.

साफ है कि कौए की जितनी पूछ श्राद्धपक्ष में होती है उतनी साल में कभी नहीं. श्राद्ध के इन्हीं 15 दिन कौओं की आवभगत होती है. साल के बाकी दिन इन की आवाज सुनना किसी को गवारा नहीं. मुंडेर पर बैठे कौए का कांवकांव करना एक मिथक के तहत अशुभ माना जाता है. कहते हैं कि कौआ यम का दूत होता है. वह सारी जानकारियां यम को पहुंचाता है. प्रमाण के तौर पर शास्त्रों में यहां तक कह दिया गया है कि चूंकि दक्षिण दिशा यम की दिशा है और कौआ दक्षिण दिशा से आता है, इसीलिए कौए का घर के आसपास मंडराना काल या मृत्यु का संकेत माना जाता है. सवाल यह भी उठता है कि हमारे पितरों, जब कभी वे जीवित थे, को कौओं से कोई लगाव नहीं होता है, फिर मरने के बाद वे कौए का ही रूप ले कर धरती पर क्यों आते हैं? कोई और रूप भी तो ले सकते हैं? बहुत तलाशा इस सवाल का जवाब, पर मिल नहीं सका. सदियों से यह परंपरा चली आ रही है, सो सब निभा रहे हैं, आखिर पितरों का सवाल जो है. उन्हें नाराज करना किसी को गवारा नहीं.

युक्तिवादी समिति के विप्लव दास कहते हैं कि जब आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है तो उसे खुश करने या उस के नाराज होने का सवाल ही भला कैसे उठता है. उस पर श्राद्ध अपनेआप में बड़ा अमानवीय कर्मकांड है. एक तरफ परिजन के जाने का परिवार इतना बड़ा आघात झेलता है, तो दूसरी ओर इस दौरान उस पूरे परिवार पर इतने सारे कर्मकांड थोप दिए जाते हैं. हमारे देश में गरीबी इतनी है कि साधारण से अंतिम संस्कार तक के लिए कर्ज लेना पड़ता है. उस परिवार पर मृत व्यक्ति के नाम पर आजीवन कर्मकांड का बोझ, यह अमानवीय नहीं तो क्या है? ऐसा भी देखा गया है कि कुछ लोग जीतेजी अपने मातापिता के जीवित रहते उन का अपमान करते रहते हैं, लेकिन उन के चले जाने के बाद बड़ी शिद्दत से सालभर में बताई गई तिथियों में बड़े तामझाम से श्राद्ध करते हैं.

ऐसे में क्या यह अच्छा नहीं होता कि श्रद्धा के नाम पर अपने पुरखों का श्राद्ध करने के बजाय सही माने में उन के आदर्शों को जीवन में उतार कर उन के प्रति श्रद्धा जताई जाती. साथ ही, मृत परिजन के अंतिम संस्कार के तौर पर उस के अंगों का दान कर किसी को जीवन दे कर भी उस के प्रति श्रद्धा जताई जा सकती है और मृत परिजन को दूसरे के शरीर में जीवित भी रखा जा सकता है. दुनियाभर में विभिन्न समुदायों के बीच अपनेअपने धर्म की श्रेष्ठता को ले कर हिंसा की मिसालें हैं. लेकिन सही माने में सर्वश्रेष्ठ धर्म नाम से कोई धर्म नहीं है. सभी धर्म बहुत बड़ा झूठ और बहुत बड़ी बेईमानी हैं. धर्म के तमाम कर्मकांड से बचना ही अच्छा है

१०वां विश्व हिंदी सम्मेलन व्यावसायिक हिंदी के नाम

देश के हृदय मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के लाल परेड ग्राउंड पर 10 से 12 सितंबर तक आयोजित 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन कई माने में सार्थक रहा. जिस का सार यह निकला कि हिंदी को कहीं से कोई खतरा नहीं है, जरूरत उसे कारोबारी शक्ल देने की है. अभी तक हुए 9 सम्मेलनों में बड़ी चिंता हिंदी के अस्तित्व को ले कर जताई जाती रही थी. वह इस सम्मेलन में नहीं दिखी तो वजह बड़ी अहम थी कि आयोजक विदेश मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार ने साहित्यकारों की सीमारेखा खींच दी थी. साफसाफ कहा जाए तो हिंदी के स्वयंभू ठेकेदारों को मनमानी नहीं करने दी गई जिस से हिंदी का वास्तविक वैश्विक व व्यापारिक पहलू सामने आ पाया. यह बहुत जरूरी भी हो चला था कि हर दफा हिंदी को साहित्यकारों के नजरिए से ही देखने की गुलामी से छुटकारा पाया जाए. इसीलिए इस सम्मेलन का मुख्य विषय साहित्य के बजाय हिंदीभाषा विस्तार एवं संभावनाएं रखा गया था. समकालीन हिंदी साहित्यकारों के लिए हालांकि यह बात तकलीफदेह थी कि साहित्य की यानी उन की अनदेखी कर भाषा की बात ज्यादा की जा रही है. साहित्यकारों की इस पीड़ा से आम लोगों ने कोई वास्ता न रख उन की बातों व आलोचनाओं पर ज्यादा तवज्जुह नहीं दी.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सम्मेलन के मुख्य संरक्षक थे और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस की अध्यक्ष थीं. सम्मेलन में मुद्दे की बात थी हिंदी का आधुनिक और तकनीकी स्वरूप, उस का मोबाइल और कंप्यूटर में प्रयोग और इस से भी अहम था हिंदी के डिजिटल व रोजगारोन्मुखी होने पर चर्चा, जिस ने आयोजन को एक बेहतर मुकाम पर ला खड़ा कर दिया. 39 देशों से आए प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में भाग लिया. देशविदेश के तकरीबन 6 हजार प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में शिरकत की. उन्होंने अपनी बात कही, दूसरों की सुनी और 12 विभिन्न विषयों पर सत्रों की चर्चा के बाद निष्कर्ष भी दिए जिन से हिंदीप्रेमियों को सुखद एहसास यह हुआ कि हिंदी उत्तरोत्तर तरक्की कर रही है, कुछ विसंगतियां हैं लेकिन वे किसी किस्म का खतरा नहीं हैं क्योंकि उन्हें दूर किया जा सकता है. सम्मेलन में कुछ विवाद भी हुए जो आमतौर पर ऐसे आयोजनों में अकसर होते हैं.

मोदी के नाम रहा शो

सम्मेलन की एक महीने पहले से जिस तरह तैयारियां चल रही थीं उस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा कुछ उल्लेखनीय नहीं था. सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान ने इश्तहारों व बयानों के जरिए नरेंद्र मोदी को फोकस पर ला दिया था. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग सरकार के सवा साल के कार्यकाल में यह पहला भाषाई और बड़ा गैर राजनीतिक सम्मेलन था. लिहाजा, इन दोनों के लिए यह जरूरी हो गया था कि सम्मेलन सफल हो. सभी की उत्सुकता और जिज्ञासा नरेंद्र मोदी में सिमट कर रह गई थी. अपने भाषण में नरेंद्र मोदी ने यह साबित कर दिया कि हिंदी की संरचना से वे भले ही ज्यादा परिचित न हों पर वे उस की व्यावसायिक उपयोगिता व आर्थिक महत्त्व बखूबी समझते हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आने वाले दिनों में भाषा एक बड़ा मार्केट बनने वाली है. सदी के अंत तक 90 फीसदी भाषाएं खत्म हो जाएंगी. विशेषज्ञों का अनुमान है कि भविष्य में केवल 3 भाषाओं का ही दबदबा रहेगा-अंगरेजी और चाइनीज के साथ हिंदी उन में से एक होगी. इसलिए कोशिश यह होनी चाहिए कि हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं को कैसे टैक्नोलौजी के लिए परिवर्तित करें. आने वाले वक्त में डिजिटल वर्ल्ड बड़ा रोल अदा करने वाला है. भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी मंशा साफ कर दी कि हिंदी को टैक्नोलौजी और कारोबारी भाषा बनाने के लिए जरूरी है कि बेवजह के पूर्वाग्रह न थोपे जाएं. अपने भाषण में उन्होंने अंगरेजी के 50 शब्दों का ठीक वैसा ही प्रयोग किया जैसा कि आम भारतीय करते हैं. त्योहार को फैस्टिवल, हावभाव को एक्सप्रैशन, बाजार को मार्केट और तकनीक को टैक्निक कहते हुए उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अंगरेजी मिश्रित हिंदी यानी कुछ हद तक हिंगलिश से परहेज करने की नहीं बल्कि उसे अपनाने की जरूरत है.

यह भाषण खासतौर से हिंदी के ठेकेदारों के लिए अप्रत्याशित था जो उम्मीद कर रहे थे कि प्रधानमंत्री की हैसियत से नरेंद्र मोदी हिंदी की मर्यादा का ध्यान रखेंगे. इस मर्यादा का मतलब है भारीभरकम संस्कृत के कठिन शब्दों का इस्तेमाल करेंगे, अंगरेजी का विरोध करेंगे और हिंदी के गिरते स्तर पर चिंता जताएंगे. प्रधानमंत्री बनने से पहले ही नरेंद्र मोदी बगैर किसी लिहाज के कहते रहे हैं कि वे व्यापारी हैं और एक के दस बनाना जानते हैं. विश्व हिंदी सम्मेलन में उन की यह मंशा साफ दिखी कि बजाय हिंदी पर भारीभरकम विवाद और बहस करने के, उस के व्यावसायिक पहलू पर जोर देते हुए उसे भुनाना चाहिए. भारत एक बड़ा बाजार है, इसलिए भाषा के जरिए उसे भुनाना चाहिए, इस बात का असर आम लोगों पर पड़ा जो हिंदी और ऐसे सम्मेलनों को महज लेखकों व साहित्यकारों की भाषा समझते हैं.

एक तरह से वे हिंदीभाषियों को यह आश्वस्त करने में सफल रहे कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी सुरक्षित है. जरूरत और कोशिश इस बात की है कि इस से पैसा बनाया जाए क्योंकि औसत रूप से हिंदीभाषियों के मुहताज सभी संपन्न देश हैं. हिंदी को इस नजरिए से पहली बार दिखाने वाले नरेंद्र मोदी ने दोटूक कहा कि जब भाषा ही नहीं बचेगी तो साहित्य कहां रहेगा. यानी साहित्यकारों का वजूद भाषा से है और भाषा का अस्तित्व साहित्यकारों से है, यह गलतफहमी छोड़ना ही बेहतर होगा. साफ यह भी हुआ कि हिंदी अब धर्मगुरुओं, साहित्यकारों, प्रकाशकों और लेखकों की ही नहीं, बल्कि उस आम आदमी की मिल्कियत है जो बाजार का बड़ा और अहम हिस्सा हैं. इस सम्मेलन की एक ख्ूबी, जो किसी को नजर नहीं आई, वह यह थी कि हिंदीभाषियों को अब मुनासिब सामाजिक सम्मान मिलने लगा है, वरना अब से कोई 25 साल पहले हिंदी गंवारों व जाहिलों की भाषा कही व समझी जाती थी. तब हिंदी बोलने वालों को 2 वर्गों के लोग खासतौर से प्रताडि़त करते थे. पहला वर्ग 10 फीसदी अंगरेजी जानने वालों का था जिस की नजर में हिंदी भाषी पिछड़े व मुख्यधारा से कटे थे. यह अभिजात्य वर्ग अपने अंगरेजीदां होने का रोब झाड़ते हर तरफ दबदबा बनाए हुए था. दूसरे वर्ग में अच्छी हिंदी जानने वाले और लेखक व साहित्यकार थे जो यह मानते और सोचते थे कि हिंदी के असल जानकार वे ही हैं.

लेकिन फिर पहले अंगरेजी और बाद में कंप्यूटर ने एक सामाजिक क्रांति सी ला दी. धीरेधीरे टूटीफूटी ही सही, सभी अंगरेजी बोलने लगे और देखते ही देखते हर क्षेत्र में छा गए. दरअसल, इस वर्ग, जिस में पिछड़े और दलित ज्यादा तादाद में थे, में आत्मविश्वास और स्वाभिमान अंगरेजी ने भरा. अब न तो साहित्यकारों का दबदबा है न फर्राटे से अंगरेजी की जुगाली करने वालों का. सम्मेलन में इस बात को तूल देने की कोशिश की गई कि अंगरेजी नई पीढ़ी को बरबाद कर रही है जबकि हकीकत तो यह है कि अंगरेजी हिंदीभाषियों को इज्जतदार और मुनासिब जगह दिला रही है. इस की बेहतर मिसाल खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. क्या कोई प्रधानमंत्री की इस बाबत बड़े पैमाने पर आलोचना कर सकता है या उन्हें चुनौती दे सकता है कि उन्होंने क्यों नए जमाने की हिंदी बोली जिस में अंगरेजी शब्दों का उपयोग या मिश्रण अनिवार्य हो चला है.

उत्थान और पतन की दास्तां

तीनदिवसीय सम्मेलन के 12 सत्रों में आमंत्रित अतिथियों ने खुल कर विचार रखे और सुझाव दिए पर भाषामय हो गए. भोपाल में चर्चा इस बात की ज्यादा रही कि अंगरेजी इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह व्यापारिक भाषा भी है. 95 देश अंगरेजीभाषी हैं और तमाम अंतर्राष्ट्रीय कामकाज इसी भाषा में होते हैं. हिंदी उस की जगह तो नहीं ले सकती लेकिन इसे व्यापारिक और डिजिटल बनाया जाए तो रोजगार के दरवाजे जरूर खुलेंगे बशर्ते विदेशी कंपनियों को हिंदी में कामकाज करने के लिए बाध्य किया जाए. सम्मेलन की घोषणा के साथ ही यह बात स्पष्ट कर दी गई थी कि इस में न तो हिंदी की गौरवगाथा का गान किया जाएगा और न ही अंगरेजी से होने वाले नुकसानों पर जुगाली. इसीलिए माइक्रोसौफ्ट और गूगल जैसी नामी आईटी कंपनियों सहित एप्पल और सीडैक के अधिकारियों, प्रतिनिधियों ने हिंदी के लिए अपनी योजनाएं प्रदर्शनी और भाषणों के जरिए बताईं. मोबाइल और इंटरनैट पर कैसे हिंदी का प्रयोग किया जाए, यह भी इन कंपनियों से आए प्रतिनिधियों ने सिखाया.

सम्मेलन में छिटपुट चर्चा संस्कृत की भी हुई कि वह लुप्त हो गई है पर इस की वजहों पर किसी ने ध्यान खींचने की हिम्मत नहीं की. संस्कृत आम लोगों की नहीं बल्कि ब्राह्मणों की भाषा रही है. सीधेसीधे कहा जाए तो धार्मिक भाषा होने के चलते यह लुप्त सी हो गई और इस से किसी का नुकसान नहीं हुआ है. उलटे, फायदा ही हुआ है. जैसे आईटी कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाने के लिए हिंदी अपना रही हैं वैसे ही पंडेपुजारी संस्कृत को अपने रोजगार की भाषा बना चुके हैं. फर्क इतना है कि आईटी कंपनियां पढ़ेलिखे युवाओं को नौकरियां दे रही हैं. उलट इस के, पंडेपुजारी संस्कृत के बलबूते पर धर्म की व्याख्या के नाम पर मलाई जीमते हैं और लोगों को गुमराह करते हैं.

जाहिर है किसी की भाषा का उत्थान और पतन 2 बातों पर निर्भर करता है, पहली, इसे बोलने वालों की संख्या और मंशा, दूसरी, इस का व्यावसायिक प्रयोग. इसलिए अब आईटी कंपनियां हिंदी को ही बचाने की बात करने लगी हैं और वे अपना कारोबार बढ़ा रही हैं. जमाना तकनीक का है, डिजिटल है. लिहाजा, हिंदी को भी बदलना पड़ेगा और हिंदीभाषियों को भी. इसे बदलने का सीधा मतलब है कि हिंदी की गरिमा के प्रति बेवजह की जिद छोड़ी जाए. इसे साहित्यकारों के चंगुल और प्रभाव से मुक्त किया जाए जिन से किसी को कुछ हासिल नहीं होता.

औनलाइन बनाम औफलाइन कारोबार

जो काम पहले मोलभाव करने हेतु शहरशहर और बाजारबाजार घूम कर किया जाता था वही काम अब मनमुताबिक घरबैठे तसल्लीबख्श तरीके से होने लगा है. यह सब उच्च तकनीक का कमाल है जिस ने जीवन को अत्यधिक सुगम व आसान बना दिया है. औनलाइन यानी ई कारोबार ने अब लगभग संपूर्ण देश में अपने पांव पसार लिए हैं जिस से अकूत मुनाफा कमाने वाले पुरातन सोचधारी खुदरा कारोबारी दिग्गज पस्त हैं. देश के अधिकांश राज्यों में किया जा रहा सुनियोजित विरोध इस बात का द्योतक है कि जैसेजैसे ई कौमर्स प्लेटफौर्म यानी औनलाइन कारोबार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है वैसेवैसे मुनाफा कमा रहे बड़ेबड़े कारोबारी जमीन पर आते जा रहे हैं. यहां तक कि घाटे व बरबादी के लपेटे में आते जा रहे टाटा, भारती व रिलायंस सरीखे बड़ेबड़े थोक व खुदरा कारोबारी दिग्गज भी अपनी नीतियों में परिवर्तन करने को मजबूर हो रहे हैं.

औनलाइन कारोबार यह बताता है कि उद्योग जगत में अकूत मुनाफा है और हमारे कारोबारी दिग्गज किस कदर मुनाफा कूट रहे हैं. औनलाइन कारोबारी कंपनियों-फ्लिपकार्ट, अमेजौन व स्नैपडील ने पिछली दीवाली पर 90 फीसदी तक की जबरदस्त छूट दे कर समस्त खुदरा कारोबारी दिग्गजों का बंटाधार कर दिया. अपने देश में मुनाफाखोरी का आलम यह है कि फैक्टरी से निकल 10 रुपए की कीमत वाला उत्पाद जनता तक पहुंचतेपहुंचते 100 रुपए से भी ज्यादा की दर पर बिकता है. औनलाइन कारोबार के तहत इसीलिए जनता को बेहद कम कीमत पर उत्पाद उपलब्ध हो जाते हैं क्योंकि मार्जिन बेहद कम लिया जाता है. पर अति अल्प मार्जिन के बावजूद औनलाइन कारोबार करने वाली सभी कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं. देश में औनलाइन कारोबार में लगी कंपनियों की संख्या लगभग 300 है. इन में कई कंपनियां केवल चुनिंदा उत्पादों में ही डील करती हैं जैसे जबोंग फैशन व लाइफस्टाइल क्षेत्र में ही डील करती है और शूस्टोर केवल जूतों व उन से संबंधित उत्पाद जनता को उपलब्ध कराता है जबकि दूसरी और स्नैपडील की टोकरी में सभी तरह के उत्पाद हैं.

भारत में औनलाइन कारोबार करने वाली प्रमुख कंपनियों में फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, मिंत्रा, जबोंग, शिंपलाई, होमशौप-18, इन्फीबीम, शौपक्लूज, ईबे व अमेजौन इंडिया कारोबार व राजस्व के अलावा बेहतर सेवाएं प्रदान करने के लिहाज से शीर्ष पर हैं. देश में औनलाइन कारोबार का जनक व पितामह फ्लिपकार्ट को माना जाता है. वर्ष 2007 में स्थापित इस उपक्रम का सालाना राजस्व (वर्ष 2013-14) 179 करोड़ रुपए है. अमेजौन इंडिया और स्नैपडील 169 तथा 154 करोड़ रुपए के साथ क्रमश: दूसरे व तीसरे पायदान पर हैं. इन कंपनियों की आय का प्रमुख स्रोत विक्रेता से कमीशन, अपने पोर्टल पर उत्पाद सूचीबद्ध कराने की फीस के अलावा प्रति उत्पाद बिक्री मार्जिन और विज्ञापन शुल्क है. हकीकत में मोटा मुनाफा कमा रही ये कंपनियां कागजों पर तो भारीभरकम घाटा (वर्ष 2013-14 के दौरान क्रमश: 400, 321, 265 करोड़ रुपए) दिखाती चली आ रही हैं पर संपूर्ण उद्योग जगत व विश्लेषक इसे स्वीकार नहीं करते. सभी का एकसिरे से यह मानना है कि चूंकि यह कारोबार पूरी तरह दलाली या कमीशनखोरी पर आधारित है और इस में सेवा प्रदाता को माल खरीदना या स्टौक करना नहीं पड़ता (दूसरे शब्दों में, अपने पल्ले से कुछ भी निवेश नहीं करना पड़ता) इसलिए किसी भी किस्म के घाटे का सवाल ही पैदा नहीं होता.

पिछली दीवाली पर फ्लिपकार्ट, स्नैपडील व गूगल के विशेष त्योहारी मेलों व डिस्काउंट पर एलजी, सोनी, लेनेवो व सैमसंग के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुख्य वितरकों ने बताया कि कंपनियां इस तरह के अवसर बाबत कम लागत व अधिक मार्जिन वाले एक्सक्लूसिव उत्पाद बनाती हैं. ये उत्पाद बाजारों में नहीं उपलब्ध होते. इस के अलावा पुराने आउटडेटेड माल को भी अच्छेखासे मार्जिन पर बेच दिया जाता है. सोनी के एक वितरक के मुताबिक, उस मेले में कंपनी ने अपने बंद हो चुके एक पुराने आउटडेटेड एलईडी टैलीविजन को

80 हजार रुपए की एमआरपी दिखा कर 24 हजार रुपए में बेच कर प्रति सैट 1,700 रुपए कमा लिए. औफलाइन कारोबारियों की तर्ज पर अब तो ये औनलाइन कारोबारी कंपनियां चालू त्योहारी सीजन में बड़े पैमाने पर चीन का सस्ता सामान सीधे वहां के निर्माताओं को और्डर दे कर बुक करा रही हैं. वे निर्माता अपने भारतीय वितरकों अथवा वैंडरों के माध्यम से सीधे इन कंपनियों के उपभोक्ताओं तक डिलीवरी करेंगे. इस प्रकार बगैर किसी भंडारण की व्यवस्था और भारीभरकम निवेश के ये कंपनियां केवल कमीशन मात्र से मुनाफा अर्जित करेंगी. यानी खुदरा व लघु दुकानदारों की तरह इन कंपनियों ने भी चीन का हर तरह का बेहद सस्ता व तड़कभड़क वाला माल बेच कर मुनाफा कमाने का रास्ता अख्तियार कर लिया है. चीन का माल बेहद सस्ता तो होता है लेकिन उस की कोई गारंटी नहीं होती. इस प्रकार यह बिना जोखिम मुनाफे वाला रास्ता है.

आधुनिकता एवं इंटरनैट के इस युग में जहां वैश्विक स्तर पर, कारोबार को चलाने व अधिक से अधिक ग्राहक बटोरने बाबत नित नए हथकंडे व तरीके अपनाए जा रहे हैं वहीं अपने देश में अभी तक भी ज्यादातर कारोबार करने का वही पुराना घिसापिटा तरीका चला आ रहा है और यही कारण है कि कोई भी नया तरीका बड़ेबड़े खुदरा कारोबारी दिग्गजों को न केवल तकलीफ प्रदान करता है बल्कि उन के मुनाफे में सेंध भी लगाने लगता है. एकाधिकारपरस्त माहौल में पलेबढ़े प्रतिष्ठित सूरमा उद्यमी वैश्विक स्तर के इस तरह के खुले व प्रतिस्पर्धी माहौल के आदी नहीं हैं. इसीलिए जहां नई पीढ़ी इसे हाथोंहाथ ले रही है वहीं पुरातन सोच इस के विरोध पर उतारू है. इस से पहले भी यही वर्ग विदेशी खुदरा स्टोरों के विरोध में उतरा था.

इस के बावजूद सब या अधिकांश उत्पादों में तो नहीं, पर तमाम उत्पादों के बाबत औनलाइन कारोबार की लोकप्रियता व महत्त्व इतनी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है कि भारत के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा लिखी गई नई किताब बिक्री के लिए केवल औनलाइन ही उपलब्ध कराई गई और उपलब्धता के 2 दिनों के दरम्यान ही बैस्ट सेलर की सूची में दर्ज हो गई. जैसा कि किताब के प्रकाशक ने करार किया था. यह किताब केवल एक औनलाइन कारोबारी कंपनी द्वारा ई कौमर्स के प्लेटफौर्म पर ही बेची गई. इस से पहले भी अपने देश में बड़ीबड़ी हस्तियों द्वारा लिखी कई नई किताबें केवल औनलाइन बेची गईं और उन से अच्छा मुनाफा कमाया गया. हालत यह है कि एक तरफ तो बड़ेबड़े क्रौसवर्ड व स्टारमार्क सरीखे खुदरा पुस्तक विक्रेता व प्रकाशक ग्राहकों की बेरुखी यानी टोटा झेल रही हैं दूसरी ओर औनलाइन कारोबारी कम कीमत पर पुस्तकें बेचने में नित नए रिकौर्ड स्थापित कर रहे हैं. इस का मतलब कुछ चीजों में अब कारोबारी परिदृश्य व तरीका बिलकुल बदलता जा रहा है.

और जहां तक सस्तेमंदे का सवाल है, देश के प्रबुद्ध खुदरा कारोबारियों ने इस का तोड़ भी निकाल लिया है. इन औनलाइन स्टोरों पर अब केवल वही चीजें सस्ती मिलती हैं जिन पर स्वयं निर्माता कंपनी डिस्काउंट दे रही है या फिर उन का इंतजाम चीन से किया गया है या कोई नया विशेष ऐसा उत्पाद जो बाजार में उपलब्ध न हो जैसे कोई पुस्तक विशेष या मोबाइल, रेफ्रिजरेटर आदि का विशेष मौडल. थोक व खुदरा कारोबारी अब दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से बिना वैट आदि कर चुकाए चीन निर्मित सस्ता माल ला कर इन औनलाइन स्टोरों से भी कम कीमत पर बेच रहे हैं. गत माह इस प्रतिनिधि ने एचपी कंपनी के ‘1020 प्लस’ नामक मौडल के पिं्रटर की कीमत स्नैपडील, फ्लिपकार्ट व एचपी के स्वयं के औनलाइन स्टोर पर मालूम की. इन पर क्रमश: 8,100, 8,175 व 8,456 रुपए की कीमत पाई गई जबकि स्थानीय वितरक ने मात्र 7,300 रुपए में यह प्रिंटर दे दिया. किताबें, मोबाइल, कपड़े आदि कुछ चुनिंदा चीजें ही ऐसी हैं जो औनलाइन स्टोरों पर बाजार से थोड़ी कम कीमत पर अब भी मिल रही हैं.

देश की 90 फीसदी आबादी पुरातन सोच की है और आज भी छोटीबड़ी खरीदारी के लिए अपने आसपास या शहर के मुख्य बाजारों में स्थित अपनी खास जानपहचान वाली दुकानों पर ही जाना पसंद करती है. और शायद यही कारण है कि बैस्ट प्राइस व वीमार्ट जैसे बड़े खुदरा स्टोर व बड़ेबड़े शौपिंग मौल्स आए तो बड़े धूमधड़ाके से थे पर बंद चुपचाप रातोंरात हो गए. वास्तविकता यह है कि आज की तारीख में देशभर में मात्र एक फीसदी मौल्स ही कामयाबी का दरजा प्राप्त कर पाए हैं. भारत की जनता से खराब रिस्पौंस मिलने से नए मौल्स संबंधी तमाम परियोजनाएं शुरू होने से पहले ही समाप्त पर दी गईं और बिलकुल यही हाल व रिपोर्ट औनलाइन कारोबार की है.

समाज की 95 फीसदी से भी ज्यादा की आबादी अब भी अपनी रोजमर्रा की दूध, ब्रैड, कलम, कौपी, आटा, सीएफएल, सब्जी आदि प्रकार की जरूरतें आसपास के छोटे दुकानदारों व बाजारों से पूरी करती है. एक आम आदमी या उपभोक्ता कलम, सेब, ब्रैड आदि तुरंत नजदीकी दुकान अथवा घर के पास से आवाज देते निकल रहे ठेले वाले से ले लेता है. वह जरा भी प्रतीक्षा नहीं करता परंतु नए मोबाइल या कोई पुस्तक के लिए आज औनलाइन और्डर करना ज्यादा पसंद करता है. इस के लिए वह बड़े आराम से 4-5 दिन प्रतीक्षा कर लेता है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो औनलाइन व औफलाइन दोनों ही कारोबारों की प्रकृति में जमीनआसमान का अंतर है. घर में यदि अचानक मेहमान आ जाए तो आप तत्काल निकटतम दुकान से समोसा आदि मंगवा कर चाय या ठंडा बना लेंगे पर औनलाइन और्डर कर के प्रतीक्षा नहीं कर सकते. व्यावहारिक रूप से किसी भी दशा में यह संभव है ही नहीं और हो भी नहीं सकता. इंटरनैट, फोन व तमाम दुकानदारों तथा हर वर्ग के तमाम उपभोक्ताओं से बात कर के ये निष्कर्ष निकाले गए हैं. चौंकाने वाली बात यह भी है कि देश का 78 फीसदी तबका कारोबार की इस नई विधा से या तो अनभिज्ञ है या उसे इस का इस्तेमाल करना नहीं आता या वह इन चक्करों में नहीं पड़ना चाहता. अधिकांश युवा आज ब्रैंडेड जूते, चप्पल, चश्मा, मोबाइल, किताबें, वौलेट आदि लग्जरी वस्तुएं तो औनलाइन मंगवा रहे हैं पर तमाम बातचीत, सर्वे व निरीक्षण में पाया गया है कि वे भी अपनी रोजमर्रा की आम जरूरत का सामान स्वयं अपने क्षेत्र की नजदीकी दुकान से ही लाते हैं. और यह स्थिति गुड़गांव, बेंगलुरु व नोएडा जैसे इलाकों की भी है जहां बड़ी तादाद में छोटाबड़ा हर स्तर का कामकाजी तबका रहता है.

हकीकत तो यह है कि औनलाइन स्टोर लोकप्रिय भले ही हो रहे हों पर आम खुदरा व्यापारियों पर इस का असर बिलकुल भी नहीं पड़ा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बड़े महानगर मेरठ में एक वैरायटी स्टोर के मालिक वैभव का मानना है, ‘‘जमाना चाहे कितना भी क्यों न बदल जाए भारतीय समाज खरीदारी हमेशा दुकानों में जा कर ही करना पसंद करता है. ज्यादा वैरायटी, कीमतों में मोलभाव, उधार, सामान की वापसी व अदलाबदली आदि कई कारण इस के साथ जुड़े हुए हैं. हमारी बिक्री में जरा भी फर्क नहीं पड़ा.’’

इसी तरह अलका सूट एंपोरियम के मालिक सुधीर चावला भी इस से सहमत हैं. महिला ग्राहकों से खचाखच भरे अपने एंपोरियम में बमुश्किल समय निकाल कर चावला बताते हैं, ‘‘नईनई वैरायटी, कीमत में मोलभाव, उधार व मुफ्त की मनचाही फिटिंग के चलते आज भी ग्राहक स्थानीय दुकानों की ओर ही दौड़ता है.’’ एक मोबाइल शौप के मालिक चरनजीत मानते हैं, ‘‘मोबाइल की बिक्री में भारी गिरावट आई है.’’सहारनपुर स्थित एसजी आटोमेशन के मालिक विकास का मानना है, ‘‘पैन ड्राइव, माऊस, स्पीकर आदि छोटीमोटी चीजों का उठान तो कम अवश्य हुआ है पर कंप्यूटर, पिं्रटर आदि में कोई खास फर्क नहीं है.’’  पर मेरठ में विभिन्न इलैक्ट्रौनिक आइटमों के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बहुत बड़े वितरक आहूजा ऐंड संस के मालिक के मुताबिक, इन औनलाइन स्टोर्स से उन्हें काफी फायदा हुआ है और इस के लिए उन्होंने अपने यहां एक अलग प्रकोष्ठ स्थापित किया है. उन के मुताबिक, अधिकांश ई कंपनियों ने स्थानीय डिलीवरी के लिए स्थानीय कारोबारियों से अनुबंध कर रखा है और यदि उन के इलाके का या बिलकुल पड़ोस का ग्राहक भी औनलाइन कंपनियों से सामान मंगवाता है तो डिलीवरी वे ही देते हैं.

तहकीकात से एक बात और निकल कर आई कि तमाम ई कंपनियां हैंडबैग, कुशन, टेबलक्लौथ आदि बुटीक संबंधी अनगिनत फैंसी आइटम घरेलू कामकाजी महिलाओं से और्डरों के आधार पर बनवा कर सीधे अपने उपभोक्ताओं को आपूर्ति करती हैं. इसी प्रकार कीमतों की तुलना कर के तमाम बड़े खुदरा व गलीमहल्ले के लघु स्तरीय दुकानदार इन कंपनियों से भी भारी मात्रा में सामान मंगवाते हैं पर ऐसा चाइनीज आइटमों में ज्यादा होता है. यानी उपभोक्ता स्तर का मुद्दा छोड़ दें तो एक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकल कर सामने आता है कि अधिकांश मामलों में ई कंपनियां और दुकानदार दोनों ही एकदूसरे का व्यावसायिक उपयोग करते हुए एकदूसरे से लाभान्वित हो रहे हैं.

आजकल इंटरनैट व मोबाइल फोन के माध्यम से कहीं से किसी से भी संपर्क किया जा सकता है. आगरा के सदर बाजार स्थित ताल गिफ्ट एंपोरियम के मालिक अरुण शर्मा ने बताया कि उन की बिक्री पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा है पर वे भी अकसर दुकान में बेचने के लिहाज से ब्रैंडेड चाइनीज आइटम औनलाइन कंपनियों से मंगवा लेते हैं. उन का कहना है कि कई बार तो ऐसे आइटमों से उन की बिक्री में इजाफा ही हुआ है. उदयपुर के मशहूर शौपिंग पौइंट हाथी पोल स्थित आर्ट गैलरी के मालिक राज कमल चौबे ने बताया, ‘‘हम तो कई औनलाइन कंपनियों को और्डर पर माल सप्लाई भी करते हैं.’’ पहले केवल फुटकर कारोबार कर रहे चौबे साहब अब थोक व्यापारी भी हो गए हैं. कुल मिला कर निष्कर्ष यह कि अभी औनलाइन कंपनियों को देश के घरघर में पैठ बनाने में कम से कम 10 साल लगेंगे क्योंकि अभी यह हर वर्ग व हर वस्तु तक नहीं पहुंच पाई हैं. फिलहाल इस की अधिकांश पैठ दिल्ली, पुणे व मुंबई जैसे महानगरों व युवा वर्ग तक सीमित है. भारत को कारोबार के इस नए फंडे को अपनाना होगा वरना जैसे हम अन्य तमाम क्षेत्रों में दुनिया से बहुत पीछे हैं वैसे ही इस में भी हो जाएंगे. क्योंकि अब हालत यह होती जा रही है कि अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने तमाम नए उत्पाद केवल औनलाइन प्लेटफौर्म पर ही उपलब्ध करा रही हैं और खुदरा बाजार में बैठे उन के बड़ेबड़े वितरकों के पास उन के उस उत्पाद की कोई जानकारी नहीं होती.

पिछली दीवाली पर कई टीवी निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऐसा प्रयोग किया जोकि सफल रहा. कंपनियों ने तमाम नएपुराने मौडल नएनए सांचे में बेहद कम यानी त्योहारी कीमत पर औनलाइन प्लेटफौर्म के जरिए लौंच किए और भारी सफलता प्राप्त की. खुदरा बाजार में मौजूद त्योहारी छूट व गिफ्ट आदि योजनाओं के बावजूद औनलाइन प्लेटफौर्म पर नए उत्पादों की कीमत काफी कम थी. त्योहारों पर इस तरह के प्रयोगों की सफलता को देखते हुए अन्य कंपनियों ने भी यही रास्ता अख्तियार करना शुरू कर दिया है. अब अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने नए उत्पाद बेहद किफायती दरों पर केवल औनलाइन ही लौंच कर रही हैं और सफलता के नित नए रिकौर्ड बना रही हैं. इस खेल में भारतीय कंपनियों की उपस्थिति न के बराबर है

बदलनी होगी पुरानी सोच

यह विडंबना ही है कि भारतीय कंपनियां अब भी इसे हलके में ले रही हैं और वही रास्ता अपनाने पर तुली हुई हैं जो विदेशी खुदरा स्टोरों के बाबत अपनाया गया था. देशी कारोबारी युवा पीढ़ी के बदलते रुझान को पकड़ कर समय के साथ चलने से अब भी पीछे हट रहे हैं जो कि आखिरकार उन के लिए ही नुकसानदेह सिद्ध होगा. वैसे भी किसी भी कारोबारी मौडल का सफल या विफल होना जनता यानी उपभोक्ता पर निर्भर करता है, कारोबारियों की सोच पर नहीं. और शायद इसीलिए करोड़ों की लागत व निवेश से बने बड़ेबड़े मौल्स फेल हो गए पर उन्हीं के आसपास मौजूद छोटीछोटी दुकानें ठाठ से चल रही हैं. यह आश्चर्य ही है कि एक ओर जहां देश की नव युवा पीढ़ी इस बदलाव को तेजी से अपना रही है वहीं हमारा कारोबारी समुदाय अब भी अपनी पुरातन सोच पर ही अड़ा हुआ है. कुल मिला कर आम जनता व सभी प्रकार के उपभोक्ताओं को कारोबार की इस नई विधा से केवल इतना फायदा जरूर हुआ है कि उन्हें वाजिब कीमत पर घरबैठे हर तरह की चीज मयस्सर हो जाती है और वे ई कंपनियों के दाम विश्लेषित कर स्थानीय दुकानदारों से मोलभाव कर लेते हैं. दूसरी ओर कारोबार के लिहाज से ये दोनों ही विधाएं एकदूसरे के सहयोग से खूब फलफूल रही हैं

शाकाहार बनाम मांसाहार

मानव जन्मजात शाकाहारी नहीं है और उन कुछ जीवों में से है जो शाकाहारी और मांसाहारी दोनों हैं पर शाकाहारी होने को श्रेष्ठता और शुद्धता का प्रमाणपत्र मान कर गले में लटका कर चलना भी गलत होगा. हिंसा बुरी है पर यह बुराई दूसरे आदमियों के प्रति ज्यादा है, पशुपक्षियों के लिए नहीं जो केवल जिंदा रहने के लिए एकदूसरे को खाते रहते हैं. मानव के अलावा अन्य पशु या जीव केवल आनंद के लिए या अपना शक्ति क्षेत्र स्थापित करने के लिए हिंसा नहीं अपनाते. जिन लोगों ने धर्म के नाम पर हाल ही में शाकाहारी थोपने की कोशिश की, जिसे आखिरकार उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय ने रोक दिया, वे हिंसक नहीं हैं क्या, दावा कर सकते हैं? जैन धर्म में सैकड़ों राजा हुए हैं जिन्होंने सेनाएं खड़ी कीं, युद्ध किए और हिंसा की और तभी आप को जैन मंदिर व जैन मूर्तियां दिखती हैं. ये अपनेआप पैदा नहीं हुईं. ये राजा के सैनिकों, जिन के पास हथियार होते थे, जो शत्रु को नष्ट करते थे, द्वारा स्थापित राज में कर वसूल कर बनवाए गए थे. वे आज शाकाहारी मत दूसरों पर थोपें, यह गलत है. सरकार का जैनियों के प्रति मोह अनायास नहीं उमड़ा. यह सोचीसमझी साजिश है जो मांसाहारी मुसलमानों को परेशान करने मात्र के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है. इस से जिन व्यवसायियों का धंधा खराब होता है उन में हिंदू और मुसलिम दोनों हैं. हां, हिंदू आमतौर पर नीची जातियों के होते हैं जिन्हें सवर्ण अछूतों की श्रेणी में रखते हैं. उन का धंधा बंद कर के इस व्यापार में लगे सभी पर नियंत्रण लगेगा. गो वध को बंद कर भी यही किया जा रहा है. वातावरण पैदा किया जा रहा है कि मानो गो हत्या केवल मुसलिम करते हैं. मुसलिमों में गोभक्ति नहीं है क्योंकि उन्हें ब्राह्मणों को गोदान नहीं करना होता पर उस का व्यापार हिंदूमुसलिम दोनों ही करते हैं और ये व्यापारी गरीब बेचारे हैं.

मांसाहारी होना कोई अच्छा नहीं है पर युगों से मांस खा कर ही आदमी आज अरबों की तादाद में हैं. यह प्राकृतिक है. अब मांस पैदा करने के लिए अन्न उगाना पड़ रहा है क्योंकि जिन पशुओं को मार कर खाया जाता है वे सब शाकाहारी हैं. शाकाहार का प्रचलन दुनियाभर में बढ़ रहा है. सरकार, संघ और जैनी चाहें तो इस का आंदोलन खड़ा कर सकते हैं. पर जिन लोगों को नशीली दवाएं रोकने की चिंता नहीं, तंबाकू रोकने की चिंता नहीं, पैर फैलाती शराब को रोकने की चिंता नहीं, वे अचानक पशुप्रेमी हो गए कि दूसरे की थाली पर हमला करने लगे. यह आश्चर्य की बात है. यह धार्मिक संकीर्णता का प्रयोग है जो वैचारिक संकीर्णता की ओर ले जाएगा. यह टैस्ट करना है कि लोग भगवा सिद्धांतों को वोट से कितना जोड़ते हैं. अभी तक तो जनमानस ने अच्छे दिनों की चाहत में अपना खानपान बदलना स्वीकार नहीं किया है, सोच तो दूर की बात है.

समाचार

अम्मान : आने वाले वक्त में खेती के लिए भारत की उर्वरक जरूरतें जार्डन से पूरी की जाएंगी. यह फास्फेट की कमी से जूझ रही भारतीय कृषि के लिए बहुत राहत देने वाली बात?है. जार्डन द्वारा भारत की फास्फेट जरूरतों को पूरा करने के लिए वहां दुनिया के सब से बड़े फास्फोरिक अम्ल संयंत्र का आगाज हो चुका है. पश्चिम एशिया के 6 दिनों के दौरे की शुरुआत में जार्डन पहुंचे भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और जार्डन के शाह अब्दुल्ला द्वितीय ने मिल कर इस संयंत्र का उद्घटन किया. यह संयंत्र भारतीय सहकारी उर्वरक कंपनी इफको (इंडियन फार्मर्स फर्टीलाइजर्स कोआपरेटिव लिमिटेड) के सहयोग से जेपीएमसी (जार्डेनियन फास्फेट माइंस कंपनी) ने बनाया है. अम्मान से 325 किलोमीटर दूर स्थित इशीदिया शहर में बने इस संयंत्र की बुनियाद साल 2007 में रखी गई थी. इस बात का यकीन दिलाया जा रहा?है कि इस संयंत्र के चालू होने से?भारत की कृषि क्षेत्र की तमाम उर्वरक से जुड़ी जरूरतें पूरी हो सकेंगी. इस संयंत्र में बनने वाले फास्फोरिक एसिड का जार्डन के अकाबा बंदरगाह से गुजरात के कांडला बंदरगाह को निर्यात किया जाएगा. 860 मिलियन डालर यानी करीब 56 अरब रुपए की लागत से बने इस संयंत्र में इफको का आधे से ज्यादा यानी 52 फीसदी हिस्सा है.

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और शाह अब्दुल्ला ने जब इस संयंत्र का उद्घाटन किया तो उसे अल हुसैनिया महल में बड़े स्क्रीन पर देखा गया. इस उद्घाटन समारोह से पहले जार्डन की राजधानी अम्मान पहुंचने पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का जार्डन के शाह अबदुल्ला ने तहे दिल से जोरदार स्वागत किया. आधुनिक विचारों वाले शांत मिजाज अरब मुल्क जार्डन में दूसरे अरब देशों की तरह तेल का भंडार नहीं है, मध्यपूर्व के इस देश की अर्थव्यवस्था खनिज पर टिकी है. फास्फेट इस का खास उत्पाद है. इसीलिए भारत की इफको कंपनी ने जार्डन के साथ मिल कर फास्फेट के उत्पादन के लिए ‘जिफको’ नामक कंपनी का गठन किया?है. बहरहाल, इफको का यह नया कदम भारतीय खेती में नया मोड़ ला सकता है.  

सफेद मक्खी का बढ़ता प्रकोप

चंडीगढ़ : सफेद मक्खी एक ऐसा कीड़ा है, जो हरे पत्तों में लगता है और फसल को बरबाद कर देता है. खेतों में सफेद मक्खी का बढ़ता हमला किसानों के लिए एक नई मुसीबत ले कर आया है. मौसम की बेरुखी के साथसाथ मानसून के सही समय पर न आने के कारण खेत तो पहले से ही बरबाद हो रहे थे, ऊपर से सफेद मक्खी के आतंक ने किसानों की रहीसही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया है.

कपास, बाजरा, ग्वार व दूसरी फसलों को सफेद मक्खी ने जम कर नुकसान पहुंचाया है. किसान इस हमले से भौंचक हैं. सफेद मक्खी ने खेतों में जो भी नुकसान किया है, उस के आकलन के लिए हरियाणा सरकार ने विशेष जांच के आदेश दिए हैं और जल्दी ही रिपोर्ट देने को कहा है. कृषि विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रदेश के 14 जिलों में सफेद मक्खी का आतंक है. भिवानी, हिसार, फतेहाबाद, सिरसा, झज्जर, महेंद्रगढ़, पलवल, जींद, पानीपत, गुड़गांव, रेवाड़ी, मेवात, सोनीपत व रोहतक जिलों में इस मक्खी से बाजरा व ग्वार की फसलों को ज्यादा नुकसान हुआ है.      

किसानों के मददगार रहाणे

मुंबई : भारतीय क्रिकेट टीम के दिग्गज बल्लेबाज अजिंक्य रहाणे ने महाराष्ट्र के किसानों की मदद के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को 5 लाख रुपए का चैक दिया है. फडणवीस ने खुद ट्वीट कर के इस बात की जानकारी देते हुए रहाणे का शुक्रिया अदा किया है. पूर्व भारतीय कप्तान राहुल द्रविड़ को अपना आदर्श मानने वाले रहाणे भी द्रविड़ जैसे शांत मिजाज व नेकदिल इनसान हैं. किसानों के प्रति उन का जज्बा काबिलेतारीफ है.               

मुद्दा

अमूल का इश्तिहार विवाद गहराया

नई दिल्ली : अमूल की बाजार में एक अलग ही पहचान है. अमूल ब्रांड के दूधदही के साथसाथ छाछमक्खन की भी बाजार में काफी मांग है. इस के इश्तिहार भी आएदिन अखबारों के अलावा टेलीविजन पर  दिख जाते हैं. आजकल एक इश्तिहार ने काफी बवाल मचा रखा है. अमूल का यह इश्तिहार विवादों में घिरता दिखाई दे रहा है. बता दें कि अमूल ने अपनी 5वीं डिजिटल फिल्म का इश्तिहार दिया, जिस का विषय था कि हर घर अमूल घर प्यारा बंधन. इसे जीसीएमएमएफ  इश्तिहार एजेंसी ने बनाया था. जब यह इश्तिहार लाइव हुआ, तो तमाम ग्राहकों के साथसाथ पूरे बाजार जगत में भी इस की अच्छीखासी चर्चा हुई. इस इश्तिहार में एक छोटी सी लड़की घर में नन्हे भाई के आने को ले कर खूब खुश होती है, पर विरोध करने वाले तमाम जागरूक लोगों के मुताबिक घटनाक्रम कुछ यों आगे बढ़ता है, जिस से लगता है कि लड़के को लड़की के मुकाबले ज्यादा अहमियत दी जा रही है. यूट्यूब पर एक यूजर ने लिखा कि अमूल ने लिंगभेद को बढ़ावा दिया है. वहीं दूसरे यूजर ने कहा है कि प्रगतिशील भारत में किसी इश्तिहार के द्वारा ऐसी छवि पेश करना वाकई शर्मनाक है. अमूल का यह नया इश्तिहार बाजार में हलचल मचा रहा है, पर दबी जबान में कोई कुछ कह नहीं रहा है.

अमूल तो अपना बचाव करेगा ही, नहीं तो बाजार में उस की साख पर बट्टा लग जाएगा. देखते हैं कि यह इश्तिहार डब्बाबंद होता है या लोगों की जबान पर चढ़ता है.            

मुहिम

खाली जमीनों पर बच्चों के स्टेडियम

लखनऊ : बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए ही लोक निर्माण एवं राजस्व मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने निर्देश दिए हैं कि गांव और न्याय पंचायत लेवल पर तालाबों व चारागाहों की खाली पड़ी जमीनों पर प्राइमरी लेवल के बच्चों के लिए स्टेडियम बनाए जाएं. उन्होंने राजस्व विभाग के अधिकारियों को गांवों का दौरा कर के खाली पड़ी जमीनों को चिन्हित करने के निर्देश दिए हैं. शिवपाल यादव की कोशिश क्या रंग लाती है, यह तो आने वाला समय ही बता पाएगा, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि शिवपाल यादव द्वारा उठाया गया कदम एक अच्छी सोच है. खुदगर्जी के दौर में बच्चों के बारे में सोच कर मंत्री ने मिसाल पेश की है.                                                      ठ्

मदद

तालाब निर्माण पर अनुदान

पटना : राज्य में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को तालाब बनाने के लिए 90 फीसदी तक का अनुदान दिया जाएगा. तालाब के साथ ही उन्हें ट्यूबवेल और पंपिंग सेट की खरीद पर कुल मूल्य का 90 फीसदी अनुदान मिलेगा. पिछली 6 सितंबर को कैबिनेट की मंजूरी के बाद पशुपालन और मत्स्य संसाधन विभाग ने इस योजना को समूचे राज्य में लागू कर दिया है. इस योजना के बारे में विभाग के मंत्री बैद्यनाथ साहनी ने बताया कि बिहार में मछलीपालन और उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एकसाथ कई योजनाओं को मंजूरी दी गई?है. आज की तारीख में राज्य में जितनी मछली की खपत होती है, उस का एक तिहाई दूसरे राज्यों से मंगवाना पड़ता है. गौरतलब है कि राज्य जल संसाधनों की कमी नहीं होने के बाद भी मछली उत्पादन में काफी पीछे?है. बिहार में 93.29 हजार हेक्टेयर में तालाब और पोखर हैं. इस के अलावा 25 हजार हेक्टेयर में जलाशय और 3.2 हजार हेक्टेयर में सदाबहार नदियां हैं. एससीएसटी किसानों को पोखर और तालाब निर्माण के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है.

तालाब को बनाने पर जितना खर्च आएगा, उस खर्च का 90 फीसदी हिस्सा सरकार मुहैया कराएगी. तालाबों में पानी भरने के लिए 1045-1045 ट्यूबवेलों और पंपिंग सेटों पर भी 90 फीसदी अनुदान दिया जाएगा. बिहार में मछली की सालाना खपत 5.81 लाख टन है और वहां 4.32 लाख टन का ही उत्पादन होता है. सूबे में सालाना 7460 लाख मछलीबीज की जरूरत होती?है, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद महज 4810 लाख मछलीबीज का ही उत्पादन हो पाता?है.          

जज्बा

नाना ने खोली नाम संस्था

मुंबई : गरीब किसानों की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती. खेतीबारी में हो रहे नुकसान से परेशान किसान खुदकुशी कर रहे हैं और उन के घर में रोटी के लाले पडे़ हैं.  इस दर्द को समझा है हिंदी सिनेमा के मशहूर अभिनेता नाना पाटेकर ने, क्योंकि वे खुद भी एक किसान हैं. किसान ही एक किसान का दर्द समझ सकता है. उन्होंने नाम फाउंडेशन नामक एक संस्था बनाई है. वे इस संस्था के जरीए गरीब किसानों की मदद करना चाहते हैं. नाम फाउंडेशन को बनाने के पीछे नाना पाटेकर और उन के साथी ऐक्टर मकरंद अनस्पुरे हैं. इन दोनों ने मिल कर ही इस संस्था को अपनी पहचान दी है. उन्होंने इस साल 113 अकाल पीडि़त परिवारों की मदद की. नाना पाटेकर ने कहा कि फाउंडेशन ने खाता खोलने के पहले दिन ही 80 लाख रुपए जमा कर लिए थे. लोग इस में इतनी मदद कर रहे हैं कि उन्हें 400-500 करोड़ रुपए तक मिलने की उम्मीद है. 

हालात

महंगाई की मार खाद्य तेलों पर भी

नई दिल्ली : कोई कुछ भी कहे, पर महंगाई की काट किसी भी सरकार के पास नहीं है. महंगाई के नाम पर पहले प्याज ने लोगों की हालत खराब की, उस के बाद अरहरमसूर की दाल ने, लोगों का बजट बिगाड़. अब खाने वाला तेल भी महंगा होने जा रहा है, वह भी तीजत्योहार के सीजन में. सूत्रों के मुताबिक किसानों को तिलहन उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने और घरेलू उद्योग को बढ़ावा देने के लिए बाहर से आने वाले खाद्य तेलों पर 5 फीसदी आयात शुल्क बढ़ा दिया गया है. सरकार के इस कदम से घरेलू बाजार में खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ सकती हैं. वित्त मंत्रालय के तहत काम करने वाले केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड ने क्रूड और रिफाइंड दोनों किस्म के तेलों पर आयात शुल्क बढ़ा दिया है. कू्रड खाद्य तेलों के आयात पर अब साढे़ 7 फीसदी के बजाय साढे़ 12 फीसदी की दर से शुल्क लगेगा, जबकि रिफाइंड तेल पर 15 फीसदी के बजाय 20 फीसदी शुल्क लगेगा. इस फैसले से तिलहन की फसल पैदा करने वाले किसान खुश होंगे. जब देश में तिलहन का उत्पादन बढ़ेगा, तो यहां तेल निकालने वाली कंपनियों को भी फायदा होगा. हालांकि इस फैसले से घरेलू बाजार में खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ सकती है. बता दें कि तिलहनी फसलें अब फायदे का सौदा न होने की वजह से किसान इन्हें छोड़ कर ज्यादा फायदा देने वाली फसलें बोते हैं. इस वजह से अपने देश में तिलहनी फसलें नहीं हो पा रही हैं.

कृषि मंत्रालय के मुताबिक, देश में साल 2015-16 में तिलहन का उत्पादन 198.90 लाख टन होने का अनुमान है, जबकि साल 2014-15 के दौरान देश में तिलहन का उत्पादन 266.75 लाख टन हुआ था. यानी आसार अच्छे नहीं हैं.

योजना

किसानों की फोन डायरेक्टरी

पटना : बिहार के सभी प्रगतिशील किसानों की फोन डायरेक्टरी बनाने का काम शुरू किया गया है. उस में किसानों के फोन नंबरों व पतों के साथ उन की उपलब्धियों के बारे में पूरी जानकारी दर्ज की जाएगी. कृषि महकमे का दावा है कि इस से खेती की ट्रेनिंग ट्रेंड किसानों के जरीए आम किसानों को देने से उन किसानों के साथसाथ खेती को भी काफी फायदा पहुंचेगा. किसानों को खेती के गुर बताने और उन्हें ट्रेंड करने के लिए प्रगतिशील किसानों की मदद ली जाएगी. इस के अलावा किसानों को ट्रेनिंग देने के लिए साल भर का कैलेंडर तैयार किया जा रहा है. इस के अलावा प्रगतिशील किसानों को दूसरे राज्यों में भेज कर उन्हें वहां की खेती के तौरतरीकों से वाकिफ कराने की भी योजना है. आम किसानों को हर फसल के बेहतरीन उत्पादन के तरीके सिखाने के लिए प्रगतिशील किसानों के खेतों तक भी ले जाया जाएगा. इस से किसानों को प्रैक्टिकल जानकारी हासिल हो सकेगी.

इस के साथ ही हर प्रखंड में किसी कृषि वैज्ञानिक को यह जिम्मेदारी दी जाएगी कि वे सरकारी योजनाओं को खेतों में उतारने से पहले अफसरों की मदद करें. वे अनाज उत्पादन से ले कर भंडारण तक के बारे में किसानों को जानकारी देंगे. इस के लिए जिला व प्रखंड स्तर पर वैज्ञानिकों, कृषि विभाग के अफसरों और दूसरे संबंधित विभागों के अफसरों की टीमें बनाने पर काम चल रहा?है. विभाग का मानना?है कि इस से जहां किसानों और खेती की तमाम समस्याओं का निबटारा हो सकेगा, वहीं तमाम किसानों को उन के खेत पर ही खेती की नई जानकारी मिल सकेगी. कृषि महकमे द्वारा बनाई गई यह योजना वाकई काबिलेतारीफ है.              

अजूबा

भेड़ से निकली ऊन का रिकार्ड

मेलबर्न : एक भेड़ से कितनी ऊन मिल सकती है? 2 किलोगाम, 5 किलोग्राम या फिर 10 किलोग्राम? लेकिन आस्ट्रेलिया में एक भेड़ से तकरीबन 40 किलोग्राम ऊन निकाली गई. यह अपनेआप में एक अनोखा रिकार्ड है. यह भेड़ कैनबरा के बाहरी इलाके में मिली थी, जो कई साल से जंगलों में भटक रही थी. कैनबरा इलाके के रहने वालों ने झाड़ी के आसपास इस विशालकाय भेड़ को देखा और स्थानीय आस्ट्रेलियन एनिमल वेलफेयर एजेंसी को खबर दी. वहां के एक अधिकारी ने बताया कि यह भेड़ सामान्य आकार से काफी बड़ी थी. इस भेड़ के शरीर पर काफी ऊन थी. इस भेड़ के बाल इतने घने थे कि ट्रिमिंग के बाद उस के शरीर से 40 किलोग्राम ऊन निकली. उन्होंने आगे बताया कि इस भेड़ का वजन लगातार बढ़ता जा रहा था. इस वजह से उसे चलने में भी परेशानी हो रही थी. ऊन निकालने में कहीं उस की जान न चली जाए, इसलिए कोई भी भेड़ से ऊन निकालने को राजी नहीं हुआ. बाद में आस्ट्रेलियन एनिमल वेलफेयर के मुलाजिमों ने ऊन कतरने के लिए 4 बार के नेशनल अवार्ड विजेता इयान इल्किंस को बुलाया. इयान इल्किंस ने इस काम को एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने कामयाबी भी पाई.    

तकनीक

मनरेगा की निगरानी स्मार्ट फोन से

पटना : बिहार में मनरेगा के तहत चलने वाले कामों की निगरानी के लिए स्मार्ट फोन का इस्तेमाल किया जाएगा. ग्रामीण विकास विभाग इस के लिए मनरेगा योजनाओं से जुड़े सभी मुलाजिमों को स्मार्ट फोन मुहैया कराएंगी. इन में प्रोग्राम औफिसर, जूनियर इंजीनियर, पंचायत टेक्नीकल असिसटेंट और पंचायत रोजगार सेवक को शामिल किया गया है. इस साल के दिसंबर महीने तक सभी मुलाजिमों को स्मार्ट फोन के साथ सिम कार्ड और साफ्टवेयर दे दिए जाएंगे. उस के बाद स्मार्ट फोन के जरीए ही मनरेगा की योजनाओं की मौनेटरिंग की जा सकेगी. मुलाजिमों के द्वारा स्मार्ट फोन के जरीए भेजे गए फोटो को विभाग की बेवसाइट पर डाला जाएगा. उस में काम शुरू होने से पहले, काम शुरू होने, आधा काम होने और काम खत्म होने के बाद की सारी तसवीरें रहेंगी. विभाग के सूत्रों के मुताबिक मनरेगा की आकस्मिकता निधि से स्मार्ट फोन की खरीदारी की जाएगी.       

रुतबा

यूरोपीय देशों में भी दार्जिलिंग चाय का जलवा

कोलकाता : यूरोपीय देशों में दार्जिलिंग की चाय खूब खरीदी जाती है, क्योंकि वहां चाय के शौकीन कुछ ज्यादा ही हैं. वहां हर घर में महंगी से महंगी चाय पी जाती है. जबान पर चढ़ चुकी इस चाय के दीवाने तमाम लोग हैं. यूरोपीय देशों में भारी मात्रा में चाय की खरीदारी इस बात का संकेत है कि दार्जिलिंग चाय असोसिएशन साल 2016 से दार्जिलिंग की ही चाय बेचेगी. बता दें कि यूरोप में पहले मिश्रित चाय बेची जाती थी, जिस में सिर्फ  दार्जिलिंग की चाय ही नहीं हुआ करती थी, बल्कि दूसरी चायों को भी इस में मिलाया जाता था. पर इस मिश्रित चाय को भी दार्जिलिंग की चाय के नाम से ही बेचा जाता था. दार्जिलिंग चाय असोसिएशन के चेयरमैन ने बताया कि उम्मीद है कि यूरोपीय संघ भारत से और चाय की खरीदारी करेगा, क्योंकि दार्जिलिंग चाय के नाम पर बिकने वाली मिश्रित चाय को हटाने और 2016 से ग्राहकों को ताजा दार्जिलिंग चाय बेचने का फैसला किया गया है. दार्जिलिंग टैग लगने का मतलब है कि यूरोपीय देशों में सिर्फ  दार्जिलिंग में पैदा हुई चाय को ही दार्जिलिंग चाय के नाम से बेचा जाए. जो लोग दार्जिलिंग चाय के नाम से मिश्रित चाय बेचते थे, उन को दार्जिलिंग चाय बेचने के लिए 5 साल का समय दिया गया था. यह समय सीमा साल 2016 में खत्म हो रही है.

यूरोपीय आयोग ने साल 2011 में दार्जिलिंग की चाय को पीजीआई प्रोडक्ट के तौर पर रजिस्टर्ड किया था. हालांकि यूरोपीय संघ का निर्यात तो बढ़ा है, लेकिन पिछले साल से चाय के दाम नहीं बढ़े हैं और उत्पादन की लागत हर साल बढ़ रही है. अनुमान है कि साल 2015 के आखिर तक तकरीबन 40 लाख किलोग्राम दार्जिलिंग चाय का निर्यात होगी जो 2014 की तुलना में ज्यादा होगा. दार्जिलिंग की 87 कंपनियों ने इस साल 80 लाख किलोग्राम चाय का उत्पादन किया है.                                                                                 

योजना

एम्स में औषधीय पौधों की नर्सरी

पटना : एम्स के कैंपस में औषधीय पौधों की नर्सरी लगाई जाएगी. नर्सरी में औषधीय पौधों की 300 से ज्यादा प्रजातियां होंगी. देश के कुल 7 एम्स में से पटना एम्स में पहली बार इस तरह का प्रयोग किया जा रहा?है. इस साल के आखिर तक 15 हजार वर्गफुट में नर्सरी शुरू की जाएगी. इस योजना पर 15 लाख रुपए खर्च होंगे. नर्सरी में लगे औषधीय पौधों पर रिसर्च होगी कि कौन से पौधे किन बीमारियों के इलाज में कारगर हो सकते?हैं. नर्सरी में हिमालय क्षेत्र के साथ तटीय क्षेत्र के भी औषधीय पौधे लगाए जाएंगे. एम्स के डायरेक्टर जीके सिंह ने बताया कि दवाओं के क्षेत्र में नए प्रयोग करना और रिसर्च के लिए औषधीय पौधों की नर्सरी डेवलप करना जरूरी?है. इस के सथ ही नर्सरी में ग्रीन हाउस भी बनाया जाएगा, जिस से तय और जरूरी तापमान पर पौधों को उगाया जा सके. औषधीय पौधों से एम्स के छात्रों को रिसर्च करने में काफी मदद मिलेगी. गौरतलब है कि मधुमेह के इलाज में गुलमार, प्रतिरोधी कूवत बढ़ाने में गुरूची, ब्लडप्रेशर के लिए अश्वगंधा व सर्पगंधा, किडनी के लिए पुनर्नवा, हड्डी रोग के लिए गुग्गुल व रासना, पेट की बीमारियों के लिए शंखी, जिराक व विपली, दिमागी रोग के लिए ब्राह्मी व शंखपुष्पी, दिल के लिए पुष्परमूल व अर्जुन नाम के औषधीय पौधों का इस्तेमाल होता है.    

योजना

सरकारी रकम से उपजाऊ जमीन

जयपुर : महात्मा गांधी मनरेगा योजना में अब किसान ‘अपना खेत, अपना काम’ योजना के तहत अपने खेतों की दशा सुधार सकेंगे. साथ ही मवेशियों के लिए टीन शेड बनवा कर उन्हें पनाह देने की भी सरकार की योजना है. इस के लिए पात्र किसानों को 3 लाख रुपए तक की रकम मनरेगा के जरीए दी जाएगी. जानकारी के अनुसार ‘अपना, खेत अपना काम’ योजना के तहत किसान अपने खेतों में भूमि समतलीकरण व भूमि सुधार के लिए छोटे बांध व तलाई वगैरह से उपजाऊ मिट्टी ला कर डाल सकेंगे, जिस से भूमि ज्यादा उपजाऊ होगी. साथ ही किसान मेंड़ बांधने के काम भी कर सकते हैं. लघु सिंचाई योजना में नहर बनाने व जलभराव वाले इलाके में पानी की निकासी के लिए नाली बनाने जैसे काम किए जाएंगे. इस के साथ ही किसान अपने खेतों में सिंचाई व बागबानी के लिए विभिन्न योजनाओं के तहत अनुदान राशि भी हासिल कर सकते हैं. फायदा पाने वाले किसानों के पास ग्राम पंचायत द्वारा जारी किया  जौबकार्ड होना जरूरी है  उस के पिता या पति के नाम खातेदारी भूमि होना जरूरी है. ऐसे परिवार जिन के कब्जे की भूमि की खातेदारी पैतृक नाम से है, वे सादा कागज पर ग्राम पंचायत में आवेदन कर सकते हैं, जिस में मूल खातेदार से संबंध का जिक्र करते हुए नोटेरी से शपथपत्र सत्यापित करा कर लगाना होगा. 

पड़ताल

फसल बीमा धांधली की जांच

पटना : बिहार में फसल बीमा के मामले में बड़े पैमाने पर हो रही धांधली को रोकने के लिए बीमा कराने वाले किसानों की एलपीसी (भूमि स्वामित्व कागजात) की जांच का काम शुरू किया गया?है. गैर ऋणी किसानों द्वारा बीमा के लिए दिए गए जमीन के कागजातों की खासतौर पर जांच की जा रही?है. सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक विभाग ने बीमा कंपनी और संबंधित बैंकों से 1 महीने के अंदर गैर ऋणी किसानों के एलपीसी की जांच करने को कहा?है. जांच के दौरान फसल बीमा का लाभ लेने वाले सभी किसानों को खुद पूरे कागजात के साथ जांच के लिए हाजिर होना पड़ेगा. जांच और सत्यापन की समीक्षा का काम सभी जिलों के जिलाधीशों को सौंपा गया है. सहकारिता विभाग के ज्वाइंट सेक्रेटरी के मोहन ने बताया कि जांच के दौरान किसी भी तरह की गड़बड़ी मिलने पर किसानों को फसल बीमा का फायदा नहीं मिलेगा और आगे भी उन किसानों की फसलों का बीमा नहीं किया जाएगा. फसल बीमा में काफी गड़बड़ी को देखते हुए इस साल भदई धान और भदई मकई के बीमा का जिम्मा एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी आफ इंडिया को सौंपा गया है.

इस के अलावा किसी प्राइवेट बीमा कंपनी को फसल बीमा का काम नहीं दिया गया है. प्रीमियम की दर फसल बीमित राशि की ढाई फीसदी तय की गई है. गौरतलब है कि छोटे और सीमांत किसानों को बीमा प्रीमियम की राशि में 10 फीसदी का अनुदान भी दिया जाएगा. इस अनुदान की राशि का बोझ केंद्र और रज्य सरकारें मिल कर उठाती हैं. सरकार द्वारा किसानों के हित में उठाए गए कदमों के बीच धांधली और बेईमानी के कारनामे वाकई शर्मनाक हैं.    

तकनीक

ईमेल व वाट्सएप देंगे जानकारी

बीकानेर : ईमेल और वाट्सएप से खेती की जानकारी मिलने की बात सुन कर आप हैरान जरूर होंगे, लेकिन सूबे में अब ऐसा ही होने जा रहा है. स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, श्रीगंगानगर केंद्र अब ‘इनफारमेशन एंड कम्यूनिकेशन टेक्नोलाजी’ पर काम करेगा. इस से किसानों को घर बैठे खेतीबारी की नई तकनीकों की जानकारी मिलेगी.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत विश्वविद्यालय को अनुसंधान के 3 प्रोजेक्ट मिले हैं, जिन की लागत 1 करोड़ 58 लाख रुपए तय की गई है. फिलहाल केंद्र कपास उत्पादक किसानों को जानकारी मुहैया कराएगा. कपास की खेतीबारी के मामले में किसान मोबाइल पर वाट्सएप व ईमेल के जरीए कृषि वैज्ञानिकों से सीधे जुड़ सकेंगे. एसएमएस तकनीक भी इस में शामिल है.             

सुविधा

कृषि भवन में लगी पारदर्शी सेवा मशीन

बस्ती : किसानों को खेती व खेती से संबंधित योजनाओं की जानकारी देने के लिए बस्ती के कृषि भवन में संचार सुविधाओं से लैस पारदर्शी किसान सेवा मशीन लगाई गई?है. टच स्क्रीन सुविधा से लैस इस मशीन से किसानों को फसलों में लगने वाले कीटबीमारियों की रोकथाम, बीजों की प्रजातियों व खाद की मात्रा वगैरह की जानकारी मिलेगी. उपनिदेशक कृषि डा. पीके कन्नौजिया ने बताया कि इस मशीन से किसानों को सीजनवार फसलों की जानकारी उंगली रखने पर मिल जाएगी. इस मशीन से किसानों को फसल के लिए खेत की तैयारी, मिट्टी का चयन, खादउर्वरक की मात्रा, सिंचाई व भंडारण सहित तमाम चीजों की जानकारी हासिल होगी. अकसर छपे हुए साहित्य को किसानों तक पहुंचाने में देरी हो जाती?है, ऐसे में किसान खुद कृषि भवन में जा कर खेती से जुड़ी जानकारियां ले सकते हैं.                                                                       

तरक्की

मगही पान खोलेगा अकल का ताला

पटना : बिहार का मशहूर मगही पान अब विदेशियों की बंद अकल का ताला खोलने को तैयार है. इस साल के आखिर तक मगही पान समेत जर्दालु आम, कतरनी चावल व शाही लीची अमेरिका, यूरोप और खाड़ी देशों में धमाल मचाने लगेंगे. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद पूरी तरह से जैविक खाद से इन उत्पादों को तैयार कर रहा है. इस से जहां राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा मिल रहा है, वहीं विदेशों में इन उत्पादों को सप्लाई करने से किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी.

कृषि मंत्री विजय कुमार चौधरी ने बताया कि विदेश भेजे जाने वाले उत्पादों के रजिस्ट्रेशन का काम चल रहा?है. एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट एक्सपोर्ट डेवलपमेंट औथरिटी (एपिडा), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और बिहार कृषि विभाग द्वारा मिल कर विदेशों में भेजे जाने वाले उत्पादों की लिस्ट तैयार की जा रही है और उसी आधार पर उन के उत्पादन की तैयारी की जा रही है. इस से उत्पाद विदेशों में मानदंड पर पूरी तरह से खरे उतर सकेंगे. बिहार के नालंदा, नवादा, गया व मगध इलाकों में बड़े पैमाने पर मगही पान की खेती होती है. यह हाई क्वालिटी का पान माना जाता है और इसे ज्यादा समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है.

नालंदा में स्थित पान अनुसंधान केंद्र उम्दा किस्म के मगही पान के उत्पादन में मदद करता?है. इस के साथ ही चीन की लीची को टक्कर देने वाली बिहार की शाही लीची का मुजफ्फरपुर, मोतिहारी और समस्तीपुर जिलों में भरपूर उत्पादन होता?है. मिठास से भरपूर इस लीची में गूदा ज्यादा होता है और बीज काफी पतला होता है. इसी तरह से भागलपुर और बांका जिलों में पैदा होने वाले कतरनी चावल की सुगंध और स्वाद के दीवाने देशविदेश में हैं. इसे पुलाव और खीर बनाने में काफी इस्तेमाल किया जाता है.         

सख्ती

सहकारी समितियों पर लगेगा ताला

पटना : बिहार की 89 सहकारी समितियों पर हमेशा के लिए ताला लटकेगा. जिन सोसाइटियों ने औडिट रिपोर्ट नहीं सौंपी है, उन को बंद कर दिया जाएगा. बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की मनमानी पर नकेल कसने के लिए रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने यह कदम उठाया है. रिजर्व बैंक के बिहारझारखंड के रीजनल डायरेक्टर मनोज कुमार वर्मा ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि 91 सहकारी समितियों को औडिट रिपोर्ट देने को कहा गया था, जिन में से केवल 2 ने ही रिपोर्ट जमा कराई?है. इस के बाद ही बाकी 89 सोसाइटियों को बंद करने की सिफारिश राज्य से की गई?है. इस के अलावा 170 अन्य संस्थाओं को भी औडिट रिपोर्ट देने का निर्देश दिया गया है. जो संस्थाएं समय पर रिपोर्ट नहीं देंगी, उन्हें भी बंद कर दिया जाएगा. मनोज कुमार वर्मा ने बताया कि नान बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के खिलाफ बिहार में कुल 78 केस दर्ज हैं. इन केसों के निबटारे के लिए हर कमिशनरी में विशेष अदालत के गठन पर विचार चल रहा है. ‘प्रोटेक्शन औफ इंटरेस्ट औफ डिपौजिटर्स एक्ट’ का उल्लंघन कर के अगर राज्य के किसी भी हिस्से में नान बैंकिंग कंपनी चलती?है, तो इस के लिए उस इलाके के थानेदार जिम्मेदार होंगे.

इस के सथ ही सही तरीके से काम करने वाली वित्तीय कंपनियों को नाहक परेशान न करने की भी हिदायत दी गई?है. इस से नान बैंकिंग कंपनियों पर लगाम लगेगी और आम जनता ठगी की शिकार नहीं हो सकेगी. कामचोर व काहिल किस्म की सहकारी समितियों के खिलाफ रिजर्व बैंक द्वारा उठाया गया यह कदम काबिलेतारीफ कहा जा सकता?है. इस सख्त कदम से अन्य सहकारी समितियां नसीहत ले सकती हैं.                      

सुविधा

माइक्रो एटीएम से बैंकिंग सुविधा

जयपुर : सामाजिक सुरक्षा पेंशन, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, छात्रवृत्ति व जननी सुरक्षा योजना के हकदारों को गांवों में ही बैंकिंग सुविधा मुहैया कराने के लिए प्रदेश सरकार ने तैयारी कर ली है. इस के लिए योजनाओं के हकदारों को माइक्रो एटीएम सुविधा से जोड़ा जाएगा. इस के अलावा प्रदेश सरकार की ओर से चुनी गई ग्रामपंचायतों में जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है. योजना के तहत सरकारी योजनाओं के हकदारों को ग्राम पंचायत के आईटी सेंटर पर बैंकिंग सुविधा से जोड़ा जाएगा. माइक्रो एटीएम मशीनें लगा कर एटीएम कार्ड की मदद से लोगों को फायदा दिया जाएगा. एटीएम कार्ड के जरीए हकदार 1 दिन में ज्यादा से ज्यादा 1 हजार रुपए निकाल सकेंगे. इस से ज्यादा रकम के लिए उन्हें अगले दिन का इंतजार करना होगा. माइक्रो एटीएम सेवा का फायदा लेने के लिए हकदार को भामाशाह व आधार कार्ड का रजिस्ट्रेशन कराना होगा. 

लापरवाही

अनाज उठाव में हो रही कोताही

पटना : बिहार में खाद्य सुरक्षा को ले कर चल रही योजनाओं के लिए मिलने वाले अनाजों की खेप के उठाव में लापरवाही बरती जा रही?है. अफसरों की लापरवाही की वजह से जिलों में गरीबों को समय पर सस्ता अनाज नहीं मिल रहा?है. पूर्णियां, भागलपुर, समस्तीपुर, सुपौल, खगडि़या, बेतिया, मुंगेर, मधुबनी, रोहतास, सीतामढ़ी, अररिया, जहानाबाद, किशनगंज व कटिहार वगैरह कई जिलों में अनाज उठाव का काम कछुए की चाल चल रहा?है. खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के सूत्रों के मुताबिक विभाग की समीक्षा बैठक में इस बात का खुलासा हुआ?है. राज्य के सभी 38 जिलों में 35 फीसदी से भी कम अनाज का उठाव होने से गरीबों को ससता अनाज देने की मुहिम को झटका लगा है. समय पर अनाज का उठाव नहीं होने से अनाज के लैप्स होने का खतरा भी मंडरा रहा?है, लेकिन अफसर इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे?हैं. विभाग के सचिव पंकज कुमार ने सभी जिला प्रबंधकों को समय पर अनाज उठाने और बांटने की हिदायत दी?है.        

बेबसी

फसल बीमा का फायदा नहीं

जयपुर : खरीफ सीजन साल 2015-16 में फसल बीमा कराए किसानों को बीमा का फायदा नहीं मिलने वाला है. वहीं सूखे के कारण होने वाले फसल के नुकसान में राहत देने को ले कर सरकार पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है. उधर, सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों की मानें तो सरकार की हालत फिलहाल ऐसी नहीं है कि वह किसानों को राहत की रकम का भुगतान कर सके. ऐसे में यह साल किसानों के लिए बेकार साबित होने वाला है. गौरतलब है कि कृषि बीमा योजना का निबटारा इलाके के हालात के आधार पर होता है. नुकसान का अंदाजा एक फार्मूले के आधार पर लगया जाता है और उस फार्मूले के कारण कई किसान फसल का नुकसान होने बावजूद बीमे की रकम पाने से रह जाते हैं. सूखे के कारण फसल में होने वाले नुकसान में राहत दिए जाने को ले कर अभी तक स्थिति साफ नहीं हो सकी है. किसानों को राहत मिलने की उम्मीद कम ही नजर आ रही है. सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधि तो पहले ही मान चुके हैं कि सरकार के पास राहत देने के लिए रकम ही नहीं है. प्रदेश के कई जिलों में रबी में हुए नुकसान की अभी तक दूसरी किस्त ही नहीं बांटी गई है, तो ऐसे में खरीफ में हुए नुकसान की रकम कहा से बांटी जाएगी. राज्य सरकार द्वारा हर साल बीमा की राशि तो किसानों को दिए जाने वाले ऋण में से काट ली जाती है, लेकिन फसल के नुकसान पर बीमा राशि नहीं दी जाती है.  

तकनीक

खेती में नवाचार अपनाएं किसान

करौली : करौली जिले के कलेक्टर विक्रम सिंह ने आत्मा योजना के तहत होने वाले कार्यक्रम की समीक्षा करते हुए कहा कि किसान खेती व पशुपालन के मामले में नवाचार अपनाएं. उन्होंने खेतीबारी अफसरों को किसानों की समस्याओं को तुरंत निबटाने के लिए भी निर्देश दिया. उन्होंने गांवों में होने वाली किसान गोष्ठियों में फिल्में व कामयाब किसानों की कहानियां दिखाने की बात कही और किसान स्वयं सहायता समूह बना कर किसानों को खेतीबारी के यंत्र भी मुहैया कराने के निर्देश दिए. उन्होंने डेरी कारोबार बढ़ाने के लिए किसानों को ट्रेनिंग देने की जरूरत बताई.  

तोहफा

कृषि मेले में सब से अच्छी गाय हुई सम्मानित

पंतनगर : उत्तराखंड के पंतनगर विश्वविद्यालय में 4 दिनों तक कृषि मेला चला. इस दौरान पशुचिकित्सा एवं पशुपालन विज्ञान महाविद्यालय के मैदान में पशुप्रदर्शनी लगाई गई. इस मेले के तीसरे दिन पशुपालकों ने अपनेअपने पशुओं का प्रदर्शन किया. इस पशुप्रदर्शनी को 8 हिस्सों में बांटा गया था. इस पशुप्रदर्शनी में फुलसुंगा गांव के बच्चा यादव की हालस्टीन दुधारू गाय को सब से अच्छा पशु चुना गया. पशुचिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय के डाक्टर जीके सिंह ने इस गाय को रिबन बांध कर सम्मानित किया. साथ ही हालस्टीन गाभिन गाय वर्ग में ओमप्रकाश चौधरी की गाय, हालस्टीन बछिया वर्ग में कालू कुरैशी की बछिया, दुधारू जर्सी गाय वर्ग में विजय प्रसाद की गाय पहले स्थान पर रहीं. इस के अलावा गाभिन जर्सी गाय वर्ग में सुनील यादव की गाय, साहीवाल दुधारू गाय वर्ग में अंकित सिंह की गाय और जर्सी बछिया वर्ग में आतिश की बछिया पहले स्थान पर रहीं.

सवाल किसानों के

सवाल : मुझे जैविक खेती और पौलीहाउस में आर्गेनिक खेती के बारे में जानकारी दें?

-अरविंद कुमार, पश्चिमी चंपारन, बिहार

जवाब : जैविक खेती चाहे खुले में करें या पौलीहाउस के अंदर, उस का तरीका एक ही होता है. इस में रासायनिक उर्वरकों व रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता. उन के स्थान पर गोबर की खाद, कंपोस्ट खाद, केंचुए की खाद, हरी खाद, एजोटो वैक्टर एजोस्पारिलम, पीएसबी व वीएएम वगैरह जैविक खादों व नीम का तेल, विवेरिया वेसियाना, ट्राइकोडर्मा व फेरोमेन?ट्रैप वगैरह कीटनाशकों का इस्तेमाल करते?हैं. ज्यादा जानकारी के लिए अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र से संपर्क करें.

सवाल : आयुर्वेदिक औषधि कौंच के बोने की विधि बताएं. यह कौन सी मशीन से निकलती?है? यह मशीन कहां मिलेगी?

-दीपक सोनी, मंदसौर, मध्य प्रदेश

जवाब : कौंच को व्यावसायिक तौर पर लाइनों में लगाया जाता है, जिस में पौधे से पौधे की दूरी 80-90 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी करीब 2 मीटर रखते?हैं. कौंच को जूनजुलाई में बीज बो कर लगाया जाता?है. दिसंबरजनवरी तक इस में फलियां लगनी शुरू हो जाती हैं.कौंच को ज्यादातर हाथों व डंडों से पीट कर ही अलग किया जाता रहा है, परंतु बाजार में उपलब्ध थ्रेसर मशीन से भी इस के बीज अलग किए जा सकते हैं. थ्रेसर मशीन बड़े बाजारों में मशीन की दुकानों में आसानी से मिल जाती है.

सवाल : 1 एकड़ जमीन में टीक व महोगनी के कितने पेड़ लगेंगे?

-सरवजीत, सरायकेला, झारखंड

जवाब : टीक व महोगनी की व्यावसायिक तौर पर खेती करने के लिए 1 एकड़ जमीन में 266 पौधे लगाए जा सकते?हैं और शुरू के 2 सालों तक उन के बीच में सब्जी व मसाले वाली फसलें भी ले सकते?हैं.

सवाल : नरमा (कपास) की खेती के बारे में जानकारी दें. सफेद मक्खी से कपास की फसल को कैसे बचाएं?

-प्रमोद, हरियाणा

जवाब : नरमा प्रजाति खासतौर पर राजस्थान सूबे के लिए मुफीद होती है. इस की बोआई मई के तीसरे हफ्ते से जून के पहले हफ्ते तक की जाती?है. 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से ले कर उपचारित करने के बाद 60×30 सेंटीमीटर के फासले पर बोआई करनी चाहिए. इस बोआई से प्रति हेक्टेयर करीब 55 हजार पौधे होंगे. नरमा की खेती में 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद, 60-100 किलोग्राम नाइट्रोजन 30-40 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. डाईफेंथोरान (अगास) 250 ग्राम व वाईफेंथरीन (इम्पीरियर) 250 मिलीलीटर का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करने से फसल को सफेद मक्खी से बचाया जा सकता है.      

डा. हंसराज सिंह व डा. अनंत कुमार
कृषि विज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद

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खतोकिताबत

जरूरी जानकारी

‘फार्म एन फूड’ का पहली अक्तूबर, 2015 का अंक पढ़ा. यह अंक जरूरी जानकारियों का खजाना लगा. इस के तमाम लेख खेतीजगत से जुड़े लोगों के लिए मददगार हैं. खासतौर पर इस अंक में छपी कवर स्टोरी ‘दुधारू पशुओं की देखभाल’ ने मुझे बेहद प्रभावित किया. मैं खुद दूध का कारोबार करता हूं, लिहाजा यह लेख मेरे लिए किसी सौगात से कम नहीं है. अकसर अपने मवेशियों की देखभाल में मुझ से चूक हो जाती?है और मुझे घाटा उठाना पड़ जाता है. मगर इस लेख को पढ़ने के बाद मुझे उम्मीद?है कि मैं अपना डेरी का काम बेहतर तरीके से कर सकूंगा. हकीकत तो यह?है कि अकसर तमाम पशुचिकित्सक भी सही सलाह नहीं दे पाते, लेकिन ‘फार्म एन फूड’ में छपे लेखों की बातें सोलह आने सच व ठोस होती?हैं.

-केसरीनंदन, बहराइच, उत्तर प्रदेश

आकर्षक अंक

खेतीकिसानी की लाजवाब पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ का 1?अक्तूबर, 2015 का अंक हासिल हुआ. अंक की सामग्री के साथसाथ साजसज्जा भी गजब की लगी. वाकई यह पत्रिका किसी ग्लैमर मैगजीन से कम आकर्षक नहीं?है. दरअसल किसी भी चीज या पत्रिका का आकर्षक होना लाजिम?है, तभी उसे देखने या पढ़ने का दिल करता?है. बहरहाल, इस आकर्षक अंक को मैं ने हमेशा की तरह पूरा पढ़ा और बेहद मुतास्सिर हुई. मैं तमाम आम लड़कियों की तरह महज किस्सेकहानियों की किताबों तक नहीं सिमटी रहती. मैं बेशक अन्य किताबें व पत्रिकाएं भी पढ़ती हूं, मगर ‘फार्म एन फूड’ जैसी सार्थक मैगजीनें ज्यादा पढ़ती हूं. यह पत्रिका मुझे अपनी गृहवाटिका के लिहाज से मुकम्मल लगती?है. हकीकत तो यह?है कि इसी के बल पर मैं अपनी गृहवाटिका का काम कर पाती हूं, वरना मैं कोई माहिर महिला किसान नहीं हूं. मेरा बैकग्राउंड भी देहात का नहीं है यानी बागबानी की जानकारी मुझे विरासत में भी नहीं मिली. यह महज मेरा शौक है, जो ‘फार्म एन फूड’ के बल पर चल रहा?है.

-सपना, सतना, मध्य प्रदेश

पंगेसियस मछली

‘फार्म एन फूड’ के 16 अगस्त, 2015 अंक में पंगेसियस मछली के बारे में पढ़ा, जो कि पटना से संबंधित था. मुझे पंगेसियस मछली के बारे में पूरी जानकारी चाहिए. मछलीपालकों को मालामाल करने वाली यह मछली वाकई कारगर साबित हो सकती?है. इस मछली के बच्चे कब व कहां से हासिल हो सकते?हैं और इन की कीमत क्या होगी? ये बातें जान कर इन का पालन करना फायदे वाला काम है. पंगेसियस मछलियों को कोई खास खाने वाली चीज देनी पड़ती?है या नहीं, यह जानना भी बहुत जरूरी?है. इन का खाना कहां व किस कीमत पर मिलेगा? उम्मीद है कि पत्रिका के आगामी अंकों में ये जानकारियां मिल सकेंगी.-विश्व पाल सिंह, बलरामपुर, उत्तर प्रदेश

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