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आधुनिक यंत्र उन्नत खेती की राह

आज के दौर में खेती को उन्नत बनाने में जितनी अहमियत उन्नतशील खाद बीज, सिंचाई व समय प्रबंधन की है, उतनी ही आधुनिक कृषि उपकरणों यानी यंत्रों की भी है. यानी वैज्ञानिक खेती के लिए ये सभी चीजें जरूरी होती हैं. खेती में अगर आधुनिक कृषि यंत्रों का इस्तेमाल किया जाए तो जुताई, बोआई, मड़ाई व कटाई वगैरह को आसान बनाया जा सकता है. साथ ही उत्पादन में इजाफा कर के लागत में कमी भी लाई जा सकती है. किसानों को वैज्ञानिक खेती अपनाने के लिए खेती के आधुनिक यंत्रों की पूरी जानकारी लेनी चाहिए और खेती की जरूरत के मुताबिक कृषि यंत्रों का इस्तेमाल करना चाहिए.

यहां खेती में इस्तेमाल होने वाले कुछ उन्नतशील व आधुनिक यंत्रों के बारे में जानकारी दी जा रही है, जिन के जरीए किसान अपनी खेती को आसान बना कर खेती की लागत में काफी कमी ला सकते हैं. साथ ही खेती में आने वाले जोखिम को भी घटा सकते हैं.

पावर हैरो : यह कृषि यंत्र जुताई के आधुनिक यंत्रों में गिना जाता है. इस की खासीयत यह है कि यह 6-8 इंच मिट्टी की परत की जुताई कर के उसे तोड़ता है. इस यंत्र से जुताई करने का फायदा यह है कि यह नीचे की मिट्टी की गहराई वाली परत को टुकड़ों में बांट कर उसे तोड़ डालता है. इस के लिए इस मशीन के पिछले हिस्से में रोटर लगे होते हैं, जो मिट्टी के तोड़े गए टुकड़ों को महीन करते हैं. इस में लगा लेवलिंग बार व रीयर रोलर मिट्टी को समतल करते हैं. पावर हैरो से जुताई करने पर मिट्टी की ऊपरी परत में मौजूद अवशेषों का बेहतरीन इस्तेमाल हो पाता है. इस मशीन के इस्तेमाल का एक फायदा यह भी है कि यह मिट्टी के बड़े व छोटे टुकड़ों का सही अनुपात बनाती है, जिस से खेत में कठोर परत के निर्माण पर रोक लगती है. इस मशीन का इस्तेमाल हर प्रकार की मिट्टी में किया जा सकता है. यह पथरीली और बंजर जमीनों की जुताई के लिए भी अच्छी होती है. इस मशीन से जुताई कर के लागत में कमी लाई जा सकती है, क्योंकि यह कम ऊर्जा खपत वाली है. साथ ही अन्य यंत्रों की तुलना में इस की उम्र ज्यादा होती है.

पावर हैरो के 3 माडल बाजार में मौजूद हैं, जो 35, 50 व 55 हार्स पावर के ट्रैक्टरों से चलाए जा सकते हैं. पावर हैरो में लगे 10-14 ब्लेड मिट्टी को गहराई से तोड़ते हैं. इस से 1 बार की जुताई से खेत की मिट्टी बोआई के लिए तैयार हो जाती है. इस से कई बार जुताई में होने वाले खर्च में कमी लाई जा सकती है. इस मशीन से जुताई करने पर फसल की जड़ें ज्यादा गहराई तक जाती हैं, जिस से गन्ना, धान, गेहूं जैसी फसलों के गिरने का डर नहीं होता है. पावर हैरो द्वारा कठोर परतों के टूटने से खादबीज वगैरह गहराई तक जा पाते हैं. इस के अलावा इस से जुताई की वजह से खेत में ज्यादा दिनों तक नमी को बनाए रखा जा सकता है.

शेडर या कतरनी यंत्र : फसल कटाई के बाद कई फसलों के खूंट अगली फसल लेने के लिए बाधा उत्पन्न करते हैं, क्योंकि इस से खेत की जुताई में समस्या आती है. साथ ही इन खूटों की वजह से खादबीज भी मिट्टी में सही तरह से नहीं मिल पाते हैं. इस से बोई गई फसल की जड़ें मिट्टी में ज्यादा गहराई तक नहीं जा पाती हैं. नतीजतन फसल के गिरने का डर भी बना रहता है. ऐसे में काटी गई फसलों के खूंटों को खेत में कतरने के लिए शेडर यानी कटरनी यंत्र काफी कारगर साबित होता है. कतरनी यंत्र द्वारा गन्ने और कपास के अवशेषों को छोटे टुकड़ों में काटा जाता है. इस के अलावा यह घास काटने, बागों के छोटे खूंटों को कतरने व अन्य फसलों के अवशेषों को काटने में भी सक्षम है.

कतरनी यंत्र 5 माडलों में बाजार में मौजूद है. यह न्यूनतम 21 हार्स पावर से ले कर 55 हार्सपावर के ट्रैक्टर के पीछे लगा कर चलाया जाता है. इस यंत्र में अलगअलग माडलों के अनुसार 14 से ले कर 24 हैमर्स लगे होते हैं, जो खूंटों को छोटे टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाने में मदद करते हैं. इस यंत्र में खुद साफ  होने वाला रीयर सेलर लगा होता है. कतरनी यंत्र ऊबड़खाबड़ जमीन में भी आसानी से चलता है.

मल्चर : यह भी एक तरह का कतरनी यंत्र है, जो महज 1 माडल में मिलता है. यह न्यूनतम 50 हार्स पावर के डबल क्लचर वाले ट्रैक्टर के पीछे लगा कर चलाया जाता है. यह फसल के अवशेषों को बारीकी से काटता है. मल्चर को पुआल व डंठलों के बारीक टुकड़े काटने, हरा चारा काटने, केले की फसल को काटने, सब्जियों की फसल के अवशषों को छोटे टुकड़ों में काटने के अलावा ऊंची घास व छोटी झाडि़यों को काटने में भी इस्तेमाल किया जाता है. इस यंत्र में काफी मात्रा में अवशेषों की बारीक कटाई के लिए बड़ा कार्यशील चैंबर होता है. यह मशीन कतरने के लिए बेहद प्रभावशाली व गुणवत्ता वाली मानी जाती है.

सब साइलर : यह एक तरह का जुताई यंत्र है, जो 455 किलोग्राम वजन का होता है. यह न्यूनतम 55 हार्स पावर के ट्रैक्टर से चलाया जा सकता है. इस का इस्तेमाल मिट्टी की शुरुआती जुताई के लिए किया जाता है. इस से जुताई करने से ऊपरी कठोर परत टूट जाती है, जिस से बेहतर जल निकासी होती है और जड़ का विकास आसानी से हो पाता है. इस यंत्र में ईंधन की न्यूनतम खपत आती है. सब साइलर से दोगुनी जुताई का असर देखा जा सकता है. इस के गहरे ब्लेड जैसे शैंक मिट्टी में अधिकतम गहराई तक जाते हैं. उखाड़ी गई मिट्टी को साइड में लगे हुए डिफलेक्टर्स बेहद बारीक कर देते हैं.

फर्टीलाइजर स्प्रेयर : यह एक तरह का खाद और बीज फैलाने वाला यंत्र है, जो 24 से 45 हार्स पावर के ट्रैक्टर में लगा कर इस्तेमाल किया जाता है. यह ट्रैक्टर में शैफ्ट के द्वारा जोड़ा जाता है, जिस में 320 किलोग्राम तक खाद या बीज रख कर खेत में बोआई की जा सकती है. यह एक ट्रैकनुमा आकार में होता है, जिस में 2 लीवर लगे होते हैं. एक लीवर बंद करने पर यह खादबीज को सिर्फ  एक तरफ  ही फेंकता है. यह खादबीज को खेत में 12 मीटर यानी 40 फुट तक फैलाने की कूवत रखता है. किसानों द्वारा इसे खादबीज फैलाने के लिए ज्यादा पसंद किया जा रहा है.

इन तमाम कृषि यंत्रों की विश्व स्तरीय निर्माता कंपनी मास्कीओ गारस्पारदो इंडिया के इंजीनियर सौरभ शुक्ला ने बताया कि ये उपकरण खेती को सस्ता व सरल बनाने के मकसद से तैयार किए गए हैं, ताकि खेती की लागत में कमी ला कर उत्पादन को बढ़ाया जा सके और फसल के नुकसान में कमी लाई जा सके. बस्ती जिले में मास्कीओ गारस्पारदो इंडिया के स्टाकिस्ट व एसपी आटोमोबाइल के मालिक अखिलेश दूबे ने बताया कि किसानों में पावर हैरो, कतरनी यंत्र व खादबीज फैलाने वाले यंत्र की भारी मांग है. दूबे के दफ्तर में रोजाना इन यंत्रों के बारे में जानकारी लेने वाले लोगों व खरीदारों की लाइन लगी रहती है. इन यंत्रों के मूल्य व अन्य खासीयतों के बारे में अधिक जानकारी के लिए किसान मास्कीओ गारस्पारदो इंडिया के इंजीनियर सौरभ शुक्ला के मोबाइल नंबरों 08554984379 या 07379382518 पर संपर्क कर सकते हैं.       

सब्जी मटर की खेती फायदा देती

जब बात आती है दलहनी सब्जियों की तो किसी भी मौसम या किसी भी सूबे में सब्जी वाली मटर पहले नंबर पर होती है. मटर एक खास सब्जी की फसल है, जो सब्जी के अलावा अन्य पकवानों में भी इस्तेमाल की जाती है. इस में भरपूर मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन व खनिजलवण पाए जाते हैं. इस के हरे पौधों को तोड़ाई के बाद उखाड़ कर पशुओं के लिए हरे चारे के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं. सब्जी वाली मटर की खेती हमारे देश के मैदानी इलाकों में सर्दियों में और पहाड़ी इलाकों में गरमियों में की जाती है. मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब व हरियाणा राज्यों में बड़े पैमाने पर इस की खेती की जाती है. मौजूदा समय में मटर की डिमांड हर मौसम में होने की वजह से परिरक्षण द्वारा इस की डब्बाबंदी का कारोबार बढ़ गया है. ऐसे में जरा सी भी सूझबूझ दिखाने पर किसान भाई सब्जी वाली मटर की खेती कर के भरपूर फायदा उठा सकते हैं. 

भूमि का चयन व खेत की तैयारी : अम्लीय भूमि सब्जी मटर की खेती के लिए बिल्कुल ठीक नहीं होती है. अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि जिस का पीएच मान 6 से 7.5 के बीच हो, सब्जी मटर की खेती के लिए सही मानी जाती है. खेत का पलेवा कर के एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा कर खेत को भुरभुरा व समतल कर लेना चाहिए. बोआई का समय व बीज की मात्रा: मटर की बोआई का समय अक्तूबर के पहले सप्ताह से ले कर नवंबर के अंतिम सप्ताह तक होता है. अगेती बोआई के लिए 120 से 150 किलोग्राम और मध्य व पछेती बोआई के लिए 80 से 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगते हैं.

प्रजातियां : बेहतर तो यही होगा कि किसान अपने इलाके के मुताबिक रोगरोधी प्रजातियों का चयन किसी कृषि वैज्ञानिक से सलाह करने के बाद करें. फिर भी यहां बाक्स में कुछ प्रजातियों की जानकारी दी जा रही है.

बोआई : जड़सड़न, तनासड़न, एंथ्रेक्नोज, बैक्टेरियल ब्लाइट व उकठा बीमारियों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर के बोआई करें. पीएसबी कल्चर व राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित कर के बोने से 10 से 15 फीसदी तक उत्पादन में इजाफा होता है. इस के लिए 1.5 किलोग्राम राइजोबियम कल्चर को 10 फीसदी गुड़ के घोल में मिला कर प्रति किलोग्राम की दर से बीजों को अच्छी तरह से उपचारित कर के व सुखा कर उसी दिन बोआई कर देनी चाहिए. उकठा रोग से बचाव के लिए 4-5 ग्राम ट्राइकोडर्मा फफूंदनाशक से प्रति किलोग्राम के हिसाब से बीजों को उपचारित करना चाहिए.

बोआई सीडड्रिल से करें या देशी हल के पीछे कूंड़ों में सीधी कतारों में करें. जल्दी तैयार होने वाली किस्मों को कतार से कतार 30 सेंटीमीटर की दूरी पर और मध्यम अवधि की प्रजातियों को 45 सेंटीमीटर की दूरी पर बोएं. पौध से पौध की दूरी 10-15 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीजों की बोआई 5-7 सेंटीमीटर गहराई पर करें.

खाद व उर्वरक : सब्जी मटर की खेती में मोटे तौर पर 20 टन खूब सड़ी हुई एफवाईएम (सड़ी गोबर की खाद), 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-70 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश युक्त उर्वरक प्रति हेक्टेयर देना बेहतर होता है. नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का ज्यादा इस्तेमाल नाइट्रोजन स्थिरीकरण और गांठों के निर्माण में बाधा पहुंचाता है. मटर की खेती में फास्फेटिक उर्वरक अच्छा नतीजा देता है. इस से गांठों का निर्माण अच्छा होता है. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के 25-30 दिनों बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : बोआई के समय ही खरपतवारों का रासायनिक विधि द्वारा नियंत्रण करना चाहिए. इस के लिए पेडीमेथलीन 30 ईसी की 3.3 लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के 2 दिन बाद प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें या  2.25 लीटर वासालीन को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. बोआई के 25-30 दिनों बाद निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ ही साथ जड़ों को हवा भी मिल जाती है.

सिंचाई : पहली सिंचाई फूल आते समय करनी चाहिए. यदि बारिश हो जाए तो सिंचाई न करें. दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय करनी चाहिए. सूखे इलाकों में बौछारी सिंचाई बेहतर होती है.

रोग प्रबंधन

चूर्णिल आसिता : यह एक बीजजनित बीमारी है. यह बीमारी तना, पत्तियों व फलियों को प्रभावित करती है. इस बीमारी में पत्तियों पर हलके गोल निशान बन जाते हैं, जो सफेद पाउडर (चूर्ण) के रूप में पत्तियों को ढक देते हैं. इस के कारण बाद में सभी पत्तियां गिर जाती हैं. इस की रोकथाम के लिए 2-3 किलोग्राम गंधक का चूर्ण 600-800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

उकठा (फ्यूजेरियम विल्ट) : यह फफूंद से होने वाली बीमारी है. इस से पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती हैं और अंत में पूरा पौधा सूख जाता है. यह बीमारी गरमी बढ़ने के कारण बढ़ने लगती है. इस से बचाव हेतु फसलचक्र को अपनाना चाहिए. जिस में ज्वार, बाजरा व गेहूं की फसलें शामिल हो सकती हैं. खेत में हरी खाद के साथ 1 सप्ताह के अंदर 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लेना चाहिए.

रस्ट (गेरुई) : यह रोग फफूंद द्वारा फैलता है. यह नम स्थानों पर ज्यादा फैलता है. शुरू में पत्तियों की निचली सतह पर छोटेछोटे गेरुई या पीले रंग के उड़े हुए धब्बे बनते हैं. धीरेधीरे इन धब्बों का रंग भूरा लाल पड़ने लगता है. कई धब्बों के आपस में मिलने से पत्तियां सूख जाती हैं. इस के असर से पौधे जल्दी सूख जाते हैं और उपज कम हो जाती है. इस रोग से बचाव के लिए सब से पहले रोगी पौधों को नष्ट कर देना चाहिए. उस के बाद हेक्साकोनाजोल की 1 मिलीलीटर मात्रा को 3 लीटर पानी में घोल कर या विटरेटीनाल की 1 ग्राम मात्रा को 2 लीटर पानी में घोल कर 1 से 2 बार छिड़काव करें.

एंथ्रेक्नोज : यह भी एक बीज जनित बीमारी है. इस बीमारी में पत्तियों के ऊपर पीले से काले रंग के सिकुड़े हुए धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में पूरी पत्ती को ढक लेते हैं. छोटे फलों पर काले रंग के धब्बे बन जाते हैं और रोगी फलियां सिकुड़ कर मर जाती हैं. यह बीमारी बीजों के जरीए एक मौसम से दूसरे मौसम में जाती है. इस से बचाव के लिए बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम दवा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए. रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए. फूल आने के बाद 1 ग्राम कार्बंडाजिम का 1 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

बैक्टेरियल ब्लाइट : यह एक बीज जनित बीमारी है, जो नमी वाले वातावरण में ज्यादा फैलती है. इस रोग में डंठल के नीचे की पत्तियों व तनों पर एक पनीला धब्बा बन जाता है. सफेद से रंग का स्राव भी दिखता है. धीरेधीरे प्रभावित हिस्सा भूरा होने लगता है. इस से बचाव के लिए रोग रहित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए और बीजशोधन भी कर लेना चाहिए. फसल प्रभावित होने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लिन केमिकल का छिड़काव फायदेमंद होता है.

कीट प्रबंधन

माहू : इस कीड़े का प्रकोप जनवरी के महीने में ज्यादा होता है. यह कीड़ा पत्तियों और कोमल टहनियों का रस चूसता है. इस से बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी कीटनाशक दवा की 1.5 मिलीलीटर मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.

लीफ माइनर (पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट) : यह कीट पौधों की पत्तियों में सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. इस के प्रकोप से पत्तियां सूख जाती हैं. बचाव के लिए सुरंग बनाने वाले कीड़ों से प्रभावित पत्तियों को सूंड़ी व कृमिकोश सहित तोड़ कर जमीन में कहीं दूर गाड़ देना चाहिए.

फलीछेदक : यह कीट फलियों में छेद कर के दानों को खाता रहता है. इस कीड़े के असर वाली फलियां रंगहीन, पानीयुक्त व दुर्गंधयुक्त हो जाती हैं. इस से बचाव के लिए थायोडान नामक दवा की 2 मिलीलीटर मात्रा का 1 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

तोड़ाई : मटर की फसल से ज्यादा आमदनी लेने के लिए समय से तोड़ाई करना जरूरी होता है. मटर की तोड़ाई हाथ से की जाती है. तोड़ाई के समय पौधों को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए. फलियां भरी हुई व मुलायम ही तोड़नी चाहिए. तोड़ाई सुबह या शाम को करें. 10 दिनों के अंतर पर 3-4 बार तोड़ाई करनी चाहिए:

बीज हेतु भंडारण : भंडारण में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :

* बीजों में नमी की मात्रा 9 फीसदी से कम होनी चाहिए. ज्यादातर कीट इतनी कम नमी में प्रजनन नहीं कर पाते.

* नए बीजों को रखने से पहले अच्छी तरह साफ कर के कीटनाशी द्वारा कीट रहित कर लेना चाहिए.

* बीज भंडारण के लिए नए बैग इस्तेमाल करने चाहिए.

* कीट का प्रकोप होने पर 3-5 ग्राम की एल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति टन की दर से 3-5 दिनों तक रख कर बीजों को कीट रहित करना चाहिए.

*  इस के अलावा बीज भंडारित करने की जगह की सफाई व मौसम के मुताबिक उन की देखभाल भी जरूरी है. 

अमरूद लगाओ मुनाफा कमाओ

अमरूद ऐसा फल है जो देश के ज्यादातर हिस्सों में पाया जाता है. देश में उगाए जाने वाले फलों में क्षेत्रफल और उत्पादन के लिहाज से अमरूद का चौथा स्थान है. उत्तराखंड से ले कर कन्याकुमारी तक इस की बागबानी की जाती है. गुणों की भरमार वाले इस फल की तुलना सेब से की जाती है. अमरूद की बागबानी न केवल आसानी से हो जाती है, बल्कि इस के जरीए अच्छा मुनाफा भी कमाया जा सकता है. अमरूद का उत्पादन देश में सब से ज्यादा उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में होता है. अमरूद की बागबानी सभी तरह की जमीन पर की जा सकती है. वैसे गरम और सूखी जलवायु वाले इलाकों में गहरी बलुई दोमट मिट्टी इस के लिए ज्यादा अच्छी मानी जाती है.

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में रेलवे स्टेशन के नजदीक स्थित ऐतिहासिक खुशरूबाग में बना ‘औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र’ अमरूद की न केवल पौध तैयार करता है, बल्कि वहां इच्छुक लोगों को अमरूद की बागबानी का प्रशिक्षण भी दिया जाता है. केंद्र में मौजूद अमरूद की किस्मों की बात करें, तो वहां के इलाहाबाद सफेदा और सरदार अमरूद खासतौर पर मशहूर हैं. वहां अमरूद की एक और उन्नत किस्म ललित को भी तैयार किया गया है. यह गुलाबी और केसरिया रंग लिए होता है. इस की पैदावार दूसरे अमरूदों के मुकाबले 24 फीसदी ज्यादा होती है. गुलाबी आभा, मुलायम बीज व अधिक मिठास वाले अमरूदों की पैदावार हर कोई वैज्ञानिक तरीके अपना कर कर सकता है.

पौधारोपण

अमरूद का पेड़ 2 साल बाद ही फल देना शुरू कर देता है. यदि शुरुआत में ही पेड़ की देखरेख अच्छी तरह से हो जाए तो 30-40 सालों तक अच्छा उत्पादन मिल सकता है. देश में अमरूद के पौधे ज्यादातर बीजों के द्वारा तैयार किए जाते हैं, लेकिन माना जाता है कि इस से पेड़ों में भिन्नता आ जाती है.  इसलिए अब वानस्पतिक विधि द्वारा पौधे तैयार किए जाने पर जोर दिया जा रहा है. कलमी अमरूद का पौधा पौधशाला से 20 से 25 रुपए प्रति पौधे की दर से मिल जाता है. जुलाई, अगस्त व सितंबर महीने पौधा रोपण के लिए मुनासिब माने जाते हैं. सिंचित इलाकों में पौधारोपण फरवरी व मार्च के महीनों में भी किया जा सकता है. अमरूद के पौधों को 5×5 मीटर या 6×6 मीटर की दूरी पर लगाया जाना ज्यादा लाभकारी होता है. अमरूद के छोटे पेड़ों की सिंचाई अच्छी होनी चाहिए. जिस से कि जहां जड़ें हों वहां की मिट्टी को नम रखा जा सके. पेड़ बड़े होने के बाद 10 से 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

खाद व उर्वरक

पौधा लगाते समय प्रति गड्ढा 20 किलोग्राम गोबर की खाद डालनी चाहिए. इस के बाद आगे बताए अनुसार हर साल खाद डालनी चाहिए.

पहला साल : गोबर की खाद 15 किलोग्राम, यूरिया 250 ग्राम, सुपर फास्फेट 375 ग्राम व पोटैशियम सल्फेट 500 ग्राम डालें.

दूसरा साल : गोबर की खाद 30 किलोग्राम, यूरिया 500 ग्राम, सुपर फास्फेट 750 ग्राम व पोटैशियम सल्फेट 200 ग्राम डालें.

तीसरा साल : गोबर की खाद 45 किलोग्राम, यूरिया 750 ग्राम, सुपर फास्फेट 1125 ग्राम व पोटैशियम सल्फेट 300 ग्राम डालें.

चौथा साल : गोबर की खाद 60 किलोग्राम, यूरिया 1050 ग्राम, सुपर फास्फेट 1500 ग्राम व पोटैशियम सल्फेट 400 ग्राम डालें.

पांचवां साल : गोबर की खाद 75 किलोग्राम, यूरिया 1300 ग्राम, सुपर फास्फेट 1875 ग्राम व पोटैशियम सल्फेट 500 ग्राम डालें.

ज्यादा अच्छा होगा कि पेड़ की आयु के अनुसार हर पेड़ के लिए खाद को 2 भागों में बराबर बांट लें. इस का आधा भाग जून में व आधा भाग अक्तूबर में तने से 1 मीटर दूर चारों ओर डालने के साथ ही सिंचाई भी कर दें. फसल में आर्गेनिक दवाओं का प्रयोग भी किया जा सकता है. सूक्ष्म तत्त्वों को खत्म करने व उत्पादन बढ़ाने के लिए ‘होम्यो अमृत प्लस’, रोग नियंत्रण व अच्छे उत्पादन के लिए ‘होम्यो सुधा प्लस’ व कीट नियंत्रण हेतु ‘होम्यो मोक्षा’ नामक दवाओं का प्रयोग किया जा सकता है.

कटाईछंटाई और सधाई

शुरू में पेड़ों को मजबूत ढांचा देने के लिए सधाई की जानी चाहिए. यह देखना चाहिए कि मुख्य तने पर जमीन से लगभग 90 सेंटीमीटर ऊंचाई तक कोई शाखा न हो. इस ऊंचाई पर मुख्य तने से 3 या 4 प्रमुख शाखाएं बढ़ने दी जाती हैं. इस के बाद हर दूसरे या तीसरे सा ऊपर से टहनियों को काटते रहना चाहिए, जिस से पेड़ की ऊंचाई ज्यादा न बढ़े. यदि जड़ में कोई फुटाव निकले, तो उसे भी काटते रहना चाहिए.

फसल प्रबंधन व तोड़ाई

पेड़ के पूरी तरह तैयार हो जाने के बाद साल में अमरूद की 2 फसलें प्राप्त होती हैं. एक फसल बरसात के दौरान व दूसरी जाड़े के मौसम में प्राप्त होती है. बरसात के मौसम में ज्यादा उपज प्राप्त होती है, पर इस के फल घटिया होते हैं. छेदक कीट भी उन्हें नुकसान पहुंचा देते हैं. व्यापार के लिहाज से जाड़े की फसल को ज्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिए. पेड़ों की देखरेख और समय पर खादपानी देने से ज्यादा पैदावार प्राप्त की जा सकती है. यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि उपज की मात्रा किस्म, जलवायु व पेड़ की उम्र पर निर्भर करती है. पूरी तरह तैयार पेड़ से सीजन में करीब 400 से 600 तक फल प्राप्त हो जाते हैं. अमरूद की तोड़ाई थोड़ी सी डंठल व कुछ पत्तों सहित कैंची से करनी चाहिए. तोड़ाई एकसाथ नहीं बल्कि 2-3 बार में करनी चाहिए. आधे पके अमरूदों को तोड़ना ठीक रहता है.

प्रमुख रोग

अमरूद की फसल में सब से ज्यादा खतरनाक उकठा रोग माना जाता है. एक बार बाग में इस का संक्रमण होने से कुछ सालों में पूरे बाग को नुकसान पहुंच जाता है. ऐसी जगह पर दोबारा अमरूद का बाग नहीं लगाना चाहिए. इस बीमारी से शाखाएं और टहनियां एकएक कर के ऊपरी भाग से सूखने लगती हैं और नीचे की तरफ सूखती चली जाती हैं. एक समय ऐसा भी आता है, जब पूरा पेड़ ही सूख जाता है. इस बीमारी से बचने के लिए ये उपाय जरूर करने चाहिए:

* जैसे ही पेड़ में रोग के लक्षण दिखाई दें, तो उस पेड़ को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* बाग को साफसुथरा रखें, खरपतवार न रहने दें.

* बाग में ज्यादा पानी होने पर उस की निकासी का इंतजाम करें.

* हरी व कार्बनिक खाद का इस्तेमाल करें.

संक्रमण

अमरूद के बाग में फलगलन या टहनीमार रोग  का संक्रमण भी हो जाता है, नतीजतन बनते हुए फल छोटे, कड़े व काले रंग के हो जाते हैं. इस रोग के सब से ज्यादा लक्षण बारिश के मौसम में पकते हुए फलों पर दिखाई पड़ते हैं. फल पकने वाली अवस्था में फलों के ऊपर गोलाकार धब्बे पड़ जाते हैं और बाद में बीच में धंसे हुए स्थान पर नारंगी रंग के फफूंद उत्पन्न हो जाते हैं. डालियों पर संक्रमण होने पर डालियां पीछे से सूखने लगती हैं. इस रोग के होने पर डालियों को काट कर 0.3 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड के घोल का छिड़काव करना चाहिए. फल लगने के दौरान 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करें.

कीट नियंत्रण

बरसाती फसल पर फलमक्खियां सब से ज्यादा मंडराती हैं. मादा मक्खी फलों में छेद कर देती है और छिलके के नीचे अंडे देती है. इस के इलाज का तरीका यही है कि मक्खी से ग्रसित फलों को जमा कर के नष्ट कर दें. मक्खियों को मारने के लिए 500 लीटर मैलाथियान 50 ईसी, 5 किलोग्राम गुड़ या चीनी को 500 मिलीलीटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ की दर से छिड़कें. अगर प्रकोप बना रहता है, तो छिड़काव 7 से 10 दिनों के अंतर पर दोहराएं.

छाल सूंड़ी

अमरूद के पेड़ों को नुकसान पहुंचाने वाला एक और कीट है छाल खाने वाली सूंड़ी. यह कीट आमतौर पर दिखाई नहीं देता, पर जहां पर टहनियां अलग होती हैं, वहां पर इस का मल व लकड़ी का बुरादा जाल के रूप में दिखाई देता है. इस का हमला सब ज्यादा पुराने पेड़ों पर होता है. सालभर में इस की 1 ही पीढ़ी होती है, जो जूनजुलाई से शुरू होती है. इलाज के तौर पर संक्रमित शाखाओं में कीट द्वारा बनाए गए छेदों में डाईक्लोरोवास (नुवान) में डुबोई रूई के फाहों को किसी तार की सहायता से डाल दें और सुराख को गीली मिट्टी से ढक दें. यह काम फरवरीमार्च में करना चाहिए. दूसरे उपाय के तौर पर सितंबरअक्तूबर में 10 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफास (नुवाक्रोन) या 10 मिलीलीटर मिथाइल पैराथियान (मैटासिड) को 10 लीटर पानी में मिला कर सुराखों के चारों ओर की छाल पर लगाएं.

बाग का रखरखाव

बरसात के बाद ही ज्यादातर पेड़ों के ऊपर से पत्तियां पीली होने लगती हैं व पेड़ों की शाखाएं एक के बाद एक सूखने लगती हैं. इसलिए रखरखाव किया जाना चाहिए. दिसंबर से फरवरी के दौरान पेड़ों में काटछांट करने के बाद पर्याप्त मात्रा में नए कल्ले बनते हैं. इन कल्लों के फैलाव व विकास के लिए मईजून में प्रबंधन किया जाना चाहिए. इस से जाड़े में फसल अच्छी होती है. इसी प्रकार मई में काटछांट कर ठीक किए गए पेड़ों से निकलने वाले कल्लों का प्रबंधन अक्तूबर में किया जाना चाहिए. ऐसा करने से बरसात में फसल अच्छी होती है.

बाजार पर छाए चीनी के गट्टे और खिलौने

गांवों में वह मिठाई सब से ज्यादा पसंद की जाती?है, जो लंबे समय तक चले और जिसे रखने के लिए बहुत सावधानी न बरतनी पड़े. इन मिठाइयों में चीनी से तैयार होने वाली मिठाइयों को सब से ज्यादा पसंद किया जाता?है. चीनी की मिठाइयों में खिलौनों के अलावा गट्टे भी बहुत पसंद किए जाते?हैं. दीवाली के समय इन की खरीदारी गांवों के अलावा शहरों में भी होती?है. चीनी के गट्टे बनाने में 75 फीसदी चीनी और 25 फीसदी चीनी पाउडर का इस्तेमाल किया जाता?है. इन को आपस में मिला कर चाशनी बनाई जाती?है. इस तैयार चाशनी को साफ कपड़े पर गोल कर के रखा जाता है. इस के बाद इसे चाकू की सहायता से छोटेछोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है. गट्टे कई तरह के बनते?हैं. छोटे आकार वाले गट्टे ज्यादा पसंद किए जाते हैं. गांवों के मेलोंठेलों में मिलने वाले चीनी के खिलौने अब शहरों में भी मिलने लगे हैं. अब तो कई बड़े दुकानदार भी इन को बनाने लगे हैं. इन खिलौनों की सब से ज्यादा मांग दीवाली के समय होती?है. धान के लावा और चूरा के साथ इन को मिला कर खाने का मजा ही दूसरा होता है. ये खिलौने चीनी से महंगे मिलते हैं. आमतौर पर ये 100 रुपए प्रति किलोग्राम से ले कर 160 रुपए प्रति किलोग्राम तक बिकते हैं. इन की कीमत चीनी की बढि़या क्वालिटी पर निर्भर करती है. अच्छी चीनी से साफ खिलौने बनते?हैं. अगर चीनी पीली या गंदी हो तो खिलौने भी उसी तरह से दिखने लगते हैं.

चीनी के खिलौने बनाने वाले रामकुमार गुप्ता कहते हैं, ‘चीनी के खिलौने बनाने के लिए सब से पहले चीनी और पानी को मिला कर घोल तैयार किया जाता है. यह घोल 3 हिस्से चीनी और 1 हिस्सा पानी मिला कर तैयार किया जाता?है. ‘इसे कढ़ाई में डाल कर गरम किया जाता है. जब चाशनी तैयार हो जाती है, तो उसे लकड़ी के सांचे में भर दिया जाता है. ये लकड़ी के सांचे खास किस्म के बने होते हैं. सांचे में खिलौने के आकार की खाली जगह होती है. इस के ऊपर एक बड़ा सा छेद होता है. छेद के जरीए ही चीनी का घोल इस में डाला जाता है. सांचे को?ठंडा करने के लिए पानी में डाल देते हैं. सांचा लकड़ी के 2 पल्लों से मिल कर बना होता है. जब अंदर भरा चीनी का घोल ठंडा हो कर खिलौने की शक्ल ले लेता है, तो सांचे को खोल कर सावधानी से खिलौना बाहर निकाल कर सफेद चादर पर सूखने के लिए रख देते?हैं. अगर रंगबिरंगा खिलौना तैयार करना हो तो चीनी का घोल बनाते समय उस में मनचाहा खाने वाला रंग मिलाया जा सकता है.’

ज्यादातर लोग चीनी के रंगीन खिलौनों की बजाय सफेद खिलौने ही पसंद करते हैं. बच्चे रंगबिरंगे खिलौने ज्यादा पसंद करते हैं. चीनी  से ज्यादा कीमत पर बिकने वाले ये खिलौने केवल चीनी और पानी से तैयार होने के कारण कभी खराब नहीं होते. खोए और छेने की मिठाइयों की तरह इन में मिलावट नहीं होती. अगर कोई मिलावट करने की कोशिश करता?है, तो खिलौना देखने से ही मिलावट का पता चल जाता है. सेहत के लिहाज से भी चीनी के खिलौने नुकसान नहीं पहुंचाते हैं. गांवों में इन की खरीदारी सस्ते होने की वजह से खूब होती है. इन को बहुत दिनों तक रखा भी जा सकता है. दीवाली के समय चूरा और धान का लावा हर घर में खरीदा जाता है. इन के साथ खिलौने या गट्टे खा कर आसानी से भूख मिटाई जा सकती है. चीनी के खिलौने व लावा वगैरह को कहीं ले जाना भी आसान होता है. रास्ते में इन के खराब होने का खतरा भी नहीं रहता है. 

खेतीजगत से जुड़े नवंबर के खास काम

साल के सब से बड़े त्योहार दीवाली की हलचल वाला नवंबर महीना खेती के लिहाज से भी बेहद खास होता है. सर्दी के आलम में किसानों का काम करने का जोश और हौसला काफी बढ़ जाता है. उत्सव और त्योहार के सुरूर में डूबे किसान पूरी शिद्दत से खेती के कामों को अंजाम देते हैं. दुनिया की सब से अहम फसल गेहूं की बोआई की बुनियाद नवंबर में ही पड़ जाती है. इनसान के खाने की सब से खास फसल गेहूं की बोआई का जनून तमाम किसानों में अलग ही नजर आता है. गेहूं न सिर्फ बेहद अहम फसल है, बल्कि यह किसानों की माली हालत भी सुधारने की कूवत रखती है.

नवंबर की शुरुआत में ही तमाम किसान गेहूं की बोआई की तैयारियों में जुट जाते हैं. महीने के पहले हफ्ते के दौरान खेतों की तैयारी कर लेना लाजिम है, क्योंकि 7 नवंबर से 25 नवंबर के बीच गेहूं की बोआई का दौर पूरे जोरशोर से चलता है. यह अरसा ही गेहूं की बोआई के लिहाज से सब से अच्छा होता है. इस दौरान बोआई किए जाने से सब से ज्यादा फायदा होने के आसार होते हैं. अक्लमंद किसानों को नवंबर महीने की शुरुआत में ही गेहूं के लिहाज से अपने खेतों की मिट्टी की जांच करा लेनी चाहिए ताकि कोई कमी हो तो उस का इलाज किया जा सके. मिट्टी की जांच करा लेने से माकूल खादों व उर्वरकों की जानकारी मिल जाती है, नतीजतन फसल उम्दा होती है. होशियार किसान अपने इलाके की मशहूर प्रयोगशाला में अपने खेत की मिट्टी की जांच कराते हैं और उसी के मुताबिक कृषि वैज्ञानिकों से सलाह ले कर बीज, खाद व उर्वरक वगैरह का इस्तेमाल करते हैं. उम्दा खेती के लिए खाद व उर्वरक वगैरह उतनी मात्रा में ही डालने चाहिए, जितनी की वैज्ञानिक सलाह दें.

आइए डालते हैं एक नजर नवंबर में होने वाले खेतीकिसानी से जुड़े खास कामों पर :

* गेहूं की बोआई से पहले खेतों में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद डालना बेहद जरूरी होता है, मगर कितनी खाद डालनी चाहिए, यह बात कृषि वैज्ञानिक ही बेहतर बता सकते हैं. इसलिए अपने खेत के आकार के हिसाब से वैज्ञानिक से पूछ कर ही खाद की मात्रा तय करें.

* गेहूं की बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के हिसाब से ही गेहूं की किस्मों का चयन करना ठीक रहता है. इस मामले में कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से बेहतर सलाह कोई और नहीं दे सकता. लिहाजा उन्हीं की सलाह के मुताबिक बीजों का बंदोबस्त करें.

* अगर किसी मशहूर कंपनी या सरकारी संस्था से बीज हासिल करें तो वे ठीक होते हैं. उन्हें उपचारित करने की जरूरत नहीं होती है. अच्छी बीज कंपनियां व सरकारी संस्थाएं अपने बीजों का उपचार पहले ही कर चुकी होती हैं.

* अकसर कई किसान बड़े किसानों से ही बीज खरीद लेते हैं. ऐसी हालत में बीजों को उम्दा फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करना जरूरी हो जाता है. बीजों को उपचारित न करने का असर पैदावार पर पड़ता है.

* छिटकवां विधि से गेहूं की बोआई करने में 125 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर लगता है. इस विधि से बोआई करने में कुछ बीज बेकार चले जाते हैं. इसी वजह से अब वैज्ञानिक इस विधि का इस्तेमाल करने की सलाह नहीं देते.

* सीड ड्रिल से गेहूं की बोआई करना सही रहता है. इस के लिए प्रति हेक्टेयर महज 100 किलोग्राम बीज की दरकार होती है. इस तरीके से बीजों की बरबादी नहीं होती है.

* गेहूं की बोआई लाइनों में करना बेहतर होता है और पौधों के बीच का फासला करीब 20 सेंटीमीटर होना चाहिए. इतना फासला रखने से पौधों का विकास अच्छा होता है और खेत की निराईगुड़ाई करना भी सरल होता है.

* आमतौर पर तो खादों व उर्वरकों की मात्रा मिट्टी की जांच के मुताबिक वैज्ञानिकों से तय कराना ही बेहतर रहता है, लेकिन कई इलाकों के किसानों के लिए मिट्टी की जांच कराना कठिन होता है. ऐसी नौबत आने पर प्रति हेक्टेयर 120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिए. बोआई के वक्त नाइट्रोजन की आधी मात्रा और पोटाश व फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत में मिलाएं.

* गेहूं के साथसाथ नवंबर में चने की बोआई का दौर भी चलता है. चने की बोआई का काम भी 15 नवंबर तक निबटा लेना चाहिए. बोआई के लिए साधारण चने की पूसा 256, पंत जी 114, केडब्ल्यूआर 108 व के 850 किस्में अच्छी रहती हैं. अगर काबुली चने की बोआई करनी है, तो पूसा 267 व एल 550 किस्मों का चयन बेहतर रहता है.

* मुमकिन हो तो मिट्टी की जांच कराने के बाद कृषि वैज्ञानिक से खादों व उर्वरकों की मात्रा तय करा लें वरना प्रति हेक्टेयर 45 किलोग्राम फास्फोरस, 30 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम नाइट्रोजन का इस्तेमाल चने की खेती के लिए मुफीद रहता है.

* चने के बीजों को राइजोबियम कल्चर और पीएसबी कल्चर से उपचारित कर के बोएं. प्रति हेक्टेयर बोआई के लिए बड़े आकार के दानों वाली किस्मों के 100 किलोग्राम और छोटे व मध्यम आकार के दानों वाली किस्मों के 80 किलोग्राम बीज इस्तेमाल करें.

* आमतौर पर तो मटर व मसूर की बोआई का काम पिछले महीने यानी अक्तूबर में ही निबटा लिया जाता है. मगर किसी वजह से मसूर व मटर की बोआई अभी तक न हो पाई हो, तो उसे 15 नवंबर तक जरूर कर लें.

* मसूर की बोआई के लिए करीब 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर लगता है. इसी तरह मटर की बोआई के लिए 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर लगता है. मटर व मसूर के बीजों को बोने से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना जरूरी है, वरना नतीजा अच्छा नहीं मिलता.

* पिछले महीने बोई गई मटर व मसूर के खेतों में अगर सूखापन नजर आए तो जरूरत के हिसाब से सिंचाई करें. इस के अलावा खेत की अच्छी तरह निराईगुड़ाई करें, जिस से खरपतवार काबू में रहें.

* मटर व मसूर की फसल पर अगर पत्ती सुरंग या तनाछेदक कीटों का असर नजर आए, तो मोनोक्रोटोफास 3 ईसी वाली दवा का इस्तेमाल करें.

* नवंबर में जौ की बोआई भी की जाती है. जौ के लिए तैयार किए गए खेत में बोआई का काम 25 नवंबर तक निबटा लेना चाहिए. यों तो जौ की पछेती फसल की बोआई दिसंबर महीने के आखिर तक की जाती है. वैसे समय से बोआई करना ही बेहतर है, क्योंकि देर से बोई जाने वाली फसल से पैदावार कम मिलती है.

* जौ की बोआई में सिंचित व असिंचित खेतों का फर्क पड़ता है, उसी के लिहाज से कृषि वैज्ञानिक से बीज की मात्रा पूछ लेनी चाहिए.

* जौ की विजया, कैलाश, आजाद, अंबर व करन 795 किस्में सिंचित खेतों के लिए अच्छी हैं. केदार, डीएल 88 व आरडी 118 किस्में देर से बोआई करने के लिहाज से अच्छी हैं.

* इस महीने अरहर की फलियां पकने लगती हैं. अगर 75 फीसदी फलियां पक गई हों, तो कटाई का काम करें.

* अरहर की देरी से पकने वाली किस्मों पर अगर फलीछेदक कीट का हमला दिखाई दे, तो मोनोक्रोटोफास 36 ईसी वाली दवा की 600 मिलीलीटर मात्रा पर्याप्त पानी में मिला कर फसल पर छिड़काव करें.

* आलू के खेत अगर सूखे नजर आएं तो तुरंत सिंचाई करें, ताकि उन की बढ़वार पर असर न पड़े. आलू की बोआई को 5-6 हफ्ते हो चुके हों, तो 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. सिंचाई के बाद आलू के पौधों पर ठीक से मिट्टी चढ़ाएं.

* सरसों के खेत से फालतू पौधों की छंटाई करें और उन्हें पशुओं को खिला दें. सरसों के फालतू पौधे इस हिसाब से निकालें कि पौधों के बीच की दूरी करीब 15 सेंटीमीटर रहे.

* सरसों में नाइट्रोजन की बची मात्रा बोआई के 1 महीने बाद पहली सिंचाई कर के छिटकवां तरीके से दें.

* सरसों के पौधों को सफेद गेरुई व झुलसा बीमारियों से बचाने के लिए जिंक मैंगनीज कार्बामेट 75 फीसदी वाली दवा की 2 किलोग्राम मात्रा पर्याप्त पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें.

* सरसों को आरा मक्खी व माहू कीट से बचाने के लिए इंडोसल्फान दवा की डेढ़ लीटर मात्रा 800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें.

* इस महीने के दौरान तोरिया की फलियों में दाना भरता है, लिहाजा खेत में भरपूर नमी होनी चाहिए. नमी कम लगे तो तुरंत खेत की सिंचाई करें, ताकि फसल बढि़या हो.

* पिछले महीने लगाई गई सब्जियों के खेतों की बारीकी से जांच करें. उन में खरपतवार पनपते नजर आएं तो निराईगुड़ाई के जरीए उन का खात्मा करें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई भी करें.

* सब्जियों के पौधों व फलों पर अगर कीड़ों या बीमारियों के लक्षण नजर आएं तो कृषि वैज्ञानिकों से सलाह ले कर माकूल दवाओं का इस्तेमाल करें.

* इस महीने खासतौर पर लहसुन के खेतों का बारीकी से मुआयना करें. अगर खेतों में सूखापन दिखाई दे, तो फौरन सिंचाई करें. सिंचाई के अलावा निराईगुड़ाई भी करें, ताकि खरपतवारों से नजात मिल सके.

* लहसुन के खेतों में 50 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. यदि लहसुन की पत्तियों पर पीले धब्बों का असर दिखे, तो इंडोसल्फान एम 45 दवा के 0.75 फीसदी वाले घोल का छिड़काव करें ताकि फसल अच्छी हो.

* आमों की फसल आने में भले ही कई महीने बाकी हैं, मगर उन के पेड़ों का खयाल रखना जरूरी है. मिलीबग कीट आमों के लिए घातक होते हैं. इन से बचाव के लिए पेड़ों के तनों के चारों तरफ पौलीथीन की करीब 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी बांध कर उस के सिरों पर ग्रीस लगा दें.

* आम के पेड़ों के तनों व थालों में फौलीडाल पाउडर छिड़कें. इस के अलावा पेड़ों की बीमारी के असर वाली डालें व टहनियां काट कर जला दें.

* सर्दी के असर वाले इस महीने में अपने मवेशियों का खयाल रखें, क्योंकि सर्दी से इनसानों के साथसाथ जानवरों के भी बीमार होने का खतरा रहता है. गायभैंसों को सर्दी से बचाने का पूरा बंदोबस्त करें.

* अपने मुरगेमुरगियों को भी सर्दी से महफूज रखने का इंतजाम करें. जरूरत पड़ने पर डाक्टर को बुलाना न भूलें. 

ओलों के बाद सूखे की मार बदहाल किसान, बेशर्म सरकार

रामपाल सिंह जौनपुर के एक प्रगतिशील किसान हैं उन्होंने अपनी बेटी का इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कालेज में दाखिला करा दिया था. उन के पास जो पैसे थे, वे पहले साल की फीस जमा करने में चले गए. उन की योजना थी कि फीस के लिए कुछ पैसा उत्तर प्रदेश सरकार की छात्रवृत्ति योजना और कुछ खेती की पैदावार से मिल जाएगा. उत्तर प्रदेश सरकार से छात्रवृत्ति मिली नहीं और खेती में ओले पड़ जाने से गेहूं की फसल बरबाद हो गई. तब रामपाल ने बैंक से एजूकेशन लोन के लिए आवेदन किया. एजूकेशन लोन मिलने में देरी हो रही थी. बेटी को दूसरे साल की फीस जमा करनी थी. परेशान रामपाल सिंह को जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो उस ने अपनी 1 बीघा जमीन बेच दी.

रामपाल ने जो हिम्मत दिखाई वह कई लोग नहीं दिखा पाते. सब के पास बेचने लायक जमीन भी नहीं होती. सरकारों ने कागजों पर खेती और किसानी को ले कर तमाम योजनाएं बना रखी हैं. ये कागजी योजनाएं सही तरह से लागू हों तो किसानों को राहत मिले. बेशर्म सरकार बदहाल किसानों की सुध लेने को तैयार नहीं है. आंध्र प्रदेश से अलग हो कर बने तेलंगाना राज्य के करीमनगर में 15 साल के एक लड़के ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. आत्महत्या से पहले लड़के ने अपने मोबाइल में वीडियो संदेश रिकार्ड किया. उस में उस ने कहा कि वह अपने स्कूल की 5 हजार रुपए फीस जमा नहीं कर पाया, नतीजतन टीचर ने उसे क्लास से बाहर खड़ा रखा. वह लड़का जानता था कि उस का परिवार 5 हजार रुपए फीस चुकाने में असमर्थ है. इसलिए उस ने आत्महत्या कर ली. खेती से जुड़े लोग और उन के परिवार पूरी तरह से बदहाली के कगार पर हैं. यही वजह है कि खेती के कामकाज करने वाली जातियां भी अपने लिए आरक्षण की मांग करने लगी हैं. महाराष्ट्र में मराठा, उत्तर प्रदेश, हरियाणा व राजस्थान में जाट और गुजराज व उत्तर प्रदेश में पटेल बिरादरी इस के लिए आंदोलन कर रही है. 

फसल बरबाद बेबस किसान

लगातार तीसरी बार फसल के बरबाद होने से किसान बदहाली की कगार पर पहुंच चुके हैं. खेती के बल पर उन्होंने जो योजनाएं बनाई थीं, वे सब धरी की धरी रह गईं. उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में गेहूं की फसल जब ओलों से बरबाद हुई, तो जिस किसान ने आत्महत्या की उस के ही बेटे ने धान की फसल के सूखने पर आत्महत्या कर ली. ओले गिरने से गेहूं की फसल बरबाद हो गई थी. किसानों को उम्मीद थी कि धान की फसल ठीक होगी, जिस से उन को कुछ राहत मिल सकेगी. सितंबर बीत जाने के बाद भी ठीक तरह से पानी नहीं गिरा, जिस की वजह से धान की फसल ठीक नहीं हुई. प्रदेश में बिजली की खराब हालत और डीजल महंगा होने से पंप से सिंचाई काफी महंगी होती है, जिस से धान की खेती की लागत बढ़ जाती है. इस के अलावा पानी न गिरने से धान की फसल में कीड़े लगते हैं और धान के दानों में सही वजन नहीं होता. इस वजह से धान का भाव भी नहीं मिलता है.

सितंबर बीत जाने के बाद भी सूखे के हालात को देखने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश को सूखा ग्रस्त घोषित नहीं किया है. इस से किसान परेशान हैं. किसान रामसेवक कहते हैं, ‘लगातार तीसरी फसल खराब होने से तमाम किसान बदहाल हो चुके हैं. समझ नहीं आ रहा कि हालात का सामना कैसे करें.’ सरकार ने राहत के नाम पर किसानों को नकद पैसा देने की योजना चलाई, पर उस में लेखपालों की मनमानी देखने को मिली. किसानों को सही तरह से राहत चेकों का भुगतान नहीं किया गया. गेहूं के किसानों को शुरुआत में राहत के नाम पर चेक दिए भी गए, पर बाद में यह सिलसिला बंद हो गया. रामसेवक कहते हैं, ‘सरकार मुआवजा भले ही न दे पर फसल की सही कीमत तो दे. उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का पैसा चीनी मिलें दबाए बैठी हैं. अगर वह पैसा ही इन किसानों को मिल जाए तो बहुत बड़ी राहत हो सकती है.’

संकट पूरे देश में

किसानों पर यह सकंट पूरे देश में आया है. परेशानी की बात यह है कि सभी राज्यों की सरकारें एक जैसा व्यवहार ही कर रही हैं. दक्षिण भारत के किसान भी अपनी फसल और उस की पैदावार की उचित कीमत न मिलने से परेशान हैं. कर्नाटक में जुलाई तक 180 किसानों ने आत्महत्या की. सूबे में इस पूरे दशक में इतनी तादाद में किसानों ने आत्महत्या नहीं की. महाराष्ट्र के किसान भी कपास और गन्ने की फसल बरबाद होने से तबाह हो रहे हैं. किसानों की मौतों का सिलसिला कई दशकों से चल रहा है. आत्महत्या के पीछे केवल फसल की बरबादी ही सब से बड़ी वजह नहीं होती है. कई बार किसान कर्जअदा न कर पाने के कारण भी आत्महत्या कर लेते हैं. सरकारी स्तर पर किसानों की हालत को सही तरह से देश के सामने नहीं रखा जाता है. किसानों के खेतों का आकार घटता जा रहा है. शहरीकरण और परिवार में हो रहे अलगाव से खेती की जमीन लड़ाईझगड़ों में फंस जाती है, जिस से कई बार किसान जमीन बेचने में ही भलाई समझते हैं.

खेती के क्षेत्र में बड़े बदलावों की जरूरत है. खेती के नुकसान की भरपाई के लिए बनी फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड और किसान बीमा योजना जैसी योजनाओं क सही संचालन से भी किसानों को लाभ मिल सकता है. जरूरत इस बात की भी है कि तहसीलों और थानों में दर्ज किसानों की जमीनों पर होने वाले झगड़ों का जल्द निबटारा हो. कृषि विभाग कुछ इस तरह से काम करे कि किसानों को लगातार यह जानकारी मिलती रहे कि किस तरह से खेती में आई आपदा का वे मुकाबला करें. मौसम विभाग अगर सही मौसम का अनुमान लगा सके और किसान उस के अनुसार अपनी फसल की योजना बनाएं तो मौसम की मार से काफी हद तक बचा जा सकता है.

एकजुटता की कमी

किसानों की परेशानियों पर सरकारें गंभीर नहीं हैं. वे आग लगने पर कुआं खोदने वाले काम करती हैं. सूखा और ओले पड़ने पर सरकार योजनाओं की घोषणा करती है. कुछ को राहत मिलती है, कुछ को नहीं. राहत के नाम पर सरकारी नौकर पैसे की बंदरबांट करते हैं. राहत से ज्यादा जरूरी है कि किसानों के लिए दीर्घ कालीन योजनाएं बनें. भारत एक कृषि प्रधान देश है. इस के बाद भी यहां खेती के लिए गंभीरता से योजनाएं नहीं बन रही हैं. दुनिया भर के देश खेती में नए प्रयोग कर रहे हैं. घटती जमीन की कमी को पूरा करने के लिए प्रति हेक्टेयर खेती की पैदावार बढ़ाई जा रही है. भारत के मुकाबले छोटेछोटे देश प्रति हेक्टेयर पैदावार में भारत से आगे हैं. सरकार ने फसल बीमा योजना और किसान बीमा योजना की शुरुआत इसीलिए की थी कि किसान परिवारों को जरूरत पड़ने पर राहत मिल सके. किसानों के लिए ये योजनाएं इस तरह से बननी चाहिए कि किसानों को बिना भागदौड़ के इन का लाभ मिल सके.

किसान जातिधर्म और क्षेत्र की राजनीति छोड़ कर किसान नीतियों पर एक जुट हो कर आंदोलन करें तो सरकारें दबाव में आएंगी. लोकतंत्र में एकजुटता और तादाद के बल का अपना महत्त्व होता है. उत्तर प्रदेश में पौने 2 लाख शिक्षामित्रों की एकजुटता एक मिसाल के रूप में देखी जा सकती है. केवल पौने 2 लाख शिक्षामित्र एकजुट हैं, तो प्रदेश सरकार से ले कर केंद्र सरकार तक नियमकानूनों की परवाह किए बिना उन का साथ दे रही है. केवल उत्तर प्रदेश में 16 करोड़ किसान हैं. अगर वे सब एकजुट हो जाएं तो कोई भी सरकार उन की अनदेखी नहीं कर सकती है. सरकारों ने बहुत होशियारी से किसानों को जातिबिरादरी के खांचे में बांट दिया ताकि वे एकजुट हो कर अपनी बात न कह सकें. किसान और किसान योजनाओं को ले कर केवल एक पार्टी की सरकार ही उदासीन नहीं रहती, बल्कि हर पार्टी की सरकार उदासीन रहती है. किसान एकजुट होंगे तभी उन को लाभ मिल सकेगा. 

सब्जी की खेती से सुधरे हालात

उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के गांव किशुनपुर ग्रिंट के आदित्य प्रसाद कुआनो नदी से सटे सुंदरघाट जंगल के जंगली पशुओं से होने वाले नुकसान की वजह से खेती छोड़ कर दूसरे काम करने लगे थे. इसी वजह से उन के परिवार का खर्चा मुश्किल से चल पाता था. उन की पत्नी उन्हें गेहूंगन्ना जैसी फसलों के अलावा दूसरी फसलें लेने पर जोर देती, लेकिन गांव के अन्य किसानों के साथ वे ताश के खेल में उलझे रहते थे. 2 साल पहले आदित्य की पत्नी ने गांव में स्पेस संस्था द्वारा सब्जी की खेती पर दी गई ट्रेनिंग में भाग लिया, जिस में वैज्ञानिक तरीके से कम लागत में अधिक उत्पादन के तरीके बताए गए व मचान विधि पर जानकारी दी गई. ट्रेनिंग में यह भी बताया गया कि अगर किसान खुद अपनी सब्जी बेचे तो उस की मालीहालत तेजी से सुधर सकती है.

इस ट्रेनिंग के बाद आदित्य की पत्नी ने उन्हें मचान विधि से सब्जी की खेती करने की सलाह दी तो आदित्य बिदक गए और बोले कि मैं एक बीमा कंपनी में काम करता हूं, इसलिए मैं बाजार में सब्जी नहीं बेच पाऊंगा. इस पर पत्नी ने आदित्य से कहा कि वे सब्जी की खेती के लिए हामी भरें, वह तैयार सब्जी को खुद बच्चों के साथ बाजार में बेच लेगी. आखिर पत्नी की जिद की वजह से आदित्य ने साल 2013 में बांस का मचान बना कर मचान के नीचे प्याज व ऊपर लौकी की फसल ली. इस फसल में आदित्य ने पत्नी द्वारा तैयार जैविक कीटनाशी व जैविक खादों को डाला. 500 वर्गमीटर में ही लौकी व प्याज की भरपूर पैदावार हुई. उन्होंने अपने खेत से लौकी की तोड़ाई कर के अपने लड़के को लौकी बेचने के लिए बाजार में बैठाया. उन के लड़के ने 1 घंटे बाद फोन कर के बताया कि उन की सारी लौकी जैविक विधि से पैदा किए जाने की वजह से सब से पहले और सब से ऊंचे रेट पर बिकी. घर आने पर आदित्य के लड़के ने पहली बार में ही 600 रुपए पिता के हाथों पर रखे तो उन की शर्म दूर हो गई. अगली बार वे खुद अपने बेटे के साथ सब्जी बेचने बाजार गए.

इस बार उन्हें 1500 रुपए की आमदनी हुई. अब तो आदित्य नियमित रूप से बाजार में अपनी सब्जी बेचने जाने लगे. उन्हें सिर्फ 3 महीने में 40 हजार रुपए की आमदनी हुई. अब आदित्य की फिर से खेती में रुचि जग गई. उन्होंने लौकी और प्याज की फसल के बाद खाली खेत में करेला और सूरन की खेती करने का फैसला लिया. इस के लिए उन्होंने स्पेस संस्था से जरूरी तकनीकी सहयोग भी लिया. इस बार उन्हें पहले से ज्यादा आमदनी हुई. आदित्य का मन अब खेती में पूरी तरह लग चुका है. इस बार उन्होंने अपने खेत में कई तरह की सब्जियां उगा रखी हैं, जिन में पालक, मूली, चुकंदर, धनिया, सूरन व करेला वगैरह शामिल हैं. वे रोजाना करीब 15 सौ रुपए की सब्जी बेच लेते हैं. आदित्य ने अपनी पत्नी की प्रेरणा से फिर खेती से जुड़ कर सब्जी उत्पादन की दिशा में एक मिसाल कायम की है. उन के द्वारा जैविक विधि से उगाई गई सब्जियों की बाजार में भारी मांग बनी रहती है. मचान विधि से सब्जी की खेती करने से उन की फसल पर जंगली जानवरों का हमला नहीं होता है. खेत में लगाए गए मचान बाड़ का काम करते हैं.

आदित्य का कहना है कि उन्होंने जंगली जानवरों के डर से खेती से मुंह मोड़ लिया था, लेकिन उन की पत्नी की प्रेरणा ने उन्हें दोबारा खेती करने के लिए राजी किया. अब उन के घर की माली हालत में तेजी से सुधार आया है. यह मचान विधि से सब्जी की खेती करने की वजह से ही मुमकिन हुआ है. स्पेस संस्था के संजय कुमार पांडेय का कहना है कि आदित्य की सब्जी की खेती उस इलाके के लिए एक मिसाल बन चुकी है.

वैसे इस हकीकत को आदित्य ही बेहतर जानते हैं कि उन की तरक्की की असली वजह उन की मेहनती पत्नी हैं. अगर उन की पत्नी स्पेस संस्था के जरीए कदम आगे न बढ़ातीं तो शायद आदित्य आज भी ताश खेल रहे होते. अब तो आदित्य से सीख ले कर अगलबगल के गांवों के सैकड़ों किसान मचान खेती अपना कर अपनी माली हालात को सुधार रहे हैं

टमाटर की फसल में कीड़ों की रोकथाम

भारत सब्जी उत्पादन में चीन के बाद दूसरे नंबर पर आता है. भारत में करीब 15 लाख हेक्टेयर भूमि पर टमाटर की खेती की जाती है. टमाटर एक खास सब्जी है, जिसे साल भर उगाया जाता है. टमाटर की फसल में कीटों व रोगों से किसानों को काफी नुकसान होता है टमाटर की फसल को कीटों से करीब 40-50 फीसदी तक नुकसान होता है. कीड़ों से बचने के लिए उन की रोकथाम के बारे में जानकारी रखना बहुत जरूरी है. टमाटर में फलभेदक माहू, सफेद मक्खी, तंबाकू की सूंड़ी, पर्ण फुदका, पर्ण सुरंगक व मूल गं्रथि निमेटोड वगैरह कीड़ों का हमला ज्यादा होता है. यहां टमाटर की फसल को कीड़ों से बचाने के बारे में बताया जा रहा है. भारत में टमाटर की फसल को साल भर उगाया जा सकता है. यह सब्जी की खास फसल है. इस के बिना सब्जी अधूरी मानी जाती है. टमाटर में विटामिन सी की काफी मात्रा होती है. टमाटर का इस्तेमाल सब्जियों में डालने के अलावा सूप, सौस, चटनी व सलाद बनाने में किया जाता है. टमाटर की फसल किसानों को अच्छी आमदनी के साथसाथ रोजगार का मौका भी देती है.

पेश है टमाटर में लगने वाले कीड़ों व उन से बचाव की पूरी जानकारी :

फलभेदक (हेलिकोवरपा आर्मीजेरा)

पहचान : इस कीट का वयस्क मध्यम आकार का व पीलेभूरे रंग का होता है. इस के अगले पंखों पर भूरे रंग की कई धारियां होती हैं, जिन पर सेम के आकार के छोटेछोटे काले धब्बे पाए जाते हैं. निचले पंखों का रंग सफेद होता है, जिन की शिराएं स्पष्ट रूप से काली दिखाई देती हैं और बाहरी किनारों पर चौड़ा धब्बा होता है. इस कीट की मादा पत्तियों की निचली सतह पर हलके पीले रंग के खरबूजे जैसी धारियों वाले अंडे देती है. 1 मादा अपने जीवनकाल में करीब 500-1000 तक अंडे देती है. ये अंडे 3 से 10 दिनों के अंदर फूट जाते हैं.

नुकसान : सूडि़यां पत्तियों, मुलायम तनों व फूलों को खाती हैं. बाद में ये सूडि़यां कच्चेपके टमाटर के फलों में छेद कर के उन के अंदर का गूदा खा जाती हैं. ऐसे टमाटर खाने लायक नहीं रहते हैं. कीड़ों के मलमूत्र के कारण टमाटर में सड़न शुरू हो जाती है. नतीजतन फलों की परिरक्षण कूवत कम हो जाती है. इस कीट के असर से करीब 50 फीसदी फसल तबाह हो जाती है.

इलाज

* जाल फसल के लिए टमाटर रोपाई से 10 दिन पहले गेंदे की 1 लाइन टमाटर की हर 14 लाइनों के बाद लगानी चाहिए.

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने के लिए 10 स्टैंड प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगाएं.

* कीट का हमला दिखाई पड़ते ही अंड परजीवी ट्राइकोग्रामा ब्रेसीलिएंसिस (ट्राइकोकार्ड) के 1 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से 5-6 बार छोड़ने चाहिए.

* सूंडी की पहली अवस्था दिखाई देते ही 250 एलई के एचएएनपीवी को 1 किलोग्राम गुड़ और 0.1 फीसदी टीपोल में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से 10-12 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* इस के अलावा 1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* इस के बाद 5 फीसदी एनएसकेई का छिड़काव करें.

* कीट का असर बढ़ने पर क्विनोलफास 25 ईसी या क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी का 2 मिलीलीटर प्रति लीटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल का 1 मिलीलीटर की दर से छिड़काव करें.

* स्पाइनोसैड 45 एससी व थायामेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से इस्तेमाल करें.

तंबाकू की सूंड़ी (स्पोडोप्टेरा लिटूरा)

पहचान : इस कीट के पतंगे भूरे रंग के होते हैं. ऊपरी पंख कत्थई रंग का होता है, जिस पर सफेद लहरदार धारियां पाई जाती हैं. इस के पिछले पंख सफेद रंग के होते हैं. मादा पत्तियों की निचली सतह पर 250 से 300 अंडे झुंड में देती हैं, जो भूरे रंग के रोओं से ढके रहते हैं. इन अंडों से 3 से 5 दिनों में पीलापन लिए हुए गहरे हरे रंग की सूंडि़यां निकती हैं.

नुकसान : इस कीट की सूंडि़यां हानिकारक होती हैं. शुरू में सूंडि़यां झुंड बना कर पत्तियों को खाती हैं. ये सूंडि़यां पौधों की शिराओं, डंठल व पौधे की कोमल टहनियों को भी खा जाती हैं. कभीकभी ये रात के समय बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं. इन की वजह से पौधे ठूंठ बन जाते हैं. टमाटर के अलावा इन का हमला फूलगोभी, तंबाकू व चना वगैरह पर भी होता है.

इलाज

* अंडों व सूंड़ी के गुच्छों को हाथ से पत्ती सहित तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* खेत के चारों ओर अरंडी की फसल की बोआई करें.

* ट्राइकोग्रामा कीलोनिस के 1.5 लाख या किलोनस ब्लैकबर्नी या टेलिनोमस रिमस के 1 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से छोड़ें.

* विकसित सूंडि़यों पर टेकेनिड मक्खी, स्टरनिया एक्वालिस व चिवंथेमियों परजीवी का इस्तेमाल करें.

* 5 किलोग्राम धान का भूसा, 1 किलोग्राम शीरा व आधा किलोग्राम कार्बारिल को मिला कर पतंगों को आकर्षित करने के लिए इस्तेमाल करें.

* एसएलएनपीवी 250 एलई का प्रति हेक्टेयर की दर से 8-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* 1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* फसल में जहर चारा यानी 12.5 किलोग्राम राईसबीन, 1.25 किलोग्राम जगेरी, कार्बेरिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी 1.25 किलोग्राम और 7.5 लीटर पानी के घोल का प्रति हेक्टेयर की दर से शाम के समय छिड़काव करें, जिस से भूमि से सूंड़ी निकल कर जहर चारा खा कर मर जाएगी.

* सूंडि़यों को खत्म करने के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल, एसिटामिप्रिड क्लोरपायरीड या थायोमेक्जाम का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से इस्तेमाल करें.

पर्ण फुदका (ऐमरास्का डिवास्टेंस)

पहचान : यह करीब 4 मिलीमीटर लंबा प्रकाश प्रिज्म कीट है. इस कीट का रंग हराभूरा या सलेटीभूरा होता है. यह हलकी सी आहट से उड़ जाता है. इस की मादा सुबह या रात को संगम कर के पत्तियों की नसों में 15-25 अंडे देती है. ये अंडे 4 से 11 दिनों में फूट जाते हैं और इन से छोटेछोटे फुदके निकलते हैं.

नुकसान : वयस्क व निम्फ दोनों ही पत्तियों का रस चूसना शुरू कर देते हैं और पौधों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं. पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और बाद में भूरी हो कर सूख जाती हैं. नतीजतन पौधे सूख जाते हैं. यह नुकसान कीट की जहरीली लार के कारण होता है.

इलाज

* सही मात्रा में उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए

* कीट का हमला होने पर यूरिया का इस्तेमाल रोक देना चाहिए.

* फसल के ऊपर मिथाइल डिमेटोन 25 ईसी या इाईमेथोएट 30 ईसी का 600 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

* इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

सफेद मक्खी (बेमिसिया टैबेकी)

पहचान : इस कीट के निम्फ व वयस्क पत्ती की निचली सतह पर बैठना पसंद करते हैं. यह कीट पूरे साल सक्रिय रहता है, पर सर्दियों में ज्यादा सक्रिय रहता है. इस के शरीर पर सफेद परत पाई जाती है. मादा मक्खी पत्तियों की निचली सतह पर 100 से 150 अंडे देती है. निम्फ अवस्था 81 दिनों में पूरी हो जाती है.

नुकसान : इस का प्रकोप पूरे फसलकाल में बना रहता है. टमाटर के अलावा अन्य फसलों पर भी पूरे साल इस का प्रकोप पाया जाता है. इस के निम्फ व वयस्क पत्तियों की कोशिकाओं से रस चूसते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस के अलावा यह वाइरस जनित रोग भी फैलाता है. पत्तियां कमजोर हो कर गिर जाती हैं.

इलाज

* फसल देर से न बोएं और सही फसलचक्र अपनाएं और 1 साल में 1 ही बार कपास की फसल बोएं.

* परपोषी फसलें टमाटर व अरंडी एकांतर में लगाएं.

* पीलेचिपचिपे 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* सफेद मक्खी से ग्रसित पत्तियां, फूल और पौधे तोड़ कर नष्ट कर देने चाहिए.

* क्राइसोपरला कार्निया के 50 हजार से 1 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छोड़ें.

* ग्रसित पौधों पर नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या मछली रोसिन सोप 25 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

* कीट की संख्या ज्यादा ऊपर जाते ही मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी 1 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

* इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी 1 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

माहू (माईजस परसिकी)

पहचान : इस कीट को आलू का माहू भी कहते हैं. ये गहरे हरेकाले रंग के होते हैं. माहू के अभ्रक यानी निम्फ छोटे व काले होते हैं और झुंड में पाए  जाते हैं.

वयस्क अवस्था 2 प्रकार की होती है, पंखदार व पंखहीन. इन का आकार करीब 2 मिलीमीटर होता है. इस कीट में अनिषेचित प्रजनन होता है.

निम्फावस्था 7 से 9 दिनों तक रहती है. हरापन लिए वयस्क 2-3 सप्ताह तक जिंदा रहते हैं व रोजाना 8 से 22 बच्चे पैदा करते हैं. इस का हमला दिसंबर से मार्च तक ज्यादा होता है.

नुकसान : इस के निम्फ व वयस्क पत्तियों व फूलों की डंठल से रस चूसते हैं. इन के असर से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं. इस कीट की पंखदार जाति टमाटर में वाइरस जनित रोग भी फैलाती है.

ये कीट अपने शरीर से चिपचिपा पदार्थ निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली फफूंद पैदा हो जाती है. पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर फफूंद का असर पड़ता है.

इलाज

*  माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, ताकि माहू ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं

*  परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50 हजार से 1 लाख अंडे या सूंड़ी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

*  नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* ज्यादा प्रकोप होने पर मिथाइल डेमीटान 25ईसी 1 लीटर का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

पर्ण सुरंगक (लरियोमाइजा ट्राइफोली)

पहचान : इस कीट का मैगट ही ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. वयस्क मादा पत्तियों में छेद कर के अंडे देती है, जिन से 2-3 दिनों बाद मैगट निकल कर पत्तियों में सफेद टेढ़ीमेढ़ी सुरंगें बना कर पत्तियों के हरे भागों को खा कर नष्ट कर देते हैं.

पुरानी पत्तियों में सफेद, लंबी व गोलाकार सुरंगें देखी जा सकती हैं. नई पत्तियों में ये सुरंगें छोटी व पतली होती हैं. इस का प्रकोप प्रौढ़ अवस्था में भी देखा जा सकता है. इस के प्यूपा भूरेपीले रंग के होते हैं. इस के प्रकोप से पत्तियां मुरझा कर सूख जाती हैं.

इलाज

* इस की रोकथाम के लिए 4 फीसदी नीम गिरी चूर्ण का पानी में घोल बना कर छिड़काव करना लाभकारी पाया गया है. इस के अलावा निंबीसिडिन 1-2 लीटर प्रति हेक्टेयर या लहसुन 7 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर या कानफिडोर 0.3 मिलीमीटर या इंडोसल्फान 2 मिलीलीटर का प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करने से भी फायदा होता?है.

* इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या स्पाइनोसेड 45 एससी या थायोमेथ्योम्जाम 70 डब्ल्यूएस की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से इस्तेमाल करें.

मूलग्रंथि निमेटोड (मेलाइडोगाईन जवानिका)

पहचान : वयस्क मादा नाशपाती की शक्ल की गोलाकार होती?है. इस का अगला भाग पतला और अलग सा मालूम होता है. हर मादा करीब 250-300 अंडे देती है. ये अंडे एक लिसलिसे पदार्थ से निकलते हैं. अंडों के अंदर ही लार्वे पहली अवस्था पार करते हैं. दूसरी अवस्था के लार्वे अंडों से निकल कर मिट्टी के बीच रेंगते रहते हैं और जड़ों के पास पहुंचने पर उन से चिपक जाते हैं. ये जड़ों को बेध कर ऊतकों में पहुंच जाते हैं. जड़ों के अंदर ही लार्वों का विकास होता है.

इस निमेटोड की शोषण क्रिया से पौधों के नए ऊतकों में तेजी से विभाजन होता है, उन की कोशिकाओं का आकार बढ़ जाता है और इस प्रकार ग्रंथियों का जन्म होता है. इन्हीं ग्रंथियों के अंदर निमेटोड एक फसल काल से दूसरी फसल काल तक जीवित रह कर हमले करते हैं.

नुकसान : इस निमेटोड के असर से मूल गं्रथि रोग होता है, जिस से पौधों की जड़ें खराब होती हैं. नतीजतन उन की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. फल बहुत कम लगते हैं और पौधे सूख जाते हैं.

इलाज

* परपोषी फसलों को लगातार एक ही खेत में लगाने से इस निमेटोड की तादाद बढ़ती है. सही फसलचक्र अपना कर इस का प्रकोप कम किया जा सकता है.

* गरमियों में खेत की 2-3 बार गहरी जुताई कर के मिट्टी को अच्छी तरह सूखने देने से ये कीट खत्म हो जाते हैं.

* निमेटोड का ज्यादा प्रकोप होने पर निमेटोडनाशी का इस्तेमाल करना चाहिए. इस के लिए डीडी 300 लीटर या निमेगान 18 लीटर या फ्यूराडान 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से फसल रोपने के 3 हफ्ते पहले मिट्टी में मिलाना चाहिए.

* प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग करें.

* मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ मिलाने से भी इस निमेटोड की रोकथाम में काफी मदद मिलती है. लकड़ी का बुरादा, नीम या अरंडी की खली 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से फसल लगाने से 3 हफ्ते पहले खेत में मिलाने पर मूलगं्रथिंयों की तादाद में काफी कमी पाई गई है.                     

अमेरिका में चुनाव

अमेरिका में 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में पैसे वालों और बिना पैसे वालों की लड़ाई होने की संभावनाएं बढ़ रही हैं. बराक ओबामा की डैमोक्रैटिक पार्टी की नंबर वन उम्मीदवार हिलेरी क्ंिलटन पर अभी तक स्वतंत्र बर्नी सैंडर्स भारी पड़ने लगे हैं क्योंकि वे कौर्पोरेट्स यानी अमीरों के खिलाफ मोरचा खोले हुए हैं. उन को महंगाई, बेरोजगारी, अमीरगरीब की बढ़ती खाई और कट्टरपंथ से त्रस्त आम जनता का खासा समर्थन मिल रहा है. दूसरी तरफ कौर्पोरेट घराने और अमेरिकी चर्च रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों को खूब पैसा दे रहे हैं, ताकि अमेरिका में अमीरों व कट्टरपंथियों का दबदबा बना रहे.

थोड़े दिन पहले तक यह पक्का था कि डैमोक्रैटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्ंिलटन ही होंगी पर अब उन की पैसे वालों के प्रति सहानुभूति देख कर अमेरिकी जनमानस बिदकने लगा है और बर्नी सैंडर्स को बहुत ज्यादा भीड़ व पैसा मिलने लगा है. उधर प्रतिक्रियास्वरूप खरबपति बिल्डर डोनाल्ड ट्रम्प को रिपब्लिकनों का समर्थन ज्यादा मिल रहा है, क्योंकि अमेरिका का पैसे वाला वर्ग किसी समझौतावादी को ह्वाइट हाउस में नहीं देखना चाहता. यह वही वर्ग है जो ओबामा की हैल्थकेयर यानी सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं और बीमा के विरुद्ध है और जो वैध या अवैध तरीके से अमेरिका में घुसे विदेशी मजदूरों को भगाने का समर्थक है. स्थिति तो जून 2016 तक स्पष्ट होगी पर यह लग रहा है कि दोनों पार्टियां अब सेमसेम यानी एकजैसी नहीं रह गईं और दोनों ने परस्पर विरोधी बिंदु अपना लिए हैं. एक तरह से देशभर में एक तरफ अमीर कट्टरवादियों की पार्टी है और दूसरी तरफ गरीबों की औक्यूपाई वाल स्ट्रीट मूवमैंटों का असर है.

इस बीच, श्वेतअश्वेत संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ गया है क्योंकि अमेरिका के गोरे पुलिस वाले हर अश्वेत को जन्मजात (जैसा हमारे यहां दलितों को माना जाता रहा है-पापी, अछूत) अपराधी मानते हैं और उसे शरीफ होने का प्रमाण सा देना होता है. कितने ही निहत्थे अश्वेतों को पुलिस वालों ने गोली से उड़ा दिया है और ज्यादातर मामलों में अदालतों, जिन में आम आदमियों की जूरी फैसला करती है (खापों की तरह), ने इन हत्यारे पुलिस वालों को छोड़ दिया है. भारत में तो यह स्थिति लगातार बनी रही है. आजादी के बाद से ही गांधी नेहरू की कांग्रेस और फिर भारतीय जनता पार्टी अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी की तरह धर्म और पैसे की नीति पर चलती आ रही है जबकि इंदिरा गांधी व सोनिया गांधी की कांग्रेस, जनता परिवार व दूसरी छोटी क्षेत्रीय पार्टियां गरीबों की हमदर्द बनी रही हैं. अंतत: मजा तो वैसे पैसे वालों का ही होना है, अमेरिका में भी और भारत में भी.

भारतीयों की सोच

विजातीय विवाहों पर आज भी देश में खासे बवाल हो जाते हैं. उत्तर भारत के गांवों की खापें तो इस मामले में बेहद बदनाम हो चुकी हैं. वे सम्मान रक्षा के नाम पर परिवार के सदस्यों को ही अपने बच्चों को खुद मारने को तैयार कर लेती हैं. अनुष्का शर्मा की फिल्म एनएच-10 एक से दिखते लेकिन अलग जातियों के पे्रमियों पर है जिस में भाई अपनी मां के कहने पर बहन को मार डालते हैं. जाति और वर्ण का यह भेदभाव भारतीय अपने साथ विदेश भी ले गए हैं और कई सदियों से भारत से बाहर रहने वाले परिवार भी गैरभारतीय से विवाह करने पर हल्ला मचा देते हैं. अफ्रीका में हजारों भारतीय मूल के परिवार बसे हैं पर उन में यदाकदा भारतीय युवती के गोरे से विवाह की बात को सुना जाता है पर काले युवक से विवाह होने में घर वाले भड़क जाते हैं.

अफ्रीकी देश केन्या के एक छोटे से शहर वेब्यू में भारतीय मूल के धनी परिवार की युवती सारिका पटेल ने गांव से आए काले युवक टिमोशी खामला से जब विवाह कर लिया तो भारतीय मूल का परिवार बिफर पड़ा. पहले तो उस ने विवाह रोकने की कोशिश की पर जब दोनों ने घर से भाग कर शादी कर ली तो लड़के पर, भारत की तर्ज पर, अगवा करने का झूठा आरोप लगा दिया. युवती ने हिम्मत दिखाई और पति के छोटे घर में शिफ्ट हो गई. पर लड़की के मातापिता ने लगातार दखल बनाए रखा. वहां अल्पमत में होने के कारण भारतीय मूल के परिवार वाले कानून तो हाथ में न ले पाए पर उस को मनाने के लिए बारबार उस के पास पहुंच जाते और आखिरकार पतिपत्नी के बीच खाई खड़ी कर ही दी. पतिपत्नी संबंध आपसी भरोसे और आदर पर निर्भर करते हैं और यदि उन में लगातार मिर्चें व कंकड़ डाले जाते रहें तो अच्छे अच्छों के भी दांत टूट जाते हैं. सारिका घर की सुविधाओं के अभाव, पैसे की कमी, पति की पहली पत्नी के बेटे को पालने के बोझ और परिवार की तरफ से लगातार बे्रनवाश्ंिग के आगे झुक गई और टिमोशी पर बुरे व्यवहार करने का आरोप लगा कर लौट गई.

जाति में विवाह का वायरस हमारे खून में अंदर तक बसा है और दुनिया भर में बसे भारतीय आज भी अपनों में शादी कर रहे हैं. गोरों से की शादी तो स्वीकार हो जाती है पर मुसलिम या काले से विवाह बिलकुल स्वीकार नहीं है. अमेरिका के हर शहर के मंदिर में 2-3 विवाह भारतीयों के हो जाते हैं पर अधिकांश अपनी बोली, अपनी जाति, अपनी धार्मिक स्थिति के चक्रव्यूह में फंसे होते हैं. ये विवाह चलते हैं पर इन में प्रेम नहीं होता, कोरा निभाना होता है. वर्ष 1972 में तत्कालीन राष्ट्रपति ईदी अमीन ने युगांडा से 80 हजार भारतीयों को निकाल दिया था क्योंकि वे अफ्रीकी समाज में घुलमिल नहीं रहे थे. भारतीय मूल का समाज एक भी लड़की को ईदी अमीन से विवाह करने को तैयार न कर पाया. दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लड़कियों के चक्कर कालों से अब खासे चलने लगे हैं क्योंकि वे अब सत्ता में हैं, सफल हैं, पत्नी का खयाल रखने वाले हैं. फिर भी इस पर खासा विवाद उठता है. विदेशों में बस कर भी गोरी चमड़ी, ऊंचे वर्ण का मोह नहीं टूटा.

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