50वें वर्ष में चल रहे शाहरुख खान 15.4 फीसदी हिंदुस्तानियों के रोल मौडल हैं. उन्हें रोल मौडल मानने वालों में 90 फीसदी की उम्र 30 साल से कम है और इन में से 95 फीसदी से ज्यादा लोग उन के चुस्तदुरुस्तपन और इस उम्र में भी जवान दिखने के कायल हैं. इसी तरह 10.7 फीसदी लोग अमिताभ को अपना रोल मौडल मानते हैं. उन्हें पसंद करने वाले भी उन के 71 साल की उम्र में भी युवा दिखने पर ही मुग्ध हैं. चाहे नंदन नीलकेणी हों या टौप टेन में शामिल कोई भी दूसरा रोल मौडल, इन सब को लोग इसीलिए भी चाहते हैं कि ये तमाम लोग बढ़ती उम्र में भी चुस्तदुरुस्त और आकर्षक दिखते हैं.

एक ऐसे देश में जहां 54 फीसदी तक की आबादी युवा हो, अगर उस देश की जवानी सब से बड़ी यूएसपी हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. दरअसल, पिछले कुछ दशकों के आर्थिक विकास ने हमें जो खुशहाली बख्शी है उस के नतीजे में एक जबरदस्त बेचैनी है, यह बेचैनी है प्रदर्शन की. चाहे क्षेत्र कोई भी हो, हर क्षेत्र में लोग अपनी उपलब्धियों को प्रदर्शित करना चाहते हैं. हिंदुस्तान में जिस भी तरफ आप नजर उठा कर देखिए, तीनचौथाई से ज्यादा लोग वरिष्ठ नागरिकों से कम की उम्र के मिलेंगे यानी ऐसे लोग जो कुछ भी करगुजरने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. यही कारण है कि इस बड़े देश में जवानी एक कौमन फैक्टर बन चुकी है. बौलीवुड को अपने देश में फैशन और शानोशौकत से जीने की कला का बैरोमीटर मानें तो देखा जा सकता है कि 80 के दशक के बाद से बौलीवुड में लगातार चुस्तदुरुस्त और युवा बने रहने को तरजीह दी जा रही है. 50 और 60 के दशक में बौलीवुड के पास एक से बढ़ कर एक खूबसूरत चेहरे थे. देवानंद, राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, भारत भूषण, दिलीप कुमार, मनोज कुमार आदि.

ये सब बेहद चिकने चौकलेटी चेहरे थे. गौर से देखें तो एक धर्मेंद्र को छोड़ कर दूसरा कोई भी ऐसा नहीं था जिस के वजूद से जवानी का एहसास होता हो या लगता हो कि जैसे जवानी फूट कर निकल रही हो क्योंकि उस दौर में जवानी आकर्षण का केंद्र तो थी लेकिन जवानी चुंबकीय आकर्षण का केंद्र नहीं थी. शायद ही उस दौर में कोई ऐसा खूबसूरत हीरो रहा हो जिस के 6 पैक्स तो छोडि़ए, 2 या 4 कटाव भी रहे हों. सब की संकरीसंकरी छातियां थीं, सुंदर चेहरे थे और औसत कद. लेकिन 80 के दशक के बाद से यह ट्रैंड बदल गया क्योंकि तब एक एंग्री यंगमैन ने खुद भले अपनेआप को सुगठित शरीर के धनी शख्स के रूप में स्थापित न किया हो, लेकिन शरीर सौष्ठव को एक क्रेज, एक चाहत के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था. हिंदुस्तानी सिनेमा ने पहले व्यवस्थित बौडी बिल्डर हीरो के रूप में संजय दत्त को पाया और फिर सलमान खान ने तहलका मचाया. वास्तव में सलमान खान ही बौलीवुड के ऐसे पहले हीरो थे जिन्होंने बौडी बिल्ंिडग व फड़कती हुई जवानी को, हीरो की यूएसपी बना दिया और आगे चल कर यह चलन हीरो के लिए अनिवार्य हो गया.

90 के दशक में जब भारत ने अर्थव्यवस्था को उदारीकरण का जामा पहनाना शुरू किया और सुधारों के नाम पर भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे दुनिया के लिए खोले जाने लगे तो सिर्फ खुले दरवाजों से अर्थव्यवस्था को लगने वाली हवा ही नहीं आई बल्कि इन दरवाजों से पश्चिमी जीवनशैली और आशाओंआकांक्षाओं के झोंके भी आए और तेजी से भारतीय जनमानस की चाहतें, विशेषकर युवाओं की, बदलने लगीं. यह खुले द्वार से आई मुक्त जीवनशैली का प्रभाव ही था कि देश भर में युवाओं में अपनी बौडी को ले कर एक जबरदस्त सजगता आई. यही कारण है कि 1996 से 2011 के बीच भारत के महानगरों में जिमों के खुलने की तादाद इस के पहले के मुकाबले 900 फीसदी तक बढ़ गई. जिम संस्कृति ने एक तरह से भारतीय युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया. आज की तारीख में बेंगलुरु हो या दिल्ली, चंडीगढ़ हो या मुंबई, पुणे हो या हैदराबाद, इन तमाम शहरों में जिम, ब्यूटीपार्लरों का मुकाबला कर रहे हैं. यह बात अलग है कि इसी दौरान पार्लरों की तादाद में जिमों से 300 फीसदी से ज्यादा का उछाल आया है.

यह सब जवानी के प्रति आकर्षण के चलते संभव हुआ है. यह जवानी का बढ़ता आकर्षण ही है कि पिछले एक दशक में सौंदर्य प्रसाधनों की बिक्री में 700 फीसदी का उछाल आया है, और जिस हिंदुस्तान में 90 के दशक में सौंदर्य प्रसाधनों का कारोबार 85 से 90 करोड़ रुपए सालाना का था, वह कारोबार अब सालाना 10 अरब रुपए की भी सीमा को पार कर चुका है. अगर इस के असंगठित और नकली बाजार को भी इस में अनुमान के आधार पर जोड़ दें तो यह सालाना 13 से 14 अरब रुपए तक पहुंच चुका है. दरअसल, 90 के दशक के उत्तरार्द्ध के बाद युवा बना रहना एक सामाजिक ललक बन कर उभरा है. कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां जवानी ललकभरी दीवानगी का जरिया न बन गई हो. यही वजह है कि जवानी हर जगह एक रोल मौडल बन कर उभरी है. अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ाइए, हर तरफ आप को जवानी के प्रति सजगता मिलेगी. कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां आज युवाओं को तरजीह न दी जा रही हो. क्या कारोबार, क्या सेवा क्षेत्र, क्या सामाजिक क्षेत्र, हर जगह युवाओं के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से जवानी का ही डंका बज रहा है. बैंकों में वर्ष 2000 के बाद 30 से 40 फीसदी युवा स्टाफ को तरजीह दी जा रही है. 2000 से 2012 के बीच बैंकों ने अपने पुराने और उम्रदराज कर्मचारियों को स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण करने के लिए लगातार प्रोत्साहित किया, जिस के चलते बैंकों से 9-12 फीसदी तक स्टाफ समय से पहले रिटायरमैंट ले चुका है. उन की जगह बिलकुल फ्रैश, कम उम्र के युवा रखे गए हैं. 1995 से 2012 के बीच बैंकों के कारोबार में 600 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है. विशेषज्ञों का मानना है कि इस बढ़ोतरी का कारण युवा और हौसले से भरा स्टाफ है.

अर्थशास्त्र में कहा जाता है, ‘विकसित होते समाज की उम्र कम हो जाती है. वह युवा हो जाता है और युवाओं पर ही सब से ज्यादा भरोसा करता है.’ यह सिद्धांत पूरी तरह से हिंदुस्तान पर लागू होता दिख रहा है. कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां युवाओं को तरजीह न दी जा रही हो या युवाओं की वकालत न की जा रही हो. यहां तक कि बुजुर्गों का आरक्षित क्षेत्र माना जाने वाला राजनीतिक क्षेत्र भी अब युवाओं के हस्तक्षेप से रहित नहीं है. दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के प्रभावशाली होने के साथ ही देश में एक आर्थिक खुशहाली और सामाजिक जोश का दौर आया है. भले अपेक्षा के मुताबिक भारत में आर्थिक खुशहाली ने अभी अपनी जड़ें न जमाई हों लेकिन यह कहना गलत होगा कि आर्थिक खुशहाली आई ही नहीं. आज भारत में 20 करोड़ से ज्यादा संपन्न उपभोक्ता हैं और इस में चमकदार पहलू यह है कि इन 20 करोड़ में से 18 करोड़ युवा हैं. इन 18 करोड़ में से 14 करोड़ उपभोक्ताओं का पैसा अपना कमाया हुआ है यानी उन की उपभोग हैसियत उन के खुद के श्रम व कौशल से पैदा हुई है. इसलिए आज भारतीय उपभोक्ता बाजार न सिर्फ बहुत तेजी से फलफूल रहा है बल्कि उपभोक्ता बाजार युवाओं को अपने सिरमाथे पर बैठा रहा है. बाजार में ज्यादातर चीजें युवाओं की इच्छा और अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर उपलब्ध कराई जा रही हैं और उत्पादित की जा रही हैं. देश में 14 करोड़ से ज्यादा ताकतवर उपभोक्ता भरपूर कमा रहे हैं और खर्च करने का निर्णय भी वे खुद ही ले रहे हैं.

कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां हाल के कुछ दशकों में भविष्योन्मुखी माहौल न बना हो. ऐसे में जबकि हर जगह युवाओं का डंका बज रहा हो तो भला फिर जवानी का डंका क्यों न बजे. इसलिए बौलीवुड में हर कामयाब हीरो के लिए जवान बना रहना अपनी शर्त हो गई है. 49 के शाहरुख, 50 के सलमान और लगभग 49 के आमिर इसीलिए आज अपने अभिनय से ज्यादा हर दिन कमनीय होती अपनी जवानी से चौंकाते हैं और आकर्षित करते हैं. सिर्फ सिनेमा के ही क्षेत्र में ये उदाहरण या ऐसे दबाव नहीं हैं बल्कि कौर्पोरेट क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही है. 4 दशक पहले किसी उद्योगपति का चेहरा दिमाग में आते ही बेडौल सेठों का सा शरीर जेहन में कौंधता था. लेकिन आज चाहे अनिल अंबानी हों या सुनील भारती मित्तल, कुमार मंगलम बिड़ला हों या अजीम प्रेमजी, सब के सब अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा और हैसियत जितना ही अपनी लुक और खासतौर पर अपनी जवानी के लिए सजग दिखते हैं. आज के युवा उद्योगपति ऐथलीट माफिक दिखते हैं क्योंकि उन्हें पता है, भारत का युवा समाज थुलथुल शरीर, मुरझाया चेहरा और पस्त हौसलों से घृणा करता है. युवा भारत पर भले दिखावटी होने का आरोप लगे लेकिन वह युवा होने और बने रहने की हर तरकीब अपनाता है. यह अकारण नहीं कि कम उम्र में नौकरी शुरू करने वाले आज के युवा 30 फीसदी तक अपनी कमाई, अपने को युवा बनाए रखने में खर्च करते हैं. उन्हें पता है जो फिट दिखता है वही हिट दिखता है, इसलिए हिंदुस्तान का व्यापक समाज जवानी के लिए दीवाना हो रहा है. जवानी या जवान बने रहना हमारी यूएसपी बन गई है. नतीजतन, जवानी रोल मौडल की कुरसी पर आसीन हो गई है.

जवानी जिंदाबाद

इस की सब से बड़ी वजह यह भी है कि पिछले 2 दशकों में ज्यादातर कामयाबियां जवानी के हिस्से में ही आई हैं. 1990 के पहले तक हिंदुस्तान में अपना घर, अपनी गाड़ी और स्थिर जीवन की उम्र 50 से 55 थी, आज यह 27 से 30 हो गई है. इसे यों समझिए, पहले तथाकथित कामयाबियां जिस में अपना घर, अपनी गाड़ी और व्यवस्थित  घरगृहस्थी शामिल थी, उसे हासिल करतेकरते या वहां तक पहुंचतेपहुंचते आमतौर पर जिंदगी के 50 साल से ज्यादा के सुनहरे दिन समाप्त हो जाते थे. जबकि आज ये तमाम चीजें 26 से 30 साल के बीच में 45 फीसदी से ज्यादा युवाओं को हासिल हो जाती हैं. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज के युवा पहले के मुकाबले कितने कामयाब हैं. पहले बैंक बैलेंस जीवन के उत्तरार्द्ध की उपलब्धि होती थी, आजकल 25 साल का युवक भी अपनी सेविंग को सालाना औसतन 30 से 35 हजार रुपए के बीच हासिल कर रहा है.

कामयाबी की उम्र वाकई कम हो गई है. आज महानगरों की सड़कों में 95 फीसदी मोटरसाइकिलों में युवा मिलेंगे, 55 फीसदी से ज्यादा चमचमाती नई कारों में युवा दिखेंगे और बिकने वाले हर 5 में से इन दिनों 3 फ्लैट युवा खरीद रहे हैं. इस में कोई शक नहीं कि आज 70 और 80 के दशक के मुकाबले महंगाई 6 से 7 गुना ज्यादा है. लेकिन एक सीमित वर्ग ही सही, 20 से 25 फीसदी युवा आज ऐसे हैं जिन की तनख्वाह 70 और 80 के दशकों के मुकाबले 20 से 25 गुना ज्यादा है. कई बूढ़ों को तो यकीन ही नहीं होता कि ऐसा है. मगर वास्तव में ऐसा है. आज हर नौकरी की शुरुआत करने वाले युवा की औसत सैलरी 80 के दशक की औसत सैलरी से महंगाई का अनुपात निकालने के बाद भी 3 से 4 गुना ज्यादा है.

आज हर क्षेत्र में कामयाबी की उम्र घट गई है. चाहे कार खरीदने के संबंध में बात की जा रही हो या फ्लैट खरीदने के, चाहे कौर्पोरेट सैक्टर में अपने आइडिया का डंका बजाने की बात की जा रही हो या फिर कारोबार के क्षेत्र में अपने कारोबार को कामयाबी के असीमित शिखर पर पहुंचाने की बात हो, कामयाबी की उम्र हर जगह छोटी हो गई है. दुनिया के करोड़पतियों की सूची में इतिहास में पहली बार 30 से 35 फीसदी युवा हैं और 5 से 7 फीसदी तो इतनी कम उम्र के हैं कि आप कौर्पोरेट जगत को देखते हुए कह सकते हैं अभी उन के दूध के दांत ही नहीं टूटे. चाहे मार्क जुकरबर्ग हों या रैनबैक्सी के सिंह बंधु, सब ने इतनी कम उम्र में अपने नाम के आगे अरबपति होने का टाइटल लिखवाया है कि कामयाबी को स्वाभाविक रूप से युवाओं की थाती समझा जाने लगा है. शायद इसलिए भी जवानी समाज के हर क्षेत्र की रोल मौडल बन गई है क्योंकि उस का दूसरा कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं बचा.

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