जो काम पहले मोलभाव करने हेतु शहरशहर और बाजारबाजार घूम कर किया जाता था वही काम अब मनमुताबिक घरबैठे तसल्लीबख्श तरीके से होने लगा है. यह सब उच्च तकनीक का कमाल है जिस ने जीवन को अत्यधिक सुगम व आसान बना दिया है. औनलाइन यानी ई कारोबार ने अब लगभग संपूर्ण देश में अपने पांव पसार लिए हैं जिस से अकूत मुनाफा कमाने वाले पुरातन सोचधारी खुदरा कारोबारी दिग्गज पस्त हैं. देश के अधिकांश राज्यों में किया जा रहा सुनियोजित विरोध इस बात का द्योतक है कि जैसेजैसे ई कौमर्स प्लेटफौर्म यानी औनलाइन कारोबार का प्रचलन बढ़ता जा रहा है वैसेवैसे मुनाफा कमा रहे बड़ेबड़े कारोबारी जमीन पर आते जा रहे हैं. यहां तक कि घाटे व बरबादी के लपेटे में आते जा रहे टाटा, भारती व रिलायंस सरीखे बड़ेबड़े थोक व खुदरा कारोबारी दिग्गज भी अपनी नीतियों में परिवर्तन करने को मजबूर हो रहे हैं.
औनलाइन कारोबार यह बताता है कि उद्योग जगत में अकूत मुनाफा है और हमारे कारोबारी दिग्गज किस कदर मुनाफा कूट रहे हैं. औनलाइन कारोबारी कंपनियों-फ्लिपकार्ट, अमेजौन व स्नैपडील ने पिछली दीवाली पर 90 फीसदी तक की जबरदस्त छूट दे कर समस्त खुदरा कारोबारी दिग्गजों का बंटाधार कर दिया. अपने देश में मुनाफाखोरी का आलम यह है कि फैक्टरी से निकल 10 रुपए की कीमत वाला उत्पाद जनता तक पहुंचतेपहुंचते 100 रुपए से भी ज्यादा की दर पर बिकता है. औनलाइन कारोबार के तहत इसीलिए जनता को बेहद कम कीमत पर उत्पाद उपलब्ध हो जाते हैं क्योंकि मार्जिन बेहद कम लिया जाता है. पर अति अल्प मार्जिन के बावजूद औनलाइन कारोबार करने वाली सभी कंपनियां मुनाफा कमा रही हैं. देश में औनलाइन कारोबार में लगी कंपनियों की संख्या लगभग 300 है. इन में कई कंपनियां केवल चुनिंदा उत्पादों में ही डील करती हैं जैसे जबोंग फैशन व लाइफस्टाइल क्षेत्र में ही डील करती है और शूस्टोर केवल जूतों व उन से संबंधित उत्पाद जनता को उपलब्ध कराता है जबकि दूसरी और स्नैपडील की टोकरी में सभी तरह के उत्पाद हैं.
भारत में औनलाइन कारोबार करने वाली प्रमुख कंपनियों में फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, मिंत्रा, जबोंग, शिंपलाई, होमशौप-18, इन्फीबीम, शौपक्लूज, ईबे व अमेजौन इंडिया कारोबार व राजस्व के अलावा बेहतर सेवाएं प्रदान करने के लिहाज से शीर्ष पर हैं. देश में औनलाइन कारोबार का जनक व पितामह फ्लिपकार्ट को माना जाता है. वर्ष 2007 में स्थापित इस उपक्रम का सालाना राजस्व (वर्ष 2013-14) 179 करोड़ रुपए है. अमेजौन इंडिया और स्नैपडील 169 तथा 154 करोड़ रुपए के साथ क्रमश: दूसरे व तीसरे पायदान पर हैं. इन कंपनियों की आय का प्रमुख स्रोत विक्रेता से कमीशन, अपने पोर्टल पर उत्पाद सूचीबद्ध कराने की फीस के अलावा प्रति उत्पाद बिक्री मार्जिन और विज्ञापन शुल्क है. हकीकत में मोटा मुनाफा कमा रही ये कंपनियां कागजों पर तो भारीभरकम घाटा (वर्ष 2013-14 के दौरान क्रमश: 400, 321, 265 करोड़ रुपए) दिखाती चली आ रही हैं पर संपूर्ण उद्योग जगत व विश्लेषक इसे स्वीकार नहीं करते. सभी का एकसिरे से यह मानना है कि चूंकि यह कारोबार पूरी तरह दलाली या कमीशनखोरी पर आधारित है और इस में सेवा प्रदाता को माल खरीदना या स्टौक करना नहीं पड़ता (दूसरे शब्दों में, अपने पल्ले से कुछ भी निवेश नहीं करना पड़ता) इसलिए किसी भी किस्म के घाटे का सवाल ही पैदा नहीं होता.
पिछली दीवाली पर फ्लिपकार्ट, स्नैपडील व गूगल के विशेष त्योहारी मेलों व डिस्काउंट पर एलजी, सोनी, लेनेवो व सैमसंग के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुख्य वितरकों ने बताया कि कंपनियां इस तरह के अवसर बाबत कम लागत व अधिक मार्जिन वाले एक्सक्लूसिव उत्पाद बनाती हैं. ये उत्पाद बाजारों में नहीं उपलब्ध होते. इस के अलावा पुराने आउटडेटेड माल को भी अच्छेखासे मार्जिन पर बेच दिया जाता है. सोनी के एक वितरक के मुताबिक, उस मेले में कंपनी ने अपने बंद हो चुके एक पुराने आउटडेटेड एलईडी टैलीविजन को
80 हजार रुपए की एमआरपी दिखा कर 24 हजार रुपए में बेच कर प्रति सैट 1,700 रुपए कमा लिए. औफलाइन कारोबारियों की तर्ज पर अब तो ये औनलाइन कारोबारी कंपनियां चालू त्योहारी सीजन में बड़े पैमाने पर चीन का सस्ता सामान सीधे वहां के निर्माताओं को और्डर दे कर बुक करा रही हैं. वे निर्माता अपने भारतीय वितरकों अथवा वैंडरों के माध्यम से सीधे इन कंपनियों के उपभोक्ताओं तक डिलीवरी करेंगे. इस प्रकार बगैर किसी भंडारण की व्यवस्था और भारीभरकम निवेश के ये कंपनियां केवल कमीशन मात्र से मुनाफा अर्जित करेंगी. यानी खुदरा व लघु दुकानदारों की तरह इन कंपनियों ने भी चीन का हर तरह का बेहद सस्ता व तड़कभड़क वाला माल बेच कर मुनाफा कमाने का रास्ता अख्तियार कर लिया है. चीन का माल बेहद सस्ता तो होता है लेकिन उस की कोई गारंटी नहीं होती. इस प्रकार यह बिना जोखिम मुनाफे वाला रास्ता है.
आधुनिकता एवं इंटरनैट के इस युग में जहां वैश्विक स्तर पर, कारोबार को चलाने व अधिक से अधिक ग्राहक बटोरने बाबत नित नए हथकंडे व तरीके अपनाए जा रहे हैं वहीं अपने देश में अभी तक भी ज्यादातर कारोबार करने का वही पुराना घिसापिटा तरीका चला आ रहा है और यही कारण है कि कोई भी नया तरीका बड़ेबड़े खुदरा कारोबारी दिग्गजों को न केवल तकलीफ प्रदान करता है बल्कि उन के मुनाफे में सेंध भी लगाने लगता है. एकाधिकारपरस्त माहौल में पलेबढ़े प्रतिष्ठित सूरमा उद्यमी वैश्विक स्तर के इस तरह के खुले व प्रतिस्पर्धी माहौल के आदी नहीं हैं. इसीलिए जहां नई पीढ़ी इसे हाथोंहाथ ले रही है वहीं पुरातन सोच इस के विरोध पर उतारू है. इस से पहले भी यही वर्ग विदेशी खुदरा स्टोरों के विरोध में उतरा था.
इस के बावजूद सब या अधिकांश उत्पादों में तो नहीं, पर तमाम उत्पादों के बाबत औनलाइन कारोबार की लोकप्रियता व महत्त्व इतनी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है कि भारत के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा लिखी गई नई किताब बिक्री के लिए केवल औनलाइन ही उपलब्ध कराई गई और उपलब्धता के 2 दिनों के दरम्यान ही बैस्ट सेलर की सूची में दर्ज हो गई. जैसा कि किताब के प्रकाशक ने करार किया था. यह किताब केवल एक औनलाइन कारोबारी कंपनी द्वारा ई कौमर्स के प्लेटफौर्म पर ही बेची गई. इस से पहले भी अपने देश में बड़ीबड़ी हस्तियों द्वारा लिखी कई नई किताबें केवल औनलाइन बेची गईं और उन से अच्छा मुनाफा कमाया गया. हालत यह है कि एक तरफ तो बड़ेबड़े क्रौसवर्ड व स्टारमार्क सरीखे खुदरा पुस्तक विक्रेता व प्रकाशक ग्राहकों की बेरुखी यानी टोटा झेल रही हैं दूसरी ओर औनलाइन कारोबारी कम कीमत पर पुस्तकें बेचने में नित नए रिकौर्ड स्थापित कर रहे हैं. इस का मतलब कुछ चीजों में अब कारोबारी परिदृश्य व तरीका बिलकुल बदलता जा रहा है.
और जहां तक सस्तेमंदे का सवाल है, देश के प्रबुद्ध खुदरा कारोबारियों ने इस का तोड़ भी निकाल लिया है. इन औनलाइन स्टोरों पर अब केवल वही चीजें सस्ती मिलती हैं जिन पर स्वयं निर्माता कंपनी डिस्काउंट दे रही है या फिर उन का इंतजाम चीन से किया गया है या कोई नया विशेष ऐसा उत्पाद जो बाजार में उपलब्ध न हो जैसे कोई पुस्तक विशेष या मोबाइल, रेफ्रिजरेटर आदि का विशेष मौडल. थोक व खुदरा कारोबारी अब दिल्ली, मुंबई व अन्य महानगरों से बिना वैट आदि कर चुकाए चीन निर्मित सस्ता माल ला कर इन औनलाइन स्टोरों से भी कम कीमत पर बेच रहे हैं. गत माह इस प्रतिनिधि ने एचपी कंपनी के ‘1020 प्लस’ नामक मौडल के पिं्रटर की कीमत स्नैपडील, फ्लिपकार्ट व एचपी के स्वयं के औनलाइन स्टोर पर मालूम की. इन पर क्रमश: 8,100, 8,175 व 8,456 रुपए की कीमत पाई गई जबकि स्थानीय वितरक ने मात्र 7,300 रुपए में यह प्रिंटर दे दिया. किताबें, मोबाइल, कपड़े आदि कुछ चुनिंदा चीजें ही ऐसी हैं जो औनलाइन स्टोरों पर बाजार से थोड़ी कम कीमत पर अब भी मिल रही हैं.
देश की 90 फीसदी आबादी पुरातन सोच की है और आज भी छोटीबड़ी खरीदारी के लिए अपने आसपास या शहर के मुख्य बाजारों में स्थित अपनी खास जानपहचान वाली दुकानों पर ही जाना पसंद करती है. और शायद यही कारण है कि बैस्ट प्राइस व वीमार्ट जैसे बड़े खुदरा स्टोर व बड़ेबड़े शौपिंग मौल्स आए तो बड़े धूमधड़ाके से थे पर बंद चुपचाप रातोंरात हो गए. वास्तविकता यह है कि आज की तारीख में देशभर में मात्र एक फीसदी मौल्स ही कामयाबी का दरजा प्राप्त कर पाए हैं. भारत की जनता से खराब रिस्पौंस मिलने से नए मौल्स संबंधी तमाम परियोजनाएं शुरू होने से पहले ही समाप्त पर दी गईं और बिलकुल यही हाल व रिपोर्ट औनलाइन कारोबार की है.
समाज की 95 फीसदी से भी ज्यादा की आबादी अब भी अपनी रोजमर्रा की दूध, ब्रैड, कलम, कौपी, आटा, सीएफएल, सब्जी आदि प्रकार की जरूरतें आसपास के छोटे दुकानदारों व बाजारों से पूरी करती है. एक आम आदमी या उपभोक्ता कलम, सेब, ब्रैड आदि तुरंत नजदीकी दुकान अथवा घर के पास से आवाज देते निकल रहे ठेले वाले से ले लेता है. वह जरा भी प्रतीक्षा नहीं करता परंतु नए मोबाइल या कोई पुस्तक के लिए आज औनलाइन और्डर करना ज्यादा पसंद करता है. इस के लिए वह बड़े आराम से 4-5 दिन प्रतीक्षा कर लेता है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो औनलाइन व औफलाइन दोनों ही कारोबारों की प्रकृति में जमीनआसमान का अंतर है. घर में यदि अचानक मेहमान आ जाए तो आप तत्काल निकटतम दुकान से समोसा आदि मंगवा कर चाय या ठंडा बना लेंगे पर औनलाइन और्डर कर के प्रतीक्षा नहीं कर सकते. व्यावहारिक रूप से किसी भी दशा में यह संभव है ही नहीं और हो भी नहीं सकता. इंटरनैट, फोन व तमाम दुकानदारों तथा हर वर्ग के तमाम उपभोक्ताओं से बात कर के ये निष्कर्ष निकाले गए हैं. चौंकाने वाली बात यह भी है कि देश का 78 फीसदी तबका कारोबार की इस नई विधा से या तो अनभिज्ञ है या उसे इस का इस्तेमाल करना नहीं आता या वह इन चक्करों में नहीं पड़ना चाहता. अधिकांश युवा आज ब्रैंडेड जूते, चप्पल, चश्मा, मोबाइल, किताबें, वौलेट आदि लग्जरी वस्तुएं तो औनलाइन मंगवा रहे हैं पर तमाम बातचीत, सर्वे व निरीक्षण में पाया गया है कि वे भी अपनी रोजमर्रा की आम जरूरत का सामान स्वयं अपने क्षेत्र की नजदीकी दुकान से ही लाते हैं. और यह स्थिति गुड़गांव, बेंगलुरु व नोएडा जैसे इलाकों की भी है जहां बड़ी तादाद में छोटाबड़ा हर स्तर का कामकाजी तबका रहता है.
हकीकत तो यह है कि औनलाइन स्टोर लोकप्रिय भले ही हो रहे हों पर आम खुदरा व्यापारियों पर इस का असर बिलकुल भी नहीं पड़ा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बड़े महानगर मेरठ में एक वैरायटी स्टोर के मालिक वैभव का मानना है, ‘‘जमाना चाहे कितना भी क्यों न बदल जाए भारतीय समाज खरीदारी हमेशा दुकानों में जा कर ही करना पसंद करता है. ज्यादा वैरायटी, कीमतों में मोलभाव, उधार, सामान की वापसी व अदलाबदली आदि कई कारण इस के साथ जुड़े हुए हैं. हमारी बिक्री में जरा भी फर्क नहीं पड़ा.’’
इसी तरह अलका सूट एंपोरियम के मालिक सुधीर चावला भी इस से सहमत हैं. महिला ग्राहकों से खचाखच भरे अपने एंपोरियम में बमुश्किल समय निकाल कर चावला बताते हैं, ‘‘नईनई वैरायटी, कीमत में मोलभाव, उधार व मुफ्त की मनचाही फिटिंग के चलते आज भी ग्राहक स्थानीय दुकानों की ओर ही दौड़ता है.’’ एक मोबाइल शौप के मालिक चरनजीत मानते हैं, ‘‘मोबाइल की बिक्री में भारी गिरावट आई है.’’सहारनपुर स्थित एसजी आटोमेशन के मालिक विकास का मानना है, ‘‘पैन ड्राइव, माऊस, स्पीकर आदि छोटीमोटी चीजों का उठान तो कम अवश्य हुआ है पर कंप्यूटर, पिं्रटर आदि में कोई खास फर्क नहीं है.’’ पर मेरठ में विभिन्न इलैक्ट्रौनिक आइटमों के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक बहुत बड़े वितरक आहूजा ऐंड संस के मालिक के मुताबिक, इन औनलाइन स्टोर्स से उन्हें काफी फायदा हुआ है और इस के लिए उन्होंने अपने यहां एक अलग प्रकोष्ठ स्थापित किया है. उन के मुताबिक, अधिकांश ई कंपनियों ने स्थानीय डिलीवरी के लिए स्थानीय कारोबारियों से अनुबंध कर रखा है और यदि उन के इलाके का या बिलकुल पड़ोस का ग्राहक भी औनलाइन कंपनियों से सामान मंगवाता है तो डिलीवरी वे ही देते हैं.
तहकीकात से एक बात और निकल कर आई कि तमाम ई कंपनियां हैंडबैग, कुशन, टेबलक्लौथ आदि बुटीक संबंधी अनगिनत फैंसी आइटम घरेलू कामकाजी महिलाओं से और्डरों के आधार पर बनवा कर सीधे अपने उपभोक्ताओं को आपूर्ति करती हैं. इसी प्रकार कीमतों की तुलना कर के तमाम बड़े खुदरा व गलीमहल्ले के लघु स्तरीय दुकानदार इन कंपनियों से भी भारी मात्रा में सामान मंगवाते हैं पर ऐसा चाइनीज आइटमों में ज्यादा होता है. यानी उपभोक्ता स्तर का मुद्दा छोड़ दें तो एक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकल कर सामने आता है कि अधिकांश मामलों में ई कंपनियां और दुकानदार दोनों ही एकदूसरे का व्यावसायिक उपयोग करते हुए एकदूसरे से लाभान्वित हो रहे हैं.
आजकल इंटरनैट व मोबाइल फोन के माध्यम से कहीं से किसी से भी संपर्क किया जा सकता है. आगरा के सदर बाजार स्थित ताल गिफ्ट एंपोरियम के मालिक अरुण शर्मा ने बताया कि उन की बिक्री पर तो कोई फर्क नहीं पड़ा है पर वे भी अकसर दुकान में बेचने के लिहाज से ब्रैंडेड चाइनीज आइटम औनलाइन कंपनियों से मंगवा लेते हैं. उन का कहना है कि कई बार तो ऐसे आइटमों से उन की बिक्री में इजाफा ही हुआ है. उदयपुर के मशहूर शौपिंग पौइंट हाथी पोल स्थित आर्ट गैलरी के मालिक राज कमल चौबे ने बताया, ‘‘हम तो कई औनलाइन कंपनियों को और्डर पर माल सप्लाई भी करते हैं.’’ पहले केवल फुटकर कारोबार कर रहे चौबे साहब अब थोक व्यापारी भी हो गए हैं. कुल मिला कर निष्कर्ष यह कि अभी औनलाइन कंपनियों को देश के घरघर में पैठ बनाने में कम से कम 10 साल लगेंगे क्योंकि अभी यह हर वर्ग व हर वस्तु तक नहीं पहुंच पाई हैं. फिलहाल इस की अधिकांश पैठ दिल्ली, पुणे व मुंबई जैसे महानगरों व युवा वर्ग तक सीमित है. भारत को कारोबार के इस नए फंडे को अपनाना होगा वरना जैसे हम अन्य तमाम क्षेत्रों में दुनिया से बहुत पीछे हैं वैसे ही इस में भी हो जाएंगे. क्योंकि अब हालत यह होती जा रही है कि अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने तमाम नए उत्पाद केवल औनलाइन प्लेटफौर्म पर ही उपलब्ध करा रही हैं और खुदरा बाजार में बैठे उन के बड़ेबड़े वितरकों के पास उन के उस उत्पाद की कोई जानकारी नहीं होती.
पिछली दीवाली पर कई टीवी निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऐसा प्रयोग किया जोकि सफल रहा. कंपनियों ने तमाम नएपुराने मौडल नएनए सांचे में बेहद कम यानी त्योहारी कीमत पर औनलाइन प्लेटफौर्म के जरिए लौंच किए और भारी सफलता प्राप्त की. खुदरा बाजार में मौजूद त्योहारी छूट व गिफ्ट आदि योजनाओं के बावजूद औनलाइन प्लेटफौर्म पर नए उत्पादों की कीमत काफी कम थी. त्योहारों पर इस तरह के प्रयोगों की सफलता को देखते हुए अन्य कंपनियों ने भी यही रास्ता अख्तियार करना शुरू कर दिया है. अब अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने नए उत्पाद बेहद किफायती दरों पर केवल औनलाइन ही लौंच कर रही हैं और सफलता के नित नए रिकौर्ड बना रही हैं. इस खेल में भारतीय कंपनियों की उपस्थिति न के बराबर है
बदलनी होगी पुरानी सोच
यह विडंबना ही है कि भारतीय कंपनियां अब भी इसे हलके में ले रही हैं और वही रास्ता अपनाने पर तुली हुई हैं जो विदेशी खुदरा स्टोरों के बाबत अपनाया गया था. देशी कारोबारी युवा पीढ़ी के बदलते रुझान को पकड़ कर समय के साथ चलने से अब भी पीछे हट रहे हैं जो कि आखिरकार उन के लिए ही नुकसानदेह सिद्ध होगा. वैसे भी किसी भी कारोबारी मौडल का सफल या विफल होना जनता यानी उपभोक्ता पर निर्भर करता है, कारोबारियों की सोच पर नहीं. और शायद इसीलिए करोड़ों की लागत व निवेश से बने बड़ेबड़े मौल्स फेल हो गए पर उन्हीं के आसपास मौजूद छोटीछोटी दुकानें ठाठ से चल रही हैं. यह आश्चर्य ही है कि एक ओर जहां देश की नव युवा पीढ़ी इस बदलाव को तेजी से अपना रही है वहीं हमारा कारोबारी समुदाय अब भी अपनी पुरातन सोच पर ही अड़ा हुआ है. कुल मिला कर आम जनता व सभी प्रकार के उपभोक्ताओं को कारोबार की इस नई विधा से केवल इतना फायदा जरूर हुआ है कि उन्हें वाजिब कीमत पर घरबैठे हर तरह की चीज मयस्सर हो जाती है और वे ई कंपनियों के दाम विश्लेषित कर स्थानीय दुकानदारों से मोलभाव कर लेते हैं. दूसरी ओर कारोबार के लिहाज से ये दोनों ही विधाएं एकदूसरे के सहयोग से खूब फलफूल रही हैं