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‘‘जी, हां, मैं उन का बेटा हूं. वे आजकल घर पर ही रहते हैं.’’

‘‘वैसे वे ठीक तो हैं?’’

‘‘जी, नहीं, कुछ ठीक नहीं रहते.’’

‘‘कैसी बीमारी है?’’

‘‘जी, वही बुढ़ापे की बीमारियां, ब्लडप्रैशर, शुगर वगैरा.’’

‘‘पर तुस्सी कौन?’’ इतनी देर बातें करने के बाद उस ने मेरे बारे में पूछा था कि मैं कौन हूं.

‘‘मेरी गुरनाम से पुरानी दोस्ती है, 50 वर्षों पहले की.’’

कुछ देर देख कर वह हक्काबक्का रह गया, फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. मैं ने गुरनाम के बेटे को आगे प्रश्न करने का मौका नहीं दिया. मेरा ध्यान राजिंद्रा अस्पताल के पीछे बने क्वार्टरों की ओर चला जाता है. यहां की एक लड़की शकुन, यहीं इन्हीं क्वार्टरों में कहीं रहती थी.

कालेज से आते समय हमें रात के साढ़े नौ, पौने दस बज जाते थे. वह केवल अपनी सुरक्षा के कारण मेरे साथ अपनी साइकिल पर चल रही होती थी. वह सैनिकों को पसंद नहीं करती थी. वह सैनिक यूनिफौर्म से ही नफरत करती थी. कारण, उस के अपने थे. उस की सखी ने मुझे बताया था. मेरी इस पर कभी कोई बात नहीं हुई थी. जबकि यूनिफौर्म हम सैनिकों की आन, बान और शान थी. हम थे, तो देश था. हम नहीं थे तो देश भी नहीं था.

हमें अपनेआप पर अभिमान था और हमेशा रहेगा. मेरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर चला गया था. मन के भीतर यह बात दृढ़ हो गईर् थी कि कुछ भी हो, मुझे उस से अधिक नंबर हासिल करने हैं. और हुआ भी वही. जब परिणाम आया तो मेरे हर विषय में उस से अधिक नंबर थे. मैं ने प्रैप, फर्स्ट ईयर, दोनों में उसे आगे नहीं बढ़ने दिया. फिर मेरी पोस्ंिटग लद्दाख में हो गई और वह कहां चली गई, मुझे कभी पता नहीं चला. इतने वर्षों बाद यहां आया तो उस की याद आई.

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