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साहिबा को देखते ही सुधा बोली, "तुम ने तो हमें बुलाया नहीं पर मैं खुद ही प्रियांशी को ले कर आ गई हूं। आखिर देखूं तो सही, तुम मेरे बेटे को कैसे फ्लैट में रखोगी।" "यह क्या, तुम ने मंदिर पूरब दिशा में क्यों बनवाया है?" प्रियांशी का बेटा जोरजोर से रो रहा था और प्रियांशी मोबाइल में व्यस्त थी. साहिबा को देख कर प्रियांशी  बोली,"इतनी जल्दी इंटीरियर और सब काम तुम अकेले रहने के लिए ही कर रही हो न?"
"कुछ दिन तो ससुराल का मजा भी ले लेतीं।"
साहिबा ने धीरे से बोला,"दीदी, मैं तो न ससुराल और न ही मायके का मजा लेना चाहती हूं, मैं तो बस अपने घर में खुल कर सांस लेना चाहती हूं।" सुधा बोली,"साहिबा, प्रियांशी अपने पिता के घर पर रहती है। तुम्हारे घर पर नहीं तो उसे मायके का ताना देने की कोई जरूरत नहीं है।"
साहिबा को पता था कि रौनक के कान उस की मम्मी ने भर दिए हैं. रौनक एक प्रेमी के रूप में जितना अधिक निडर था, होने वाले पति के रूप में उतना ही बड़ा दब्बू था. साहिबा को मालूम था कि अपने परिवार को खुश करने के लिए ही रौनक उस से खुल कर बात भी नहीं करता था.
मंगनी के बाद कभी किसी त्योहार पर तो कभी किसी व्रत के बहाने, साहिबा की सास, लगातार साहिबा को कभी अपने घर बुलाती तो कभी लावलश्कर के साथ साहिबा के घर पहुंच जाती. साहिबा की सास की खातिरदारी करना साहिबा के घर वालों को बहुत महंगा पड़ रहा था. विवाह तय होते ही रौनक का पूरा परिवार साहिबा को बच्चे कब और कितने अंतराल में करने हैं, इस बारे में सलाह देने लगे थे. साहिबा इस टोकाटाकी से तंग आ चुकी थी. उसे लगने लगा था कि बहू का रोल करतेकरते वह चुलबुली व स्वतंत्र साहिबा कहीं खो गई है.
साहिबा और रौनक की मंगनी जरूर हुई थी पर हर प्रोग्राम साहिबा के सासससुर के अनुसार ही होता था. साहिबा और रौनक जब भी डिनर पर जाते, रौनक का परिवार भी साथ जाता था। आज साहिब की वर्षगांठ थी. सारा आयोजन साहिबा के  ससुराल वालों ने किया था. शाम को पार्टी का आयोजन था. साहिबा के अंदर इस उत्सव के लिए कोई उत्साह नहीं था. साहिबा को लग रहा था कि वह एक कठपुतली बन कर रह गई है. दरअसल, साहिबा अपने जन्मदिन पर रौनक के साथ कहीं बाहर घूमने जाना चाहती थी. पर रौनक का वही पुराना राग कि परिवार को अच्छा नहीं लगेगा कि वे लोग उन के साथ सैलिब्रेट न कर के अकेले घूमने जा रहे हैं.
पार्टी में सबकुछ जगरमगर था पर बस साहिबा का मन बुझा हुआ था.  रौनक के परिवार की सब महिलाएं साहिबा को एक अच्छी बीवी और बहू के फर्ज को समझा रही थी कि वह कितनी खुशनसीब है कि उसे ऐसा ससुराल मिला है. पूरी पार्टी में साहिबा बस रस्मी तौर पर ही मौजूद थी. साहिबा को ऐसा महसूस हो रहा था मानों उस की आजादी और उस का वजूद मंगलसूत्र और सिंदूर के भार के तले दब जाएगा.
अगले दिन फोन पर रौनक ने साहिबा को आड़े हाथों लिया,"तुम्हारा मुंह क्यों सूजा रहता है? मम्मी ने तुम्हें कितने प्यार से चैन गिफ्ट करी मगर नहीं, तुम्हारा तो मुंह ही बना रहा।" साहिबा मन ही मन सोच रही थी कि ऐसा क्यों है कि संस्कारों का भार बस औरतों को ही उठाना पड़ता है? विवाह के नाम पर बस औरतों की उड़ान पर ही क्यों लगाम लगाई जाती है? क्यों संस्कारों की घुट्टी बस औरतों के लिए ही हैं? यह सब सोचतेसोचते साहिबा सो गई थी.
सुबह जब रौनक सो कर उठा तो देखा   साहिब का मैसेज था, 'मैं कसौली घूमने जा रही हूं। मैं शादी के संस्कारों में उलझ कर खुद को खोना नही चाहती हूं, इसलिए मैं कुछ दिन अकेले रहना चाहती हूं।' रौनक ने तुरंत साहिबा को फोन  लगाया और हंसते हुए बोला,"तुम आधुनिक महिलाओं की यही बात होती है। बातें आजादी की करती हो मगर जिम्मेदारियों से भागना चाहती हो।"
साहिबा ने कहा, "मैं सुबह रंगोली रेस्तरां में तुम्हारा इंतजार करूंगी." रौनक रेस्तरां में साहिबा से बोला,"यह क्या बचपना है... तुम ने मुझ से या मम्मीपापा से इजाजत लेना जरूरी नहीं समझा..."
साहिबा बोली,"रौनक, शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं अपनी खुशी की बागडोर तुम्हारे या तुम्हारे परिवार के हाथों में थमा दूं।" "यह बात देर से ही सही मगर समझ आ गई है।"
"संस्कार के नाम पर अब मैं और अधिक अपना वजूद छलनी नहीं कर सकती हूं।" "मुझे नहीं पता था कि सिंदूर और मंगलसूत्र का भार इतना अधिक होता है. विवाह के बाद मैं इस मंगलसूत्र और सिंदूर का भार नहीं उठा पाऊंगी. अगर तुम्हें लगता है कि तुम मुझे बिना मंगलसूत्र और सिंदूर के स्वीकार कर सकते हो तो बता देना।"
रौनक बिलबिलाते हुए बोला,"क्या तुम से एक पत्नी और बहू के तौर पर कुछ  उम्मीद रखना गलत है? अगर मेरा परिवार तुम से एक अच्छी और संस्कारी बहू की उम्मीद लगाए हुए हैं तो क्या गलत है? "और फिर तुम यह क्यों भूल जाती हो कि मेरे परिवार ने मेरी इच्छा का सम्मान रखा और तुम्हें अपने घर की  बहू बनाने का फैसला किया था...अगर मैं चाहता तो तुम्हारे साथ बस घुमफिर कर टाइमपास भी कर सकता था, मगर शायद तुम जैसी आधुनिक लड़कियों को शादी की जिम्मेदारी पैरों में पड़ी बेड़ियों जैसी लगती हैं।"
साहिबा बोली,"मैं शादी मां बनने के लिए या व्रत रखने के लिए नहीं कर रही हूं. मैं तुम्हारे साथ जिंदगी की अनछुए पहलूओं को छूना चाहती थी।" रौनक गुस्से में बोला,"तुम मेरे और अपने परिवार को क्या जवाब दोगी?"
साहिबा बोली,"खुद को रोजरोज जवाब देने से तो अच्छा है कि मैं दोनों परिवार को एक ही बार जवाब दे दूं।मंगनी के बाद भी मैं एक इंसान ही हूं कोई गूंगी गाय नहीं हूं। "अगर तुम मुझे जैसी मैं हूं वैसे ही स्वीकार कर सकते हो तो मैं वापस तुम्हारी जिंदगी मैं आ जाऊंगी, नहीं तो मैं अपनी जड़ें किसी और जमीन में जमा लूंगी।
"मैं नहीं चाहती कि कुछ छोटीछोटी बातों के कारण हमारे बीच जो अतीत के खूबसूरत लमहे थे वे भी खराब न हो जाएं," यह कह कर साहिबा ने रौनक के हाथ में अपनी उंगली से अंगूठी निकाल कर पकड़ा दी.  रौनक साहिबा को जाते हुए देख कर यह नहीं समझ पा रहा था कि किस का बोझ अधिक है- अंगूठी का या उन के मध्य बसे हुए प्यार के कुछ लमहों का...

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