कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

हम कर भी क्या सकते हैं. कभीकभी इनसान इतना मजबूर हो जाता है कि चाह कर भी किसी की मदद नहीं कर सकता. परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं, तब अपने इस मजबूरी पर बहुत गुस्सा आता है.

नजमा के बारे में जो बताया, उसे सुन कर बहुत दुख हुआ.

“देखिए न, कल उस का बेटा होस्टल से मामा के घर भाग गया है. 3 दिन की छुट्टी ले कर बेटे को होस्टल पहुंचाने गई है," मैं ने कहा.

“क्या करें, सब का अपनाअपना नसीब है," रिया की मम्मी बोली.

घर वापस आई तो देखा मनन आ चुके थे. उनके लिए चाय बनाई और नजमा के बारे में चर्चा करने लगी.

3 दिन बाद वह काम पर वापस आई, तो मैं ने बेटे के बारे में पूछा, तो बोली, "दीदी, उस को होस्टल पहुंचा दिया."

मुझे भी सुन कर तसल्ली हुई.

नजमा काम कर के चली गई. तभी फोन की घंटी बजी, मां का फोन था. मां हमेशा बुलाती, लेकिन घरगृहस्थी के चक्कर में मैं जा नहीं पाती थी, तो इस बार मैं ने मांपापा को यहीं बुला लिया था. 2–4 दिन में वे लोग आने वाले थे. मां मुझ से मेरे सामान की लिस्ट बनवा रही थी. जी हां... जब भी मां आती तो वो मेरी पसंदीदा चीजें अचार, पापड़, सत्तू, वड़ी और भी बहुत सारे सामान ले आती. कोई चीज भूल न जाए, इसलिए मम्मी मुझ से लिस्ट बनवा लेती.

घर सैट हो चुका था. थ्री रूम होने के कारण रहने में कोई समस्या भी नहीं थी. पिछला फ्लैट 2 कमरे वाला था.

मैं बेसब्री से मम्मी के आने का इंतजार करने लगी. बच्चे भी नानीनाना के आने की खबर सुन कर खुश थे.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...