दूसरे दिन तय समय पर वह आई. बाकी बातें तय कर के किसी तरह उसे 2,500 रुपए में मना लिया. काम ठीकठाक ही किया उस ने. मैं ने उस से थोड़ा जल्दी आने को भी कहा. लेकिन उस ने मना कर दिया, क्योंकि पहले से ही वह 2-3 घरों में काम करती थी. दिमाग थोड़ा निश्चिंत हुआ, लेकिन दूसरे दिन 2 घंटे ज्यादा इंतजार करने के बाद भी वह नहीं आई. मैं ने उसे बहुत फोन लगाया, लेकिन उस ने फोन उठाया ही नहीं. मैं समझ गई, अब वह काम नहीं करेगी. दोषी मैं ने खुद को ही करार दिया.
कामवाली को ढूंढ़तेढूंढ़ते 2 दिन हो गए थे. मैं ने एक बार सिक्योरिटी वाले से भी बात कर ली. उस ने मुझे कामवाली ढूंढ़ने की तसल्ली दे दी.
इधर शाम को बच्चों को पार्क में ले जाने के कारण 1-2 मम्मियों से परिचय भी हो गया था, तो मैं ने उन से कामवाली के बारे में बात छेड़ी. रिया की मम्मी ने मुझे नजमा के बारे में बताया और साथ में यह भी कहा कि देख लीजिए मुसलिम है, अगर आप को कोई समस्या नहीं है, तो काम करवा सकती है.
मैं ने कहा “ हिंदू हो या मुसलिम क्या फर्क पड़ता है? है तो इनसान ही. मुझे तो काम से मतलब है.”
उन्होंने मुझे उस का नंबर दिया. मैं ने सोचा कि कल बात कर लूंगी. अब अंधेरा घिर आया था. मैं वापस बच्चों के साथ घर आ गई.
दूसरे दिन सुबह उठी और काम में लग गई. रोज की तरह बच्चों के स्कूल और पति के औफिस जाने के बाद मैं चाय की प्याली ले कर बालकनी में बैठ गई. अपार्टमैंट के बगल की जमीन खाली थी और वहां लंबेलंबे यूकेलिप्टस के पेड़ लगे थे, जिस के कारण वहां पक्षी चहचहाते रहते थे.