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‘‘क्या बात है, आज बड़े खुश लग रहे हो?’’ प्रतीक को इतने अच्छे मूड में देख कर मैं ने पूछा तो उन्होंने मुसकरा कर मेरी तरफ देखा. मु   झे लगा, कहीं इन की सैलरी तो नहीं बढ़ गई या प्रमोशन तो नहीं हुआ?

मेरे चेहरे पर आतेजाते भावों को देख कर प्रतीक ठहाका लगा कर बोल पड़े, ‘‘न तो मेरी सैलरी बढ़ी है और न ही प्रमोशन हुआ है. लेकिन, तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है. इस बार औडिट के लिए मु   झे पटना जाना है तो तुम भी चलने की तैयारी कर लो.’’

पटना का नाम सुनते ही मैं उछल पड़ी क्योंकि पटना में मेरा मायका है और भागलपुर ससुराल. प्रतीक कहने लगे कि काम की व्यस्तता के कारण वे मु   झे कहीं घुमाने ले कर नहीं जा पाते, इसलिए इसी बहाने घूमना भी हो जाएगा और अपनों से मिलना भी.

मम्मीपापा, भैयाभाभी के साथ कुछ दिन रहने की खुशी से ही मेरा रोमरोम खिल उठा. सोच लिया कि इस बार सभी रिश्तेदारों के घर जाऊंगी. हर बार लौटने की इतनी जल्दी होती है कि किसी से मिलना नहीं हो पाता है. माला को भी शिकायत रहती है कि एक रात भी मैं उस के घर पर नहीं रुकती. लेकिन वहां जाने पर मम्मीपापा को छोड़ने का मन ही नहीं होता. उन के साथ समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं लगता.

प्रतीक ने कहा कि हमारे 2 दिनों बाद के प्लेन के टिकट हैं, इसलिए जाने की तैयारी कर लूं.

2 दिनों का समय मिला तो मैं पहले अपनी अधूरी रचना को पूरा कर जल्दी से उसे मेल कर शौपिंग पर निकल पड़ी. वैसे, कपड़े तो बहुत हैं मेरे पास, लेकिन लगा कि इतने दिनों बाद मायकेससुराल जाना हो रहा है तो कुछ नए कपड़े खरीद लेती हूं. प्रतीक तो अपने ऊपर जरा भी ध्यान नहीं देते. जो मिलता है, पहन लेते हैं. इसलिए मैं ने उन के लिए भी 2 जींस और 3-4 टीशर्ट खरीद लिए. आतेआते पार्लर से मैं ने आईब्रो, फेशियल, मैनिक्योर, पैडीक्योर और स्टैपकट बाल भी कटवा लिए.

अपने एकलौते बेटे आरव, जोकि बेंगलुरु में इंजीनियरिंग के सैकंड ईयर में पढ़ रहा है, को जब मैं ने बताया कि मैं भी प्रतीक के साथ पटना जा रही हूं तो वह चहक कर बोल पड़ा, ‘‘एंजौय मम्मा. और आप मेरी चिंता मत करना. नानानानी को मेरा प्यार देना,’’ कह कर उस ने दोचार हिदायतों के साथ फोन रख दिया. वह मेरा बेटा कम, बाप ज्यादा है. जब देखो, फोन पर मु   झे सम   झाता रहता है, जैसे मैं कोई छोटी बच्ची हूं.

‘मम्मा, आप अपना ठीक से ध्यान तो रखती हो न? अपना और पापा का बीपी रैगुलर चैक कराती रहा करो. और हां, समय पर खानासोना भी जरूरी है क्योंकि पता है, मु   झे जब आप लिखनेपढ़ने बैठती हो तो आप को कुछ ध्यान ही नहीं रहता,’ उस पर मैं उसे प्यार से  ि  झड़कते हुए कहती हूं, ‘अरे हां मेरे बाप, मैं अपना पूरा ध्यान रखती हूं. पापा भी ठीक हैं. लेकिन तुम अपना ध्यान रखना.’

मेरे बेटे आरव को हमेशा मेरी चिंता लगी रहती है कि मां वहां अकेले कैसे रह रही होंगी. लेकिन, मैं अकेली कहां हूं. मेरे साथ मेरी किताबें जो हैं, जो हरदम मेरे साथ रहती हैं. वे कभी मु   झे अकेले पड़ने ही नहीं देतीं और न ही कभी मु   झे उदास होने देती हैं. रचनाएं लिखते समय मैं अपने पात्रों के बीच ऐसे खो जाती हूं जैसे लगता है कि मैं उन के और वे मेरे इर्दगिर्द घूम रहे हैं. मैं लेखन के लिए हमेशा शांत जगह चुनती हूं, जहां पक्षियों की चहचहाहट हो, हवाओं का मधुर संगीत हो, हरियाली हो ताकि उन के भावों को मैं अपनी रचनाओं में समेट सकूं.

मेरे पति प्रतीक बैंक में हैं. पहले वह ब्रांच मैनेजर थे पर अब औडिट में चले गए, जहां अकसर उन्हें औडिट के लिए दूसरेदूसरे शहर जाना पड़ता है. वे कहते हैं कि अकेले घर में रहने से अच्छा मैं भी उन के साथ चला करूं. लेकिन, सोचती हूं कि वहां जा कर क्या करूंगी मैं? क्योंकि, प्रतीक तो अपने काम में बिजी रहेंगे और मैं होटल के कमरे में बोर होती रहूंगी. इस से अच्छा है कि अपने घर में ही रह कर पढ़ाईलिखाई को समय दूं. लिखतेपढ़ते हुए मेरा समय आसानी से बीत जाता है और मन में कोई नकारात्मक विचार भी नहीं आते. शुरू से ही मु   झे पढ़ने का बहुत शौक है. याद है, बड़ी मामी के बिछावन के नीचे चुपके से मैं सरिता मैगजीन उठा लिया करती थी और पढ़ने के बाद फिर वापस उसी स्थान पर रख आती थी. डर लगता कि कहीं मां ने देख लिया तो मार पड़ेगी, इसलिए मां के सो जाने के बाद ही मैं वह किताब पढ़ती और फिर छिपा कर अपने किसी किताब के बीच रख देती थी. लेकिन मु   झे क्या पता था कि एक दिन मैं खुद लेखिका बन जाऊंगी और मेरी लिखी रचनाएं इसी पत्रिका में छपेंगी.

रचनाओं के साथ पत्रिकाओं में अपना नाम पढ़ कर, मैं बता नहीं सकती कि मु   झे कितनी खुशी होती है और यह सब हुआ प्रतीक की वजह से. जब भी मैं कहती कि लोगों को देख कर, उन्हें ले कर मेरे मन में कहानियां बनने लगती हैं, तो वे कहते, ‘तो उसे कागज पर उतारो.’

शायद, उन की पारखी नजरों ने पहचान लिया था कि मु   झ में लेखिका बनने के गुण हैं. हरदम वे मु   झे लिखने को प्रोत्साहित करते और कहते कि रोजाना लिखतेपढ़ते रहना मेरे दिमाग और विचारों को खोलने में मदद करेंगे. कह सकती हूं कि आज मैं जो कुछ भी हूं, प्रतीक की वजह से हूं. लेकिन वे कहते हैं, इस में उन्होंने कुछ नहीं किया. प्रतिभा तो मेरे अंदर पहले से ही थी. उन्होंने सिर्फ उस से मु   झे रूबरू कराया.

मेरा बदलाबदला रूप देख कर प्रतीक कुछ क्षण मु   झे देखते रह गए, फिर छेड़ते हुए बोले, ‘‘क्या बात है, आज तो गड़बड़ा रही हो. कहीं वहां पटना में तुम्हारा कोई पुराना आशिक तो नहीं है, जिस के लिए तुम इतना बनसंवर रही हो?’’

उन की बात सुन कर पहले तो मेरा लड़ने का मन हुआ कि कुछ भी बोलते हैं. लेकिन, फिर अपने तेवर बदलते हुए बोली, ‘‘हां, है तो… और इसलिए तो मैं ने अपना मेकओवर करवाया है. पूरे 3,000 रुपए लगे हैं यह सब करवाने में.’’

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