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मेरी बात सुन कर प्रतीक ने बेचारा सा मुंह बना लिया तो मु   झे हंसी आ गई. सम   झ गए वे कि मैं भी उन्हें छेड़ ही रही हूं, इसलिए वे भी हंस पड़े और बोले, ‘‘वैसे, कोई कह नहीं सकता कि तुम एक युवा बेटे की मां हो. आज भी तुम पर कई लड़के लट्टू हो जाएंगे.’’

‘‘हूं. लेकिन तुम ही नहीं सम   झते मु   झे. घर की मुरगी दाल बराबर,’’ बोल कर जब मैं ने ठंडी आह भरी तो प्रतीक जोर से हंस पड़े और बोले, ‘‘नहीं भई, ऐसी कोई बात नहीं है, बल्कि मैं तो सुलेखा के अलावा किसी को देखता तक नहीं.’’

‘‘अच्छा, ज्यादा    झूठ मत बोलो,’’ मैं ने कुहनी मारते हुए कहा, ‘‘खूब जानती हूं तुम मर्दों को. सुंदर महिला दिखी नहीं कि बीवी को भूल जाते हो.’’ पतिपत्नी में नोक   झोंक तो चलती रहती है, क्योंकि अगर यह न हो तो जिंदगी का मजा ही नहीं है. लेकिन, पटना जाने को ले कर मैं बहुत ही ज्यादा ऐक्साइटेड थी.

शादी के इन 21 सालों में शायद ही कभी ठीक से मायके में रही होऊंगी. जब भी गई 4-6 दिनों से ज्यादा नहीं रही. मां कहती भी हैं, जब भी जाती हूं, बस, मुंह दिखा कर आ जाती हूं. लेकिन क्या करूं, यहां प्रतीक को भी तो अकेला नहीं छोड़ सकती न. वैसे, प्रतीक भी कहां मेरे बगैर रह पाते हैं, तभी तो मु   झे वहां नहीं छोड़ते और साथ लेते आते हैं. भाभीबहन छेड़ते भी हैं कि प्रतीक मु   झे बहुत प्यार करते हैं, इसलिए मु   झे कहीं छोड़ना नहीं चाहते. उन की बातों पर मैं शरमा जाती हूं. लेकिन, सच बात तो यह है कि मेरा भी उन के बिना मन नहीं लगता और यह बात मेरे मायके वाले अच्छे से जानते हैं.

‘‘क्या सोचने लग गईं?’’ प्रतीक ने मु   झे हिलाया तो मैं एकदम से हड़बड़ा गई. मैं ने उन्हें पटना ले जाने के लिए ‘थैंक यू’ कहा, तो बोले, ‘‘ऐसे थोड़े ही. इस के लिए तुम्हें मु   झे घूस देनी पड़ेगी.’’

‘‘घूस… तो अब आप घूस लेंगे? वह भी अपनी बीवी से? लेकिन, मैं ने तो सुना है कि बैंक वाले बड़े ईमानदार होते हैं,’’ बोल कर मैं हंस पड़ी तो प्रतीक भी हंसने लगे. जानती हूं इन की घूस, मतलब एक कप गरमागरम अदरक वाली चाय. सो, मैं बना कर ले आई और चाय पीतेपीते ही हम गप्पें मारने लगे.

अगले दिन शाम के 4 बजे हमारी फ्लाइट थी, इसलिए मैं घर का सारा काम समेट कर बाई को बुला कर उसे सारी सब्जियां और फ्रिज में रखे दूधदही वगैरह देते हुए बोली कि वह घर का खयाल रखे और पड़ोस से चाबी ले कर एकदो रोज में    झाड़ूपोंछा लगा जाए.

रास्तेभर मैं यह सोचसोच कर खुश हुए जा रही थी कि सब से मिलूंगी, मां के गले लगूंगी, पापा को देखूंगी और इस बार तो दादी के घर भी जाऊंगी. दादीदादा नहीं रहे पर वहां चाचाचाची तो हैं. ओह, कितना मजा आएगा न अपनों से मिल कर. वह गलीमहल्ला, जहां मेरा बचपन बीता. हमारा बगीचा, जिस में दूर तक फैले आम, बेर और बांस के पेड़, जहां मैं अपनी सखियों के साथ लुकाछिपी खेला करती थी, झूला झूलती थी.

मैं भूली नहीं हूं, कैसे पेड़ों पर कोयल, बुलबुल, तोते, गोरैया और कितने सारे पक्षियों का डेरा हुआ करता था. उन का कोलाहल मेरे मन को रोमांच से भर देता था. कैसे मैं उन पक्षियों की नकल उतारा करती थी.

वह सब याद कर मैं फिर से अपने बचपन में चली गई थी. मु   झे किसी बच्चे की तरह उतावले और चुलबुलाते देख प्रतीक मन ही मन मुसकराए जा रहे थे पर कुछ बोल नहीं रहे थे.

मैं ने दूर से ही देखा, एयरपोर्ट पर हमें लेने मम्मीपापा, भैयाभाभी सब आए थे. मां तो मु   झे देखते ही रोने लगी कि मैं कितनी दुबली हो गई हूं. हर मां को दूर रह रहा बच्चा दुबला ही लगता है. मां प्यार से मेरा चेहरा सहलाने लगी. पापा ने मु   झे अपने कलेजे से लगा लिया. भैया जा कर मेरी पसंद की मिठाई ले आए. उन्हें पता है कि मु   झे क्रीम चौप, जो कि बिहार की मिठाइयों में से एक है, बहुत पसंद है.

भाभी ने भी हमारे सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी. बैंक की तरफ से औडिटर को रहनेखाने की सब सुविधा होती है पर हम मां के घर ही रुके थे. माला भी आई थी. देररात तक हम बातें करते रहे. सोचा था, मां के घर जा कर खूब सोऊंगी पर अपनों से मिलने की खुशी मु   झे सोने ही नहीं दे रही थी.

प्रतीक के मम्मीपापा अब इस दुनिया में नहीं रहे. मां तो पहले ही मर चुकी थी,

4 साल पहले उन के पापा भी चल बसे. बड़े भाई और उन के परिवार है, जो भागलपुर में ही रहते है. लेकिन उन्हें अब हम से कुछ लेनादेना नहीं रहा. पूछते भी नहीं कि हम कैसे हैं? प्रतीक ही फोन करते हैं तो बातें होती हैं, वरना वह भी नहीं.

खैर, जो भी हो, हैं तो वे हमारे अपने ही और लड़ाई   झगड़ा किस परिवार में नहीं होता? इस से रिश्ते थोड़े ही टूट जाते हैं? जब मैं ने प्रतीक को सम   झाया तो वे भागलपुर जाने के लिए राजी हो गए. हम तो ट्रेन से जाने की सोच रहे थे, मगर पापा और भैया कहने लगे कि ट्रेन का कोई ठिक?ाना नहीं रहता कि कितनी लेट आएगी और कब पहुंचाएगी. इस से अच्छा है कि हम बाई रोड चले जाएं.

सच कहें तो मेरा भी यही मन था. अपनी गाड़ी से सफर करने का मजा ही कुछ और होता है. सो, हम पापा की गाड़ी से भागलपुर के लिए निकल गए. ड्राइवर था तो कोई दिक्कत नहीं थी. तीनों ब्रांच का औडिट हो चुका था. लेकिन लास्ट ब्रांच में कुछ काम बाकी रह गया था, जिसे पूरा कर हम उधर से ही भागलपुर के लिए निकलने वाले थे. रास्ते में प्रतीक कहने लगे कि मैनेजर साहब अच्छे आदमी हैं, सपोर्ट कर रहे हैं, वरना, इतनी जल्दी औडिट नहीं हो पाता.

‘‘प्रतीक, आप का जो भी काम है कर आइए, तब तक मैं गाड़ी में ही बैठती हूं,’’ मैं ने कहा, लेकिन प्रतीक कहने लगे कि हो सकता है समय ज्यादा लग जाए, इसलिए मैं उन के साथ चलूं. मैं गाड़ी से उतर कर प्रतीक के पीछेपीछे यह सोच कर चल पड़ी कि गाड़ी में बैठ कर बोर होने से अच्छा है कि वहीं जा कर बैठूं. लेकिन जब मैं ने मैनेजर की कुरसी पर नवीन को बैठे देखा तो सन्न रह गई. मु   झे तो जैसे काठ मार गया.

फटीफटी निगाहों से मैं उसे देखने लगी और वह भी, जो कुरसी पर बैठा था, मु   झे यों अचानक अपने सामने देख हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ. ‘नवीन… और यहां तो क्या यही इस ब्रांच का मैनेजर है और प्रतीक इसी की बात कर रहे थे?’

‘‘प्रतीक, मैं गाड़ी में ही बैठती हूं…’’ कह कर मैं    झटके से मुड़ी ही थी कि प्रतीक ने मेरा हाथ पकड़ लिया. ‘‘बस जरा सा ही काम है, साथ चलते हैं न,’’ आंखों के इशारे से प्रतीक ने कहा तो मैं ठिठक कर वहीं खड़ी रह गई. लेकिन बता नहीं सकती कि उस पल में मैं एक सदी का दर्द    झेल रही थी. जो इंसान मु   झे अपने सपने में भी गवारा नहीं था, उसे प्रत्यक्ष अपने सामने देख मेरा कलेजा जल रहा था. गुस्सा तो मु   झे प्रतीक पर आ रहा था कि वे मु   झे यहां लाए ही क्यों.

हमारा परिचय कराते हुए प्रतीक बोले, ‘‘इन से मिलो, ये हैं इस ब्रांच के मैनेजर साहब, नवीन मिश्रा और ये हैं मेरी पत्नी, जीवनसंगिनी सुलेखा. वैसे, नवीन साहब, शायद आप नहीं जानते होंगे पर मेरी पत्नी एक लेखिका हैं. भई, बड़ा नाम है इन का,’’ मु   झे अपने कंधे से सटा कर प्रतीक बोले तो नवीन उन का मुंह ताकने लगा.

‘‘अरे, मैनेजर साहब, मेरी पत्नी की लिखी रचनाएं पूरी दुनिया में छपती हैं.’’

प्रतीक की बात सुन नवीन मु   झे भौचक्का सा देखने लगा. उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि प्रतीक जो बोल रहे हैं, सही है और जिसे वह एक मामूली लड़की सम   झ कर नकार चुका था, आज वह अपने नाम से जानी जाती है.

प्रतीक फाइलों पर साइन करते रहे और नवीन चोर नजरों से मु   झे देखता रहा. मैसेंजर टेबल पर चाय और बिस्कुट रख गया. मु   झे कुछ खानेपीने का मन नहीं हो रहा था. लग रहा था कि जल्दी यहां से निकलूं क्योंकि यहां मेरा दम घुट रहा था और नवीन जिस तरह से मु   झे देख रहा था, वह भी मु   झे अच्छा नहीं लग रहा था.

मैं जाने के लिए उठी ही थी कि प्रतीक कहने लगे, ‘‘बस और थोड़ी देर.’’

लेकिन अब मु   झे यहां एक पल भी नहीं रुकना था, सो मैं बाथरूम जाने का बहाना बना कर बाहर निकल आई और प्रतीक के आने का इंतजार करने लगी.

कुछ देर बाद प्रतीक के साथ नवीन भी बाहर आया तो मैं जा कर गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी का शीशा ऊपर चढ़ा कर यों ही मोबाइल चलाने लगी. मैं अंदर से ही देख रही थी, बात तो वह प्रतीक से कर रहा था पर उस की नजरें मेरी तरफ ही थीं. मु   झे गुस्सा प्रतीक पर आ रहा था कि कर क्या रहे हैं इतनी देर तक. शायद प्रतीक ने मेरे मन की बात को भांप लिया.

नवीन से हाथ मिला कर वे गाड़ी में आ कर बैठ गए. अगर ड्राइवर न होता तो जरूर पूछती कि मु   झे वहां ले कर क्यों गए? लेकिन फिर लगा, उन्हें क्या पता मेरे अतीत के बारे में.

‘‘अरे, क्या हुआ, चली क्यों आईं?’’ मेरे बगल में बैठते हुए प्रतीक बोले, ‘‘पता है तुम्हें, मैनेजर साहब तो अपनी ही बिरादरी के निकले.’’

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