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लगता है, उधर कुछ असर हुआ. दबी सी आवाज में वह बोला, ‘‘आप तो मजाक कर रहे हैं. चौहान साहब के सैक्रेटरी से साहब कुछ खास बातें कर रहे हैं. ऐसे में आप का संदेश दे कर क्या मुझे अपनी शामत बुलानी है.’’

वह ठीक ही कह रहा था. दिनेश में कोई दोष था तो, बस, उस का क्रोध, जो मानो परशुराम से सीधा उस को विरासत में मिला था. सदा नाक पर चढ़ा रहने वाला उस का गुस्सा जरा टोकने से सीधा आसमान पर पहुंचता था और फिर उसे कुछ नहीं दिखाई देता था. योजना आयोग के उस के कमरे के सामने से गुजरते समय यदि कभी किसी को मछली बाजार का सा भ्रम हो तो इस में आश्चर्य ही क्या है. शायद मैं ही एक ऐसा व्यक्ति था जिस ने कभी उस के क्रोध को महत्त्व नहीं दिया. साइकिल के आगे डंडे पर बैठने वाले को चालक से सदा दबना ही पड़ा है.

‘‘अच्छा तो सुनो,’’ उस को मुसीबत से बचाने के लिए मैं ने कहा, ‘‘अपनी मेम साहब को बुलाओ.’’

निश्चिंतता की जो गहरी सांस उस ने छोड़ी, उस के झटके से टैलीफोन मेरे हाथ से छूटतेछूटते बचा.

मंजू से बात हुई, आदेश हुआ कि बंगले पर हाजिर हो जाऊं, जब तक ट्रेन का समय पक्का न हो जाए. लंच का समय था, इसलिए दिनेश भी कुछ घंटे खाली रहेगा.

अपना सामान क्लौकरूम में रख कर, टैक्सी ले कर मैं सीधा उस के घर चल पड़ा.

दिनेश बड़ी तपाक से मिला. इतने लंबे समय से न मिलने का लेखाजोखा कुछ ही सैकंडों में पूरा हो गया.

लंच टेबल पर हम दोनों बैठे थे और मंजू खाना लगाने में व्यस्त थी. दिनेश की चुटकी लेते हुए मैं ने कहा, ‘‘यार, बड़ा आदमी हो गया है. फोन पर बात नहीं करेगा, जब तक उधर वाले की जन्मपत्री सामने न हो.’’

‘‘यह बात नहीं,’’ उस ने कहा, ‘‘चमचागिरी करने वालों की संख्या इधर कुछ अधिक ही बढ़ गई है. ऐसेवैसे फोन बहुत आने लगे हैं.’’

‘‘पर आज यह गुपचुप चौहान के सैक्रेटरी से क्या षड्यंत्र रच रहे थे?’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘अमा, समझा क्या है हमें,’’ छाती फुला कर मैं ने कहा, ‘‘हमारा गुप्तचर विभाग भी कुछ मामूली नहीं है,’’ और सुबह का टैलीफोन का किस्सा उसे सुनाया. साइकिल वाले प्रसंग पर वह भी हंसे बिना नहीं रह सका.

‘‘यह तो रोज का ढर्रा है,’’ उस ने बात पर लौटते हुए कहा, ‘‘कभी चौहान साहब, कभी दीक्षितजी, सभी पीछे पड़े हुए हैं. परसों इंदिराजी भी जोर दे रही थीं.’’

‘‘कौन इंदिराजी?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा.

‘‘बड़े अहमक हो यार,’’ वह कुछ तेज कर बोला, ‘‘इंदिरा गांधी का नाम नहीं सुना. कहते हैं, वे इस देश की प्रधानमंत्री हैं.’’

‘‘अच्छा, अच्छा,’’ मैं ने कुछ समझते हुए से ढंग से कहा, ‘‘मैं समझा था कि तुम अपनी कालेज वाली इंद्रा की बात कर रहे हो. अरे, वह काली, मोटी सी चश्मेवाली लडक़ी जिस ने बेपरवाही से अपना दिल तुम पर फेंक दिया था. क्या हाथ धो कर पीछे पड़ी थी मुटैल. मालूम है, मंजू, वह लडक़ी तो दिनेश के पीछेपीछे अमेरिका जाने की तैयारी कर चुकी थी.’’

‘‘हूं…’’ बनावटी ढंग से दिनेश को आंखों से घूरते हुए मंजू बोली.

‘‘खैर, जाने दो,’’ मैं ने समझाया, ‘‘गलती मेरी समझ की थी. भला उसे यह इंद्राजी क्यों कहने लगा. वह तो इंदो थी इंदो. हां, तो यह इंदिराजी तुम से चाहती क्या हैं?’’ मैं ने दिनेश से पूछा.

‘‘अरे, सब यही चाहते हैं कि मैं मंत्रिमंडल में शामिल हो जाऊं. जानते हो, देश की आर्थिक हालत कितनी उलझी हुई है. सख्त कदम उठाए बिना कुछ होना बहुत मुश्किल है. और फिर मैं कुछ जादू तो कर ही नहीं दूंगा. आजकल…’’

‘‘पर कुछ प्रयत्न कर के तो देख सकते हो,’’ मंजू बात काट कर बोली.

मंजू का टोकना था कि दिनेश की नाक फडफ़ड़ाने लगी.

‘‘क्या प्रयत्न कर सकते हो,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘तुम औरतों को कुछ मालूम भी है. यह भी कोई नानखटाई की रैसिपी है जो काशिश कर के देख लो.’’

मंजू ने मुंह बनाया, ‘‘ज्यादा से ज्यादा बिगड़ ही तो जाएगी. हुंह…’’

पर पुरुष के सामने डांट खाना भला किस स्त्री को अच्छा लगता है. दिनेश का स्वभाव जानते हुए भी वह चुप न रह सकी. ‘‘तो फिर रहने दो,’’ उस ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘बिगडऩे से इतना डरते हो तो हाथ मत लगाओ. सब से कह दो कि यह रोग तुम्हारे बस का नहीं है.’’

दिनेश का पारा सातवें आसमान पर था. वह चिल्लाया, ‘‘तुम तो जाहिल हो जाहिल, अनपढ़, गंवार. तुम्हें मालूम है कि इनफ्लेशन क्या बला है और उसे काबू में कैसे किया जा सकता है. खानदान में किसी ने किताब उठाई हो तो जानो.’’ उस का चेहरा बिलकुल लाल मुंह के बंदर जैसा हो रहा था.

स्थिति कुछ काबू से बाहर होती जा रही थी और कुसूर शायद मेरा ही था. बेहतर इस के कि मैं कुछ कहूं कि मंजू फिर बोल पड़ी, ‘‘तो चल पड़ा फ्रंटियर मेल.’’

कल्पना कीजिए कि आप एक बच्चे हैं, जो मां की निगाह बचा कर फ्रिज में से बरफी चुरा कर खा रहे हैं. एकाएक आप की बड़ी बहन आप को देख लेती है और आप भी देख लेते हैं कि उस ने देख लिया. अब आप की क्या हालत होगी. क्या आप नहीं चाहेंगे कि धरती फट जाए और आप उस में समां जाएं, खासतौर पर तब जब कि आप हर समय अपनी बहन को मारते रहते हों. दिनेश की हालत भी मंजू का वाक्य सुन कर कुछ ऐसी ही हो गई. उस का चेहरा पीला पड़ गया, नेत्र जो कुछ समय पहले अंगारे बरसा रहे थे, एकदम नीचे झुक गए और ‘एक्सक्यूज मी’ कह कर वह सीधा बाथरूम में घुस गया. पलक मारते ही उस का गुस्सा हवा हो चुका था.

मुंह पर रूमाल रख कर उभरती हुई हंसी को दबाते हुए मंजू ने मुझ से कहा, ‘‘देखा, अपने मंत्र का प्रभाव.’’

और एकाएक मुझे वह घटना याद आ गई.

मंजू और दिनेश बच्चों के साथ पहली बार मुंबई घूमने आए थे और मेरे पास ही ठहरे थे. एक सप्ताह का समय होता ही क्या है, विशेषकर यारदोस्ती के बीच में, हंसतेबोलते ही निकल गया और देखते ही देखते जाने का समय आ गया. फ्रंटियर मेल से फर्स्ट क्लास के उन के टिकट मैं ने पहले से ही रिजर्व करा रखे थे.

मेरा औफिस क्योंकि फोर्ट में था, इसलिए मैं वहीं से सीधा स्टेशन पहुंचने वाला था. मंजू को मैं ने खासतौर पर समझा दिया था कि गाड़ी रात को 9 बजे जाती है और उन सब को घर से 7 बजे चल देना चाहिए. चेंबूर से रास्ता काफी लंबा है, फिर रास्ते में ट्रैफिक ज्यादा तथा अनगिनत सिगनलों पर भी ठहरना पड़ता है और टैक्सी का भी आजकल कुछ भरोसा नहीं किया जा सकता, न जाने कब खराब हो जाए. यदि जल्दी स्टेशन पहुंच भी गए तो वहीं गपशप करेंगे.

दफ्तर में उस दिन काम कुछ ऐसा अटका कि जल्द छूट नहीं पाया. जिस समय मैं मुंबई सैंट्रल के स्टेशन पर पहुंचा. साढ़े 8 बज रहे थे और गाड़ी प्लेटफौर्म पर खड़ी थी. डीजल की लंबी ट्रेन तिस पर दसियों पहले दरजे के कई डब्बे. रिजर्वेशन चार्ट से उन के डब्बे का पता कर के जो वहां पहुंचा, तो सब नदारद पाया. सारी ट्रेन एक सिरे से दूसरे सिरे तक झांक गया कि कहीं और तो नहीं बैठ गए, पर वे हों वहां तब तो मिलें.

जल्दीजल्दी भाग कर टैलीफोन बूध से घर का नंबर मिलाया. मालूम पड़ा कि वे सब घर से 7 ही बजे निकल चुके थे. ऐसे समय में जब मामला अपने प्रियजनों का हो तो बुरे विचार ही अधिक आते हैं, सोचा ,कि कहीं टैक्सी की दुर्घटना न हो गई हो पर उस समय कुछ कर भी नहीं सकता था. घबराहट में इधरउधर घूम रहा था और निगाहें अंदर आने वालों पर लगी थीं. बारबार घड़ी देखता था, पर समय था कि कंबख्त एकएक मिनट पहाड़ की तरह कट रहा था.

जैसेतैसे पौने 9 बजे. फिर 9 बजने में 10 मिनट हुए पर किसी का कुछ पता नहीं. 5 मिनट और बीते और माइक पर आवाज आई. ‘फ्रंटियर मेल जाने को तैयार खड़ी है.’

एकाएक दूर दिनेश को प्लेटफौर्म में घुसते देखा. एक बच्चे को गोदी में लिए वह तेजी से भागा आ रहा था. पीछेपीछे दूसरे बच्चे को पकड़े अपनी अधखुली साड़ी संभालती हुई मंजू दौड़ी आ रही थी, और उन के पीछे था कुली.

गार्ड सीटी बजाने वाला ही था.

‘‘क्षमा करें,’’ मैं ने उस से निवेदन किया, ‘‘एक मिनट ठहर जाएं. मेरा मित्र भागा आ रहा है. उसे सपरिवार इस ट्रेन से जाना है.’’

चश्मे के अंदर से आंखें तरेर कर गार्ड ने मुझे देखा और बोला, ‘‘एक मिनट ऐसे सब के लिए रुका तो गाड़ी यहां से चलेगी ही नहीं. आप के दोस्त कुछ पहले नहीं आ सकते. ऐसे क्या लाट साहब हैं.’’ पर न जाने क्यों सीटी उस ने नहीं बजाई.

लपक कर मैं ने मंजू से बच्चे को लिया. अपने डब्बे में पहुंचना असंभव था. सामने जो डब्बा था, उस में सामान रख कर हांफतेहांफते वे लोग चढ़ ही पाए थे कि ट्रेन चल पड़ी.

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