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मेरे सिर से मानो एक भारी बोझ उतरा और संतोष की सांस ले कर मैं घर वापस पहुंचा. मंजू ने दिल्ली पहुंच कर सब हाल विस्तारपूर्वक लिखा : घर से वे लोग ठीक समय पर टैक्सी द्वारा निकल पड़े थे पर जब वह अपना सफर तय कर के मुंबई सैंट्रल के अंदर घुसने को हुई तो दिनेश बोल पड़ा, ‘‘यह कहां ले जा रहे हो. यह तो सैंट्रल है सैंट्रल. हमें जाना है वैस्टर्न रेलवे से.’’ उसे वहम था कि बड़े शहरों के टैक्सी वाले सब बदमाश होते हैं और यात्रियों को गलत जगह ले जाया करते हैं.

टैक्सी वाला कुछ बोलने को हुआ, ‘‘मगर...’’

और आगे के शब्द उस के मुंह में ही रह गए. दिनेश के शब्दकोघ में ‘मगर’ का अर्थ है उस के ज्ञान को चुनौती देना. एक दो कौड़ी के टैक्सी वाले ही यह हिम्मत कि उस के आगे ‘मगर’ कहे, वह जिस ने अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वानों के भी छक्के छुड़ा दिए थे.

‘‘मगरवगर की बकवास बंद करो,’’ टैक्सी वाले पर मानो पहाड़ टूटा, ‘‘तुम से कह दिया कि हमें मुंबई सैंट्रल नहीं जाना है. चलो, सीधे वीटी.’’

दबे स्वर में मंजू ने कहा, ‘‘न हो तो अंदर जा कर पूछ क्यों नहीं लेते कि फ्रंटियर मेल कहां से जाती है. अभी तो बहुत समय है.’’ पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है.

‘‘अब तुम मेरा भेजा मत चाटो,’’ दिनेश चिल्लाया, ‘‘क्यों जाऊं अंदर. साफ लिखा है सैंट्रल. आंखें नहीं हैं तुम्हारे,’’ और उस ने गुर्रा कर फिर ड्राइवर की तरफ देखा.

वह बेचारा सिट्टीपिट्टी भूल कर वीटी की ओर चल पड़ा. स्टेशन पहुंच कर कुली ने सामान उतार कर ठेले पर रख कर पूछा, ‘‘कौन सी गाड़ी, बाबू?’’

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