"मां, मैं निकल रही हूं, अभय आ गया है," मालती को आवाज लगा कर प्रीति दरवाजे से बाहर निकल गई.
"अरे, सुनो तो...यह टिफिन तो रख लो..." मालती लगभग भागते हुए दरवाजे की ओर आई.
"प्यारी मां," मालती के हाथ से टिफिन ले प्रीति सीढ़ियों की ओर दौड़ गई. उसे निकलते देख मालती के चेहरे पर मुसकान खिल गई. 2 साल से यही दिनचर्या बन चुकी थी दोनों की.
"अभय कौन है?" पीछे से आई आवाज ने घर समेटती मालती के हाथों को रोक दिया. वह पीछे पलटी और मुसकरा कर बोली, "जिज्जी, बैठो नाश्ता लगा देती हूं," ननद सुरेखा की बात को अनसुना कर मालती रसोई की ओर बढ़ती हुई बोली.
"लगा देना नाश्ता, पहले यह बता अभय कौन है? प्रीति ने नाम लिया था उस का," सुरेखा ने सवाल दागा.
"सहकर्मी है प्रीति का," संक्षिप्त सा जवाब दे मालती रसोई में घुस गई. थोड़ी देर में हाथ में नाश्ते की प्लेट ले कर वापस आई और सुरेखा के सामने रख दी,"आज आप की पसंद के पतोड़ बनाई हूं. कल प्रीति लाई थी अरबी के पत्ते. कह रही थी कि बुआजी को पसंद है इसलिए नाश्ते में यही बनाएंगे," प्लेट लगाती हुई मालती बोली.
"हां, तो कौन सा कमाल कर दिया. तेरे सिर पर ही छोड़ गई न काम. इतना सिर मत चढ़ा मालती, समझ जा तू."
"अरे नहीं जिज्जी, सारी तैयारी वही कर के गई है बल्कि खुद नाश्ता नहीं कर पाई. खा कर देखो बहुत अच्छे बने हैं." सुरेखा के चेहरे के भाव मालती की आंखों से छिपे न थे लेकिन वह खामोश ही रहती.