‘‘आइए, कृपानिधानजी, बैठिए। सब ठीक है न?’’ एक सोफे की तरफ इशारा करने के बाद कैसे, क्या पूछूं, इसी में मन उलझने लगता है.
गगनभेदी न सही, छत को भेद सकने वाली बुलंद हंसी. ऐसा कुछ कहा नहीं है मैं ने फिर इतनी जोर का ठहाका क्यों? हंसी इतनी उन्मुक्त थी कि कृपानिधान को न जानने वाले को निश्छल हास्य का भ्रम हो जाए. लेकिन दांत इतने लंबे और पीले कि पहली नजर में किसी पशु की आकृति का आभास होने से अनायास एक हलकी सिहरन अनुभव होती है.
‘‘ठीक क्यों नहीं होगा. आप जैसे सज्जन लोगों की कृपा हो तो सब ठीक ही है? आप को क्या मालूम, आप से ज्यादा तो आप के बड़े भाई से पहचान है मेरी. अहा, इतने सज्जन, उदार व्यक्ति अब रह कहां गए हैं. मुझ पर बड़ा ही स्नेह है उन का,’’ कृपानिधान धाराप्रवाह बोलता जा रहा था.
शायद काम के वक्त वाणी की यह प्रवाह उस की आदत ही हो.
तभी पत्नी आई. कृपानिधान को अभिवादन कर खड़ी रही,"आयुष्मती भव...’’ के उच्च घोष के बाद फिर से वही हंसी. पत्नी के प्रति आत्यधिक आत्मीयता का स्तर, ‘‘आप तो छोटी ही हैं. आप को कैसे मालूम होगा कि आप के जेठजी का मुझ पर कितना स्नेह है. शंकर के ब्याह में दुखी स्वर में उन्होंने मुझ से कहा था कि कृपानिधान, आगे क्या होगा. अब तुम जैसे कर्मकांडी पंडित रह कितने गए हैं...’’ आप तो जानती ही होंगी, शंकर का ब्याह मैं ने ही निश्चित करवाया था.
पत्नी चुप रही.
शंकर के ब्याह में कृपानिधान ने काफी रुपया घसीटा था. तब वह अकेला काम करता था. ऐजैंसी नहीं खोली थी. अब तो शान ही दूसरी थी. 20 लोग काम करते हैं उस के पास. ऐसी गरम खबर थी. लङकी पैर से कुछ लचकती थी. इस से कन्या पक्ष से ज्यादा भाव कृपानिधान ने वसूला था. ब्याह के बाद शंकर गरम हुआ था कृपानिधान पर, लेकिन फिर बेकार समझ सब कर लिया उस ने.
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