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‘अब लेकिनवेकिन कुछ नहीं पिताजी. हमें पुणे जाना है, तो जाना है.’ निष्ठुर शुभेंदु ने निर्लज्जता से जवाब दिया.

‘ठीक है बेटा, जैसा तुम अच्छा समझो,’ व्यथित मन से शिवजी साह ने कहा.

“मैम, क्या सोचने लगीं. लीजिए गरमगरम पकौड़े और कौफी पीजिए, तनाव खत्म हो जाएगा,” मीणा की आवाज सुन कर सुधा चौंकी और अपने खयालों से वापस आई.

कौफी की चुस्कियां लेते हुए सुधा ने कहा, “मीणा, शुभेंदु के पिता को तुम्हीं फोन करो, उन से बात करने की मुझ में हिम्मत नहीं है.”

“ऐसा नहीं कहते मैम, अपनों से बात हिम्मत से नहीं, अपनत्व की भावना से की जाती है. कहा गया है कि पुत्र भले कुपुत्र हो जाए, लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती. आप अपना मोबाइल मुझे दीजिए, नंबर लगा देती हूं. आप बात करें,” मीणा ने उत्सुकता से कहा.

“नहीं, नहीं, तुम ही बात करो.”

“इस का मतलब यह हुआ कि अब भी आप उन्हें अपना नहीं समझतीं. तब तो फुजूल की बहस करने से क्या लाभ. अब मैं चली,” गुस्सा में मीणा ने उलाहना दिया और जाने के लिए दरवाजे की ओर अपना रुख किया.

“गुस्ताख़ी माफ़ करो, मीणा. मैं अपने ससुर से बात करूंगी. उन से पुणे आने के लिए विनती करूंगी.” मीणा से माफी मांगते हुए सुधा की आंखें भर आईं. उस ने मोबाइल का स्पीकर औन कर भर्राई आवाज में कहा,

“हैलो, हैलो, मैं सुधा पुणे से बोल रही हूं.”

“हां, हां, बोलो, क्या बात है, बहू? मैं सुनंदा, तेरी सास बोल रही हूं,” आवाज पहचानते ही सुनंदा ने पूछा.

“मैं मुसीबत में घिर गई हूं. मां, आप पिताजी को ले कर जल्द पुणे पहुंचिए. आप का लाडला बेटा जेल में बंद है.”

“ओह, यह तो बहुत ही दुखद बात है. लेकिन बहू, घबराना नहीं, हम आ रहे हैं,” सुनंदा ने व्यग्रता के साथ उस से कहा.

तभी शिवजी साह सुनंदा के पास पहुंचे और पूछा, “किस का फोन है?”

“पुणे से, बहू का”

“बहू, सुधा का” अचरज के साथ शिव जी ने आश्चर्य प्रकट किया. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उन के परिवार में बेटा और बहू भी हैं. उन्होंने सुनंदा से मोबाइल अपने हाथ में ले लिया और पूछा, “हैलो, हैलो, कैसी हो बहू, तेरा ससुर बोल रहा हूं.”

“शुभेंदु जेल में है पिताजी, मैं क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है?”

“वह जेल में कैसे बंद हो गया?” धैर्य के साथ शिव जी ने पूछा.

“एक पब में शुभेंदु का जाट ग्रुप के युवकों से झगड़ा हो गया था. जिस के कारण शुभेंदु पर केस हो गया है,” संयत हो कर सुधा ने जवाब दिया.

“ओह, चिंता न करो बहू. हम पैसे का इंतजाम कर तुरंत पहुंचते हैं.”

“ठीक है पिता जी, जल्द आइए. मैं आप का इंतजार करूंगी.”

” ठीक है, तुम अपने को अकेला न समझना.”

शिव जी ने कहने के लिए तो कह दिया कि अकेला न समझना, लेकिन वे स्वयं 20 वर्षों से अकेले थे, जब से शुभेंदु का अचार, विचार और व्यवहार बदल गया था. वे उस से बहुत ही आहत रहते थे. सोचे थे कि जवान बेटा की शादी के बाद उन के आंगन में खुशियां दिल खोल कर नाचेंगी. बहू के पायलों की रुनझुन से घर में छाई मनहूसियत भागेगी. नन्हेमुन्ने शिशुओं की किलकारियों से घरआंगन गुलज़ार होगा. लेकिन यह क्या हो गया. उन के सुखशांति में किस की बुरी नजर लग गई.

उस वक्त बहू सुधा और शुभेंदु द्वारा बीमार सुनंदा को छोड़ कर चले जाने से सुनंदा तनाव में आ गई. जिस के कारण उस का शुगर और बीपी बढ़ गया. चक्कर आने के बाद सुनंदा बाथरूम में गिर कर घायल हो गई.

संयोग अच्छा था कि उस समय शिवजी घर में ही थे. किसी तरह अपने पड़ोसी की मदद से सुनंदा को पास के अस्पताल में भरती कराया. एक सप्ताह इलाज के बाद सुनंदा स्वस्थ हो गई. लेकिन वह बहुत कमजोर थी. खुद अपना दैनिक कार्य भी नहीं कर पाती थी. प्रत्येक कार्य में उसे अपने पति का सहयोग लेना पड़ता था.

झरिया जैसे छोटे शहर में कोई ढंग की दाई तक नहीं थी. मध्यवर्गीय परिवार के लोग अपने घर का काम खुद या पड़ोसियों की मदद से करते थे. खासकर बहू सुधा के नहीं रहने से घरेलू स्थित और भी डगमगा गई थी.

इसी तरह दिन, महीने और साल गुजरते गए. धीरेधीरे शिवजी साह की बिगड़ी स्थिति उन के धैर्य, साहस और आत्मविश्वास से सुधरने लगी थी. उन का स्नेह, प्यार और यथोचित सम्मान पा कर पत्नी सुनंदा भी स्वास्थ रहने लगी. दोनों के तालमेल से उन के गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आ गई थी. इसी बीच शुभेंदु के जेल जाने की खबर एक दिन पुणे से बहू सुधा ने फोन पर दी.

शुभेंदु के जेल जाने की खबर ने शिवजी साह और उन की पत्नी सुनंदा के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थीं. उन का व्याकुल मन बारबार शुभेंदु का चेहरा देखने के लिए बेचैन हो रहा था. वे चाहते थे कि जल्द से जल्द   पुणे पहुंच कर उसे जेल से बाहर लाएं.

शिवजी गांव में रहते थे पर उन्हें कोर्टकचहरी का अनुभव बहुत था क्योंकि गांवों में अकसर झगड़े होते रहते हैं. उन के एक वकील नारायण बाबू का बेटा बी के दास पूना में प्रैक्टिस कर रहा था. उन्होंने अपने परिचित वकील से कह कर शुभेंद्र का  केस लेने के लिए बी के दास को तैयार कर लिया.

उस के बाद उन्होंने गांव के सारे परिचितों को फोन कर के सारी बातें बताईं और पूछा कि उन में से किसकिस के जानकार पूना में हैं. मालूम हुआ कि मनोज का साडू दीपक सिंह पुणे में  सैशन जज है. औपचारिक बातचीत के बाद उस ने शिवजी की बात जज से करा दी. जज ने कहा, वे संबंधित मजिस्ट्रेट से न्याय करने को बोल देंगे.

गांवों में वक्त पर लोग बहुत सहायक होते हैं. इस मुसीबत में  बहुतों ने शिवजी को खुल कर उधार दे दिया.

उन्होंने अपने शहर के एक रेलवे  ठेकेदार सफीक अली से 25 हजार रुपए सूद पर लिया और जसीडीह-पुणे साप्ताहिक एक्सप्रैस से रविवार के दिन पुणे रवाना हो गए.

तीसरे दिन मंगलवार को शिवजी पुणे पहुंच गए. वहां अपनी बहू को साथ ले कर कोर्ट गए. जहां फौजदारी के चर्चित अधिवक्ता बी के दास से मिले और कहा,

“झरिया के अधिवक्ता नारायण बाबू ने  आप के पास भेजा है.”

” ओ हो, आप ही हैं शिवजी साह. आप के बारे में कल पिताजी से बात हुई थी.”

“जी सर. शुभेंदु मेरा पुत्र है जो जेल में बंद हैं. उस की  जमानत के लिए आया हूं, सर.”

“आप का पुत्र शुभेंदु क्या करता है?” अधिवक्ता ने शिवजी से पूछा.

“वह एक बैंक में लिपिक है.

“आप मेरे परिचित हैं, इसलिए समझा रहा हूं.   अगर आप केस ठीक ढंग से नहीं लड़े तो बेटा को सजा भी हो सकती है और नौकरी हाथ से निकल जाएगी. उस के जीवन में काला दाग लग जाएगा. फिर कहीं उसे नौकरी नहीं मिलेगी. सोच लीजिए, कैसे केस लड़ना है,” अधिवक्ता ने उसे हरकारा.

“सर,  हम आप के पास ही क्यों आए हैं, बेटा को जेल से बाहर निकालने और उस की नौकरी बचाने के लिए ही न. आप जैसा केस लड़ें, मुकदमा जीतना तो आप को ही है. सर, मैं तो गांवदेहात का एक व्यक्ति ठहरा.  थोड़ाबहुत  झगड़ा तो गांव में भी होता है. कोर्टकचहरी की जानकारी रखते हैं. बहरहाल, जो खर्च लगता है, उस की पूर्ति करूंगा. मुझे क्या करना है, उचित आदेश दें,”  शिवजी ने खुलेदिल से अपने मन की बात रखी.

“जब आप को मेरे ऊपर इतना भरोसा है तो मैं केस को झूठा साबित कर आप के परिवार की रक्षा करूंगा,” अधिवक्ता बी के दास ने हंसते हुए कहा.

“सर, अभी बेटे की जमानत के लिए मुझे क्या करना होगा?”

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