ध्रुपदा सधे कदमों से राजस्थान स्थित प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों की रणभूमि कहे जाने वाले शहर के एक महत्त्वपूर्ण कोचिंग संस्थान के मुख्यद्वार के पास पहुंच कर रुक गई. घड़ी देखी, एक बजने में दस मिनट शेष थे. चारों ओर नज़र डाली तो ख़ुद की तरह कुछ फ़िक्रमंद और कुछ महीनों के बिछोह के बाद बच्चों से मिलने को आतुर मातापिता संस्थान के द्वार की तरफ़ टकटकी लगा कर देखते दिखे.

समय बिताने के लिए वह संस्थान के सामने की सड़क को पार कर कोई 5 सौ मीटर की दूरी पर लगे एक छायादार वृक्ष की तरफ़ चल पड़ी जहां उसे तपती गरमी और चिलचिलाती धूप से कुछ आराम की संभावना लगी. अगले दस मिनटों में पिछले दस महीनों के जीवनसंघर्ष की कहानी उस के मस्तिष्क में फ़िल्म की रील की तरह चल पड़ी.

बीते दिनों पर दृष्टिपात करते हुए उसे एक तरह की संतुष्टि की अनुभूति हो रही थी क्योंकि कठिन परिस्थितियों से समझौता किए बिना दोनों मां व बेटी ने अपने सपनों को पूरा करने की ठान ली थी. और फिर जैसा कहते हैं कि किसी भी प्रकार का संघर्ष कभी जाया नहीं होता और आप किसी चीज़ को अगर शिद्दत से चाहते हैं तो पूरी कायनात आप को उस तक पहुंचाने में मदद करती है, तो इसी को सफलता का मंत्र मानती हुईं खुद का उत्साहवर्धन कर के आत्मविश्वास से सराबोर दोनों ही अपने कल और आज के बीच की दूरी तय करने में नए सिरे से लग गई थीं. अभी इस रील को पौज़ या स्टौप करने की गुंजाइश नहीं थी. अपनी बेटी अवनी के शैक्षणिक संघर्ष की शुरुआत में ध्रुपदा पुणे से राजस्थान तक का लंबा सफ़र नाप गई थी और अनेक आशंकाओं के बावजूद उस का विश्वास था कि भविष्य में जो भी होगा, अच्छा ही होगा.

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