मगर, यह क्या...? देखते ही देखते आसमान कालेकाले बादलों से भर गया था और उसी के साथ पुनः अंधकार छा गया था. मूसलाधार वर्षा होने लगी थी. आशा की जो एक धूमिल किरण थी, वह भी धुंधली पड़ने लगी थी. समुद्री लहरें पुनः काल के समान अट्टहास करते सभी को कभी आकाश की ओर उछालती, तो कभी गरदन दबा खारे पानी के भीतर खींच ले जाती थी.
प्रकृति के इस रौद्र खेल को खेलने को वे अभिशप्त से थे. समय का ध्यान कहां था? कौन समय का ध्यान रख पाया है?
अचानक आकाश में बादल छंटे, ऊपर सूर्य मुसकराया तो सब ने देखा कि ठीक बगल में नौसेना का जहाज खड़ा है. जहाज में बैठे नौसैनिक चिल्लाते हुए निर्देश दे रहे थे. वे हर संभावित व्यक्ति की तरफ रोप लैडर (रस्सी की सीढ़ियां) फेंक उसे पकड़ने के लिए इशारे कर रहे थे. कोई जैसे ही उसे पकड़ता, वह उसे खींच जहाज के अंदर कर लेते. न जाने कहां से अचानक उस में इतनी ताकत आ गई थी कि अंततः उस ने एक रोप लैडर को पकड़ लिया था.
अब वह नौसेना के जहाज में था. उस का रोआंरोआं अभी तक कांप रहा था. भय और आशंकाएं जैसे पीछा नहीं छोड़ रही थीं. नौसैनिक वहीं डेक पर उसे लिटा उस का प्राथमिक उपचार कर रहे थे. लेकिन उस की चेतना उसी तरह ऊपरनीचे हो रही थी, जैसे कि वह लहरों के द्वारा ऊपरनीचे उछाला जा रहा हो. डेक पर सैकड़ों लोग पड़े थे. उन में कौन जिंदा है और कौन मर गया, कहना मुश्किल था. फिर भी नौसैनिक भागदौड़ करते मेडिकल ट्रीटमेंट दे रहे थे. उन का एक दूसरा दल अभी भी समुद्र में निगाहें टिकाए देख रहा था कि शायद कहीं कोई भूलाभटका दिख जाए. इसलिए नेवी शिप से बंधे रोप लैडर अभी तक पानी में तैर रहे थे.
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