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लेखक- चितरंजन भारती

जैसी कि उम्मीद थी, शाम को पटना एयरपोर्ट पर एयरबस के उतरते ही उस ने चैन की सांस ली. मगर अभी तो बस शुरुआत थी. आगे के झंझावातों को भी तो उसे झेलना था. पंकज शर्मा की डेड बौडी भी इसी फ्लाइट से आई थी. और उसी के साथ उसे भी गांव  जाना था. पहली बार वह विमान पर चढ़ा था. मगर पहली बार फ्लाइट पर जाने का उसे कोई रोमांच या खुशी नहीं थी.

पंकज एक शिपिंग कंपनी में मैरीन इंजीनियर थे और उन की अच्छीभली स्थायी नौकरी और तनख्वाह थी. फिर उन के परिवार वाले संपन्न किसान भी थे. उन्होंने ही अपने खर्च पर पंकज शर्मा के शव को यहां मंगवाया था कि उन का दाह संस्कार अपने ही गांव में हो. और इसी बहाने वह भी साथ आ गया था.

पंकज शर्मा के बड़े भाई और उन के दो भतीजे भी साथ थे. संभवतः वे वहीं समस्तीपुर से ही एम्बुलेंस की व्यवस्था कर पटना एयरपोर्ट आए थे.

कोरोना के चक्कर में इस समय औक्सीजन और दवाओं के साथ अस्पतालों में बेड व एम्बुलेंस के लिए भी तो मारामारी थी.

कोरोना की जांच और दूसरी सुरक्षा जांच संबंधी औपचारिकताओं को पूरा करने में ही एक घंटा खर्च हो गया था. फिर बाहर निकलते ही पंकज शर्मा की डेड बौडी को एम्बुलेंस की छत पर रख कर बांधा जाने लगा. वह चुपचाप सारी गतिविधियां देखता रहा. उन का 16 साल का बेटा अनूप  अभी भी फूटफूट कर रो रहा था. उन के बड़े भाई नारायण की भी आंखें नम थीं.

पंकज शर्मा का भतीजा आलोक उसी की हमउम्र था और सभी कामों में काफी तत्परता दिखा रहा था.

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