Writer- अपूर्वा चौमाल
स्नेहा एक उभरती हुई स्क्रिप्ट राइटर व रंगकर्मी है. मनोज भी हालांकि एक लेखक और रंगकर्मी है, लेकिन वह कभी अपना रचनाकर्म सा झा नहीं करता, क्योंकि वह खुद को अभी मिरर आर्टिस्ट ही सम झता है. हां, वह सब की पोस्ट पढ़ता जरूर है. आज भी ग्रुप में उंगलियां घुमातेघुमाते वह एक जगह ठिठक गया. होंठों की लंबाई दो इंच से बढ़ कर तीन इंच हो गई. आंखों की पुतलियां थिरकने लगीं.
‘आज पकड़ी गई,’ मनोज स्नेहा की पोस्ट देख कर उछल पड़ा. आज उस ने अपने मंचित नाटक की एक क्लिप ग्रुप में पोस्ट की थी.
मनोज ने तुरंत उस वीडियो को डाउनलोड किया और हरेक पात्र को गौर से देखने लगा. महिला पात्रों पर तो उस ने आंखें ही चिपका दीं.
पूरी क्लिप समाप्त हो गई और मनोज बाबू लौट के बुद्धू घर को आए सिर खुजाते रह गए, लेकिन स्नेहा को नहीं पहचान पाए, क्योंकि यह एक वृद्धाश्रम पर आधारित नाटक था, जिस में लगभग हरेक पात्र सफेद बालों की विग लगाए, एकाध दांत काला किए था. सब की कमर झुकी हुई, आंखों पर चश्मा और हाथ में छड़ी थी.
नीचे लिखे स्नेहा के कमैंट ने जलते पर मिर्च बुरका दी सो अलग. लिखा था, ‘बू झो तो जानूं.’
यह देख मनोज खिसिया कर रह गया, लगा मानो कटाक्ष से निशाना साध कर उसे ही बेधा गया हो. मनोज ने उसे नाटक के प्रभावी मंचन पर बधाई दी. साथ ही, उत्तरोत्तर प्रगति करने व अपने क्षेत्र में ऊंचाइयां छूने के प्रतीक स्वरूप उड़ते हुए हवाईजहाज की इमोजी भेजी.
उस के बाद वह अकसर ऐसा ही करने लगा. जब भी स्नेहा अपनी किसी उपलब्धि की पोस्ट ग्रुप में डालती, वह उसे शुभकामनाओं के साथ हवाईजहाज की इमोजी अवश्य ही पोस्ट करता.
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धीरेधीरे यह अघोषित सा नियम ही बन गया. कभी वह हवाईजहाज भेंट करने से चूक जाता तो स्वयं स्नेहा चुहल करते हुए उस से जहाज मांग बैठती. मनोज ने भी उड़ता हुआ जहाज सिर्फ स्नेहा के लिए आरक्षित रखना शुरू कर दिया. वैसे भी, अमूमन इस तरह के प्रतीक कोई किसी को भेंट नहीं करता.
पिछले सप्ताह किसी ने ग्रुप में एक स्क्रिप्ट लेखन प्रतियोगिता की विज्ञप्ति पोस्ट की. हर नई पोस्ट की तरह इस पर भी सब से पहले उछलती हुई स्नेहा ही आई.
‘‘भई, हम तो इस प्रतियोगिता में अपनी ताजा, करारी और धमाकेदार स्क्रिप्ट भेजने वाले हैं. पहला इनाम तो अपना ही सम झो. यदि किसी को यह चुनौती लगती है तो वह अपना देख ले,’’ स्नेहा ने लिखा.
‘‘अग्रिम शुभकामनाएं. पुरस्कार में हमें हिस्सा मिले तो जुगाड़ की व्यवस्था की कोशिश की जा सकती है,’’ मनोज ने दांव पर प्रतिदांव मारा.
‘‘10 प्रतिशत पर डन करो तो प्रस्ताव पर विचार किया जा सकता है,’’ स्नेहा ने अगला पासा फेंका.
‘‘मैं 8 प्रतिशत पर राजी हूं,’’ एक अन्य कमैंट आया.
‘‘मैं 5 पर ही,’’ दूसरा कमैंट भी
आ गया.
धीरेधीरे इस चुहल में अन्य
लोग भी जुड़ते गए और हलकीफुलकी नोक झोंक का यह दौर देरशाम तक चलता रहा.
पता नहीं क्या सोच कर मनोज ने भी यहां अपनी प्रतिभा आजमाने की सोची. हालांकि वह पटकथा लेखक नहीं था, लेकिन लेखक तो था ही और वैसे भी पढ़ेलिखे को फारसी क्या? कौन जाने, वक्त ने क्या तय कर रखा है.
‘शायद नियति ने स्नेहा से मिलवाने का यही जरिया चुना हो,’ एक खयाल आया और मनोज स्क्रिप्ट लिखने में जुट गया. उस के प्रयास सफल हुए और उसे एक अछूता सा विषय मिल ही गया. बहुत मन लगा कर मनोज ने नाटक के प्लौट पर कल्पनाओं की नींव खोदी और चिनाई शुरू कर दी. 10 दिनों में स्क्रिप्ट का ढांचा खड़ा हो गया. अब उस पर रंगरोगन कर उसे प्रस्तुतीकरण के लिए तैयार करना था.
अगले 10 दिनों में यह काम भी हो गया. अब मनोज ने स्क्रिप्ट की इमारत की अंतिम रूप से साफसफाई कर के यानी उसे फाइनल टच दे कर उस पर ताला जड़ दिया.
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इधर प्रतियोगिता की अंतिम तारीख पास आ रही थी और उधर मनोज था कि स्क्रिप्ट के भवन का ताला खोलने यानी अपनी प्रविष्टि भेजने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा था. तभी एक दिन ग्रुप में स्नेहा का मैसेज पढ़ कर मनोज मुसकरा दिया.
‘‘भई, हम ने तो अपनी प्रविष्टि भेज दी. सोने वालो, जाग जाओ. अंतिम तिथि का इंतजार मत करो. आज ही अपनी प्रविष्टि भेजो, वरना कहोगे कि चेताया नहीं. पहला पुरस्कार तो खैर मेरा ही है, कहीं दूसरेतीसरे से भी न चूक जाओ, इसलिए आज अभी लिफाफा बनाओ और डाकघर जा कर पोस्ट कर आओ,’’ स्नेहा ने आंख दबाती ढेर सारी इमोजी के साथ लिखा था.
‘‘आधा हिस्सा मिलेगा क्या?’’ मनोज ने उसे फिर छेड़ा.
‘‘हम तो तैयार हैं, लेकिन ऐसी ही उम्मीद आप से भी करते हैं. है मंजूर तो बोलो हां,’’ स्नेहा ने एक हिंदी फिल्म के गीत की पंक्ति जोड़ते हुए लिखा.
‘‘सारा आप का. मगर कुछ मिले तो सही,’’ यह लिख कर मनोज ने प्रस्ताव स्वीकार करने वाला अंगूठा दिखा दिया. ग्रुप के शेष सदस्यों ने ताली बजा कर उस का उत्साहवर्धन किया.
आखिर मनोज ने भी कांपते हाथों से, मन ही मन खुद को शुभकामनाएं देते हुए अपनी प्रविष्टि पंजीकृत डाक से भेज दी.
अंतिम तिथि निकल गई. अब सब को प्रतियोगिता के परिणाम की प्रतीक्षा थी. इस बीच ग्रुप में हलकीफुलकी नोक झोंक और स्नेहा के चुलबुले कमैंट्स जारी थे.
आज सुबह जैसे ही मनोज ने मोबाइल चालू किया, ग्रुप में बहुत से बधाई संदेश देख कर माथे पर असमंजस की 3 रेखाएं तनिक अधिक गहरी हो गईं. देखा तो स्क्रिप्ट लेखन प्रतियोगिता का परिणाम जारी हो चुका था. परिणाम की पूरी सूची देखी तो मन खुशी से झूम उठा. न… न, मनोज विजेता नहीं हुआ था, बल्कि स्नेहा को सांत्वना पुरस्कार मिला था. खुद उस का तो सूची में कहीं नाम तक न था.
मनोज स्नेहा की जीत पर अपनी खुशी का कारण नहीं सम झ पा रहा था. शायद मन अपनी खुशी से अधिक अपनों की खुशी में खुश होता है.
मनोज ने स्नेहा सहित सभी विजेताओं को बधाई दी और उत्साह के अतिरेक में यह मैसेज भी पोस्ट कर दिया कि वह विजेताओं की हौसलाअफजाई करने व उन के सम्मान में तालियां बजाने को समारोह में अवश्य आएगा.
‘‘यदि नहीं आए तो आप को काला कौआ काटेगा, क्योंकि झूठ बोले कौआ काटे,’’ स्नेहा ने बधाई स्वीकारते हुए चुटकी ली.
‘‘चलिए, इस बहाने हवाईजहाज वाले पायलट बाबू के दर्शन भी हो जाएंगे,’’ स्नेहा ने आगे लिखा तो मनोज ने अंगूठा दिखाते हुए स्नेहा के आमंत्रण पर मुहर लगा दी.
मनोज इन दिनों बादलों पर चल रहा था. उस का मन स्नेहा की तसवीर में मनचाहे रंग भर रहा था, रहरह कर उस की आभासी छवि को साकार करने लगा था. कभी जींसटौप तो कभी सलवारदुपट्टे में लिपटी स्नेहा कभीकभार 6 गज की साड़ी में भी दिखाई देने लगती थी.
‘बस रे मन, बस कर. अब तो बस दीदार हुआ ही जाता है. जरा ठहर, धीरज धर, क्यों बावला हुआ जाता है,’ मनोज की कविताई मुखर होने लगी.
इन दिनों वह स्नेहा से ग्रुप में कम और व्यक्तिगत चैट अधिक करने लगा था, क्योंकि उसे भय था कि कहीं लोग ग्रुप में उन की उन्मुक्त चैटिंग का गलत मतलब न निकालने लगें. शायद इसी डर ने ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ वाली कहावत को जन्म दिया हो. कई बार उस का मन स्नेहा की आवाज सुनने और उसे देखने को बहुत उमड़ा भी, लेकिन अब जब नाव किनारे लगने ही वाली है तो फिर पानी में क्यों कूदना. अब तो इंतजार खत्म हुआ ही सम झो. मनोज किसी तरह खुद को रोके हुए था.