Writer- श्वेता अग्रवाल
‘‘वह अपने रैंट के अकोमोडेशन के पास आईआईटी होस्टल में लगे सिक्के वाले फोन से बात करती थी, जिस में हर बार 3 मिनट पूरे होने से पहले ही एक रुपए का सिक्का डालना पड़ता था, ताकि फोन बीच में न कटे. कभी उस के पास सिक्के खत्म हो जाते थे तो कभी कोई और उस के पीछे से आ कर उसे जल्दी बात खत्म करने के लिए बोल देता था. फिर भी औसतन हम दिन में आधा घंटा तो बात कर ही लेते थे. हमारे कौमन इंटरैस्ट के सब्जैक्ट्स पर उस की क्लीयर अप्रोच, स्ट्रेट फौरवर्ड स्टाइल और हाजिरजवाबी से मैं बहुत इम्प्रैस्ड होने लगा था.
‘‘जब भी मेरा मूड औफ होता या मैं थका होता, मेरी उस से बात करने की बहुत इच्छा होने लगती थी. उस की मीठी आवाज सुनते ही मेरी सारी थकान उतर जाती थी. लेकिन हमारी बात तभी होती थी, जब उस का फोन आता था. मेरा मन होने लगा था कि फोन बहुत हुआ, अब फेस टू फेस भी मिल लेना चाहिए, आखिर पता तो चले कि मोहतरमा दिखने में कैसी हैं. लेकिन जब भी मैं उस से मिलने के लिए कहता, वह कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाती.
‘‘कई बार तो मेरे ज्यादा जिद करने पर वह मिलने का टाइम और जगह भी फिक्स कर लेती, पर ऐन मौके पर उस का फोन आ जाता कि वह नहीं आ पाएगी. उस की इस हरकत पर मु?ो बहुत गुस्सा आता था. कई बार तो शक भी होता कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है. मगर जब उस का फोन आता तो वह इतनी मासूम बन जाती कि मैं उस पर नाराजगी भी जाहिर न कर पाता था.
‘‘‘आखिर तुम मु?ा से मिलने से क्यों बचती हो?’ एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से पूछ लिया.
‘‘‘जिस दिन मिलोगे, जान जाओगे,’’ उस ने शांति से जवाब दिया और दूसरे टौपिक पर बात करने लगी. मैं ने भी बात को ज्यादा नहीं खींचा. लेकिन मेरे मन में तरहतरह के सवालों ने घर बनाना शुरू कर दिया.
‘‘मु?ो उस की आदत सी हो गई
थी. जिस दिन उस का फोन
न आता, मैं बेचैन हो उठता. मेरी हालत जल बिन मछली जैसी हो जाती थी और जैसे ही उस का फोन आता था, मैं जैसे फिर से जी उठता था.
‘‘इसी तरह दिन बीतने लगे और देखते ही देखते 4 महीने गुजर गए. एक बार तो पूरे 2 हफ्तों तक उस का फोन नहीं आया. वह पखवाड़ा मैं ने कैसे काटा, मैं ही जानता था. कभी लगता कि मु?ा से कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई. कभी लगता कि वह किसी परेशानी में तो नहीं है. मैं सम?ा नहीं पा रहा था कि उस से कैसे कौन्टैक्ट करूं.
‘‘आखिर 15 दिनों बाद उस का फोन आया.
‘‘‘पहले यह बताओ कि इतने दिन फोन क्यों नहीं किया?’ उस के हैलो कहते ही मैं उस पर भड़क उठा.
‘‘‘सौरी, मैं फोन नहीं कर पाई,’ उस ने थके स्वर में जवाब दिया.
‘‘‘क्या मतलब, नहीं कर पाई?’ मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था.
‘‘‘मतलब तो तुम ही बता सकते हो,’ वह मेरी ?ां?ालाहट का मजा लेते हुए बोली.
‘‘‘इस का यही मतलब है कि तुम्हें मु?ा से जरा भी प्यार नहीं है. मैं ही पागल हूं, जो तुम से…’ कहतेकहते मैं अचानक रुक गया. लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था.
‘‘‘मु?ा से क्या…?’ उस ने शरारत से पूछा.
‘‘‘कुछ नहीं,’ मैं बहुत शर्म सी महसूस करने लगा था.
‘‘‘बोलो न सुकू, मु?ा से क्या…?’ उस ने इसरार किया.
‘‘पर, मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और फोन कट कर दिया. तुरंत ही फिर से उस का फोन आ गया.
‘‘‘अब क्या है?’ मैं ने बनावटी गुस्से से उस से पूछा.
‘‘‘मु?ो तुम से कुछ कन्फैस करना है,’ वह ?ि?ाकती हुई बोली.
‘‘मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा था. मु?ो लगा कि शायद अब वह पल आ गया है जब वह अपने प्यार का इजहार करेगी.
‘‘‘कहो,’ मेरी आवाज थरथराने लगी.
‘‘‘पहले प्रौमिस करो कि सुन कर नाराज तो नहीं होओगे,’ वह बोली.
‘‘‘बोलो न, क्यों फालूत का सस्पैंस क्रिएट कर रही हो,’ मैं ने चिढ़ कर कहा.
‘‘‘बात यह है कि हमारी दोस्ती किसी इत्तफाक की वजह से नहीं हुई,’ उस ने जैसे बम फोड़ा.
‘‘‘वाट, यह तुम क्या कह रही हो?’ मैं ने लगभग चीखते हुए पूछा.
‘‘‘प्लीज, शांति से मेरी बात सुन लो. इस के बाद तुम्हारा जो भी फैसला होगा, मु?ो मंजूर होगा,’ वह ?ि?ाकती हुई बोली.
‘‘मैं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और उस के बोलने का इंतजार करने लगा.
‘‘‘हैलो,’ उधर से आवाज आई.
‘‘‘बोलो, मैं सुन रहा हूं,’ मैं ने सपाट स्वर में कहा.
‘‘इस के बाद जयंती ने अटकतेअटकते जो बताया, उस का लब्बोलुआब कुछ यों था कि जिस दिन पहली बार उस का फोन आया था, उस से एक दिन पहले ही उस ने मु?ो एक आर्ट एग्जीबिशन में देखा था. मैं उसे बहुत अच्छा लगा था और वह पूरी गैलरी में मेरे आसपास ही घूमती रही थी. हालांकि मैं ने न तो उस पर कोई ध्यान दिया था और न ही उस की हरकतों पर.
‘‘जिस वक्त मैं विजिटर्स बुक में एग्जीबिशन के बारे में अपना कमैंट लिख रहा था, तब वह मेरे पीछे ही खड़ी हुई थी. मेरे हटने के बाद अपना कमैंट लिखतेलिखते उस ने विजिटिर्स बुक में लिखा मेरा नाम और फोन नंबर याद कर लिया था और अगले दिन रौंग नंबर के बहाने मु?ो फोन किया, जिस से हमारे बीच दोस्ती की शुरुआत हुई.
‘‘उस की बात सुन कर मेरी सम?ा में नहीं आ रहा था कि उस की इस चालाकी के लिए उस से दोस्ती तोड़ दूं या फिर उसे माफ कर के इस रिलेशनशिप को एंजौय करूं.
‘‘‘सुकू, क्या हुआ?’ वह मेरी खामोशी से परेशान हो उठी थी.
‘‘‘कुछ नहीं,’ मैं ने कहा और फोन काट दिया.
‘‘अगले दिन फिर उस का फोन आया और उस ने अपनी गलती के लिए मु?ा से माफी मांगी. तब तक मैं भी अपना निर्णय ले चुका था. जाहिर है कि मेरा फैसला हमारे रिश्तों के हक में ही था. क्योंकि दिल और दिमाग की जंग में एक बार फिर दिल ने दिमाग को शिकस्त दे दी थी.
‘‘मैं ने यह सोच कर खुद को तसल्ली दी कि अगर वह सच न बताती तो मु?ो तो कभी इस बात का पता नहीं चल सकता था. कम से कम अपनी ईमानदारी के लिए तो वह माफी के लिए डिजर्व करती ही है.
‘‘मैं ने उसे माफ तो कर दिया था लेकिन अभी भी उसे ले कर मैं आश्वस्त नहीं हो पा रहा था. बेशक, अब तक हम दोनों ही सम?ा चुके थे कि अब हमारे बीच का रिश्ता सिर्फ दोस्ती तक सीमित नहीं रहा है. इस के बावजूद मु?ो बारबार ऐसा लगता था कि कहीं यह सब एक छलावा ही साबित न हो. मैं प्रेम की इस डगर पर इतना आगे बढ़ चुका था कि पीछे लौटना असंभव था. इसलिए मैं ने अपना मन कड़ा किया और एक दिन उस से साफसाफ बोल दिया कि मैं उस की इस आंखमिचौली से तंग आ चुका था. अगर उसे मु?ा से रिश्ता रखना है तो सामने आ कर मिले, वरना मु?ो फोन न करे.
‘‘मेरी बात सुन कर जयंती कुछेक पल के लिए मौन हो गई. फिर उस ने कहा कि वह भी मु?ो इतना ही चाहती है, जितना कि मैं उसे. उस ने वादा किया कि वह 3 दिनों बाद वेडनेसडे को मु?ा से मिलने हमारे घर आएगी और इस से पहले मु?ो फोन नहीं करेगी. फिर उस ने मु?ो अपने औफिस का नंबर दिया और कहा कि यह उस के बौस का नंबर है. अगर बहुत अर्जेंट हो तो इस नंबर पर उस से बात की जा सकती है. इस के बाद उस ने फोन रख दिया.