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Writer- श्वेता अग्रवाल

मैं औफिस के लिए तैयार हो चुकी थी. घर से निकलने ही वाली थी कि संपादकजी का फोन आ गया.

‘‘गुडमौर्निंग सर.’’

‘‘मौर्निंग, क्या कर रही हो?’’

उन्होंने पूछा.

‘‘औफिस के लिए निकल रही थी.’’

‘‘औफिस रहने दो, अभी एक

काम करो...’’

‘‘जी?’’

‘‘मेघा, तुम सुकुमार बनर्जी को जानती हो न?’’

‘‘वह फेमस आर्टिस्ट?’’

‘‘यस, वही,’’ संपादकजी ने बताया, ‘‘वे आज शहर में हैं. मैं ने तुम्हें उन का नंबर मैसेज किया है. उन्हें फोन करो. अगर अपौइंटमैंट मिल जाए तो उन का इंटरव्यू करते हुए औफिस आना.’’

‘‘ओके सर.’’

‘‘बैस्ट औफ लक,’’ उन्होंने कहा और फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

मैं ने व्हाट्सऐप पर संपादकजी के मैसेज में सुकुमार का नंबर देख कर उन्हें फोन  लगा दिया. मेरी आशा के विपरीत उन्होंने मु?ो तुरंत ही होटल सिद्धार्थ बुला लिया, क्योंकि वे दोपहर को अपने एक मित्र के यहां लंच पर आमंत्रित थे.

तकरीबन 50 वर्षीय सुकुमार बनर्जी एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे न सिर्फ उम्र से

10 साल कम दिखाई देते थे, बल्कि अपनी ऊर्जा व कर्मठता के मामले में नौजवानों को मात देने में सक्षम थे.

अविवाहित सुकुमार पेशे से आर्टिस्ट थे. कला जगत में उन का काफी नाम था. हाल ही में उन्हें इंडो-जरमन विजुअल आर्ट सैंटर की ओर से ‘जोश’ (ज्वैल्स औफ सोसाइटी एंड ह्यूमैनिटी) सम्मान से नवाजा गया था. उन के चित्रों की एक बड़ी विचित्र सी खासीयत अकसर लोगों का ध्यान खींचती थी. वह यह कि वे अपनी पेंटिंग्स में महिला किरदारों के चेहरे चित्रित नहीं किया करते थे. बाकी हर चीज में पूरी डिटेल्स होती थी. सिर्फ महिला पात्र के चेहरे को वे आउटलाइन बना कर छोड़ देते थे. लोग उन की इस शैली को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाते थे. जब भी उन से इस बारे में पूछा जाता, वे टाल जाते थे. शायद उन्हें अपने इर्दगिर्द रहस्यमयता का वातावरण बनाए रखने में मजा आता था. कुछ ही देर बाद मैं होटल सिद्धार्थ की लौबी में उन के सामने बैठ उन का इंटरव्यू कर रही थी.

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