अनिल ने कहा, “यतिन, महाबलेश्वर में एक मठ है. वहां अकेले रहने वाले काफी लोग रहते हैं. आज वहां के लोग मुझे किसी के घर पर मिले थे. मैं ने तुम्हारे अकेले रहने के बारे में बताया तो वहां के एक कर्मचारी, जिन्हें सब बाबा ही कहते हैं, अभी तुम से मिलने आएंगें.”
“नहीं, मुझे किसी से नहीं मिलना.”
“यहां कभी कोई परेशानी आ जाए तो कौन देखेगा. वहां वे लोग सब देखते हैं. हम भी तुम्हारे साथ जा कर एक बार वहां के इंतज़ाम देख कर आएंगे.”
इतने में डोरबेल बजी. बाबा के साथ एक आदमी और था. वे यतिन से काफी देर बातें करते रहे. बड़ीबड़ी धर्मकर्म की बातें, सेवासुकर्म की बातें. उन्हें समझाते रहे कि इस उम्र में कोई तो चाहिए. आजकल बच्चे नहीं पूछते. अपना आखिरी समय का इंतज़ाम करना ही पड़ेगा.
यतिन चुपचाप सुनते रहे, फिर पूछा, “आप लोग फ्री में अकेले इंसान का ध्यान रखते हैं? क्योंकि मेरे पास तो इतनी बचत नहीं.”
बाबा और उस के साथी ने एकदूसरे की तरफ देखा, फिर बाबा ने कहा, “आप परेशान क्यों होते हैं, यह घर है न.”
“मतलब?” यतिन के माथे पर सिलवटें उभरीं.
“मतलब श्रीमन, जब आप यहां रहेंगे ही नहीं, तो इस मकान का क्या करेंगे. इसे बेच देना और इस से मिले पैसे से हमारे मठ में बाकी का जीवन आराम से बिताना. हमें भी तो सब की देखभाल के लिए धनराशि चाहिए होती है.”
“अभी तो ऐसा कोई विचार नहीं, जब कभी ऐसा सोचूंगा, आप से संपर्क करूंगा.”
वे दोनों नाराज़ से चले गए. अनिल और विजय ने कहा, “यार, हमें तो लगा कि यह अच्छा आइडिया है, यहां तो इन लोगों को प्रौपर्टी हड़पने में रुचि है.” यतिन ने कहा, “इन की एक बात ठीक है कि इन्हें भी धनराशि की ज़रूरत होती होगी पर मैं यह फ्लैट बेच कर कहीं नहीं जाने वाला.”
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