शुभंकर सर के ड्रामा स्कूल के गेट से निकल कर नंदिनी औटोस्टैंड की ओर बढ़ी ही थी कि पीछे से प्रीतम प्यारे ने आवाज दी, ‘‘कहां चली नंदिनी? रात हो रही है… शायद ही औटो मिले. चलो, मैं छोड़ देता हूं.’’
नंदिनी रुक गई. एक शालीन मनाही की खातिर. बोली, ‘‘नहीं प्रीतम, अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है. 9 ही तो बजे हैं.’’
‘‘तुम्हारी तरफ वाले औटो अब ज्यादा कहां?’’
नंदिनी ने अपनी चलने की गति बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मिल जाएंगे.’’
प्रीतम पास ही बाइक की स्पीड धीमी कर के चल रहा था.
नंदिनी चिंतित सी बोली, ‘‘प्रीतम, तुम चले जाओ… रूपेश ने देख लिया तो मैं…’’
‘‘ठीक है… चलो तुम्हें औटो में बैठा कर मैं निकल जाऊंगा. अकेले छोड़ दिया और फिर औटो नहीं मिला तो बड़ी मुश्किल होगी,’’ प्रीतम बोला. कोलकाता शहर का टौलीगंज इलाका नृत्य, संगीत, सिनेमा, थिएटर के नशे में पूरी तरह विभोर. रोजगार देने वाला शहर होने की वजह से जनसंख्या अत्यधिक थी.
नंदिनी का घर सोनारपुर में पड़ता था. अपेक्षाकृत कुछ अविकसित इलाका. रात होते ही औटो की आवाजाही उधर कम हो जाती.
नंदिनी ने चुप्पी तोड़ी. बोली, ‘‘आज तुम अभी घर जा कर फिर एक बार शुभंकर दा के घर जाने वाले हो न स्क्रिप्ट फाइनल करने?’’
‘‘हां जाना ही पड़ेगा. शुक्रवार को शो है. फिर मालदा और रानाघाट भी शो फाइनल करने जाना पड़ेगा… सारी बातें उन के साथ करनी ही पड़ेंगी. चौकीदार के रोल के लिए कोई राजी नहीं हो रहा जबकि छोटा होने के बावजूद वह अहम रोल है.’’
‘‘हां शुभंकर दा भले ही डाइरैक्टर हैं, लेकिन तुम्हारे बिना तो सारा कुछ असंभव सा है… वैसे टीम मैंबर सब अच्छे ही हैं.’’
‘‘नई त्रिशला अभी अकुशल है. उस के लिए शुभंकर दा की मेहनत थोड़ी ज्यादा हो गई है.’’
‘‘कोलकाता के 2 हौलों के टिकट की व्यवस्था कब तक हो जाएगी?’’
‘‘देखो शुभो दा क्या कहते हैं.’’
‘‘आधा घंटा होने को आया पर अभी तक कोई औटो नहीं आया. चलो बैठो नंदिनी अब जिद से कोई लाभ नहीं,’’ प्रीतम प्यारे बोला.
नंदिनी लाचार हो गई थी, पर प्रीतम का उस के लिए ठहरना उसे गवारा नहीं था… उस के साथ जाने या मतलब रूपेश के हाथों मौत को निमंत्रण देना था.
जैसे ही नंदिनी प्रीतम की बाइक पर पीछे बैठी रूपेश की आंखें, उस के गाल, उस के कान, उस के बाल, उस की मूंछें, उस की भौंहें सब कुछ धीरेधीरे किसी दैत्य सा उस की आंखों के सामने घूमने लगा. वह समझ नहीं पाती कि पता नहीं वे लोग उस पर थोड़ी भी दया क्यों नहीं दिखाते.
नंदिनी के पिता की किराने की छोटी सी दुकान थी. दोनों बेटियों की शादी उन्होंने इसी दुकान के सहारे बड़ी धूमधाम से की थी. लेकिन आसपास बड़ेबड़े मौल्स, शौपिंग सैंटर्स आदि खुल जाने पर उन का महल्ला भी शहर की चकाचौंध में ऐसा गुम हुआ कि उन की दुकान बस मक्खियों का अड्डा बन कर रह गई.
पिता की दुकान से जब घर में फाके की नौबत आ गई तो फाइन आर्ट्स में ग्रैजुएशन करने की नंदिनी ने सोची. वह शौकिया थिएटर करती रहती थी. एक दिन प्रयोजन ने शुभंकर दत्ता के थिएटर स्कूल से उसे जोड़ दिया. शुभंकर दत्ता थिएटर से जुड़े समर्पित व्यक्तित्व थे. प्रीतम उन का दाहिना हाथ था, जो प्राइवेट फर्म में नौकरी के साथसाथ थिएटर और रंगमंच के प्रति भी पूरी तरह समर्पित था.
इस के अलावा यहां स्त्रीपुरुष मिला कर करीब 20 लोगों की टीम थी, जो थिएटर मंचन के लिए बाहर भी जाती और कोलकाता के अंदर भी हौल बुक कर टिकट बेच अपना शो चलाती.
ये सब भले ही पैसों की जरूरत के मारे थे, लेकिन जनून इतना था कि न इन्हें अपना न स्वास्थ्य दिखता न पैसा… न समय दिखता, न परिवार यानी थिएटर ही इन का सब कुछ बन गया था. लेकिन जितना ये इस थिएटर से कमाते, उस से कहीं ज्यादा इन्हें इस में लगाना पड़ जाता. खासकर शुभंकर और प्रीतम तो जैसे इस यूनिट को चलाए रखने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहते. वहां टीम के बाकी लोग भी कभी अपना समर्पण कम न करते.
रचनात्मकता के स्रोत जैसे इन के बीच लगातार फूटते रहते. ‘‘रुकोरुको प्रीतम… मैं यहीं उतर जाऊंगी,’’ कहते नंदिनी गाड़ी के धीरे होने से पहले ही उतरने की कोशिश करने लगी.
‘‘इतनी दूर अंदर तक अकेले जाओगी?’’
‘‘तुम चले जाओ प्रीतम…मैं रूपेश को फोन करती हूं.’’
कई बार फोन मिलाने के बावजूद कोई उत्तर नहीं. प्रीतम को न चाहते हुए भी अनदेखा कर वह घर की ओर चल पड़ी. प्रीतम प्यारे बड़ा खुशमिजाज, सच्चा और मददगार इनसान है. वह समझ गया था कि नंदिनी पति की ओर से काफी परेशानी है.
कई बार शादीशुदा व्यक्ति भी संवेदनशील न होने पर स्त्री की दशा बिना समझे उस पर ज्यादती करता है और कई बार प्रीतम प्यारे जैसे लोग शादीशुदा न हो कर भी संवेदनशील होने के कारण अपने आसपास की स्त्रियों की दशा भलीभांति समझ पाते हैं.
प्रीतम पाल की इसी नर्मदिली की वजह से टीम की सारी महिलाएं उसे प्रीतम प्यारे कहतीं.
नंदिनी को घर में प्रवेश करते ही रूपेश बैठक में सोफे पर बैठा मिला. अखबार के पीछे छिपे रूपेश के चेहरे को यद्यपि वह पढ़ नहीं पा रही थी, लेकिन उस की मनोदशा से वह अनजान भी नहीं थी.
नंदिनी ने डरते हुए पूछा, ‘‘खाना लगा दूं?’’
शाम 5 बजे नंदिनी थिएटर रिहर्सल के लिए निकलती है तो खाना बना कर ही जाती है.
रूपेश की ओर से कोई जवाब न पा कर उस ने फिर पूछा, ‘‘खाना दे दूं.’’
रूपेश ने बहुत शांत स्वर में कहा, ‘‘खाना हम ले लेंगे. बूआ तो हैं ही नौकरानी… वे ही सब काम कर लेंगी अब से… बेटी भी खुद ही पढ़ लेगी. तुम महारानी बाहर गुलछर्रे उड़ाओ और हमारी थाली में छेद करो.’’
नंदिनी के लिए वह कठिन वक्त होता जब उस के वापस आने से पहले ही रूपेश घर आ चुका होता. वह इलैक्ट्रिक विभाग में इंजीनियर है. पैसा, रूतबा, घर, गाड़ी सब कुछ है. दिल की कोमल नंदिनी झगड़ों से बहुत घबराती है, लेकिन अब उस की जिंदगी में झगड़ा, तानेउल्लाहने अहम हिस्सा हैं.
‘‘मुझे माफ कर दो, आज औटो नहीं मिल रहा था.’’
‘‘कैसे आई फिर?’’
‘बिना दोष के कलंकिनी साबित हो जाएगी वह, झूठ का ही सहारा लेना पड़ेगा… मगर शातिर रूपेश ने पकड़ लिया तो,’ पसीने से तरबतर नंदिनी ने सोचा. फिर बोली, ‘‘औटो काफी देर बाद मिला.’’