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‘‘जरूरत ही क्या है बाहर जाने की? रोजीरोटी कमाने जा रही हो? हमें पालना पड़ रहा है तुम्हें? कितने पैसे आते हैं महीने में? मुश्किल से 7-8 हजार... इन के न आने से हमें क्या फर्क पड़ेगा? घर में रह कर घर का खयाल नहीं रख सकती? बाप के घर में खाने के लाले पड़े होंगे, जो बेटी का कमाया खाया... यहां हम बीवी का कमाया देखते तक नहीं.’’

‘‘इस की बेटी भी ज्यादा दिन घर में नहीं रहेगी, देख लेना... अभी ही अगर इस की मां को कुछ कह दें तो तुरंत जवाब देती है,’’ बूआ ने आग में घी का काम किया.

नंदिनी का दिल बैठा जा रहा था. ये लोग ऐसे ही बोलते रहेंगे तो 13 साल की बेटी भी जीने का उत्साह खो देगी. पति न समझे तो कैसे वह अपने जनून और कला को जिंदा रखे? कैसे रूपेश को समझाए कि यह 7-8 हजार की बात नहीं है. उस की नसों में, उस के खून के उबाल में अभिनय तड़पता है. उस तड़प की अभिव्यक्ति बिना वह मृतप्राय है.

पत्नी के मन को छुए बिना पति यह कैसे समझे कि यह न तो बाहरी मर्दों को पाने की चाह है, न पैसों की लालसा, न जिम्मेदारियों से भागने की मंशा और न ही पति के साथ प्रतियोगिता.

इस सब के बीच अपनी बेटी को वह कैसे स्त्री होने के मान और गौरव से सजाए यह भी नंदिनी के लिए एक बड़ा प्रश्न था. बेटी वेणु ने डाइनिंग टेबल पर 2-4 मिनट रुक कर अपना खाना खत्म कर ऊपर अपने कमरे में चली गई. वह बहुत कम बोलती थी. न हंसतीखेलती थी और न ही किसी बात पर अपनी राय देती थी.

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