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लेखक- मिर्जा हफीज बेग

‘‘क्या आप को दया नहीं आती.’’ ‘‘नहीं, मुझे इन पर दया नहीं आती.’’ ओह, जरा देखो तो इस बेशर्म को, इस को तो शर्म भी नहीं आती.

‘‘दया तो आप को भी नहीं आती. आप तो सिर्फ अपने अहंकार को संतृप्त करने के लिए उन्हें भीख देते हैं. आप को कोई अधिकार नहीं उन के आत्मसम्मान को रौंदने का. वह भिखारी इसलिए है, क्योंकि आप उन्हें भीख दे कर भिखारी बनाए रखते हैं. अगर आप उन की मदद करना चाहते हैं तो उन के साथ बराबरी का बरताव करें. उन पर विश्वास करें कि वे भी आप की तरह कुछ न कुछ ढंग का कर के आप की तरह सम्मानजनक जिंदगी जी सकते हैं. वे लाचार नहीं हैं,  उन्हें सिर्फ आत्मविश्वास की जरूरत है...’’

वह आवेशपूर्वक धाराप्रवाह बोलता रहा, पता नहीं और क्याक्या बोलता रहा और मैं स्तब्ध सी सुनती रही. उस के स्वर में मेरे लिए घृणा साफ झलक रही थी. मैं हतप्रभ थी. मैं ने ऐसा गलत क्या कह दिया? मैं तो अपनी जगह बिलकुल सही थी.

इस प्रकार के निर्दयी लोगों से बात क्या करना. ऐसे लोग जो अपनी निर्दयता के पक्ष में भी शान से तर्क दे सकते हैं. बातें करना बहुत आसान है, जब खुद पर बीतती है तब पता चलता है. यह तो बस हीरो बन कर, जिम जा कर मसल्स बनाना और अच्छेअच्छे कपड़े व महंगे गौगल्स लगा कर अपना रोब झाड़ना ही जानता है.

एक तो लड़की से बात करने का तरीका भी नहीं. इस तरह मुंह फेर कर बात करता है जैसे मैं बस ऐसीवैसी ही हूं. क्या मैं उस से किसी बात में कम हूं? क्या मैं सुंदर नहीं? क्या मैं उस की एक नजर की मुहताज हूं.

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