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लेखक - नरेंद्र कौर छाबड़ा

दोनों बच्चे कालेज पहुंच गए थे. बेटी ने मेडिकल लाइन ली थी, जबकि बेटा एमबीए करना चाहता था. विजयजी अपनी प्रैक्टिस में व्यस्त रहते, लेकिन रात को पूरा परिवार साथ बैठता, खाना साथ ही खाते. एकदूसरे के बारे में जानने, बोलने का यही समय होता. मातापिता के आपसी प्रेम, सहयोग, लगाव को बच्चे बचपन से ही देख रहे थे. सो, उन के अंदर भी वैसे  संस्कार बनते चले गए.

बेटी डाक्टर बन गई. परिवार की तरफ से एक छोटी सी पार्टी रखी गई, जिस में रिश्तेदारों के साथ विजयजी व इंदु के नजदीकी मित्र थे. पार्टी के दौरान ही एक मित्र ने अपने डाक्टर बेटे के लिए विजयजी की बेटी से विवाह का प्रस्ताव रख दिया. कुछ दिनों बाद ही सारी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद उन की शादी तय हो गई.

मित्र का डाक्टर बेटा विदेश में नामी अस्पताल में कार्यरत था. शादी के बाद वह पत्नी को भी साथ ले गया. बेटे सुभाष को एमबीए के बाद एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनी में अपनी सहकर्मी नीता के साथ काम करते हुए दोनों ही एकदूसरे की ओर आकर्षित हुए. सालभर में ही वे दोनों विवाह सूत्र में बंध गए.

विजयजी व इंदु दोनों ही इस रिश्ते से खुश थे. नीता भी परिवार में घुलमिल गई थी और यथासंभव सहयोग देती थी. नीता अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में कभी पीछे नहीं रही. जुड़वा बेटों के जन्म के बाद 2-3 साल के लिए नीता ने नौकरी छोड़ दी थी.

इंदु अकेली 2 बच्चों को कैसे संभाल पाएगी, यही सोच कर यह निर्णय लिया गया. जब बच्चे स्कूल जाने लगे, तो इंदु ने स्वयं ही नीता से कहा, "तुम चाहो तो अब नौकरी कर सकती हो. बच्चों को मैं देख लूंगी. वैसे अब तुम्हारे ससुरजी भी सेवानिवृत्त होने वाले हैं. हम दोनों मिल कर उन्हें संभाल लेंगे."

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