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‘‘पायल कैसा नाम है, दीदी,’’ पालने में बिटिया को लिटाते हुए निशा भाभी ने मुझे से पूछा. ‘‘हूं, पायल भी कोई नाम हुआ?’’ मां बीच में ही मुंह बिचकाती हुई बोल उठीं, ‘‘इस से तो झूमर, बिंदिया, माला न रख लो. पैर में पहनने की चीज का क्या नाम रखना.’’ ‘‘पैर में पहनने से क्या होता है? पायल की झनकार कितनी प्यारी होती है. नाम लेने में रुनन की आवाज कानों में गूंजने लगती है.’’ भाभी और मां में ऐसी ही कितनी ही बातों पर नोकझोंक हो जाया करती थी. मैं तटस्थ भाव से देख रही थी. न भाभी के पक्ष में कह सकती थी, न मां के. मां का पक्ष लेती तो भाभी को बुरा लगता.

भाभी का पक्ष लेती तो मां कहतीं, लो, अपने ही पेट की जाई पराई हो गई. यों भाभी और मां में बहुत स्नेह था पर कभीकभी किसी बात पर मतभेद हो जाता तो फिर एकमत होना मुश्किल हो जाता. भैया आयु में मुझ से बड़े थे पर मेरा विवाह उन से पहले हो गया था. मेरे पति की नौकरी उसी शहर में थी, इसलिए मैं अकसर मां से मिलने आती रहती थी. विवाह के 2 वर्ष पश्चात जब भाभी के पैर भारी होने का आभास मां को हुआ तो उस पड्ड्रसन्नता में न जाने कितने नाम उन्होंने अपप्ने पोतेपोती के सोच डाले. बिटिया होते ही मां ने अपने सोचे हुए नामों की पूरी सूची ही सुना डाली. लक्ष्मी, सरस्वती, सीता जैसी देवियों के नाम के सामने मां को काजल, कोयल, पायल जैसे नाम बिलकुल बेतुके और सारहीन लगते. आधुनिक सभ्यता में पलीबढ़ीं भाभी को मां का रखा कोई भी नाम पसंद न आया.

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