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‘‘ओ, कमअक्ल औरत, रंजो मेरी आंखों की किरकिरी नहीं बनी है बल्कि अपर्णा बहू तुम्हें फूटी आंख नहीं सुहाती है. पूरे दिन घर में बैठी आराम फरमाती रहती हो, हुक्म चलाती रहती हो. कभी यह नहीं होता कि बहू के कामों में थोड़ा हाथ बंटा दो और तुम्हारी बेटी, वह तो यहां आ कर अपना हाथपैर हिलाना भी भूल जाती है. क्या नहीं करती है बहू इस घर के लिए. बाहर जा कर कमाती भी है और अच्छे से घर भी संभाल रही है. फिर भी तुम्हें उस से कोई न कोई शिकायत रहती ही है. जाने क्यों तुम बेटीबहू में इतना भेदभाव करती हो?’’

‘‘कमा कर लाती है और घर संभालती है, तो कौन सा एहसान कर रही है हम पर. घर उस का है, तो संभालेगा कौन?’’ ‘‘अच्छा, सिर्फ उस का घर है, तुम्हारा नहीं? बेटी जब भी आती है उस की खातिरदारी में जुट जाती हो, पर कभी यह नहीं होता कि औफिस से थकीहारी आई बहू को एक गिलास पानी दे दो. बस, तानें मारना आता है तुम्हें. अरे, बहू तो बहू, उस की दोस्त को भी तुम देखना नहीं चाहती हो. जब भी आती है, कुछ न कुछ सुना ही देती हो. तुम्हें लगता है कहीं वह अपर्णा के कान न भर दे तुम्हारे खिलाफ. उफ्फ, मैं भी किस पत्थर से अपना सिर फोड़ रहा हूं, तुम से तो बात करना ही बेकार है,’’ कह कर भरत वहां से चले गए.

सही तो कह रहे थे भरत. अपर्णा क्या कुछ नहीं करती है इस घर के लिए. पर फिर भी प्रभा को उस से शिकायत ही रहती थी. नातेरिश्तेदार हों या पड़ोसी, हर किसी से वह यही कहती फिरती थी, ‘भाई, अब बहू के राज में जी रहे हैं, तो मुंह बंद कर के ही जीना पड़ेगा न, वरना जाने कब बहूबेटे हम बूढ़ेबूढ़ी को वृद्धाश्रम भेज दें.’ यह सुन कर अपर्णा अपना चेहरा नीचे कर लेती थी पर अपने मुंह से एक शब्द भी नहीं बोलती थी. पर उस की आंखों के बहते आंसू उस के मन के दर्द को जरूर बयां कर देते थे.

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