बहुत रोका मगर ये कब रुके हैं
ये आंसू तो मेरे तुम पर गए हैं
जो तुम ने मेरी पलकों में रखे थे
वो सपने मुझ को शूल से गड़े हैं
न रांझा है यहां, न हीर कोई
चरित्र ऐसे कथाओं में मिले हैं
जो आने के बहाने ढूंढ़ते थे
वो जाने के बहाने अब गढ़े हैं
हवाएं सावनी जो पढ़ सको तुम
उन्हीं पे आंसुओं ने खत लिखे हैं.
– आलोक यादव
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