ये चादर
बड़ी मैली है, भद्दी है, धुंधली है
गठीले रेशों से बनी है
कर्ज का बोझ समेटे
वक्त के साथ, सूरज उजाला करता है
मगर शाम में डूबी है, वही चादर
न गंगा के पानी ने, न यमुना की लहरों ने
न संगम की रेती ने उजली की ये चादर
आज भी हवेली की दरारों में
सड़कों के किनारों में
दिखाई देती है, डरी हुई सहमी सी
ये चादर
आंधियों में फटती है, उजाले में लुटती है
तमाशे की तरह
फिर गांठों में जुड़ती है
और सिमट जाती है चादर
दुनिया डूबती रहती है आंसुओं में
मगर चादर वही है
बेबस आंखों में, बोझ से लिपटी हुई
लाचारी और गरीबी से बंधी हुई
बदनामी का दामन थामे,
तन्हा सी ये चादर
बड़ी मैली है, भद्दी है, धुंधली है.
- अंजू चौधरी
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