अकेलेपन के आईने में
जब देखती हूं खुद को!
मुझे नजर आती है वह लड़की
जो किसी को नजर नहीं आती.
सुनाई देने लगती है वह आवाजें
जिसे बाकी दुनिया सुन नहीं पाती.
अकेलेपन के आईने में
जब देखती हूं खुद को!
मुस्कान लिए चेहरे पर एक लड़की
आंखों से गम के गीत गुनगुनाती है.
अनकही और अनसुनी कहानियां
मौन की भाषा में मुझको सुनाती है.
अकेलेपन के आईने में
जब देखती हूं खुद को!
दर्द के दरवाजे बीना किसी
जोर जबरदस्ती के खुल जाते है.
भावनाओं के भंवर उमड़ते
कभी हंसाते तो कभी रुलाते हैं.
अकेलेपन के आईने में
जब देखती हूं खुद को!
कुछ 'दबा हुआ सा', जो है मेरे अंदर
वो जोर-जोर से चीखता-चिल्लाता है.
चुपचाप सहते रहने की समझदारी भरी
कैद से छूटने को लेकर छटपटाता है.
अकेलेपन के आईने में
जब देखती हूं खुद को!
चेहरे पर चढ़े नकाब का सच
एकदम से साफ़ नजर आता हैं.
आंखों पर पड़ा पर्दा भी पल भर में
देखते ही देखते ओझल हो जाता है.
अकेलेपन के आईने में
जब देखती हूं खुद को!
भीड़ में होकर भी भाड़ में होने का
अनचाहा अहसास आहत कर जाता है.
गलतफहमी की गलियों से बेदख़ल कर
अकेलापन असलियत के आंगन ले आता है.
- रोशन सास्तिक