चांद बूढ़ा हो गया है अब नहीं लुभाता किसी को
चांद को देर तक तकना, बातें करना गुजरे समय की बात हो गई है.
इमारतें आसमान से बातें करती हैं
हालचाल पूछ लेती हैं चांद का वो जो चांद के कसीदे पढ़ते थे
उन की रातें फानूस को घूरते कटती हैं.
नई नस्ल का लगाव नहीं अब चांद से उन के सपने भी हाइटैक हो गए हैं
घर के बुजुर्गों जैसा हो गया है चांद राह में चुपचाप सा रहता है.
समय चिपक गया है जैसे
झुर्रियां बन कर उस के चेहरे पर उदास आंखों से ताकता है जमीं पर
शायद कभी कोई बच्चा चंदा मामा कह कर आवाज लगा दे.
– सरिता पंथी
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