अनबूझ पहेली सी

तुम्हारे अधरों की

अतृप्त पिपासा.

कभी शांत सरिता से सकुचाते

अधखिली कली से

कभी इठलाते

सुधियों की नैया पर

पताका से फहराते.

अकेली कथा सा मन

नहीं कर पाता

इन की परिभाषा

तुम्हारे अधरों की

ये अतृप्त पिपासा.

मौनव्रती रहते नहीं

फिरफिर खोल रहे

पंख पखेरू

लमहालमहा उड़ान

हो रही

कपोलों की अभिलाषा

भी तो डोल रही

इसीलिए

अनबूझ पहेली सी

तुम्हारे अधरों की

अतृप्त पिपासा.

– प्रमोद सिंघल

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