खामोशियों में लिपटा एक तूफान हो तुम
कयामत का पैगाम हो तुम
जलजले चूमें तुम्हारे पांव फिर भी
आखिरी अरमान हो तुम
तुम कितनी खूबसूरत हो, नहीं है इल्म ये
रूप का इक बवंडर हो, नहीं है इल्म ये
कर चुकी जुल्मोसितम की इंतहा, ऐ हंसी
क्या नहीं ऐ नाजनीन, है तुम्हें इल्म ये
न मयस्सर हैं अल्फाज बयां करने को
शोख नजरों के वो दो पैमाने
डूब जाने को हैं बेताब मगर
न जाने कितने ही दीवाने
होंठ क्या हैं दो रसीली पंखुडि़यां
चूमता रहता जिन्हें मैं जिंदगीभर
खुद समा जाता उस के आगोश में
या भर लेता जिसे अपनी बांहों में.
– डा. नरेश कुमार
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