बस सांसों की गरमी है
लफ्ज नहीं दरम्यान बचे
बीते शर्मोहया के दिन
प्रणय के बस तूफान बचे

बांहों के हैं पाश कसे से
बिखरी जुल्फों की स्याही
अधर न रह जाएं प्यासे से
मन में न रेगिस्तान बचे

दूर हुई काया की पीड़ा
रोमरोम गुलजार हुए
भोर तलक न होश में आए
शेष न कुछ अरमान बचे

दीवारों के नयन झुके हैं
परदे हैं महकेमहके सेबच्चोंके मुखसे
दर्पन फूल करें सरगोशी
दीये की कैसे जान बचे.

       

– अनुराग मिश्र ‘गैर’

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