शहर के स्मार्ट घोषित होने का अलग ही मजा है. रहते थे पहले भी हम उसी शहर में. जीवनशैली भी वही थी पहले अपनी, जो आज है. पर जब से अपने शहर को स्मार्ट यानी स्मार्ट सिटी घोषित कर दिया गया है, दिल झूमझूम कर गा रहा है ‘मैं वही, धड़कन वही न जाने ये क्या हो गया, सबकुछ लागे स्मार्टस्मार्ट सा.’ वह बात अलग है कि हमारे शहर को स्मार्ट घोषित किए जाने के बाद कई लोगों को स्मार्ट शब्द के बारे में अपने ज्ञान पर, शब्दकोश पर, संशय होने लगा है. अब बातबात पर संशय करने वालों की क्या बात की जाए. भाई, शहर स्मार्ट शहरों की सूची में शामिल हो गया है, तो इस का जश्न मनाओ. क्या चीनियों की तरह मुंह फुलाए बैठे हो जो ओलिंपिक गेम्स में इतने मैडल मिलने पर भी खुश नहीं हैं.
हम तो उस देश के वासी हैं जिस देश में अरबों की आबादी पर 2 मैडल मिलने पर भी खुश हो लेते हैं. अगर 2 मैडल भी न मिलें तो भी कोई बात नहीं. कई बार हम शून्य ले कर भी शान से लौटे हैं. आखिर शून्य का आविष्कार हमारे देश में ही तो हुआ था, फिर हम क्यों शून्य पर किसी और का अधिकार होने दें? हमारे ढेर सारे खिलाड़ी खेल आए विदेशों में, सफर कर आए हवाईजहाज से, अतिथि बन आए बड़ेबड़े होटलों के, यही क्या कम है हमारे लिए? आखिर हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है. और गंगा के मैली होने के बाद भी, उस में और गंदगी जमा होने के बाद भी कोई फर्क पड़ता है हमें भला? गंगा के जल को बोतलबंद कर दो तो वह और भी पवित्र हो जाता है.
गंगा किनारे के शहर को हम स्मार्ट घोषित करवा लेंगे और सभी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी. शहरवासियों को बाढ़ में घिरने में भी स्मार्टस्मार्ट सी फीलिंग आएगी. नाव में महिलाएं बच्चे जनने में स्मार्टनैस का एहसास करेंगी. खामखां लोग सरकार को ड्रेनेज सिस्टम में खामी बता कर और पौलिसी पर रोक न लगाने का दोष देते हैं. यदि ड्रेनेज सिस्टम को दुरुस्त कर दिया जाता, यदि पौलिथीन पर रोक लगा दी जाती तो बाढ़ का जो आनंद शहरवासी उठाते हैं वह उठा पाते? सड़क पर नाव चलाने का रोमांच ले पाते? नेतागण सपरिवार हैलिकौप्टर से बाढ़ का जायजा ले पाते?
जब से अपने शहर को स्मार्ट घोषित कर दिया गया है, दिल हर बात में, हर काम में स्मार्टनैस महसूस करता है. सुबह घर से निकलते ही, गड्ढे में पड़ते ही, मन हिचकोले खाने लगता है. सड़कमुक्त गड्ढे और गड्ढेयुक्त सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए भादो मास में भी सावन के झूले झूलने का एहसास होता है-सावन आए या न आए, गाड़ी जब गड्ढे में झूमे, समझो सावन है. सड़कों पर बहते पवित्र नाले का सुगंधित जल में ‘छई छपा छई’ गाने का अलग ही रोमांच होता है. ट्रैफिक जाम में फंसने पर भी बड़ी स्मार्ट सी फीलिंग होती है. फीलिंग यह होती है कि अपने शहर में गाडि़यां इतनी हैं, गाड़ी वाले इतने हैं तभी तो रोड के चप्पेचप्पे गाडि़यों की फिल्लिंग से जाम हैं. जिन शहरों में, जिन देशों में गाडि़यों की संख्या कम है वहां क्या खाक जाम होगा? बिना मतलब के वे देश सार्वजनिक सेवा उपलब्ध करवा कर जनता को निजी गाड़ी से वंचित करते हैं. अपने यहां देखिए, बैंक हों या दूसरे वित्तप्रदाता, लोगों को निजी गाडि़यों के लिए प्रलोभित कर उन के अन्य खर्च कितना कम कर देते हैं. गाड़ी के मेंटिनैंस, बीमा, पैट्रोल आदि के बाद खर्चे करने के लिए पैसे काफी कम बचते हैं तो फिर खर्च होगा तो भला किस चीज पर?
और फिर अपने शहर की सड़कों के हर डिवाइडर फांद कर पार करने वाले युवा व बुजुर्गों को देख कर लगता है कि इन की स्मार्टनैस को देख कर ही हमारे शहर को स्मार्ट घोषित किया गया है. अब 100-200 मीटर दूर जा कर रोड क्रौस कर फिर सौदोसौ मीटर वापस आने में जो समय जाया होगा, उसे बचाना स्मार्टनैस नहीं तो और क्या है? सीधे डिवाइडर को फांद कर उस पार जाने में जो समय बचेगा, उस का स्मार्ट प्रयोग पानगुमटी पर खड़े हो कर कभी इस को, कभी उस को गरियाने का सदुपयोग हो सकता है कि नहीं?