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भावनाओं की रौ में बह कर लिए गए फैसले हमेशा गलत होते हैं. चांदनी के प्यार में दीवाने हुए राजीव ने भी ऐसा ही एक फैसला किया उस से शादी करने का. लेकिन महत्त्वाकांक्षी चांदनी ने उसी राजीव के फैसले को इतनी बेदर्दी से ठुकरा दिया जिस के लिए उस ने अपना घर और घर वालों को छोड़ा था.

कभीकभी जीवन की सचाइयां वर्षों के फैसलों को पल भर में बदल देती हैं. प्यार और भावनाओं के आवेश में किए गए वादे दौलत की चमक के आगे बेमानी जान पड़ते हैं और इनसान को लगने लगता है कि उस के पांव के नीचे का धरातल कितना कमजोर था, उस के विश्वास की बुनियाद कितनी खोखली थी.

अपने विवाह के निमंत्रणपत्र को निहारते हुए ऐसे न जाने कितने विचार राजीव के मन को मथ रहे थे. उस की यादों में वे लमहे कौंध गए, जब शाम के समय वह और चांदनी सागर के किनारे रेत पर जा बैठते थे. चांदनी बारबार रेत पर उस के नाम के साथ अपना नाम लिखती जिसे सागर की लहरें आ कर मिटा देती थीं. तब वह उस की बांहों को थाम स्नेहसिक्त स्वर में कहती, ‘आज ये नासमझ लहरें भले ही तुम्हारे नाम के साथ लिखे मेरे नाम को मिटा डालें किंतु कल जब हम दोनों का विवाह हो जाएगा तब तुम्हारे नाम के साथ मेरे नाम को कौन मिटा पाएगा?’ उन लमहों को याद कर राजीव के होंठों पर एक विद्रूप सी मुसकान तैर गई और वह अतीत की गहराइयों में उतरता चला गया.

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उस शाम लायंस क्लब में काव्य गोष्ठी का आयोजन था. कई बड़ेबड़े कवि वहां आए हुए थे. साहित्य में रुचि होने के कारण राजीव भी अकसर ऐसे कार्यक्रमों में जाया करता था. उस दिन एक 20-21 साल की युवती की काव्य रचना को काफी सराहा गया था. शब्दों का चयन और भावों की अभिव्यक्ति के बीच सुंदर तालमेल था. कार्यक्रम की समाप्ति पर वह उस लड़की के करीब पहुंचा और बोला, ‘आप बहुत अच्छा लिखती हैं, इतनी कम उम्र में विचारों में इतनी परिपक्वता कम ही देखने को मिलती है.’

चांदनी हंस दी तो वह एकटक उसे निहारता रह गया था.

‘सच कहूं तो आप का नाम भी आप की कविता की तरह दिल को ठंडक पहुंचाने वाला है,’ वह बोला.

चांदनी खिलखिला पड़ी. उस की खनकती हंसी ऐसी थी मानो जलतरंग बज उठी हो. उस की सुंदर दंतपंक्तियों को देख लग रहा था मानो गुलाब की 2 पंखडि़यों के बीच में आकाश से तारे उतर कर सिमट गए हों.

राजीव मंत्रमुग्ध सा उसे निहारता ही रह गया. उसे लगा, चांदनी के रूप में विधाता ने स्वयं एक जीतीजागती काव्य रचना लिख डाली थी. जैसे ही घर जाने के लिए चांदनी ने बाहर की ओर कदम बढ़ाए, बादलों की गड़गड़ाहट ने बारिश की सूचना दे डाली.

चांदनी घबरा कर बोली, ‘अब मैं घर कैसे जाऊंगी?’

‘अगर आप को कोई एतराज न हो तो आप मेरे साथ कार में बैठ कर अपने घर चल सकती हैं,’ राजीव ने कहा.

पहले तो चांदनी के चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे फिर परिस्थिति की मजबूरी को समझते हुए उस ने सहमति में गरदन हिला दी. राजीव चांदनी को उस के घर छोड़ कर अपने घर लौट आया.

राजीव शहर के सब से बड़े ज्वैलर्स विजय सहाय का छोटा बेटा था. उस से बड़े दोनों भाई संजय और अजय बी.ए. तक पढ़ाई कर के पिताजी के व्यवसाय में उन का हाथ बटा रहे थे किंतु राजीव की पढ़ने में रुचि अधिक थी इसलिए वह अपने ही शहर के एक प्रतिष्ठित कालिज से एम.बी.ए. की पढ़ाई कर रहा था. शाम को वह अपनी दुकान पर चला जाता था.

उस दिन भी राजीव कुछ ग्राहकों को आभूषण दिखा रहा था, जब चांदनी अपनी मां के साथ वहां आई. उसे देख वह प्रसन्न हो उठा. चांदनी भी उसे दुकान में देख कर हैरान रह गई थी.

‘अरे, तुम यहां? लगता है, पढ़ाई के साथसाथ  पार्टटाइम नौकरी भी करते हो?’

राजीव मुसकराया, ‘ऐसा ही कुछ समझ लो. फिर उस की मां से बोला, ‘हां, तो बताइए आंटी, क्या दिखाऊं?’

‘बेटी के लिए हलका सा हार चाहिए.’

‘अभी लीजिए,’ और इसी के साथ राजीव ने वार्डरोब से कई डब्बे निकाल कर उन के सामने रख दिए. एक के बाद एक कर के कई डब्बे देखने के बाद एक लाल मोतियों के हार पर चांदनी की नजर अटक गई. उस ने उस हार को अपने गले में पहना और खुद को शीशे में निहारते हुए राजीव से पूछा, ‘कैसा लग रहा है?’

प्रशंसात्मक नजरों से राजीव ने चांदनी को देखा और बोला, ‘आप के गले में पड़ कर यह हार नहीं जीत लग रहा है.’

‘हार से ज्यादा सुंदर तो आप की बातें हैं,’ चांदनी बोली, ‘क्या कीमत है इस की?’

‘किस की, हार की या मेरी जबान की?’ राजीव हंसा फिर बोला, ‘5 हजार रुपए.’

चांदनी ने हार खरीद लिया. राजीव ने अपने पिताजी से कह कर उस की कीमत कुछ कम करवा दी. चांदनी उस के हाथ से रसीद लेते हुए बोली थी, ‘लगता है तुम्हारा यहां अच्छा रसूख है.’

राजीव हंस दिया था. अगली शाम वह दुकान पर जब पहुंचा तो चांदनी को वहां पहले से ही आ कर बैठे देखा. वह उस के पिताजी से पूछ रही थी, ‘आप का वह राजीव नाम का कर्मचारी आज नहीं आया?’

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पिताजी पहले तो हंसे, फिर बोले, ‘बेटी, वह मेरा कर्मचारी नहीं, मेरा सब से छोटा बेटा है.’

तभी चांदनी की नजर राजीव पर पड़ी. उस ने आंखें तरेर कर उस की तरफ देखा तो उस ने अभिवादन में हलका सा सिर झुका दिया.

चांदनी को हार के साथ के टाप्स चाहिए थे. राजीव ने एक हफ्ते बाद उसे आने के लिए कहा परंतु 3 दिन में ही टाप्स तैयार करवा कर वह उन्हें ले कर चांदनी के घर पहुंच गया.

राजीव को घर आया देख चांदनी बहुत खुश हुई और जल्दी से चाय बना कर ले आई. वह मध्यवर्गीय परिवार की लड़की थी. उस के पिता बिजली विभाग में क्लर्क थे. घर में मांबाप के अलावा एक छोटी बहन भी थी.

चाय पीते हुए चांदनी ने पूछा था, ‘राजीव, तुम इतने बड़े ज्वैलर्स के बेटे हो, घर का जमाजमाया व्यवसाय है, फिर भला तुम्हें एम.बी.ए. करने की क्या सूझी?’

‘मुझे शुरू से ही पढ़ाई का शौक रहा है. पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती, चांदनी. एक न एक दिन काम आती  ही है,’ उस ने तर्क दिया.

चांदनी ने कंधे उचकाए फिर लापरवाही से बोली, ‘पता नहीं, एम.बी.ए. तुम्हारे ज्वैलरी के व्यवसाय में क्या काम देगा? मेरे विचार में तो पढ़ाईलिखाई का चक्कर छोड़ कर तुम्हें जल्द से जल्द अपने व्यवसाय पर अपनी पकड़ मजबूत करनी चाहिए.’

राजीव खामोश रहा.

वह बोली, ‘क्या सोचने लगे?’

‘सोच रहा था कि अगली बार तुम्हारे घर किस बहाने से आऊंगा?’

उस की बात पर वह खिलखिला कर बोली, ‘राजीव, अब तुम्हें मेरे घर आने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं है. जब भी दिल करे बेझिझक आया करो.’

धीरेधीरे चांदनी, राजीव की अच्छी दोस्त बन गई. दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा. दोस्ती के इस रिश्ते में कब प्यार की कोंपलें फूटने लगीं उसे पता ही नहीं चला. अकसर वह और चांदनी समुद्र के किनारे जा बैठते थे. ऐसी ही एक सुनहरी शाम को राजीव ने चांदनी का हाथ अपने हाथ में ले कर पूछा था, ‘चांदनी, मुझ से शादी करोगी?’

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यह सुन कर उस के गाल शर्म से  लाल हो उठे थे. वह बोली थी, ‘तुम इतने पैसे वाले बाप के बेटे हो. तुम से विवाह करने का सौभाग्य मिले, इस से ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है? मेरे घर वाले तुरंत राजी हो जाएंगे.’

अगले भाग में पढ़ें – विवाह कोई हंसीखेल नहीं. जीवन भर का बंधन है…

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