मां खुश थीं कि अब बेटी का घर बस जाएगा तो वह किसी भी बेटे के पास रहने चली जाएंगी. भारती व मोहित भी 1-2 दिन छोड़ कर फोन पर बात कर लेते थे. उस दिन भारती का जन्मदिन था. सबेरे से ही वह मोहित के फोन का इंतजार कर रही थी. बैंक के सभी सहयोगियों ने उसे शुभकामनाएं दीं. मां ने भी उस के लिए विशेष पकवान बनाए पर दिन गुजर गया मोहित का फोन नहीं आया. रात होतेहोते भारती का इंतजार खीज व क्रोध में बदलने लगा. हार कर उस ने मां से कह ही दिया, ‘मां, जिस व्यक्ति को शादी से पहले होने वाली पत्नी का जन्मदिन तक याद नहीं, वह शादी के बाद क्या खयाल रखेगा?’ मां समझाती रहीं, ‘बेटा, कोई जरूरी काम होगा या शायद उस की तबीयत ठीक न हो या शहर से बाहर गया हो.’ ‘फिर भी एक फोन तो कहीं से भी किया जा सकता है. क्या ऐसा नीरस इनसान मुझे शादी के बाद खुशियां दे सकेगा?’ जिद्दी बेटी कहीं कोई गलत कदम न उठा ले, यह सोच मां बोलीं, ‘ऐसा करो, तुम ही फोन लगा लो, पता लग जाएगा क्या बात है.’ ‘मैं फोन क्यों लगाऊं? उस से फोन कर के कहूं कि मेरे जन्मदिन पर मुझे बधाई दे? इतनी गईबीती नहीं हूं...

आखिर मेरी भी इज्जत है...वह समझता क्या है अपनेआप को.’ अगले दिन भारती के बैंक जाने के बाद मां ने मोहित को फोन लगाया तो उस ने बताया कि काम के सिलसिले में वह इतना व्यस्त था कि भारती के जन्मदिन का याद ही नहीं रहा. उस ने मांजी से माफी मांगी और कहा, वह इसी वक्त भारती से फोन पर बात करेगा. मोहित ने भारती को फोन मिलाया तो उस ने बेरुखी से शिकायत की. मोहित ने समझाते हुए कहा, ‘भारती, इतनी नाराजगी ठीक नहीं. आखिर अब हम परिपक्वता के उस मुकाम पर हैं कि इन छोटीछोटी बातों के लिए शिकायतें बचकानी लगती हैं. नौजवान पीढ़ी ऐसी हरकतें करे तो चल सकता है लेकिन हम तो अधेड़ावस्था में हैं. कम से कम उम्र की गरिमा का तो खयाल रखना चाहिए.’ भारती ने आगबबूला होते हुए कहा, ‘तुम्हारी भावनाएं मर गई हैं तो क्या मैं भी अपनी भावनाओं को कुचल डालूं? तुम इतने नीरस हो तो जिंदगी में क्या रस रह जाएगा?’ मोहित को भी क्रोध आ गया और गुस्से में बोला, ‘तुम में अभी तक परिपक्वता नहीं आई, जो ऐसी बचकानी बातें कर रही हो.’ भारती ने मोहित के साथ शादी करने से साफ इनकार कर दिया. मां समझाती रहीं लेकिन जिद्दी, अडि़यल, तुनकमिजाज बेटी ने एक न सुनी. मां को इतना गहरा सदमा पहुंचा कि साल के भीतर ही दिल के दौरे से चल बसीं. अब भारती एकदम अकेली रह गई. शुरू में तो अकेलापन बहुत खलता था लेकिन धीरेधीरे इस अकेलेपन के साथ उस ने समझौता कर लिया. कितने तनाव होते हैं गृहस्थी में. कभी बच्चे बीमार कभी उन के स्कूल पढ़ाई का तनाव, कभी पति का लंबा आफिस दौरा, कितना मुश्किल है हर स्थिति को संभालना. तुम अपनी मर्जी की मालिक हो, न पति की झिकझिक न बच्चों की सिरदर्दी. यही सोच कर वह संतुष्ट हो जाती और अपने निर्णय पर उसे गर्व भी होता. देखते ही देखते समय छलांगें लगाते हुए सालों में बीतता गया.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...