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इस के बाद भाईबहन ने कभी अपने पापा का जिक्र नहीं किया लेकिन विद्या को हर तरह से खुश रखने का प्रयास करते थे. विद्या ने भी बच्चों की खुशी को ही जीवन मान लिया था लेकिन जरा सा एकांत मिलते ही प्रिया की आवाज उस के कानों में गूंजने लगती थी और गुस्सा आता था स्वयं पर कि इतने साल तक क्यों बेवकूफ बनती रही?

वैसे तो बच्चे हमेशा ही जिद कर के उसे कहीं न कहीं घुमाने ले जाते थे लेकिन निमेष की दावत में ले जाने को जैसे कटिबद्ध थे.

निमेष और उस के परिवार वाले विद्या से बहुत ही प्यार से मिले और संयोग से निमेष की चाची सरला विद्या की कालेज की सहपाठिन निकली.

‘‘एक शहर में रहते हुए भी मुलाकात नहीं हुई. अब पूरा अतापता लिए बगैर नहीं छोड़ूंगी,’’ सरला ने उत्साह से कहा, ‘‘अभी तो मेरी ड्यूटी यहां लगी हुई है  भेंट में मिले उपहार संभालने को, पर जल्दी ही किसी और को यहां बिठा कर तेरे पास आती हूं.’’

‘‘मम्मी को ही बैठा लीजिए न यहां अपने पास और गपें मारती रहिए,’’ कह कर सचिन लपक कर एक कुरसी उठा लाया.

‘‘अरे नहीं सचिन, मंच पर बैठी अच्छी लगूंगी?’’ विद्या ने प्रतिवाद किया.

‘‘सामने मत बैठ न, भाभी की कुरसी के पीछे लगी फूलों की ?ालर और रेशमी परदे की ओट में बैठ जा. किसी को नजर नहीं आएगी, सब रौनक भी देखती रहेगी और मेरे से गपें भी मारती रहेगी,’’ सरला ने कहा.

विद्या को लगा कि सचिन के चेहरे पर जैसे राहत के भाव उभर आए हों. किसी परिचित के आने पर सरला भी कुछ पल के लिए उठ कर उन से बात कर लेती थी और फिर आ कर विद्या के पास बैठ जाती थी. निमेष के पिता महेश बराबर उन व्यक्तियों का जिन को उन की पत्नी मालती नहीं जानती थी, परिचय करवा रहे थे, खासकर अपने ब्रिज और गोल्फ क्लब के दोस्तों का.

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