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लेखिक- डा. रंजना जायसवाल

किट्टी पार्टी से आने के बाद प्रियंका सामान्यतः खुश रहती थी, पर न जाने क्यों आज वह कुछ उखड़ीउखड़ी सी थी. ईशु डर से कमरे में दुबक गया था, कहीं ऐसा न हो कि वह ही मां के कोप का भाजन बन जाए. राहुल औफिस से थोड़ा जल्दी ही आ गए थे. वैसे भी जब उस की किट्टी पार्टी होती तो वे घर जल्दी आ जाते थे. ईशु को अकेला भी तो नहीं छोड़ा जा सकता था. ईशु थोड़ा चंचल स्वभाव का था. प्रियंका अकसर उस की शैतानियों से खीझ जाती. कहती, "ताड़ की तरह बड़ा होता जा रहा है, पर जरा भी अक्ल नहीं. दिनभर खुराफात ही सूझती रहती है... एक पल के लिए भी चैन से नहीं रहता."

प्रियंका की बात सुन राहुल मुसकरा कर कहते, "इस उम्र में यह शैतानियां नहीं करेगा तो क्या हम और तुम करेंगे." "बिगाड़ लीजिए... आप तो दिनभर औफिस में रहते हैं... झेलना तो मुझे होता है."

प्रियंका ने पर्स मेज पर रख वहीं सोफे पर निढाल हो गई, "प्रिया, अच्छा हुआ तुम आ गई. एक बढ़िया सी चाय पिलाओ, बड़ी तलब हो रही है." राहुल की फरमाइश सुन प्रियंका गुस्से से बिफर उठी, "यहां मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है और जनाब को चाय पीनी है. इस घर में एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं है कि मां थकी हुई आई है, एक गिलास पानी पूछ ले."

राहुल समझ गए कि आज गुस्से का केंद्रबिंदु ईशु ही है. राहुल ने ईशु को आवाज दी. "जी पापा. क्या हुआ? आप ने मुझे बुलाया." "देख, तेरी मम्मी थक कर आई है, जरा उन के लिए पानी ले आ." "पर, मम्मी तो किट्टी पार्टी से आ रही हैं, फिर भी थक..."

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