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लेखिका- भावना सक्सैना

एक अंतहीन काला गहरा कुआं था, जिस में वह डूबती जा रही थी. कुछ हाथ उसे ऊपर खींचने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन वह उन हाथों से फिसलती जा रही थी. देह पर कुछ पकड़ने के लिए नहीं था,  कोई किनारा नहीं, कोई छोर नहीं कि मन जब उम्मीद छोड़ देता है, तो देह का आकार मायने नहीं रखता…

कुएं के ऊपर कुछ साए दिखाई दे रहे थे. एक तेज रोशनी चमकी थी… साए सफेद पुत गए थे. सफेद सायों की बांहें उसे पकड़ने के लिए फैली हुई थीं. कुछ साए कुएं में झुक कर उसे खींचना चाहते थे… वह नहीं समझ पा रही थी कि वह उन हाथों में जाना चाह रही थी या उन से छूटना चाह रही थी. न वह स्वयं गिर रही थी, न उपर उठने का प्रयास कर पा रही थी, वह थी या नहीं थी, यह भी प्रश्न था… वह देह थी या एक वस्तु थी, संवेदनहीन, आकांक्षाहीन, निःस्पृह, इच्छारहित… किसी भी समझ से परे.

कुछ और आवाजें थीं मिलीजुली,  वह पहचान नहीं पा रही थी किस की,  आवाजें लगातार कोई नाम पुकार रही थीं… शायद वह नाम उसी का था, पर उस समय वह जान नहीं पा रही थी कि नाम उस का है. न ही खुद को उस नाम से जोड़ पा रही थी.

वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे उन आवाजों की ओर जाना है या नीचे गिरना है. शायद वह उठना ही नहीं चाह रही थी. शायद उन आवाजों की वजह से, जो अभी भी उलाहनों से भरी थी. क्यों…?, क्या…?, क्यों…? क्या? क्यों किया?… का मिलाजुला शोर उस पर हावी हो रहा था. उन आवाजों में प्रेम नहीं था, फिक्र नहीं थी…  वे उस से कुछ पूछना चाहती थी, क्या पूछना चाहती थी, क्या जानना चाहती थी, वह कुछ नहीं समझ पा रही थी. उस की चेतना शून्य थी, लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह आवाजें उस का जिंदा रहना चाहती थी… चेतना फिर शून्य हो गई थी, हर ओर अंधेरा…

अंधेरा सुकून से पूर्ण था. अगर ये अंत था तो अंत लग क्यों नहीं रह था…. उसे कुछ भी लग रहा था. मतलब, अभी वो थी… वो क्यों थी, वो कभी भी क्यों हुई थी, इस का उत्तर नहीं था उस के पास. उस ने होने के लिए कुछ भी नहीं किया था. लेकिन जिन लोगों ने उस के होने के लिए कुछ किया था, वह उस के होने पर प्रसन्न क्यों नहीं हुए थे… न होने पर और न होने के बाद. आसपास फिर कई आवाजें थीं. इस बार अंधेरा नहीं था… हलका नीला प्रकाश था, लेकिन बहुत चाह कर भी वह आंखें नहीं खोल पा रही थी, फिर वो उन आवाजों से ऊपर थी, वो नीचे भी थी, वो ऊपर भी थी… वो दो कैसे हो गई थी… वह सफेद चादर में लिपटी खुद को देख क्यों पा रही थी… क्या वह अपने से जुदा हो गई थी… वह रूह थी या देह थी, नहीं, अब वह देह नहीं थी, देह उस से नाराज हो गई थी शायद. उस का मार्ग अवरुद्ध कर रही थी. करती भी क्यों न… किसी को समाप्त करना चाहो तो वो तुम्हें क्यों आश्रय देगा. लेकिन समाप्त वह देह को नहीं करना चाहती थी. वह तो स्वयं का अस्तित्व समाप्त करना चाहती थी…

वह अस्तित्व, जो कभी था ही नहीं. इसलिए नहीं कि उस की रचना में दोनों एक्सक्रोमोसोम का मेल हुआ था. दो एकजैसे क्रोमोसोम्स के मिलने पर हुई प्रतिक्रिया ने उस की संरचना उस की मां जैसी तो कर दी, लेकिन रूपरंग, आकार में अपनी जन्मदात्री के समान होने पर भी वह उस के हृदय में एक कोना न पा पाई थी. वह उस के क्लेश का कारण थी और इसीलिए दूर कर दी गई थी. सारा बचपन गांव में गुजरने के बाद जब पास बुलाई भी गई, तो वह उस से बहुत दूर थी… कभीकभी पास होना और अधिक दूर कर देता है कि जो भ्रम पाले होते हैं, वे सब चकनाचूर हो जाते हैं.

उस कच्ची सी उम्र में सब के कुछ ख्वाब, कुछ अरमान होते हैं, लेकिन उस के ऐसे कोई अरमान नहीं थे. उसे कुछ नहीं बनना था. उस का लक्ष्य सिर्फ प्यार पाना था. न… न… मुहब्बत वाला प्यार नहीं, मां का प्यार. यों उसे बहुत प्यार मिला था, लेकिन अधूरा था कि सैकड़ों प्यार भी मां के आंचल का मुकाबला नहीं कर सकते. ऐसा सारे कहते रहे… वे उस पर तरस खाते रहे कि उसे मां का प्यार न मिला और वह छिप कर गाती रही – मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…

फिर भी प्रयास बहुत किए थे… निरर्थक प्रयास थे लेकिन सारे. हर बार कुछ गलत हो ही जाता था उस से… जब उस का होना ही गलत था तो उस का किया सही कैसे मान लिया जाता… लेकिन, इस सब के बावजूद वह थी और अब भी है, अभी है. इतने सब के बाद भी देह व्यतीत नहीं हुई. मतलब, उसे रहना होगा… और रहने के लिए उसे वह देह चाहिए…

आवाजें पास आती थीं… आवाजें दूर जाती थीं…  गहरा काला अंधेरा कभी नीम रोशनी में बदलने लगता था. लेकिन, अब वह गिर नहीं रही थी. वह किन्हीं हाथों में भी नहीं थी… वह उठ भी नहीं पा रही थी. उस के हाथपैर बंधे थे और बेतरह बिंधे थे. कई मशीनें जुड़ी थीं उस की देह से, जो सिर्फ एक चादर से ढकी थी.

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