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लेखिका- भावना सक्सैना

चिंतायुक्त स्वर था, जिसे शायद वह पहचान पा रही थी… अनगिनत बार सुना था वह स्वर. कौन था, जो चाहता था कि वो उस देह की कैद में लौट जाए, हां, उस चिंता भरे स्वर को वो पहचानती थी… वो चिंतातुर स्वर किसी संक्रमण फैलने या कुछ एलर्जी की बात कर रहे थे…. ओह… ध्यान आया, उस ने बहुतकुछ खा लिया… दवाएं… ढेर सारी… वो सारी जो उस की समझ में नींद लाती थीं… वो सोना चाहती थी… सुकून की नींद… जिस में सोचसमझ सब शून्य हो जाए.

कुछ समझ आया था, कुछ नहीं आया था. चिंता के स्वर को पहचान रही थी. तसल्ली देना चाहती थी और बोल उठी थी, संक्रमण नहीं होगा पापा. साथ में एविल का पूरा पत्ता और अमोक्सिलिन भी लिया था… शब्द किसी तक नहीं पहुंचे थे… बुदबुदाहट पहुंची थी और नर्स ने उसे दर्द समझ फिर से नींद का इंजेक्शन लगा दिया था. चेतना फिर शून्य थी.

अब की बार आंख खुली तो कमरे में मद्धिम पीली रोशनी पसरी हुई थी… बाहर शायद धूप थी. हलकेभूरे परदों से छन कर आती रोशनी कमरे को पीलेपन का आभास दे रही थी.

वो एक कमरे में ऊंचे से बिस्तर पर थी, बीच में एक परदा था और शायद परदे के दूसरी ओर कोई और बिस्तर, जिस पर एक और बिंधीबंधी देह पड़ी थी. शायद उसी देह की कराहट से उस की अपनी चेतना लौटी थी. वह पूछ उठी थी, “कौन है वहां?” उधर से क्षीण आवाज आई थी, “बचा लो, मैं मरना नहीं चाहती.” उस के मुंह से बेसाख्ता निकल गया था, “क्यों…?”

“मुझे जीना है…” प्रश्न पुनः स्वतः ही निकला था, “किस के लिए?” “अपने लिए…” “क्या हुआ है तुम्हें?” काफी देर तक कोई उत्तर नहीं आया. शायद, उधर वाली भी दवाओं के प्रभाव से नीम बेहोशी में थी और फिर अंधेरे में उतर गई थी. उस की अपनी मूर्छा धीरेधीरे कम हो रही थी और अजब सा अहसास हावी हो रहा था… सब से अहम प्रश्न था, अब…? आगे…? कैसे जाएगी उस घर में…? नहीं जाएगी तो कहां जाएगी, घोर अवसाद में ये जो हो गया उस से, उस पर क्या प्रतिक्रिया होगी सब की. जिन आंखों की हिकारत ने उसे धकेल दिया गर्त में, और वह संभल न पाई कि वह कमजोर थी… अब उन का सामना कैसे करेगी…

ब्लेंक, शून्य, उस के आगे शून्य और और आगे और भी बड़ा शून्य… क्या है अब जिंदगी में… जो है वो क्यों है और जो नहीं है वो क्यों नहीं है? कोरों से ढुलकते आंसू पोंछने एक उंगली आगे बढ़ी… दवा देने आई नर्स थी. “कहीं दर्द है तुम्हें?” “नहीं.” “फिर क्यों रोती हो?” नर्स ने पूछा, तो वह चुप रही.

“क्यों किया ऐसे…?” नर्स ने पूछा. “मैं ने कुछ नहीं किया… मुझे बस सोना था.” “क्यों…?” “मैं लड़ने से थक गई थी.” “लड़ाई की बात क्या थी?” “मुझे डाक्टर बनना था, ताकि मैं बता सकूं कि मैं हूं, और किसी से कमतर नहीं.” “फिर…?” “वो मेरा हाथ किसी और को थमा कर अपने दायित्व से मुक्त होना चाहते थे… मैं अपना दायित्व खुद संभालना चाहती थी.”

“ऐसे संभाला?” “ऐसा सोचा नहीं था…”“फिर ऐसा क्यों किया?” “पता नहीं, कुछ और समझ नहीं आया शायद.” “18 बरस की उम्र में तुम थकने भी लगी? ये तो जिंदगी की मौजमस्ती की उम्र होती है.” ‘आह…’ दूसरी ओर से दर्दभरा स्वर उभरा, नर्स उस तरफ मुड़ने लगी.

“सिस्टर, उधर कौन है? उसे क्या हुआ?” “वह बहुत जली हुई थी.” “कैसे?” “उस के पति ने उसे जला दिया.” “ओह्ह…” “कैसी है अब?” “बच गई है, परंतु पूरा ठीक होने में समय लगेगा, 14 रोज हो गए, किसी ने आ कर उस की सुध नहीं ली.” “वह जीना चाहती है.” “यही तो विडंबना है जिंदगी की. जो जैसा चाहता है, उसे वैसा नहीं मिलता. जो खत्म करना चाहता है, उस का खत्म नहीं होता और जो जीना चाहता है, उस के हाथ से फिसलता जाता है,” कहते हुए नर्स परदे के दूसरी ओर चली गई.

कटाक्ष पहुंचा था उस तक, लेकिन वह अभी भी तय नहीं कर पा रही थी कि वह क्या चाहती है. शायद दूसरी ओर वाली को पानी पीना था. नर्स ने उसे पानी पिला कर पूछा था, “कैसा लग रहा है अब? तुम बहुत बहादुर हो, जल्दी ठीक हो जाओगी.” “नर्स, उन्हें एतराज न हो तो बीच का परदा हटा दो.” धीमे स्वर में उधर से आवाज आई, “रहने दो. इसे देख कर घबरा जाओगी.” “नहीं घबराऊंगी.” और परदा हटाया गया, तो जिंदगी जीने की ललक रखने वाली का झुलसा हुआ रूप देख कर वह पीड़ा से भर उठी. पीड़ा आंखों से बह निकली थी.

“अच्छा नहीं लगा न देख कर?” “नहीं, ऐसी बात नहीं है, लगा, तुम्हें कितना दर्द होता होगा.”“दर्द तो जिंदगी का ही एक नाम है.”“फिर भी तुम जीना चाहती हो.”“हां, दर्द से घबरा कर जीना तो नहीं छोड़ सकते न. यों जी कर कुछ मिलता है क्या? तुम कभी जी पाई हो अपने लिए…

उस के प्रश्न पर वह चुप हो गई. काफी देर बाद खुद को संयत कर के उस की ओर देखा तो पाया कि वह दिल की टूटी खिड़की के कांच आंख में संभाल रही थी, टुकड़ाटुकड़ा.अपने गम को कस कर पकड़े हुए कि जिंदा रहने का और सबब न था जैसे. कसी हुई मुट्ठी में कुचले हुए सपनों के टुकड़े थे, पंख टूटी गौरैया जैसे.

बरसों पहले अम्मां के घर में जब गौरैया कमरे के ऊपर वाले आले में अपना घोंसला बनाती थी और कभी पंखे से टकरा जाती थी, उस गौरैया सी कातर दृष्टि लिए वह बोली थी, “हां, अपने लिए. मैं ने अभी तक अपने लिए कभी जिया ही नहीं. मां के घर मातापिता के अनुसार थी, वहां से ससुराल आई. हर कतरा कोशिश की उन के अनुसार ढलने की, लेकिन उस ने जला दिया मुझे. लेकिन, जो जली है वह बाहरी परत है, मेरा मन पहले से और अधिक मजबूत हो गया है.”

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