संस्था के अध्यक्ष ने तमाम साहित्यिक संस्थाओं को जीभर कर कोसा. सब को उन्होंने फर्जी, झूठा और ठग करार दिया. भारत सरकार, राज्य सरकार और तमाम बड़े संगठनों को कोसा जिन्होंने उन की संस्था को आर्थिक सहायता देना मंजूर नहीं किया था. उन के आमंत्रण पर जो लोग नहीं आए थे और सहायता देने में असमर्थता जाहिर की थी, उन्हें भी मंच से आड़ेहाथों लिया. तमाम वरिष्ठ, गरिष्ठ और कनिष्ठ लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों को भरभर कर कोसा. क्योंकि मंच संचालक उर्फ संस्था अध्यक्ष स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय लेखक कह चुके थे और उन की रचनाओं को सभी बड़ीछोटी पत्रिकाएं अस्वीकृत कर चुकी थीं. उन्होंने उन सब को साहित्यविरोधी, राष्ट्रविरोधी कहा.
हम सभी दर्शक दीर्घा में बैठे जब तालियां बजाने में सुस्ती दिखाते तो वे जोर से कहते, ‘‘जोरदार तालियां होनी चाहिए?’’ फिर भी करतल ध्वनि उन के हिसाब से नहीं बजती तो वे कह उठते, ‘भारत माता की’ सब को ‘जय’ कहना ही पड़ता.
अंत में उन्होंने लेखकों की निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि वे सौ सम्मान और बढ़ाएंगे जो हिंदी व इंग्लिश के लेखकों, देश के तमाम प्रधानमंत्रियों के नाम पर दिए जाएंगे. हां, बढ़ती महंगाई के कारण उन्होंने प्रविष्टि शुल्क बढ़ाने पर जोर दिया और इसे संस्था की मजबूरी बताया. उन्होंने लेखकों से सहयोग शुल्क, चंदा, आर्थिक सहयोग भेजते रहने की अपील की ताकि पुरस्कार पाने के इच्छुक (लालची) लेखकों की यह संस्था अनवरत चलती रहे.
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उन्होंने पूरी बेशर्मी के साथ यह भी कहा कि पुरस्कार पाने के लिए संस्था पर दबाव न डालें. हम निष्पक्ष हो कर श्रेष्ठता के आधार पर चयन करते हैं. आर्थिक सहयोग दे कर अपनी उदारता दिखाएं.
मैं बैठा सोच रहा था कि पैसा कमाने की कला हो, तो लोग साहित्यकारों की जेब से भी पैसा निकाल कर कमा लेते हैं. सम्मान की भूख ने कितनी सारी दुकानें खुलवा दीं. दुकानदारों को तो शर्म आने से रही. हम लेखक हो कर इतने बेशर्म कैसे हो सकते हैं? अंत में उन्होंने यही कहा कि पढ़ने वालों की कमी है. यह चिंता का विषय है. कुछ सरकार को कोसते रहे. कुछ सिनेमा और टीवी को दोष देते रहे. इस तरह प्रत्येक मुख्य अतिथि कम से कम 45 मिनट बोलता रहा और दर्शक दीर्घा में बैठे लेखक ताली बजाबजा कर थक चुके थे, जिन में एक मैं भी था.
अब शहर के व शहर के बाहर के एकदो लेखकों, जोकि नए थे और जिन की पुस्तक का प्रकाशन इसी संस्था ने किया था, की पुस्तकों के विमोचन का कार्य आरंभ हुआ. 2 नवोदित लेखिकाएं मंच पर आईं. उन की पुस्तकों के विमोचन के साथ संस्था के सभी सदस्य फोटो खिंचवाते रहे काफी देर तक. फिर संस्था के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, उपसचिव, कोषाध्यक्ष और संस्था के अन्य लोगों ने अपने विचार रखे या कहें कि हम पर थोपे. वे बोलते रहे. हम सब सुनते रहे. वे जानते थे कि हम कहीं नहीं जाएंगे क्योंकि हम सब सम्मान लेने के लिए बैठे थे.
अब हम लेखकों को संबोधित करते हुए कहा गया कि यदि आप सम्मान लेते हुए अपना फोटो चाहें तो कोषाध्यक्ष जोकि मंच पर एक कोने में बैठे हैं प्रति फोटो उन के पास सौ रुपए जमा कर दें. फोटो आप के पते पर भेज दी जाएगी.
समय अधिक होने के कारण मुख्य अतिथि एकएक कर के बहाना बना कर निकलने लगे थे. और फिर हम सब के नाम पुकारे जाने लगे. एक लेखक सम्मानित होने के लिए मंच पर पहुंच नहीं पाता कि दूसरे का नाम ले लिया जाता. लग रहा था कि संस्था ने जितने समय के लिए स्कूल का सभागृह किराए पर लिया था, वह पूर्ण होने वाला था या हो चुका था. एक वयोवृद्ध लेखक को यह कह कर रोक लिया गया था कि आप सम्मान करने में सहयोग करें, फिर आप का सम्मान भी होगा.
करीब 15 मिनट में ही दर्शक दीर्घा में बैठे 50 लेखकों का सम्मान निबटा दिया गया. शौल, फूलमाला स्मृतिचिह्न हाथ में थमा दिया गया और दूसरे हाथ में प्रमाणपत्र दे कर तीव्र गति से कैमरामैन फोटो खींचता व इतने में दूसरेतीसरे लेखक मंच पर खड़े हो कर अपनी प्रतीक्षा करते. फिर हम सब को बैठने को कहा गया…भागने के लिए जगह नहीं थी वरना तो कब का निकल कर भाग चुके होते.
हमें बधाई देते हुए आगे भी सहयोग बनाए रखने की अपील की गई. इस के बाद वयोवृद्ध लेखक का सम्मान किया गया. कार्यक्रम तेजी से समाप्त हो गया. बैनर, पोस्टर, कुरसियां तेजी से उठाई जाने लगीं.
मैं अंत में बाहर निकला. मुझे संस्था अध्यक्ष और सचिव की बातें सुनाई दीं. उन्हें मैं दिखाई नहीं दिया.
‘‘कितना बचा? आपस में बांटने पर सब को कितना मिलेगा.’’
‘‘2-2 हजार रुपए सब के हिस्से आएंगे. 20 हजार रुपए बचे हैं. आज रात को जबरदस्त पार्टी होगी. है न बढि़या धंधा. नाम का नाम, पैसे के पैसे. उस पर साहित्यिक संस्था चलाने से शहर के बड़ेबड़े लोगों से परिचय. उन में अपनी धाक.’’
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‘‘यार, अगली बार सम्मानित करने वालों से रजिस्ट्रेशन शुल्क ज्यादा लो.’’
‘‘जैसेजैसे सम्मान के इच्छुक बढ़ेंगे, राशि भी बढ़ा देंगे.’’
‘‘लेखक लोग देंगे बड़ी राशि? इतने में ही तो बहस करते हैं वे.’’
‘‘लेखकों की कोई कमी थोड़े ही है. ढेर मिलते हैं. सम्मान किसे नहीं चाहिए होता है?’’
‘‘और जिन्हें मंच पर बोलने का शौक है वे भी दान, चंदा देते हैं. अपने दुश्मनों के विरुद्ध बोलते हैं. अपने व्यवसाय, व्यक्तित्व का बढ़चढ़ कर ब्योरा देते हैं. उन्हें ऐसा मंच कहां मिलेगा?’’
मैं इतना ही सुन पाया. थकाहारा होटल पहुंचा. वहां से स्टेशन पहुंचा. ट्रेन में धक्के खाते घर पहुंचा. घर में, दोस्तों में, सम्मान मिलने पर तारीफ हुई. मुझे समझ नहीं आया कि मेरा सम्मान हुआ था या अपमान.
सम्मान की भूख से कलम चलाने वालों के सम्मान के नाम पर कितने सारे लोग अपनी साहित्यिक दुकानें चला रहे हैं. जहां भूख होती है वहां ढाबे अपनेआप खुल जाते हैं. सेवा की आड़ ले कर व्यापार किया जा सकता है. जब तक हम जैसे सम्मान के भूखे लेखक जिंदा हैं, व्यापारियों की साहित्य सेवा की दुकानें चलती रहेंगी. अच्छा होगा कि लेखक, खासकर नए लिखने वाले, सम्मान लेने, सम्मानपत्रों की संख्या बढ़ाने के बजाय अपने लेखन पर ध्यान दें ताकि सच्चा लेखन हो सके.
अपने अपमान के और लोगों के साहित्यिक ढाबे चलाने के जिम्मेदार हम खुद हैं. आनेजाने का खर्चा, लौज में रुकने का खर्चा, भोजन, प्रविष्टि शुल्क मिला कर 5 हजार रुपए खर्च हो गए और हाथ आया एक व्यापारी द्वारा दिया हुआ सम्मानपत्र, वह भी हमारे ही पैसों से. कई दिन मन खराब रहा और बहुत विचार के बाद मैं ने अपनी आत्मग्लानि दूर करने के लिए सम्मानपत्र उठा कर पास की नदी में फेंक दिया.
अब जब भी ऐसे लुभावने सम्मान के पत्र, एसएमएस, फोन आते हैं तो गालियां देने को मन करता है. जी तो करता है कि सामने मिल जाएं तो कूट दूं सालों को. लेकिन मैं चुप रह कर आए पत्रों को तुरंत फाड़ कर फेंकता हूं. इस के बाद भी कोई मुझे जानवर समझ कर, कसाई बन कर पकड़ लेता है तो फिर मैं आवाज बदल कर कहता हूं कि जिन को आप पूछ रहे हैं, पिछले हफ्ते ही मर चुके हैं वे. उस तरफ से बिना शोक व्यक्त किए कहा जाता है कि आप चाहें तो अपने पिता की स्मृति में सम्मान दे सकते हैं. आप स्वयं सम्मान चाहें तो भी हम दे सकते हैं. ऐसे में मैं गुस्से से मोबाइल पटक देता हूं जोर से.