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यों तो इस तरह के पत्र आते रहते थे और मैं उन्हें अनदेखा करता रहता था, लेकिन इन पत्रों पर गौर करना तब से शुरू कर दिया जब से शहर के एक लेखक ने मित्रमंडली में बताया कि उसे अब तक देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से एक हजार सम्मान मिल चुके हैं. मित्र लोग वाहवाह कर उठे. एक दिन मुझ से पूछा, ‘‘तुम्हें कोई सम्मान नहीं मिला आज तक? तुम भी तो काफी समय से लिख रहे हो.’’ उस समय मैं ने स्वयं को अपमानित सा महसूस किया.

मेरे शहर के इस लेखक मित्र के बारे में अकसर अखबार में छपता रहता था कि शहर का गौरव बढ़ाने वाले लेखक को दिल्ली की एक प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था से एक और पुरस्कार. मैं ने अपने लेखक मित्र से पूछा, ‘‘इन पुरस्कारों की क्या योग्यता होती है?’’

उस ने गर्व से कहा, ‘‘मेहनत, लगन और लेखन. इस में कोई भाईभतीजावाद नहीं चलता. जो अच्छा लेखक होता है उसे सम्मान मिलता ही है.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप की आयु तो मुझ से बहुत कम है. आप ने शायद मेरे बाद ही लिखना शुरू किया है. अब तक कितना लिख चुके हो.’’

उन्होंने नाराज हो कर कहा, ‘‘ कितना लिखा है, यह जरूरी नहीं है और आयु का लेखन से लेनादेना नहीं है. मेरी 2 किताबें छप चुकी हैं. मैं ने 20 कविताएं और 10 के आसपास कहानियां लिखी हैं. लेकिन लेखन इतना शानदार है कि साहित्यिक संस्थाएं स्वयं को रोक नहीं पातीं मुझे सम्मान देने से.’’

मैंने कहा, ‘‘मुझे भी बताइए कहां से कैसे सम्मान मिलते हैं? क्या करना पड़ता है? पुस्तकें कैसे छपती हैं?’’

उन्होंने कहा, ‘‘आप बड़े स्वार्थी हैं. साहित्य सेवा का काम है. साहित्य से यह उम्मीद मत रखिए कि आप को कुछ मिले. आप को देना ही देना होता है. 2 पुस्तकें मैं ने स्वयं के खर्च पर छपवाई हैं. और सम्मान मिलते हैं योग्यता पर.’’

खैर, दोस्त ने अपना उत्तर दे दिया. मैं ने फिर वे पत्र निकाले जिन्हें मैं अनदेखा करता रहता था. जो पत्र बचे हुए थे, उन्हें पढ़ना शुरू किया. काफी तो मैं फाड़ चुका था, बेकार समझ कर. ठीक वैसे ही जैसे अकसर मोबाइल पर एसएमएस आते रहते हैं कि आप को 10 करोड़ मिलने वाले हैं कंपनी की ओर से. आप इनकम टैक्स और अन्य खर्च के लिए हमारी बैंक की शाखा में फलां नंबर के अकाउंट में 10 हजार रुपए डिपौजिट करवा दें.

बाद में समाचारपत्रों से खबर मिलती है कि इन्हें ठग लिया गया है. इन की रकम डूब चुकी है. बैंक अकाउंट से सारे रुपए निकाल कर इनाम का लालच देने वाले गायब हो चुके हैं. खाता बंद हो चुका है. पुलिस की विवेचना जारी है. ऐसे ठगों से जनता सावधान रहे.

पहले पत्र में लिखा था कि हमारी अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था ने आप को श्रेष्ठ लेखन का पुरस्कार देने का निर्णय लिया है. यदि आप इच्छुक हों तो कृपया अपना पासपोर्ट साइज कलर फोटो, संपूर्ण परिचयपत्र, साहित्यिक उपलब्धियां और 1,500 रुपए का एमओ या नीचे दिए बैंक खाते में राशि जमा करें. एक फौर्म भी संलग्न था. प्रविष्टि भेजने की अंतिम तारीख निकल चुकी थी. दूसरा पत्र भी इसी तरह था. बस, अंतर राशि की अधिकता और पुरस्कार श्रेष्ठ कविता पर था. साथ में पुस्तक की 2 प्रतियां भेजनी थीं. इस की भी अंतिम तिथि निकल चुकी थी.

सम्मान का लोभ हर लेखक को होता है, थोड़ा सा मुझे भी हुआ. मैं ने पत्र के अंत में दिए नंबरों पर बात करने की सोची. पहले को फोन किया, कहा, ‘‘महोदय, आप की संस्था अच्छा कार्य कर रही है. अंतिम तिथि निकल चुकी है. कुछ प्रश्न भी हैं मन में.’’

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उन्होंने उधर से कहा, ‘‘आप भेज दीजिए. अंतिम तिथि की चिंता मत कीजिए. हम आप की प्रविष्टि को एडजस्ट कर लेंगे.’’

मैं ने दूसरा प्रश्न किया, ‘‘जनाब, साहित्यिक उपलब्धियों में क्या लिखूं? लिख तो पिछले 20 साल से रहा हूं लेकिन कोई उपलब्धि नहीं हुई. बस, कहानियां, लेख लिख कर अखबार में भेजता रहता हूं. फिर उसी अखबार, जिस में रचना छपी होती है, को खरीदता भी हूं क्योंकि समाचारपत्र वालों से पूछने पर यही उत्तर मिलता है, ‘हम छाप कर एहसान कर रहे हैं. आप 2 रुपए का अखबार नहीं खरीद सकते. हमारे पास और भी काम हैं.’

‘‘‘हम अखबार की प्रति नहीं भेज सकते. आप चाहें तो अपनी रचनाएं न भेजें. हमें कोई कमी नहीं है रचनाओं की. रोज 10-20 लेखकों की रचनाएं आती हैं और हां, भविष्य में रचनाएं छपवाना चाहें तो पहला नियम है कि अखबार की वार्षिक, आजीवन सदस्यता ग्रहण करें. साथ ही, समाचारपत्र में दिया साहित्य वाला कूपन भी चिपकाएं. आजकल नया नियम बना है लेखकों के लिए. आप लोगों को छाप रहे हैं तो अखबार को कुछ फायदा तो पहुंचे.’’’

उधर से साहित्यिक संस्था वाले ने अखबार वालों को कोसा. उन्हें व्यापारी बताया और खुद को लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला सच्चा उपासक. ‘‘आप उपलब्धि में जो चाहे लिख कर भेज दीजिए. जैसे, पिछले कई वर्षों से लगातार लेखन कार्य. चाहे तो अखबार में छपी रचनाओं की फोटोकौपी भेज दीजिए. ज्यादा नहीं, दोचार.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘श्रीमानजी, ये 1,500 रुपए किस बात के भेजने हैं?’’ उन्होंने समझाया. मैं ने समझने की कोशिश की. ‘‘देखिए सर, सम्मानपत्र छपवाने का खर्चा, संस्था के बैनरपोस्टर लगवाने का खर्चा और आप के लिए चायनाश्ता का इंतजाम भी करना होता है. आप को संस्था का स्मृतिचिह्न भी दिया जाएगा. शौल ओढ़ा कर माला पहनाई जाएगी. आप को जो सुंदर आमंत्रणपत्र भेजा है उस की छपवाई से ले कर डाक व्यय तक. फिर मुख्य अतिथि के रूप में बड़े अधिकारी, नेताओं को बुलाना पड़ता है. उन की खातिरदारी, सेवा में लगने वाला व्यय. बहुत खर्चा होता है साहब. जो हौल हम किराए पर लेते हैं उस का भी खर्चा.’’

ऐसे कई खर्च उन्होंने गिनाते हुए कहा, ‘‘संस्था की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, इसलिए हम सब से सहयोग लेते हैं. चंदा करते हैं. ऐसे में लेखकों का दायित्व भी है कि वे अपने ही सम्मान के लिए कुछ तो खर्च करें. आखिर नाम तो लेखकों का ही होता है. हमारी जेब से भी बहुत खर्च होता है. लेकिन साहित्य सेवा का बीड़ा उठाया है, तो कर रहे हैं साहित्य की सेवा. आप जल्दी करिए. हमें गर्व होगा आप को सम्मानित करने में. भविष्य में योजना है कि लेखकों को नकद पुरस्कार भी दिया जाए. आनेजाने का खर्च भी. अब आप से इतने सहयोग की तो अपेक्षा कर ही सकते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, बाकी तो सब भेज दूंगा लेकिन जिसे आप प्रविष्टि शुल्क या रजिस्ट्रेशन शुल्क कहते हैं वह भेज पाना संभव नहीं है.’’

उधर से कुछ नाराजगीभरी आवाज आई, ‘‘संस्था का नियम है कि बिना शुल्क के सम्मान पर विचार नहीं किया जाएगा. बाकी भले ही कुछ न भेजें लेकिन शुल्क जरूर भेजें. आजकल तो बड़ीबड़ी पत्रिकाएं छापने से पहले शर्त रखती हैं कि पत्रिका की वार्षिक, आजीवन सदस्यता लेने वालों की रचनाएं ही छापी जाएंगी. फिर, हमारी संस्था तो छोटी है.’’

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मैं ने कहा, ‘‘विचार कर के बताता हूं.’’

उन्होंने कहा, ‘‘जल्दी करिए.’’

मैं ने दूसरे पत्र को पढ़ कर उस के अंत में दिए फोन नंबर पर फोन लगाया.

मैं ने कहा, ‘‘महोदय, आप ने मुझे कविता पर सम्मान देने के लिए आमंत्रणपत्र भेजा है. लेकिन मैं तो कविताएं लिखता ही नहीं हूं.’’

‘‘अरे, तो साहब लिख डालिए. न लिख सकें तो जो लिखा है उसी पर सम्मान दे देंगे. फोटो, परिचय और 2,500 रुपए का मनीऔर्डर भेज दीजिए. जल्दी करिए.’’

ऐसा लगा जैसे किसी कंपनी का लुभावना औफर निकला हो. मैं ने प्रविष्टि/सहयोग/रजिस्ट्रेशन शुल्क के विषय में पूछा तो पहले सेवा करने वाले की तरह ही उत्तर मिला, ‘‘बिना शुल्क के कुछ नहीं. पहली और अनिवार्य शर्त है शुल्क.’’

समझ में तो सब आ रहा था लेकिन मन में सम्मान की इच्छा थी, तो सोचा, एक बार चल कर देखा जाए और मैं ने प्रविष्टि शुल्क सहित सबकुछ भेज दिया. कुछ समय बाद निमंत्रणपत्र आया कि आप को सम्मान 28 अगस्त, 2019 समय 2 बजे रामप्रसाद शासकीय विद्यालय में दिया जाएगा. हम अपने साथ 2 जोड़ी कपड़े ले कर ट्रेन में चढ़े. समयपूर्व रिजर्वेशन करवा लिया था. 500 किलोमीटर के लंबे सफर की थकान के बाद एक होटल पहुंचे. 1,000 रुपए एक दिन के हिसाब से होटल में कमरा मिला. 100 रुपए प्लेट के हिसाब से भोजन किया. फिर रिकशा कर के नियत समय पर कार्यक्रम में सम्मानित होने की लालसा लिए पहुंचे. वहां अपना परिचय दिया. संस्था के सचिव ने हाथ मिला कर बधाई देते हुए कहा, ‘‘आप बैठिए.’’

‘‘समारोह कब शुरू होगा?’’

‘‘मुख्य अतिथि के आने पर. वे ठहरे बड़े आदमी. आराम से आएंगे. तब तक बैनर, पोस्टर लग जाएंगे. आप चाहें तो थोड़ी मदद कर सकते हैं.’’

मैं ने हामी भर दी. उन्होंने मुझे मंच पर मुख्य अतिथियों की कुरसी लगाने में लगा दिया. धीरेधीरे लोग आते रहे. मैं अपना काम समाप्त कर के दर्शक दीर्घा में पड़ी कुरसी पर बैठ गया. छोटा सा हौल भर गया. हौल में 50 लोगों के बैठने की जगह थी. कैमरामैन भी आ गया.

मंच पर 8-10 लोगों को नाम ले कर बिठाया गया जिन में कोई शिक्षा विभाग का कुलपति, अखबार का प्रधान संपादक, राजनीति से जुड़े हुए स्थानीय नेता थे. एक वयोवृद्ध लेखक जिन का नाम तभी पता चला कि ये लेखक हैं, इस शहर के बहुत बड़े लेखक. एकदो ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपने दिवंगत मातापिता के नाम पर पुरस्कार रखे थे.

सारा मंच मुख्य अतिथियों से भरा हुआ था और दर्शक दीर्घा में मेरे जैसे लेखक बैठे हुए थे.

जनता हम ही थे. दर्शक हम लेखक लोग ही थे. पढ़ने वाला, सुनने वाला कोई नहीं था. सब से पहले मुख्य अतिथियों महोदय ने दीप प्रज्ज्वलित किए. इसी बीच कुछ कन्याओं ने अपने गीतों से सब को मंत्रमुग्ध कर दिया. इस के बाद संस्था अध्यक्ष, जोकि मंच संचालक भी थे, ने एक घंटे तक संस्था के कार्यों पर, सेवा पर उल्लेखनीय प्रकाश डाला.

दर्शक दीर्घा में बैठे लेखक ताली बजाते प्रतीक्षा करते रहे कि कब उन्हें सम्मान मिलेगा. लेकिन अभी तो कार्यक्रम की शुरुआत थी. इस के बाद अपनेअपने क्षेत्र के आमंत्रित 10 मुख्य अतिथियों को फूलमाला पहना कर उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया. अपनेअपने क्षेत्र के मुख्य अतिथि अपनेअपने क्षेत्र की बातें बोलते रहे. बोलते रहने का तात्पर्य यह है कि वे अपने विरोधी लेखकों, दूसरी विचारधाराओं के लोगों, अपने शत्रुओं को जीभर कर कोसते रहे. अपने मन की भड़ास निकालते रहे.

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