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पूरे 10 वर्ष बाद हरीश बाबू ने इस घर में पैर रखा. अम्मा और अपने बचपन, किशोरावस्था व जवानी की हजार स्मृतियों का दुशाला ओढ़े यह घर न तो बूढ़ा हुआ है न ही जर्जर. नियमित रखरखाव, रंगरोगन में झिलमिलाता, पूर्ण यौवन लिए मुसकराता उन के स्वागत में खड़ा हंस रहा है. जबकि वे इसी की गोद में जन्म ले कर बुढ़ापे की चपेट में आ गए हैं. तभी कोई पैरों पर पछाड़ खा आ गिरी और हाहाकार कर रो उठी.

वे बुरी तरह घबरा गए, ‘यह क्या मुसीबत?’ देखा नजर भर और पहले से भी ज्यादा घबरा गए. आतंक की एक सिहरन उन के पूरे शरीर में फैल गई, ‘यह तो मर गई है कब की, तो क्या उस की...?’

मुसीबत का नाम सत्या है जो 6 वर्ष पूर्व मृत घोषित हो चुकी है. वह कैसे शरीर धारण कर उन के पैरों के पास निर्मला को याद कर तड़पतड़प दहाड़ मार कर रो रही है और यह, जो दौड़ता आ कर खड़ेखड़े सुबक रहा है, वह भी तो हाथपैर तुड़वा, अपाहिज हो कर भी सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड के बिस्तर नंबर 5 से कहीं गायब हो गया था, उसी समय के आसपास. वे जागते हुए सुबहसवेरे, उजली धूप में खड़े हुए क्या सपना देख रहे हैं या आंखों का भ्रमजाल अथवा किसी जादूगर का रचा इंद्रजाल? पर नहीं, यह तो वास्तविकता है क्योंकि दोनों ने रोना बंद कर के उन को प्रणाम किया.

‘‘आइए, बाबूजी. चाय का पानी चढ़ा दे सत्या.’’

हरीश बाबू की आंखों के सामने 5 वर्ष पहले की वह शाम उभर आई. सत्या उन की पुरानी महरी की विधवा बेटी है. 11 वर्ष की उम्र में एक अधबूढ़े शराबी से महरी ने उस का ब्याह कर दिया था. निर्मला होती तो यह शादी नहीं होने देती पर उस समय वे दोनों छोटे साले के पास घूमने मुंबई गए थे. मुंबई से 1 महीने बाद लौटने पर सुना था कि सत्या की शादी हो गई. निर्मला द्वारा महरी को डांटतेफटकारते सुना था पर ध्यान नहीं दिया. नौकरचाकरों से लगावजुड़ाव नहीं था हरीश बाबू को. बस राजू ही थोड़ा उन के निकट आ गया है.

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